अब समझिए न्यायालय, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और उनको कल सुनाई गई सजा को। सब पारदर्शी शीशे की तरह साफ है कि न्यायालय एक संगठन है और वह कोई न्याय का मंदिर नहीं। अयोध्या वाले मामले में तो यह सबने देखा है कि कैसे सुप्रीम कोर्ट के जज ने सरकार के समक्ष घुटना टेकते हुए पहले तो अजीबोगरीब फैसला सुनाया और बाद में राज्यसभा का सदस्य बना।

अब सवाल उठता है कि लालू प्रसाद क्या सियासत के कच्चे खिलाड़ी रहे जो इतना भी नहीं समझ सके कि उन्हें किस तरह फांसा जा रहा है। पंडारक मामले में ही मामला दर्ज 1991 में दर्ज हुआ था और बिहार पुलिस ने अपनी रपट 2008 में अदालत को समर्पित किया। करीब सत्रह साल के बाद। मुमकिन है कि नीतीश कुमार को संरक्षण मिला। उन्हें संरक्षण किसने दिया? क्या तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार को संरक्षण नहीं दिया?
आरएसएस का खिलौना बन रहे नरेंद्र मोदी, नीतीश और मायावती जैसे शूद्र (डायरी 21 फरवरी, 2022)

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