चंदौली। ‘कटान में हमार सोरह बिस्सा जमीन चल गइल… एन बहुत रोवलन… परधानजी के साथे आउर लोगन, घरे क लोगन समझउलन तब जाके एन चुप भइलन। ओ समय परधानजी, लोगन से जुटा के पचास रुपया देहलन फिर चल गइलन। आज तक हमार उ जमीन नदिए में हौ। हमार लड़कन-बच्चन ना रहलन लेकिन एनकरे ऊप्पर घरे का जिम्मेदारी रहल, इ बदे इ दूसरे के खेते में जाके काम करके खर्चा चलउलन।
(कटान में हमारी 16 बिस्वा जमीन चली गई… मेरे पति बहुत रोए…। प्रधान और घर-परिवार के लोगों ने समझाया, तब जाकर मेरे पति चुप हुए। उस समय प्रधान ने लोगों से जुटाकर पचास रुपये दिए फिर चले गए। आज तक मेरी वह जमीन नदी में ही है। उस समय मेरे बच्चे नहीं थे लेकिन घर की जिम्मेदारी पति पर थी, इसलिए उन्होंने दूसरों के खेत में काम कर परिवार का गुज़र-बसर किया।)
ये अल्फाज़ चंदौली जिले की सकलडीहा तहसील से जुड़े बड़गाँवा क्षेत्र की जड़ावती के हैं, जिनकी साढ़े तीन बीघा ज़मीन पैंतीस बरस पहले गंगा कटान में चली गई थी। वहीं, पाँच वर्ष पहले उनके पति की भी बीमारी से मौत हो चुकी है। अब बच्चे अपनी जमीन पर खेती-बारी करते हैं, जिसे बाद में उनके पिता ने काफी मेहनत से धन इकठ्ठा कर खरीदी थी। अपनी ‘कमाऊ जमीन’ खोने के बाद जड़ावती ने काफी दुख झेला और उसे झेलते-झेलते वह व्यवहार में थोड़ी सख्त और चिड़चिड़ी हो गई हैं। (ऐसा पास बैठी रन्नू ने बताया) जड़ावती के जेहन में आज भी सवाल है कि धरती पर लोगों को जीवन देने वाली गंगा उनकी ज़िंदगी में परेशानियों का सैलाब बनकर क्यों आईं? गंगा कटान का दर्द झेल रहे सैकड़ों लोगों के मन में भी ऐसे तमाम सवाल उमड़ रहे हैं। जोतने-बोने वाली ज़मीनों को खोकर यहाँ सैकड़ों किसान अब मजदूरी पर निर्भर हो गए हैं।
ऐसे में धान का कटोरा कहे जाने वाले जनपद चंदौली के किसान इन दिनों काफी निराश हैं। एक तरफ, बारिश कम होने के कारण इस बार उन्हें धान की फसल के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल पाया, तो दूसरी तरफ, उनकी वे ज़मीनें भी खत्म हो गईं जिन पर खेती-बारी करके वे अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहे थे। चंदौली में बलुआ से लेकर सैदपुर-धानापुर के लगभग 73 गाँव गंगा कटान से प्रभावित हैं। सैकड़ों किसान परिवार भूमिहीन हो चुके हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की रक्तवाहिनी कही जाने वाली गंगा अब तक न जाने कितने गांवों को उजाड़ चुकी है। हजारों एकड़ भूमि पानी में समाहित हो चुकी है। आशियाने व आजीविका के बर्बाद होने का दर्द पीड़ित किसानों और स्थानीय लोगों के मन में बरसों से कौंध रहा है। हालांकि, इन गाँवों के कुछ लोगों ने स्पष्ट तौर पर यह भी आरोप लगाया कि नदियों से होने वाला कटान अधिकारियों और ठेकेदारों के लिए पैसा कमाने का उद्योग बना हुआ है।
[bs-quote quote=”ज़मीन कटान गरीब-किसानों के लिए बहुत बड़ी समस्या है। गंगा, घाघरा, गोमती, चम्बल, सोन अपने वेग से एक बड़ा दायरा तय करती हैं। कटान के कारण उनके तट भी हर साल बदलते-रहते हैं। हर साल हो रहे कटान के कारण नदियों के तट पाँच-सात किलोमीटर आगे-पीछे हो चुके हैं। ऐसे में नदी के तट पर रहने वाले पिछड़ी जाति के लोगों और किसानों को ज़्यादा दिक्कतें होती हैं। पानी वापस जाने के बाद कहीं-कहीं इकट्ठा मलबों तक की सफाई नहीं होती है। विद्याभूषण रावत बताते हैं कि कटान के बाद गाँव के मैप यानी नक्शे भी बदल जाते हैं। चूंकि गरीब किसानों को उनकी गई ज़मीनों का कोई मुआवजा तो मिलता नहीं, ऐसे में प्रशासन और सरकार उन ज़मीनों को अधिग्रहित कर लेते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
