दक्षिण बस्तर में बीजापुर-सुकमा जिले की सीमा पर स्थित सिलगेर गांव में राजकीय दमन के खिलाफ चल रहे प्रतिरोध आंदोलन को एकसाल से ज्यादा हो चुका है। साल भर चले किसान आंदोलन को जितनी कवरेज मिली, सिलगेर के आंदोलन को उसका दहाई भी नहीं मिला। साल पूरा होते-होते जब एकाध प्रतिनिधिमंडल और तथ्यान्वेषण टीमें वहां दिल्ली से गयीं, तब जाकर मामला प्रकाश में आ सका। बीजापुर-जगरगुंडा मार्ग पर पहले से स्थापित दर्जनों सैनिक छावनियों की श्रृंखला में पिछले साल ही 12-13 मई की आधी रात तर्रेम में स्थापित एक छावनी के दो किलोमीटर बाद ही सिलगेर में चार आदिवासी किसानों की जमीन पर कब्जा करके बना दी गयी एक और छावनी के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से विरोध-प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए पुलिस और सैन्यबलों द्वारा अंधाधुंध फायरिंग की गयी थी। इसमें एक गर्भवती महिला सहित पांच लोग शहीद हो गए थे और 300 आदिवासी घायल हो गए थे।
तब से इस सैन्य छावनी को हटाने और उस इलाके में खनिज दोहन के लिए बन रही लंबी-चौड़ी सड़क को रोकने, इस फायरिंग के जिम्मेदार लोगों कोसजा देने और हताहतों को मुआवजा देने की मांग पर पूरा दक्षिण बस्तर आंदोलित है। वास्तव में यह गोलीकांड प्राकृतिक संसाधनों की कॉर्पोरेट लूट को सुनिश्चित करने के लिए राज्य प्रायोजित एक जनसंहार था। एक साल बीत जाने के बाद भी आज तक कोई एफआइआर दर्ज नहीं हुई है, घायलों और शहीदों के परिवारों को मुआवजा मिलना तो दूर की बात है। यहां के आदिवासी एक ‘अंतहीन न्याय’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं। 13 मई, 2021 को अचानक उग आयी अर्ध सैनिक बलों की इस छावनी ने पेसा और वनाधिकार कानून व मानवाधिकारों को कुचलने के सरकारी पराक्रम पर तीखे सवाल खड़े किए हैं।
इस जनसंहार के बाद कांग्रेस पार्टी ने एक प्रतिनिधिमंडल सिलगेर भेजा, लेकिन उसकी रिपोर्ट आज तक सामने नहीं आई।भाजपा के जनप्रतिनिधियों ने भी वहां का दौरा किया और चुप्पी साधली। जन आक्रोश के दबाव में सरकार को दंडाधिकारी जांच की भी घोषणा करनी पड़ी, लेकिन एक साल बाद भी उसकी जांच का कोई अता-पता नहींहै।सिलगेर आंदोलन का संचालन कर रहे नौजवान आदिवासियों ने दो बार मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से बात की है, लेकिन थोथा आश्वासन ही मिला है, ठोस कार्यवाही कुछ नहीं हुई है।
ढिंकिया संकल्प दो बातों पर जोर देता है- पहला, आंदोलनों को किस सीमा तक ले जाना है और दूसरा, केवल संसदीय रास्ते से किसी भी इंसाफ की उम्मीद नहीं की जा सकती। संकल्प साफ़ कहता है कि ‘हमें अपने संघर्षों को सफल मुकाम तक ले जाने के लिए ऐसे तरीके अपनाने होंगे जो हो सकता है कि प्रशासन की नजरों में गैर-कानूनी तथा गैर-संसदीय हो किंतु हमारे आंदोलनों के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं।’
