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मीनाक्षी सुन्दरेश्वर अर्थात धोती खोलकर पगड़ी बांधना

मीनाक्षी सुन्दरेश्वर फिल्म अपनी पहचान को स्थापित करने के लिए रिश्तों यानी परिवार और दाम्पत्य जीवन को भेंट चढ़ाने और फिर से रिश्तों में संवेदना तलाशने की कहानी है। अर्थात जो मौजूद है उसे अपनी महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ाना और जब उसके ख़त्म होने का अहसास हो तो उसे पाने की मशीनी हिकमतें करना इस […]

मीनाक्षी सुन्दरेश्वर फिल्म अपनी पहचान को स्थापित करने के लिए रिश्तों यानी परिवार और दाम्पत्य जीवन को भेंट चढ़ाने और फिर से रिश्तों में संवेदना तलाशने की कहानी है। अर्थात जो मौजूद है उसे अपनी महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ाना और जब उसके ख़त्म होने का अहसास हो तो उसे पाने की मशीनी हिकमतें करना इस फिल्म का निहितार्थ है। यह आज के पूंजीवादी संकट को बहुत अच्छी तरह दिखाती हुई फिल्म है। फिल्म में हम देखते हैं कि इसी रिश्ते को बचाने के लिए और अपनी पत्नी की नजदीकी पाने के लिए फिल्म का नायक सुन्दरेश्वर (अभिमन्यु दसानी) एक मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करते हुए वहां दिए प्रोजेक्ट के अंतर्गत ऐसा एप बनाता है, जिससे लोगों के दाम्पत्य जीवन की संवेदना और भावनात्मक नज़दीकी को नापा जा सके या परखा जा सके। मतलब जीवंत रिश्ते को छोड़कर मरे रिश्तों को मशीन के माध्यम से जीवंत करने के लिए मशीन बनाना। रिश्तों का वह मापकयंत्र, जिसकी समाज या परिवार को कोई जरूरत नहीं है क्योंकि रिश्तों में ऊष्मा अपनेपन और साथ रहने-मिलने पर ही होती है। इस तरह के एप की जरूरत मुनाफाखोर बाजार को ज्यादा है क्योंकि पूंजीवादी उत्पादन और बाज़ार द्वारा विखंडित समूह लगातार बढ़े हैं। उनके सामने रिश्तों को बचाने का संकट है और बाज़ार इस संकट को भुनाने में पीछे नहीं रह सकता। यह बाजार आज की पूंजीवादी व्यवस्था का गेटवे है, जिसके भीतर मानवीय संवेदना, रिश्तों और इमोशंस की कोई जगह नहीं। भले ही वह अपने उत्पाद के लिए विज्ञापन में कितने भी इमोशन डाल दे और दादी-नानी को केंद्र में रख लोगों को भावुक कर दे। ऐसी कॉर्पोरेट कम्पनियों का उद्देश्य केवल और मुनाफ़ा कमाकर बाजार की रेस में अव्वल आना है। कॉर्पोरेट अपने कर्मचारियों को नौकरी के खूँटें बांध कर दुह है। इतना कि उसके पास अपने परिवार, पत्नी और बच्चे के लिए समय नहीं जिनके लिए वह काम कर रहा है। यह विडंबना ठीक वैसी ही है कि घर पर हैं तो होटल जैसा खाना और होटल गए तो घर जैसा खाना चाहते हैं!

फिल्म का एक दृश्य

फिल्म में सुन्दरेश्वर, जो सॉफ्टवेयर इंजीनियर है, नौकरी की तलाश में है क्योंकि वह कुछ अलग करना चाहता है और उसकी अपनी महत्वाकांक्षा है, घर की बनी-बनाई व्यवस्था में उसका दम घुटता है। घर के पुश्तैनी कांजीवरम साड़ियों के व्यवसाय में अपने पिता की मदद करना नहीं चाहता, जैसा आजकल की पीढ़ी पढ़-लिख कर कुछ अलग करने का ख्याल रखती है, वैसा ही कुछ। और इसके लिए तर्क दिया जाता है कि इतना पढ़-लिखकर नौकरी करेंगे या पुश्तैनी काम संभालेंगे? फिल्म में सुन्दरेश्वर कुछ नया करने की चाह में अपने नए-नवेले दाम्पत्य को शादी के अगले ही दिन छोड़कर कॉर्पोरेट की नौकरी करने के लिए बेंगलुरु चला जाता है, जहाँ उसे अपनी शादीशुदा ज़िन्दगी की बात छुपाना पड़ती है क्योंकि कंपनी में बैचलर ही काम कर सकते हैं। इधर अनेक कम्पनियां केवल बैचलर्स को ही प्राथमिकता देती हैं क्योंकि उनका सोचना है कि परिवार-बच्चे की जिम्मेदारी हो जाने पर कर्मचारियों का ध्यान अपने परिवार पर ही ज्यादा रहेगा और कंपनी अपने लक्ष्य को पूरा करने में पीछे रह जायेगी। कम्पनियां मुनाफे की होड़ में पीछे नहीं रहना चाहती लेकिन यह खतरनाक मानसिकता के चलते मानसिक नुकसान के साथ अकेलेपन में डिप्रेशन से ग्रस्त हो जाते हैं और सहज ज़िन्दगी बिताने से वंचित हो जाते हैं। फिल्म में सुन्दरेश्वर, मीनाक्षी से प्रेम करता है और परिवार को मिस करता है और अपने दोस्तों से छिप-छिपकर वीडियो कॉल कर बातचीत करता है। इस प्रकार वह सभी से सच्चाई छिपाता है। कॉर्पोरेट और पूँजी ने बाजार के साथ काम करने वालों को कठपुतली बनाकर अपने ग्रिप में ले लिया है।

