फ़िलिस्तीन और इज़राइल को समझने और लिखने में जितना समय व उर्जा लेखकों ने लगाया है शायद पूरे मध्यपूर्व को समझने में नहीं लगा होगा। इस समस्या की पड़ताल में हम पायेंगे कि लीग आफ़ नेशन की असफलता से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की भी विफलता और दुनिया में शक्ति के असमान संतुलन का उत्पाद है जिसमे मूल्यविहीन राजनीतिक अनैतिकता,आतंकवाद, चरमपंथ, सिविल वार, युद्ध, अपहरण, हत्या, विद्रोह, आक्रमण और शरणार्थी जैसी समस्याओं को जन्म दिया। इस नैतिक और अनैतिक खेल में इतिहास अपने आप को फंसा हुआ पाता है जिस वेदना को यहूदी समुदाय गुजरा था वैसी ही वेदना से फलिस्तीनी अरब आज गुजर रहे हैं. व्यक्तिगत हित और कभी कभी सामरिक हित फँसे होने के कारण न्याय और सच्चाई धूमिल पड़ जाती है। इन संघर्षों के और बहुत सारे अर्थ निकले जा सकते हैं। इस संघर्ष में विश्व की कई महाशक्तियाँ परोक्ष या अपरोक्ष रूप से शामिल रहीं जिनमें उनके आर्थिक हित प्रमुख रहे हैं. इजराइल के रूप में अमेरिका और इंग्लैण्ड को मध्य एशिया में एक रणनीतिक पार्टनर मिलगया जिससे मध्य एसिया के उर्जा संशाधनो पर नियंत्रण रखा जा सके।
फ़िलिस्तीन-इज़राइल संघर्ष को धर्म से जोड़कर देखने में इस समस्या को नहीं समझा जा सकता है। इतिहासकार गोल्ड स्मिथ लिखते हैं ऐसा नहीं है कि पहले अरब और यहूदियों में सब कुछ ठीक था। तो क्या यह माना जाये कि यह यहूदी और इस्लाम के बीच धार्मिक युद्ध है? अरबों का कहना है कि ऐसा नहीं है, यहूदियों को अरब भूमि पर आकर बसने के लिए हमेशा स्वागत किया गया है .बहुत सारे यहूदियों को अरबों ने शरण भी दी और वे अपनी आर्थिक गतिविधि चलाने के लिए स्वतंत्र भी थे। जबकि ज़ायोनीवादियों (Zionist ) का जवाब था कि मुस्लिम शासन में यहूदी आम तौर पर दूसरे दर्जे के नागरिक थे (जैसा कि अन्य सभी गैर-मुस्लिम थे) यह एक ऐतिहासिक पूर्वाग्रह ही है। लेकिन सच यह भी है की अरब कभी भी यहूदी समुदाय पर हुए अत्याचारों में शामिल नहीं था न ही यहूदी जनसंहार में उनका कोई हाथ रहा, जर्मनी रूस व अन्य देशों में जहाँ पर भी यहूदियों का कत्लेआम हुआ वो मुख्यता इसाई देश थे हाँ वर्चस्व के लिए मुस्लमान और यहूदियों में ज़रूर अप्रत्यक्ष संघर्ष देखने को मिलता है. लेकिन एंटी सेमितिस्म के लिए अरब कतई जिम्मेदार नहीं. इस लिए अरब इज़राइल संघर्ष को धार्मिक चश्मे से देखने से इस समस्या को नहीं समझा जा सकता. हालाँकि विगत वर्षों में राजनैतिक लाभ के लिए इज़राइल की दक्षिणपंथ पार्टियों खास कर रूढवादी जायनिस्ट ने इसे धर्म से जोड़ने की कोशिश की है ताकि दुनिया भर में फैले इस्लामोफ़ोबिया का फायदा उठा कर ज़ायनिस्ट अपनी विस्तारवादी नीतियों को अक्रामकता से लागू कर सकें। दूसररी तरफ फ़िलिस्तीन अरब शरणार्थी भी हताश हो कर अरब जनमानस का सहयोग पाने के लिए धर्म का सहारा लेते पाए जा सकते हैं। इस्लामी जिहाद पार्टी ऑफ़ फ़िलिस्तीन इसका उदहारण है जबकि यह पार्टी फ़िलिस्तीन में हुए चुनावों में कुछ कर नहीं पायी। आलोचक यह भी मानते हैं की इन सभी संगठनों को इज़राइल ने ही पैदा किया है। अरब का मतलब धर्म से नहीं है, अरब वो हैं जो अरबिक भाषा बोलते हैं (जिसका आधार अरब राष्ट्रवाद था, और राष्ट्रवाद को पहली बार एक ईसाई (माईकल अफ्लाक ने गढ़ा और उसको आगे बढाया) । दूसरी