बात वर्ष 2015 की है। देश के प्रसिद्ध समाजवादी विचारक सच्चिदानंद सिन्हा से साक्षात्कार का अवसर मिला था। साक्षात्कार के दौरान भारत में लोकतंत्र की स्थिति पर अपनी टिप्पणी में उन्होंने इंडियन डेमोक्रेसी को डेमोगॉगी की संज्ञा दी थी। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा था क्योंकि हमारे देश में लोकतंत्र की स्थिति ऐसी ही होती जा रही है। राजनीति भी पहले की तरह नहीं रही। सब ऑब्जेक्ट ओरिएंटेड हैं। ऑब्जेक्ट ओरिएंटेड का मतलब यह कि सब अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राजनीति कर रहे हैं। इससे उनका तो फायदा हो रहा है जो राजनीति कर रहे हैं, लेकिन देश को कोई लाभ मिलता दिख नहीं रहा है। विचारधारा के आधार पर समझौते करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
मैं बिहार का नागरिक हूं, जहां नीतीश कुमार वर्ष 2005 से सीएम की कुर्सी पर विराजमान (बीच में जीतनराम मांझी को भी उन्होंने अल्पकालिक सीएम बनाया) हैं। लेकिन शासन बिहार का ब्राह्मण-बनिया वर्ग कर रहा है। इसके कारण बिहार की दुर्गति बढ़ी है। देश के स्तर पर बात करें तो निराशा ही होती है। मध्यम आय वर्ग और उच्च आय वर्ग, जिसमें बहुमत ऊंची जातियों का है, नरेंद्र मोदी सरकार के कामकाज से खुश है। यह खुशी इसके बावजूद कि देश में हालात दिन-ब-दिन विषम होते जा रहे हैं।
[bs-quote quote=”ओली की आलोचना अलूने इन शब्दों में करते हैं –‘प्रधानमंत्री बनते ही ओली ने वह सब कुछ किया जिसकी इस धार्मिक और सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले देश में कल्पना भी नहीं की गयी थी। अपनी कम्युनिस्ट पहचान मजबूत करने और चीन के साथ खड़े दिखने को लेकर ओली के भीतर उतावलापन इतना ज्यादा था कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हुए ईश्वर का नाम तक लेने से इंकार कर दिया था। बुद्ध और विष्णु की भूमि के लिए यह बेहद अप्रत्याशित घटना थी। इसके बाद भारत के प्रधानमंत्री जब नेपाल गए तो उन्होंने जनकपुर में पूजा की, लेकिन ओली ने नहीं की।‘” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
लेकिन इन सबके बावजूद मेरा लोकतंत्र में विश्वास है। एक यही शासन पद्धति है जो भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए आवश्यक है। वैसे भी डेमोक्रेसी के प्रभाव के आकलन के लिए जरूरी है कि यह कम से कम सौ वर्षों की हो। अभी भारत में डेमोक्रेसी किशोरावस्था में है। मेरा यकीन है कि जैसे-जैसे समय आगे बढ़ेगा, देश की राजनीति में दलित, पिछड़े और आदिवासी महत्वपूर्ण होते जाएंगे।
मैं नेपाल की ओर देख रहा हूं। वहां इन दिनों राजनीतिक उठा-पटक का दौर है। शेर बहादुर देउबा पांचवीं बार प्रधानमंत्री बने हैं। इस बार उनकी ताजपोशी नेपाली सुप्रीम कोर्ट के कारण हुई है। उन्हें एक महीने के भीतर विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दिया गया है। भारतीय मीडिया में इन दिनों नेपाल पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री केपी ओली की आलोचना का दौर जारी है। मैं दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता को देख रहा हूं, जिसने अपने संपादकीय पृष्ठ पर नेपाल की नई सत्ता और संकट शीर्षक से एक आलेख प्रकाशित किया है। आलेख के लेखक हैं – ब्रह्मदीप अलूने।
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अपने आलेख में अलूने ने केपी ओली को चीन समर्थक बताया है तो शेर बहादुर देउबा को भारत का करीबी। ओली की आलोचना अलूने इन शब्दों में करते हैं –‘प्रधानमंत्री बनते ही ओली ने वह सब कुछ किया जिसकी इस धार्मिक और सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले देश में कल्पना भी नहीं की गयी थी। अपनी कम्युनिस्ट पहचान मजबूत करने और चीन के साथ खड़े दिखने को लेकर ओली के भीतर उतावलापन इतना ज्यादा था कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हुए ईश्वर का नाम तक लेने से इंकार कर दिया था। बुद्ध और विष्णु की भूमि के लिए यह बेहद अप्रत्याशित घटना थी। इसके बाद भारत के प्रधानमंत्री जब नेपाल गए तो उन्होंने जनकपुर में पूजा की, लेकिन ओली ने नहीं की।‘