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जिस कम्पनी में सुन्दरेश्वर काम करता है वहां का बॉस केवल समय के सदुपयोग के लिए क्लास में ही अपने बाल कटवाता है और बात करते समय शब्दों की गिनती करनेवाली घड़ी अलार्म के साथ पहने हुए है ताकि काम की बातें भी शब्द गिनकर हो सकें। बेवजह एक भी शब्द नहीं। कहने का मतलब की कॉर्पोरेट में इंसान एक मशीन में तब्दील हो जाता है और ऐसी जगह पहुंचकर सुन्दरेश्वर की अपने परिवार और पत्नी मीनाक्षी (सानिया मल्होत्रा) से भी दूरी बन जाती है, इसी दूरी को कम करने के डिस्टेंस रिलेशनशिप को सफलता से निभाने के लिए ऐसा एप तैयार करता है।

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इस फिल्म के दूसरे हिस्से में सुन्दरेश्वर का संयुक्त परिवार है जहाँ सभी लोग पिता के अनुशासन में रहते हैं। पिता जो अपने दोनों बेटों से असंतुष्ट हैं और उन्हें किसी काम का नहीं समझते। ऐसा होता है अक्सर जब बेटे पढ़ने के बाद नौकरी नहीं पाते या उनकी आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते। ऐसा ही इस फिल्म में है जहाँ बड़ा बेटा सीए की परीक्षा पास करने में असफल रहा और सुन्दरेश्वर पारिवारिक व्यवसाय संभालने से मना कर देता है। लेकिन इसके बाद भी बड़े बेटे-बहू के स्क्रीन पर आने से फिल्म का वह हिस्सा हल्का, मजेदार और सहज दिखता है। लेकिन सुन्दरेश्वर की शादी के बाद मीनाक्षी, जो पढ़ी-लिखी, कॉलेज के दिनों की मस्ती और दोस्ती करने के साथ बातूनी और तर्क के साथ खुले विचारों वाली है.वहीँ शादी के बाद एक रेस्तरां में अपने दोस्त से मिलने पर पर असहज हो जाती है । घबरा जाती है लेकिन ननद मुकुई के सहज होने पर वह भी बातचीत और पुरानी बातें याद करती हुए पुराने दिनों को एन्जॉय करती है। शादी के बाद अक्सर लड़की को मायके के अपने दोस्तों-सहेलियों को भूल जाना होता है,उनसे सम्बन्ध खत्म कर देना होता है अन्यथा शादीशुदा ज़िन्दगी खतरे में पड़ सकती है। इस तरह से इस फिल्म में दोहरे-तिहरे स्तरों पर द्वंद्व चलता रहता है। यह द्वंद्व पीढ़ियों और विचारों का है। यह द्वंद्व पितृसत्ता द्वारा तय मानकों के बीच विवश किए जाने के बावजूद एक सहज जिंदगी की तलाश में मुब्तिला नई पीढ़ियों का है।

[bs-quote quote=”कुल मिलाकर यह फिल्म अपनी प्रस्तुति के अंदाज़ में बहुत सहज और दिलचस्प है वहीं विषय के निर्वाह और निहितार्थ में एक जटिल अभिव्यक्ति है जो बताती है कि पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अपनी पहचान को बेचैन पीढ़ियाँ पुरानी सामाजिक संरचनाओं, धारणाओं, पितृसत्तात्मक मूल्यों को पीछे छोडकर आगे निकल रही हैं। एक तरफ उनकी निर्ममता और निर्णय लेने की स्पष्टता पुराने की संरचनागत विशेषताओं को एकबारगी सतह पर ला देती है। तो दूसरी तरह नए की यांत्रिकता में संवेदना के लगातार मरते जाने का शोकगीत रचती हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दुनिया का पहला शरणार्थी कौन था? मीनाक्षी यह प्रश्न अपनी ननद मुकुई से करती है। इसके माध्यम से ससुराल में बंदिश और अपने अनुसार निर्णय नहीं ले पाने का कष्ट सामने आता है। जिसमें  मीनाक्षी का जवाब होता है, दुनिया का पहली शरणार्थी घर की बहू है। यह सुनकर मन सोचने को मजबूर होता है कि चाहे कितनी भी आज़ादी हो लेकिन कोई भी बहू अपने सभी निर्णय नहीं ले सकती। सबका निर्णय घर के पुरुष लेते हैं। फिल्म में मीनाक्षी का मुकुई याने उसकी ननद से दोस्ताना व्यवहार है, दोनों अपनी पसंद-नापसंद एक-दूसरे के सामने खुलकर ज़ाहिर करती हैं क्योंकि दोनों खुलकर जीना चाहती हैं और ये सब अपने तक रखने का वादा करती हैं, लेकिन एक पारंपरिक और रुढ़िवादी परिवार में अपनी पसंद से जीना भी गलत माना जाता है। सुन्दरेश्वर के नौकरी पर चले जाने पर अपने अकेलेपन को खत्म करने के लिए खुद नौकरी के करने के लिए तैयार होती है।

जैसा कि परिवारों में होता है घर के बूढ़े खासकर स्त्रियाँ अपनी बहुओं से काम और  पहनावे  को लेकर प्रतियोगिता करती हैं और बात-बात पर यह कहते हुए अपने बड़प्पन को साबित करने से पीछे नहीं हटती हैं कि उनके समय में उन्होंने कितना काम किया, कितना संघर्ष किया लेकिन चुप रहीं। फिल्म में सुन्दरेश्वर की बुआ जो हर काम समय पर करने की आदी हैं का अपने भाई मणि के घर आने पर उन्हें स्टेशन लेने न पहुँच पाना और अपने भाई की दुकान से मनपसंद साड़ी न ले पाने का अफ़सोस क्रोध में तब बदल जाता है जब वही साड़ी मीनाक्षी के पहनकर सामने आती है और पता चलता है कि यह साड़ी मीनाक्षी के दोस्त ने दी है। ऐसे समय पर वह मीनाक्षी के चरित्र पर सवाल उठाती है। इस बात का मीनाक्षी द्वारा दिए जवाब से पूरा परिवार नाराज हो जाता है और उसे माफ़ी मांगने के लिए कहता है। असल में पितृसत्ता के दायरे और सीमा में स्त्री का बोलना निषिद्ध है। प्रायः देखा यह जाता है कि जब एक पीढ़ी का प्रभाव ख़त्म हो जाता है तभी स्त्री बोल पाती है लेकिन तब भी स्त्री पर पितृसत्ता का अंकुश इतना अधिक होता है कि उसे क्या बोलना इसे वह दस बार सोचकर बोलती है। अपने अधिकार और सफाई की कोई बात उसके ही विरुद्ध जा सकती है जिसमें चरित्र पर लांछन लगाना सबसे आसान हथियार है।

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कुल मिलाकर यह फिल्म अपनी प्रस्तुति के अंदाज़ में बहुत सहज और दिलचस्प है वहीं विषय के निर्वाह और निहितार्थ में एक जटिल अभिव्यक्ति है जो बताती है कि पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में अपनी पहचान को बेचैन पीढ़ियाँ पुरानी सामाजिक संरचनाओं, धारणाओं, पितृसत्तात्मक मूल्यों को पीछे छोडकर आगे निकल रही हैं। एक तरफ उनकी निर्ममता और निर्णय लेने की स्पष्टता पुराने की संरचनागत विशेषताओं को एकबारगी सतह पर ला देती है। तो दूसरी तरह नए की यांत्रिकता में संवेदना के लगातार मरते जाने का शोकगीत रचती हैं। मीनाक्षी की आकांक्षाओं के लिए अगर पुरानी संरचना एक जकड़न है तो नई संरचना अधूरे पारिवारिक जीवन और खंडित दाम्पत्य का माध्यम बन जाती है। ज़ाहिर है सुंदरेश्वर की भी नियति कुछ ऐसी ही है। वह जिस पुराने को छोड़कर नए की तरफ गया है वह मनुष्य के रूप में उसको संवेदनाहीन और सूखी ज़मीन पर खड़ा कर देता। उसके लिए सारी प्रांजलता वहीं बची है जहां वह अपनों को छोड़ आया है।

बेशक इसको लेकर इस खूबसूरत फिल्म को एक बार देखा जाना चाहिए।

अपर्णा गाँव के लोग की कार्यकारी संपादक हैं।

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2 COMMENTS
  1. बहुत बढ़िया विश्लेषण। रोचक और पठनीय। बधाई।

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