केंद्रीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह चंदौली जिले के भभौरा (चकिया) गाँव के निवासी हैं, केंद्र सरकार में भारी उद्योग मंत्री महेंद्र नाथ पांडेय भी इसी जिले से जीतकर संसद में पहुंचे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री अनिल राजभर सकलडीहा के रहने वाले हैं। सभी नेता भाजपा से जुड़े हैं। आए दिन भाजपा के शीर्षस्थ से लेकर छोटे नेता तक किसानों को लेकर बड़े-बड़े बयान देकर मीडिया में खबरों का हिस्सा बने रहते हैं। बावजूद इसके किसानों की समस्याओं का समाधान न होना, कई बड़े सवाल पैदा करता है।
इन्हीं सवालों के बीच चंदौली जिले में समाजवादी पार्टी के नेता और सैयदराजा के पूर्व विधायक मनोज सिंह ‘डब्लू’ गंगा कटान की गम्भीर समस्याओं को लेकर ज़मीनी स्तर पर एक यात्रा भी निकाल रहे हैं, जिसका नाम है- गंगा कटान मुक्ति जनसम्पर्क यात्रा। हालांकि, इस यात्रा के सामाजिक और राजनैतिक दोनों पहलू हैं, लेकिन फिलहाल, 73 गाँवों से जुड़े लोगों (ज़मीन कटान से पीड़ित) में इस अभियान से एक आस जगी है। अपनी ज़मीन गंवा देने का दर्द और उसका मुआवजा न मिल पाने के कारण नाउम्मीदी की ज़िंदगी काट रहे लोग इस यात्रा के सहभागी भी बन रहे हैं।
बड़गाँवा के कलामुद्दीन इसी नाउम्मीदी पर हमसे बात करते हैं। वह बताते हैं कि उनकी लगभग पाँच बीघा ज़मीन गंगा कटान में चली गई। एक समय में उनके अब्बू इसी ज़मीन पर खेती-बारी कर परिवार का भरण-पोषण करते थे। महंगाई कम होने के कारण इस जमीन पर उगे अनाज को साल भर खाते थे। बाकी अनाज को बेचकर अच्छी आमदनी भी हो जाती थी। कलामुद्दीन बताते हैं कि जब हमारी ज़मीन गंगा के पानी से कट रही थी, तब अब्बू ने काफी प्रयास किया कि प्रशासन की तरफ से कोई उपाय निकल आए जिससे नुकसान न हो, लेकिन कोई कार्रवाई न होने से वह काफी निराश हुए। अब हमारी लगभग एक-डेढ़ बीघा ज़मीन रह गई है। इसी पर खेती-बारी करके मैं अपना परिवार पाल रहा हूँ। कटान के इस भयावह मंज़र को देखते हुए कलामुद्दीन अपने अब्बू को काफी याद करते हैं।
किसान संतोष यादव की गंगा कटान में लगभग 15 बिस्वा ज़मीन चली गई है। पानी जाने के बाद उस ज़मीन पर सिर्फ बालू-ही-बालू दिखता है। वह बताते हैं कि इस ज़मीन की जानकारी सकलडीहा तहसील में दी गई थी लेकिन कोई भी मुआयना करने तक नहीं आया। प्रशासन की तरफ से त्वरित कार्रवाई करते हुए उस समय मेड़बंदी हो गई होती तो कुछ ज़मीन बच सकती थी। हाँ, ब्लाक और थाना से कुछ अफसर जरूर आए थे, लेकिन वह सिर्फ देख-ताक कर चले गए। हम अपनी आँखों के सामने अपनी ज़मीन गंगा में समाहित होते देखते रहे। संतोष बताते हैं कि इस समय मेरे पास डेढ़-दो बीघा ज़मीन है, उसी पर खेती-किसानी कर रहे हैं। अब कोई अफसर मुआयना करने आता है कि नहीं? सवाल पर वह बताते हैं कि इधर तो अब कोई आ ही नहीं रहा है।
‘सकलडीहा विधायक प्रभुनाराय सिंह यादव से आपने शिकायत की थी?’
‘हाँ की थी। उन्होंने कहा- हमारी सरकार आएगी तभी हम कुछ कर पाएँगे। विधायकजी कहते हैं कि इतना बड़ा बजट सरकार की तरफ से हम लोगों को नहीं मिलता।’
संतोष के अनुसार, बड़गाँवा में करीब 70-80 लोगों की ज़मीन का कटान हुआ है।
शिवपुरा गाँव की राधिका बताती हैं कि गंगा कटान में काफी वर्षों से हम लोगों की ज़मीनें थोड़ी-थोड़ी करके कट रही हैं। शिकायत के बावजूद आज तक समाधान नहीं हुआ। मेरी लगभग एक बीघा ज़मीन चली गई। मनोज सिंह ‘डब्लू’ की यात्रा से कुछ लाभ होगा या नहीं? इस सवाल पर वह कहती हैं- देखा का होई, का बोलल जाए…।
गंगा कटान में मेड़बंदी की बात की जाए तो नई विधि यानी जीरो बैग तकनीकी का प्रयोग हो रहा है। इसके तहत प्लास्टिक की बोरियों में बालू-पत्थर आदि भरकर कटान स्थलों पर रखा जा रहा है। विभागीय सूत्र बताते हैं कि उक्त कार्यों के लिए हर साल करोड़ों रुपये का बजट आता है, जिसे विभागीय अधिकारी और ठेकेदार मिलकर सफाचट कर जाते हैं। फ्लड फाइटिंग के नाम पर कागजों में लाखों रुपये के बांस और पेड़ की टहनियों की खरीदारी व उन्हें पानी में डाले जाने की कार्यवाही दर्ज होती है। बावजूद इसके दर्जनों गाँव और उपजाऊ भूमि की ‘जल समाधि’ हो रही है।
इन परेशानियों के बाबत मारुफपुर के सामाजिक कार्यकर्ता और रौशन फाउंडेशन के अध्यक्ष राकेश रौशन बताते हैं कि चंदौली के आखिरी गाँव कटेसर से महुजी तक लगभग तीन दर्जन गाँव हैं जिनमें पड़ाव, कुंडा, सुल्तानपुर, कैली, भूपौली, कुराना, डेरवा, बलुआ, सराय, महुअर, हरधनजुड़ा, विजयी के पुरा, गणेशपुरा, चकरा, कांदाकलां, सरौली, महमदपुर, तिरगाँवा, भूसौला, बहादुर, शेरपुर सरैयां, बड़गाँवा, मुकुंदपुर, निदौरा, गोजवा, सहेपुर, दीहा, प्रसहता, नरौली, गुदपुर, अमातपुर, महुजी आदि शामिल हैं। इन गाँवों में गंगा कटान वर्षों से हो रहा है। चूंकि इन गाँवों में आबादी के पहले गंगा नदी का बहाव था। जब-जब गंगा का दायरा कम हुआ लोग उस ज़मीन पर काबिज होते गए। राकेश रोशन अंदाजन बताते हैं कि अगर एक लट्ठा यानी लगभग दस फीट ज़मीन हर वर्ष कट रही है तो सैकड़ों वर्षों में कई बिघा ज़मीनें गंगा की गोद में चली गई होंगी। इन ज़मीनों का सीमांकन और रकबा राजस्व विभाग के पास होता है, लेकिन इन ज़मीनों का मुआवजा नहीं दिया जाता। उन्होंने बताया कि बीते 2018 की 27 जुलाई को चंदौली में गंगा कटान की समस्या को लेकर मैंने भी रौशन फाउंडेशन की तरफ से तत्कालीन राज्यपाल राम नाईक को एक पत्रक सौंपा था। पत्रक पर ध्यानाकार्षित करते हुए उन्होंने मेरे सामने, मंत्री रहे केशव प्रसाद मौर्य को निर्देशित किया था, लेकिन आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई।
चंदौली के पत्रकार राजीव मौर्या बताते हैं कि जिले के किसान कटान के साथ पर्यावरण के बदलाव और विभागीय लोगों व दबंगों की मिलीभगत से काफी परेशान हैं। जिले का पश्चिमी क्षेत्र यानी बबुरी (चंदौली और मिर्ज़ापुर का बॉर्डर) की तरफ गंगा का बहाव नहीं है। यहाँ के किसान कर्मनाशा नदी के साथ चंद्रप्रभा, मूसाखाड़, लतीफ शाह के पानी से खेती करते हैं। यहाँ मई-जून के आसपास बंधों में मछली मारने का ठेका विभागीय स्तर पर दिया गया है। सिंचाई विभाग उसका टेंडर करता है। ठेके में पानी बहाने का मानक होता है और मछली पकड़ने का भी। इसमें ठेकेदार विभागीय लोगों से मिलकर बांधों के पानी को बहवा दिया जिससे उनका धंधा ‘चमका’ रहे। इस दौरान यह मानक तय नहीं हुआ कि किसानों के लिए कितना पानी रिजर्व रखा जाए। चूंकि इस बार औसत से भी कम बारिश हुई। इसलिए इसका खामियाजा यह है कि खरीफ की फसलों की बोआई के समय नहरों और बांधों में पानी अच्छी तरह नहीं था। राजीव बताते हैं कि उस समय सिंचाई विभाग ने अन्य बांधों से किसानों को पानी देने की योजना बनाई और मात्र दस दिन ही नहरों में पानी गिराया गया, धान की सिंचाई के लिए। जुलाई में 10 तारीख के बाद धान की रोपाई शुरू हो जाती है, लेकिन किसानों को पानी दिया गया तकरीबन 15 अगस्त के बाद। यानी एक माह तक पानी की व्यवस्था नहीं थी। बांधों से पानी छोड़ जाने के बाद किसानों ने अपनी ज़रूरत के हिसाब से पानी को अपने खेतों की तरफ मोल्ड कर लिया, जिससे टेल के किसानों के पास पानी नहीं पहुँच पाया। इसको लेकर भी यहाँ कई बार आपसी विवाद हुए। पुलिस आई, कई बार शांति व्यवस्था बिगड़ी। पुलिस जाने के बाद ऊँचाई पर रहने वाले किसान पानी फिर बंद कर देते थे। वह बताते हैं कि चंदौली के पूरब में भी धान की खेती होती है। वहाँ ज़मीन कटान की दिक्कतें हैं और पश्चिम की तरफ पानी की। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बार धान की फसल पर काफी बुरा प्रभाव पड़ने वाला है। ऐसे में सबकुछ प्रकृति के ऊपर निर्भर है कि बारिश होगी तो धान की खेती हो पाएगी।
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राजीव मौर्या बताते हैं कि चंदौली जिले के अधिकतर लोगों का जीवन कृषि पर ही निर्भर है। ज़मीन कटान होने पर किसानों को आवासीय दिक्कतें भी होती हैं, कभी-कभार पलायन भी हो जाता है। यह शोचनीय और शर्मनाक विषय है कि जिन ज़मीनों पर किसान वर्षों से खेती-बारी करता आ रहा है उन्हें खो देने पर सरकार उनके साथ नहीं खड़ी होती। जिला आपदा कोष आखिर किसलिए बनाया गया है?
उत्तर प्रदेश की नदियों पर अरसे से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक विद्याभूषण रावत ने बताया कि ज़मीन कटान गरीब-किसानों के लिए बहुत बड़ी समस्या है। गंगा, घाघरा, गोमती, चम्बल, सोन अपने वेग से एक बड़ा दायरा तय करती हैं। कटान के कारण उनके तट भी हर साल बदलते-रहते हैं। हर साल हो रहे कटान के कारण नदियों के तट पाँच-सात किलोमीटर आगे-पीछे हो चुके हैं। ऐसे में नदी के तट पर रहने वाले पिछड़ी जाति के लोगों और किसानों को ज़्यादा दिक्कतें होती हैं। पानी वापस जाने के बाद कहीं-कहीं इकट्ठा मलबों तक की सफाई नहीं होती है। विद्याभूषण रावत बताते हैं कि कटान के बाद गाँव के मैप यानी नक्शे भी बदल जाते हैं। चूंकि गरीब किसानों को उनकी गई ज़मीनों का कोई मुआवजा तो मिलता नहीं, ऐसे में प्रशासन और सरकार उन ज़मीनों को अधिग्रहित कर लेते हैं। किसान भी अपनी ही ज़मीन को वापस लेने के लिए मजबूती से प्रयास नहीं करता। ऐसे में किसान संगठनों और जन संगठनों को चाहिए कि वह पत्रक और बैठकों के माध्यम से प्रशासन व सरकार को नदी कटान से होने वाली समस्याओं से अवगत कराए। साथ ही मुआवजे की भी माँग करे।
विद्याभूषण रावत ने बताया कि बिहार में भी बहने वाली प्रमुख नदियों ने अपना तट छोड़ दिया है। वहाँ भी किसानों की हालत खराब है। बहराइच से छपरा के गाँवों में भी किसान नदी कटान का दर्द झेल रहे हैं। सरकार इस ‘डैमेज’ को नहीं सुधार पाती, क्योंकि उसे भी ज़मीनी जानकारी नहीं होती हैं। ऐसे में तमाम संगठनों को ज़मीन कटान और नदियों की मैपिंग कराकर सरकार के सामने रखें। कटान से कितने किसान और गरीब प्रभावित हुए हैं संगठन उनका आकड़ा इकट्ठा करे। देवरिया में कुछ संगठनों द्वारा ऐसी बातें चल भी रहीं हैं। अंत में विद्याभूषण रावत ने दो टूक में कहा, ‘गरीबों का मरना कोई समाचार नहीं होता, ऐसे में इन्हें सोचना चाहिए कि अपनी समस्याओं को प्रशासन और सरकार के सामने कैसे रखें कि उन्हें न्याय मिल सके।’
जिलाधिकारी काफी व्यस्त हैं…
दूसरी तरफ, जिलाधिकारी चंदौली निखिल टीकाराम फुंडे से किसानों की इन समस्याओं पर बात करने के लिए उनके सीयूजी पर कई बार फोन किया गया। उनके स्टेनो ने हर बार जिलाधिकारी की व्यस्तता की बात करते हुए फोन कट कर दिया। जबकि स्टेनो को मालूम था कि मैं किस विषय पर जिलाधिकारी से बात करना चाहता हूँ। ऐसे में दो ही सवाल उठते हैं, ‘या तो जिलाधिकारी की व्यस्तता बढ़ गई है या किसानों की समस्या पर वह जवाब देने से बच रहे हैं।’
स्टेनो ने बताया कि महीने के हर तीसरे बुधवार को जिलाधिकारी किसानों से वार्ता करते हैं। आज भी वह उसी बैठक में हैं। स्टेनो के अनुसार, इस बार की वार्ता में नदी कटान से जुड़ा कोई विषय नहीं है।