दरअसल, मैं भी उनमें से एक हूं जो यह मानते हैं कि नेपाल की संप्रभुता अक्षुण्ण रहनी चाहिए। नेपाल ने लंबे समय तक राजतंत्र को झेला है। वहां लोकतंत्र अभी नवजात अवस्था में है। मैं नवजात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि वहां औपचारिक रूप से डेमोक्रेसी 2007 में लागू हुई। फिर ऐसे में एक नवजात लोकतंत्र से बहुत अधिक अपेक्षा रखने का कोई मतलब नहीं बनता। यह इसके बावजूद कि नेपाल की जनता ने बहुत ही सूझ-बूझ के साथ अपने यहां डेमोक्रेसी को अपनाया है। अब चूंकि नेपाल पर भारत और चीन दोनों की नजरें हैं, तो इसका प्रभाव वहां की राजनीति पर होना कोई हैरतअंगेज करने वाली बात नहीं है।
लेकिन जिस तरीके से भारतीय बुद्धिजीवी केपी ओली की आलोचना कर रहे हैं, वह एक बात का प्रमाण है कि भारत को नेपाल की संप्रभुता रास नहीं आ रही है। जब मैं संप्रभुता की बात कर रहा हूं तो इसमें सांस्कृतिक संप्रभुता भी शामिल है। भारत हमेशा चाहता रहा है कि नेपाल उसका सांस्कृतिक उपनिवेश बना रहे। सीधे तौर पर कहें तो भारत का मतलब अयोध्या और नेपाल का मतलब जनकपुर रहे। रामायण में राम का जन्म अयोध्या में और उनकी पत्नी का जन्म जनकपुर बताया गया है। भारतीय पितृसत्ता ने इस काल्पनिक प्रसंग को हकीकत के रूप में अपनाया है।
[bs-quote quote=”बीते 4 जुलाई को जब मैं पटना से दिल्ली वापस आ रहा था तब मेरे बेटे जगलाल दुर्गापति ने आते समय मेरे बैग में कुछ लिफाफे डाले और मुझसे कहा कि मैं दिल्ली जाकर देखूं। उसकी उम्र छह साल की है। दिल्ली आने के बाद मुझे यह तो याद रहा कि लिफाफे हैं, लेकिन मन में उत्सुकता बनी रहे, इस कारण मैंने उन्हें खोलकर नहीं देखा। कल रात एक लिफाफा खोलकर देखा। दुर्गापति ने अपनी लिखावट में आय लव यू पापा लिखा है। सबसे खूबसूरत यह कि उसने रेखाचित्र बनाए हैं। इसमें मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर हैं। लेकिन सभी को उसने नीले रंग से रंगा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मैं केपी ओली की आलोचना नहीं करता। वजह यह कि वामपंथी दलों के साथ मिलकर जब 2018 में उन्होंने 275 सदस्यों वाले राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा के 178 सदस्यों का समर्थन हासिल कर सरकार का गठन किया था, तब उन्होंने वह किया जो कि वाकई में एक बहुत बड़ी बात थी। उन्होंने ईश्वर को नकारते हुए नेपाल और वहां जनता को साक्षी मानकर प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। यह उनकी वैज्ञानिक चेतना के कारण हुआ।
रही बात सरकारों के बनने-बिगड़ने की तो इनसे डेमोक्रेसी मजबूत होती है। जनता अपने हिसाब से हर किसी का आकलन करती है। बारी नेपाल की जनता की है। मुझे उम्मीद है कि वह परिपक्व होगी और अपने देश में आए इस राजनीतिक संकट को दूर करेगी।
भारतीय लोकतंत्र और नेपाल की राजनीति के बीच एक अहम बात दर्ज करना चाहता हूं। बीते 4 जुलाई को जब मैं पटना से दिल्ली वापस आ रहा था तब मेरे बेटे जगलाल दुर्गापति ने आते समय मेरे बैग में कुछ लिफाफे डाले और मुझसे कहा कि मैं दिल्ली जाकर देखूं। उसकी उम्र छह साल की है। दिल्ली आने के बाद मुझे यह तो याद रहा कि लिफाफे हैं, लेकिन मन में उत्सुकता बनी रहे, इस कारण मैंने उन्हें खोलकर नहीं देखा। कल रात एक लिफाफा खोलकर देखा। दुर्गापति ने अपनी लिखावट में आय लव यू पापा लिखा है। सबसे खूबसूरत यह कि उसने रेखाचित्र बनाए हैं। इसमें मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर हैं। लेकिन सभी को उसने नीले रंग से रंगा है।
मैं अपने बेटे के मन में चल रही इस कल्पना के बारे में सोच रहा हूं और असीमित खुशी को महसूस कर रहा हूं। वह भारत के उन तमाम बुद्धिजीवियों से अच्छा है जो मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर को अलग-अलग नजरिए से देखते हैं।
बहरहाल, कल देर शाम जेहन में कुछ बातें आयीं-
आग रहे दिलों में और प्यास भी बनी रहे,
रहे दूरियां और मिलन की आस भी बनी रहे।
गम क्या जो तारों के संग आती है तन्हाई,
उगता रहे सूरज रोज और शाम भी बनी रहे।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं