बात वैसे तो बहुत मामूली है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन भारत के दो दिवसीय दौरे पर हैं। हाल के वर्षों में एक नया ट्रेंड चला है कि दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्ष अब सीधे दिल्ली नहीं आते। इसके पहले ट्रंप भी आए थे तब वे भी सीधे गुजरात के अहमदाबाद गए थे। जॉनसन भी सीधे दिल्ली नहीं आए, पहले अहमदाबाद गए। यह खास बात है। मेरा मकसद उनकी यात्रा के दौरान उनकी हरकतों को दर्ज करना नहीं है। अब कोई आदमी हरकतें करना चाहे तो वह उसकी स्वतंत्रता है। वह चाहे तो गांधी के आश्रम में बैठकर गांधी का चरखा चलाए और उसके बाद जेसीबी पर खड़े होकर फोटो खिंचवाये। यह उसकी मर्जी है।
मैं तो जो बात दर्ज करना चाहता हूं, वह भारत का सवाल है। भारत की अपनी साख है। हालांकि मैं यह भी नहीं मानता कि दिल्ली में सुरखाब के पर लगे हैं। हरकतें करनेवाला तो दिल्ली क्या जयपुर भी जाएगा तो हरकतें करेगा ही। लेकिन भारत के लिहाज से सोच रहा हूं और यह कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री का भारत दौरान केवल एक व्यक्ति का दौरा नहीं है। वजह यह कि एक प्रधानमंत्री अपने वतन का प्रतिनिधित्व करता है। इसके लिए प्रोटोकॉल निर्धारित हैं।
तो मसला यह है कि आखिर क्या वजह रही कि जॉनसन अपनी यात्रा के पहले दिन भारत के अपने समकक्ष नरेंद्र मोदी से नहीं मिले और राष्ट्रपति भवन में उनका स्वागत नहीं हुआ? अहमदाबाद ही क्यों? वह भी जॉनसन वहां अडाणी से उनके कारपोरेट दफ्तर में जाकर मिलते हैं। क्या यह सब अनायास है।
[bs-quote quote=”जब जॉनसन को जेसीबी पर चढ़कर फोटो ही खिंचवाना था तो चरखा चलाते हुए फोटो की जरूरत क्या थी? इसका जवाब बेहद आसान है। चरखा चलाना आज के दौर में भी फैशन है। गांधी आजकल फैशन ही बन चुके हैं। न तो गांधी का महत्व शेष रह गया है और गांधीवाद तो अपने ही अंतर्द्वंद्वों का शिकार हो काल के गाल में समाता जा रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मुझे लगता है कि यह सब अनायास नहीं है। गुजरात में चुनाव होने हैं और बड़ी संख्या में गुजराती ब्रिटेन में रहते हैं। तो यह उन्हें बताने की कोशिश है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात को कितना अहम बना दिया है कि विदेशी मेहमान दिल्ली के बजाय पहले अहमदाबाद आना चाहते हैं। जॉनसन के मामले में तो यह बेहद खास है कि चरखा कातने और गांधी को याद करने के बाद वे जेसीबी पर सवार हुए। वही जेसीबी, जिसके सहारे भारत सरकार ने दिल्ली के जहांगीरपुरी में अपने ही देश के नागरिकों के आशियाने धर्म के नाम पर उजाड़ दिया। इस घटना के ठीक एक दिन बाद जॉनसन का जेसीबी पर सवार होना, कई संकेत देता है।
हालांकि यह संकेत तो नहीं ही देता है कि जॉनसन मानसिक रूप से बीमार हैं। यदि ऐसा होता तो वे जेसीबी पर चढ़कर केवल फोटो नहीं खिंचवाते, बल्कि डांस भी करते व मोडी-मोडी चिल्लाते भी। चूंकि उन्होंने ऐसा नहीं किया है तो इसका मतलब यह है कि वे मानसिक रूप से बीमार नहीं हैं। फिर यह माना जा सकता है कि अडाणी समूह के साथ उनका कनेक्शन होगा। वैसे भी अडाणी के कारनामे अस्ट्रेलिया और अफ्रीकी देशों में खासे लोकप्रिय हैं।