इस आंदोलन स्थल से सीधी रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकार पूर्णचन्द्र रथ ने अपने डिस्पैच में लिखा है कि इसमें भागीदारी कर रहे ग्रामीणों की संख्या 17 मई, 2022 को 20 हजार से ज्यादा नज़र आर ही थी और उनमें 90% 12 से 35 वर्ष के युवा थे, जिनमें युवतियों की संख्या सर्वाधिक थी। कुछ लोगों से ही हिंदी में संवाद हो पाता था, जिनके अनुसार वे 40 से 50 किमी दूर गांवों से आए थे और बारी-बारी से आंदोलन में अपनी क्षमता अनुसार समय और धन का योगदान करते हैं। इस एकजुटता और संघर्ष का परिणाम यह हुआ है कि पिछले एक साल से बीजापुर को जगरगुंडा से जोड़ने वाली सड़क निर्माण का काम रुका पड़ा है। सिलगेर में जो छावनी बनायी गयी है, उससे आगे काम बढ़ नहीं पाया है। आदिवासियों के मन में यह बात साफ है कि जब तक आंदोलन जिंदा है, तबतक कॉर्पोरेट लूट का रास्ता इतना आसान नहीं है। इस मामले में साल भर चले किसान आंदोलन की व्यावहारिक समझदारी कठघरे में खड़ी दिखती है।
ओडिशा और छत्तीसगढ़ के अलावा झारखंड एक प्रमुख राज्य है जहां विकास के नाम पर जमीन अधिग्रहण का तगड़ा विरोध जारी है। यहां भी मामला अडानी से ही जुड़ा है। यहां के गोड्डा जिले में 2016 में झारखंड सरकार ने बहुत जोरशोर के साथ एक पावर प्लांट स्थापित करने के लिए अडानी समूह के साथ समझौता किया था। झारखंड जनाधिकार महासभा, जोकि 30 से अधिकसंगठनों का एक मंच है, उसके एक दल ने 2018 के अक्टूबर में इस परियोजना का तथ्यान्वेषण किया।जांच में पता चला कि बीते दो साल में परियोजना की कई नकारात्मक उपलब्धियां रही हैं, जैसे – जबरन भूमि अधिग्रहण, भूमिअधिग्रहण कानून 2013 की प्रक्रियाओं का व्यापक उल्लंघन, किसानों की फसलों को बर्बाद करना, संभावित लाभों के बारे में लोगों से झूठ बोलना, प्रभावित परिवारों पर पुलिस बर्बरता, मुकदमे करना तथा अन्य हथकंडों से डराना।
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कंपनी की सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट के अनुसार थर्मल पावर प्लांट के लिए ली जाने वाली जमीन गोड्डा जिले के दो प्रखंडों के 10 गांवों में फैली हुई है। कुल 1364 एकड़ भूमि को अधिग्रहित किया जाना है। इस प्लांट से 1600 मेगावॉट बिजली का उत्पादन होगा। झारखंड सरकार और कंपनी का दावा है कि यह एक लोक परियोजना है, इससे रोजगार का सृजन और आर्थिक विकास होगा तथा इस परियोजना में विस्थापन की संख्या ‘शून्य’ है। इससे होने वाले कुल बिजली उत्पादन का 25 प्रतिशत झारखंड को दिया जाएगा। ज़मीनी वास्तविकता इन दावों के विपरीत है। भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के अनुसार निजी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण करने के लिए कम से कम 80 प्रतिशत प्रभावित परिवारों की सहमति एवं ग्रामसभा की अनुमति की आवश्यकता है, लेकिन क्षेत्र के अधिकांश आदिवासी और कई गैर-आदिवासी परिवार शुरुआत से ही परियोजना का विरोध कर रहे हैं। 2016 और 2017 में सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन (SIA) और पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (EIA) के लिए जनसुनवाई आयोजित की गयी थी।कई ज़मीन मालिक जो इस परियोजना के विरोध में थे उन्हें अडानी केअधिकारियों और स्थानीय प्रशासन ने जनसुनवाई में भाग लेने नहीं दिया। प्रभावित ग्रामीण दावा करते हैं कि गैर-प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को सुनवाई में बैठाया गया था।ऐसी ही एक बैठक के बाद जिसमें प्रभावित परिवारों को अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया गया था, ग्रामीणों और पुलिस के बीच झड़प हुई थी और पुलिस द्वारा महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार ने उन पर लाठीचार्ज किया था।
लगातार छह साल से चल रहे इस भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन ने 17 जून, 2022 को जिले के सुंदर पहाड़ी ब्लॉक के आमजोड़ा गांव में एक सम्मेलन किया जिसमें आदिवासी अस्तित्व और पर्यावरण सुरक्षा का ऐलान किया गया। दिन भर चले इस सम्मेलन में अडानी गोड्डा पावरप्लांट, बोआरी जोरट्रांसमिशन लाइन, साहेबगंज रिजर्वायर आदि परियोजनाओं से प्रभावित करीब 500 लोग शामिल हुए और इन्होंने पांच मांगें राज्य सरकार के सामने रखीं:
- भारतीय संविधान में उल्लिखित आदिवासी/ मूलवासी अधिकार को अक्षरशः लागू करें।
- संताल परगना टेनेंसी एक्ट 1949, पांचवीं अनुसूची के प्रावधान एवं पेसा कानून 1996 के अनुसार राज्य सरकार शीघ्र नियमावली तैयार कर ग्राम सभा को शक्ति देकर स्वशासन स्थापित करे।
- जंगलों को (बचाने) संरक्षण एवं संवर्धन का अधिकार ग्रामसभा को प्रदान किया जाए क्योंकि आदिवासियों ने सदियों से जंगलों (पर्यावरण) को बचाया है।
- खतियान आधारित स्थानीय नीति, नियोजन नीति एवं उद्योगनी ति को परिभाषित किया जाए।
- पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था को संभालने का मौका प्रदान किया जाए।
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चौथी मांग को छोड़ दें तो हम पाते हैं कि बाकी मांगें वही हैं जो ओडिशा और छत्तीसगढ़ में आंदोलनों द्वारा उठायी जा रही हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि ओडिशा, झारखंड और छत्तीसगढ़ तीनों ही आदिवासी बहुल राज्य हैं और उपर्युक्त सभी मामले आदिवासियों की जमीनों से ताल्लुक रखते हैं।
इन बड़े आंदोलनों के अलावा हम भारतमाला परियोजना के अंतर्गत राजस्थान से लेकर ओडिशा और तमिलनाडु तक जमीन अधिग्रहण के खिलाफ उभर चुके आंदोलनों को देख रहे हैं। पंजाब में इस परियोजना के विरोध के चलते 23 जून, 2022 को सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने एक नोटिफिकेशन जारी करते हुए भूमि अधिग्रहण संबंधी मुआवजे के निपटान के लिए एक प्रखंड आयुक्त की नियुक्ति की है। इसी दिन भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) के नेता जोगिंदर सिंह उग्राहां ने लुधियाना एक विशाल-प्रदर्शन का आयोजन किया था। उधर, मुंबई-दिल्ली एक्सप्रेसवे परियोजना में अधिग्रहित जमीनों का पर्याप्त मुआवजा न मिलने के खिलाफ राजस्थान के किसानों ने जून के पहले हफ्ते में चिपको आंदोलन शुरू कर दिया। भारतमाला के अंतर्गत पश्चिमी तट को जोड़ने के लिए ओडिशा में 450 किलोमीटर की पट्टी में जहां जमीनें ली जानी है, वहां अलग-अलग जगहों पर लोगों के संघर्ष जारी हैं।
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अकेले जून, 2022 में कायम्बटूर से लेकर पंजाब और महाराष्ट्र से लेकर कोकराझार, असम तक जमीन अधिग्रहण के खिलाफ दर्जन भर प्रदर्शन हुए हैं। महाराष्ट्र के चंद्रपुर में बिड़ला की चूना खदानों के खिलाफ 8 जून, 2022 को भारतीय जनता पार्टी के अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ के सदस्यों ने अर्धनग्न होकर विरोध-प्रदर्शन किया। असम के कोकराझार के भतारमारी में जिला प्रशासन द्वारा एक सर्किट हाउस बनाने के लिए जबरन आदिवासी भूमि लिए जाने के खिलाफ ग्रामीणों ने 25 जून को बोडोलैंड जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले विरोध-प्रदर्शन का आयोजन किया। इसी दौरान तिनसुकिया में चाय बागान की जमीन ऑयल इंडिया लिमिटेड द्वारा लिए जाने के खिलाफ प्रदर्शन हुआ। असम चाय मजदूर संघ के आह्वान पर सैकड़ों चाय मजदूरों ने इस प्रदर्शन में हिस्सा लिया। पंजाब में उसी दौरान बठिंडा-डबवाली मार्ग के चौड़ीकरण के लिए जमीन लिए जाने के खिलाफ हुआ प्रदर्शन उग्र हो गया। दक्षिण में कोयम्बटूर के किसान संघ ने जून मध्य में तमिलनाडु औद्योगिक विकास नियम के लिए चिन्नियम्पलयम में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ एक मोर्चा खोलने का फैसला लिया है। यह मामला कुल 130 एकड़ जमीन का है। इससे पहले एयरपोर्ट के लिए यहीं 600 एकड़ जमीन ली जा चुकी थी। इसी तरह मंगलोर के उलेपडि, कोल्लूर और बुलकुंजे में औद्योगिक विकास निगम के लिए 1091 एकड़ जमीन लिए जाने की योजना के खिलाफ सैकड़ों ग्रामीण 24 जून को सड़कों पर उतर आए। इन विरोध-प्रदर्शनों के अलावा जमीन अधिग्रहण के खिलाफ ताज़ा संघर्षों में हम पटियाला, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, ओडिशा के सुंदरगढ़, तेलंगाना, होशियारपुर, आदि को गिन सकते हैं।
जिन दो घटनाओं पर कोई चर्चा देश में नहीं है, उनमें एक तेलंगाना में गौरावल्ली रिजर्वायर परियोजना का विरोध कर रहे ग्रामीणों के घरों पर 13 जून की आधी रात हुई छापेमारी है जिसमें पुलिस की बर्बरता का उन्हें शिकार होना पड़ा। यहां के सिद्दीपेट जिला स्थित गुडाटिपल्ली गांव में 300 की संख्याबल वाले पुलिस दल ने मुआवजे से असंतुष्ट ग्रामीणों को आधी रात उनके घरों से घसीटकर बाहर निकाला, उन्हें पीटा और कुछ को गिरफ्तार कर लिया। ग्रामीणों का आरोप है कि उन्हें 2013 के भूमि अधिग्रहण पुनर्वास कानून के मुताबिक मुआवजा नहीं मिला है। ऐसी दूसरी घटना मार्च में छत्तीसगढ़ की है जहां नया रायपुर के लिए जमीन अधिग्रहण का उचित मुआवजा न मिलने के खिलाफ बीते दो महीने से कुछ किसान धरना देकर बैठे हुए थे। मार्च के दूसरे हफ्ते में हुए विरोध-प्रदर्शन में एक 65 वर्षीय किसान की इसमें मौत हो गयी थी।
बढ़ता विरोध, बढ़ती नाकामी
भूमि अधिग्रहण के खिलाफ देश भर में चल रहे तमाम छिटपुट से लेकर बड़े संघर्षों की खबरें भले मीडिया में न आती हों, लेकिन एक बात तो तय है कि आठ साल पहले ढिंकिया में सभी जनसंघर्षों को जमीन के मुद्दे पर केंद्रित करने का जो नीतिगत फैसला लिया गया था वह बिलकुल सही था। सवाल हालांकि इतना ही नहीं था, बल्कि इससे आगे का था। ढिंकिया सम्मेलन में इस बात का अहसास शिद्दत से किया गया कि अब विरोध और प्रतिरोध के परंपरागत तरीके काम नहीं आ रहे। दरअसल, जल, जंगल और जमीन यानी अचल संसाधनों की लूट के खिलाफ पनपने वाले आंदोलनों की एक बड़ी मजबूरी यह होती है कि ये संसदीय लोकतंत्र के दायरे में ही काम करना चाहते हैं, उससे बाहर नहीं जाना चाहते।संकट यह है कि लोकतांत्रिक संस्थानों पर कॉरपोरेट का कब्ज़ा इन्हें ऐसा करने की सहूलियत नहीं देता।छोटे से लेकर बड़े स्तर तक लगातार बड़ी पूंजी के हित में संवैधानिक मूल्यों की तिलांजलि सरकार देती रहती है, जबकि ये आंदोलन उसी संविधान और उसमें वर्णित अधिकारों की दुहाई देते-देते थक जाते हैं। कुल मिलाकर होता ये है कि ऐसे आंदोलन जन संघर्षों को आगे बढ़ाने में लोकतंत्र की अहमियत को तो समझते हैं, लेकिन अपने लोकतांत्रिक आचार को किसी नतीजे पर पहुंचता नहीं देख पाते।खासकर नर्मदा बचाओ आंदोलन के संदर्भ में तो इस किस्म की हताशा चरम पर पहुंच गई थी।नर्मदा घाटी के कुछ गांवों में हर साल होने वाला जल सत्याग्रह का तमाशा (सत्याग्रहियों से माफी के साथ) इतनी जल्दी टीवी प्रसारण के भी लायक भी नहीं रह जाएगा, किसी ने सोचा तक नहीं था।यह एक गतिरोध की स्थिति है जहां मामला कुल मिलाकर सही सवाल पूछने का बनता है ताकि जड़ता टूटे।
लंबे विचार-विमर्श के बाद नवंबर 2014 में यह सही सवाल डेढ़ सौ से ज्यादा संगठनों ने मिलकर ओडिशा के जगतसिंहपुर स्थित ढिंकिया गांव में 29-30 नवंबर, 2014 को जल, जंगल, ज़मीन और जीविका के हक़ के लिए लोकतंत्र की रक्षा में जनसंघर्षों का राष्ट्रीय सम्मेलन में एक-दूसरे से पूछा। दो दिनों तक बहुत तीखी बहस चली।समुंदर के किनारे बसे एक मामूली से गांव में हुआ यह प्रयोग अपने आप में अद्भुत था। ऐसा ही एक प्रयोग कुछ प्रत्यक्षत: ज्यादा राजनीतिक और जनवादी संगठनों ने कई साल पहले दिल्ली में किया था जब पीडीएफआइ (पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ इंडिया) के मंच पर वाम अतिवादियों से लेकर सर्वोदयी और गांधीवादी-समाजवादी तक एक साथ आए थे। आज यह प्रक्रिया जाने कहां गुम हो चुकी है।
खुशकिस्मती कहें या वक्त की ज़रूरत, ढिनकिया में शुरू हुई प्रक्रिया रुकी नहीं। 28 जून, 2022 को रायपुर में हुआ जनसंघर्षों का सम्मेलन उसी का ताज़ा पड़ाव रहा। याद दिलाना जरूरी है कि ढिंकिया में एक संकल्प पारित किया गया था।ढिंकिया संकल्प-पत्र कहता है:
इन संघर्षों को हमको आगे बढ़ाते हुए अपनी रणनीतियों और रणकौशलों दोनों का ही ध्यान रखना होगा और बदलते वक्त के साथ-साथ हमें अपने रण कौशलों में भी परिवर्तन करते रहना होगा। जिस तरह से सरकारें और पूंजीपति अपनी सुविधा के लिए कानूनों को तोड़-मरोड़ रहे हैं ऐसे में हमें इस बात पर एकराय बनानी होगी कि हम अपने आंदोलनों को किस सीमा तक लेकर जाएंगे।ऐसे समय में जब हम पर होने वाले हमले कानूनों के दायरे से बाहर जा रहे हैं या फिर कानूनों में उनके अनुसार परिवर्तन लाए जा रहे हैं, ऐसे में हम केवल संसदीय रास्ते से किसी भी इंसाफ की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।हमें अपने संघर्षों को सफल मुकामतक ले जाने के लिए ऐसे तरीके अपना ने होंगे जो हो सकता है कि प्रशासन की नजरों में गैर-कानूनी तथा गैर-संसदीय हो किंतु हमारे आंदोलनों के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन इस बात को याद रखते हुए कि हमें हिंसक तरीका नहीं अपनाना है। हमें अपने संवैधानिक अधिकारों की बहाली के लिए जनवादी तरीके से संघर्ष करना है।
इसी प्रक्रिया को मार्च 2015 में आगे बढ़ाते हुए ढिंकिया सम्मेलन के फॉलो-अप के बतौर दिल्ली में दो दिनों का एक विचार सत्र रखा गया जिसका विषय था- संसदीय लोकतंत्र की बंदिशें, संभावनाएं और विकल्प।इसके बाद दिल्ली के कांस्टिट्यूशन क्लब में इन जनसंगठनों और राजनीतिक दलों समेत किसान यूनियनों का एक साझा मंच बना जिसे नाम दिया गया भूमि अधिकारआंदोलन। इस प्रक्रिया को रणनीतिक रूप से भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर केंद्रित करने की एक बड़ी वजह यह थी कि भूमि अधिग्रहण एक ऐसा मसला है जिसमें खेती के कॉरपोरेटी करण से लेकर विस्थापन, पलायन, वन एवं पर्यावरणीय कानून, वनाधिकार कानून, श्रम कानून, खनन, वन्य जीवसुरक्षा, जनसुनवाई, जंगल का पट्टा, जल स्रोत आदि सारे आयाम एक साथ शामिल हैं।अगर किसी किसान की ज़मीन जा रही है तो उस ज़मीन पर काम करने वाले मजदूर की आजीविका भी जा रही है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश इस लिहाज से एक यूनिफाइंग फैक्टर के तौर पर काम कर रहा था।इसकी सही पहचान और सही मौके पर इसे रणनीतिक रूप से संघर्षों में उतारने का काम जिन्होंने भी किया, वे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की वापसी के रूप में इसका असर देख चुके हैं। इसके बाद हालांकि सात साल बीत गए, लेकिन आंदोलन दर आंदोलन के बावजूद नाकामियां ही हाथ लगी हैं। उन इलाकों में भी, जो अतीत में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ कामयाब आंदोलन चला चुके हैं। इसे कैसे समझा जाय?
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ढिंकिया संकल्प दो बातों पर जोर देता है- पहला, आंदोलनों को किस सीमा तक ले जाना है और दूसरा, केवल संसदीय रास्ते से किसी भी इंसाफ की उम्मीद नहीं की जा सकती। संकल्प साफ़ कहता है कि ‘हमें अपने संघर्षों को सफल मुकाम तक ले जाने के लिए ऐसे तरीके अपनाने होंगे जो हो सकता है कि प्रशासन की नजरों में गैर-कानूनी तथा गैर-संसदीय हो किंतु हमारे आंदोलनों के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं।’ इस संदर्भ में पहला आयाम हमें कृषि कानूनों के विरोध में चले किसान आंदोलन में चरितार्थ होता दिखता है। यह पहला राष्ट्रीय किसान आंदोलन रहा जो साल भर चला। आंदोलन की ‘सीमा’ का सवाल तो यहां हल होता दिखा। बिलकुल इसी तर्ज पर सिलगेर में एक साल से ज्यादा समय से आदिवासी धरने पर बैठे हुए हैं। यहां आंदोलनों की सामान्य सीमाएं टूट रही हैं।
दूसरा आयाम अब भी फंसा हुआ है। यह सवाल रणकौशल का है। संसदीय रास्ते से अगर इंसाफ नहीं मिलेगा तो क्या-क्या किया जा सकता है, इस पर आंदोलनों के बीच अब तक कोई सहमति नहीं बनी है। न ही बीते आठ वर्षों में ऐसे कोई रेखांकित किए जाने लायक प्रयोग हुए हैं। पैटर्न के तौर पर केवल दो ही बदले हुए रूप देखने में आए हैं- लंबी पदयात्राएं और लंबी अवधि वाले धरने। ये दोनों ही तरीके संसदीयलोकतंत्र को कभी नागवार नहीं गुजरेंगे, इतना तो तय है।
क्रमशः