अब सवाल यह कि जब जॉनसन को जेसीबी पर चढ़कर फोटो ही खिंचवाना था तो चरखा चलाते हुए फोटो की जरूरत क्या थी? इसका जवाब बेहद आसान है। चरखा चलाना आज के दौर में भी फैशन है। गांधी आजकल फैशन ही बन चुके हैं। न तो गांधी का महत्व शेष रह गया है और गांधीवाद तो अपने ही अंतर्द्वंद्वों का शिकार हो काल के गाल में समाता जा रहा है।
दरअसल, यह सब गांधीवाद के कारण ही हो रहा है। गांधीवाद कोई नैतिक शिक्षा नहीं देता। यह कहना सत्य के अधिक करीब रहना होगा कि गांधीवाद जैसा कोई वाद कभी रहा ही नहीं। आप चाहें तो गांधी साहित्य पढ़कर देखें। करूणा और अहिंसा जैसे उनके विचार अपने विचार नहीं थे। इन विचारों के वास्तविक स्त्रोत तो बुद्ध रहे हैं। आप हिंद स्वराज को पढ़ें तब आपको लगेगा कि आप पढ़ क्या रहे हैं। मैं तो दो पत्रों की बात कर रहा हूं। ये दो पत्र मुझे गांधी संग्रहालय, पटना में प्राप्त हुए थे। संभव है कि वहां अब भी हों। ये दो पत्र राष्ट्रपति भवन के पैड पर लिखे गए थे। ऊपर में राष्ट्रपति भवन का सील भी था। एक पत्र के लेखक डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे और दूसरे पत्र के लेखक उनके पुरोहित सह आध्यात्मिक गुरु पंडित विष्णुकांत शास्त्री।
[bs-quote quote=”गुजरात में चुनाव होने हैं और बड़ी संख्या में गुजराती ब्रिटेन में रहते हैं। तो यह उन्हें बताने की कोशिश है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात को कितना अहम बना दिया है कि विदेशी मेहमान दिल्ली के बजाय पहले अहमदाबाद आना चाहते हैं। जॉनसन के मामले में तो यह बेहद खास है कि चरखा कातने और गांधी को याद करने के बाद वे जेसीबी पर सवार हुए। वही जेसीबी, जिसके सहारे भारत सरकार ने दिल्ली के जहांगीरपुरी में अपने ही देश के नागरिकों के आशियाने धर्म के नाम पर उजाड़ दिया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दूसरे पत्र में गांधी और घन्नू (घनश्यामदास बिड़ला) का उल्लेख था। यह पत्र एक सबूत ही था कि गांधी और घनश्यामदास बिड़ला के बीच रिश्ते कैसे थे।
फिर आज यदि नरेंद्र मोदी हैं और उनके कारपोरेट प्रतिरूप अडाणी हैं तो कुछ भी पृथक नहीं है।
अब सवाल यह है कि भारत आज कहां है और किस दिशा में है? गांधीवाद तो कुछ था नहीं और आगे भी कुछ नहीं होनेवाला। आंबेडकरवाद एक समाधान दिखता जरूर है, लेकिन उसके लिए दलित-बहुजनों की चट्टानी एकता की आवश्यकता होगी। लेकिन यह तो तभी संभव है जब पूंजीगत संसाधनों पर इन तबके के लोगों का अधिकार होगा।
आज ही जनसत्ता में देख रहा हूं कि वर्ष 2020-21 में सात इलेक्टोरल ट्रस्टों को कुल 258 करोड़ 49 लाख रुपए प्राप्त हुए। यह राशि भारत के कारपोरेट जगत ने चंदे के रूप में दिये हैं। इसमें से 82 फीसदी यानी 212 करोड़ रुपए भाजपा को प्राप्त हुए। दूसरे नंबर पर बिहार में भाजपा की साझेदार जदयू है, जिसे 27 करोड़ रुपए प्राप्त हुए। शेष 19 करोड़ 30 लाख रुपए की राशि भारत के अन्य राजनीतिक दलों, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है, को प्राप्त हुए हैं।
मैं कोई शिकायत नहीं कर रहा। बस बदलते हुए भारत को देख रहा हूं और ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉनसन की हरकतों को। याद कर रहा हूं गालिब को जिन्होंने लिखा था– इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई…
आज मैं लिखना चाहता हूं– इब्न-ए-गांधी हुआ करे कोई…
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।