परिभाषा यह हो सकती है की जो अरबियन पेनिनसुला में रहते हैं वो अरब हैं। आज भी लेबनॉन, इराक़, यमन में कुछ यहूदी रहते हैं। जबकि अधिकतर इज़राइल राज्य बनने के बाद पलायन कर गए । इसके अलावा ईसाई भी बड़ी संख्या में लेबनॉन, इराक़ सीरिया, यमन, दुबई व अन्य अरब देशों भी में रहते हैं जो मुख्यता अरबी भाषा बोलते हैं. फ़िलिस्तीन के लिए संघर्षों में ईसाई शामिल थे और आज भी. हम जानते हैं कि इस्लाम, यहूदी और ईसाई धर्म के मुक़ाबले एक नया धर्म है। इस्लाम के जन्म के पहले भी अरब रहते थे और अपनी पूर्व मान्यताओं के साथ अपनी पूजा पद्धति का पालन करते थे। इस्लाम के उदय के साथ बहुत से ईसाई, यहूदी व अन्य धर्म मानने वालों ने इस नए धर्म को अपनाया। धर्म बदलने से पूजा पद्धति में परिवर्तन आया लेकिन बहुत सारी परम्परा-संस्कृति में पूरा बदलाव नहीं आया। खान पान की आदतों में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं आया। जो आज भी इस क्षेत्र में रहने वाले पारम्परिक यहूदी, ईसाई, व दरूज़ समुदायों में देखने को मिलता है। परिणामत इसे धार्मिक विवाद के रूप में देखने में समस्या है। क्यों की यह विशुद्ध रूप से जायनिस्ट आकांक्षा का परिणाम है जिसने फलिस्तीन अरबों को बेघर कर दिया।
अरब और यहूदी एक ही पिता से उत्पन्न संताने हैं। अब्राहम के दो पुत्रों, इसहाक़ (यहूदियों का पूर्वज) और इसमाइल (अरब के पूर्वज)। मुस्लमान आज भी इब्राहीम द्वारा अपने पुत्र की क़ुरबानी की घटना के कारण बकरीद मनाते हैं जिसे इदुल अज़हा कहा जाता है। इन दोनों में भाषाई समानता है, दोनों सेमेटिक भाषा बोलते हैं। ऐसा माना जाता है कि हज़रत नूह की दो संताने थीं, हेम और सेम. हेम से हेमेटिक भाषा का विकास हुआ और दूसरा सेम जिससे सेमेटिक भाषा का जन्म हुआ। यह भी महत्वपूर्ण है कि मध्यपूर्व की दो प्रमुख भाषा अरब और हेब्रू सेमेटिक परिवार से ही आती हैं। दोनों समुदायों में एक और समानता है यह है पराधीनता का। दोनों समुदाय के राजनीतिक भाग्य एक लंबे समय तक बाहरी शक्तियों द्वारा नियंत्रित किया जाता रहा था। धार्मिक रूप से भी यहूदी और इस्लाम में समानता है और यह समानता एक तरफ़ा हो सकती है जैसे इस्लाम अपने पूर्ववर्ती मूसा, ( Moses जिन्हें यहूदी इश्वर का दूत मानते हैं ) ईसा को एक पैग़म्बर के रूप में मानता है। इसके साथ ही सामाजिक तौर पर इस्लाम मानने वाले और यहूदी में भी समानता देखने को मिलती है। उदहारण के तौर पर देखे दोनों की पूजा उपासना में एक मिलती जुलती टोपी का प्रयोग है।, पहनावे में काफी समानता देखने को मिलती है दोनों धर्मों में मूर्ती पूजा का निषेध है. मुसलमान हलाल मांस खाते हैं और ऐसी मान्यता है कि वह यहूदी पद्धति से ज़िबह जानवर का मांस खा सकते हैं। इसके अलावा इस्लाम (मुसलमानों) यह भी मानता है कि बिना धर्म परिवर्तन किये एक दूसरे में शादी हो सकती है।
अरब इजराइल संघर्सों के लिए ज़ायनिज़्म (zioninsm ) को समझना होगा जो एक विचारधारा के रूप में 19वी शताब्दी में जन्मी जिनका विश्वास था कि यहूदियों के लिए अपना एक देश होना चाहिए जिसमें यहूदी धर्म का बोलबाला होगा। लेकिन ज़ायनिज़्म विचारधारा के उदय के समय यह निर्धारित नहीं था कि यह यहूदी राष्ट्र कहाँ होगा। बाद में कहा गया था कि यरुसलम सिर्फ़ यहूदियों का ही रहेगा और एक यहूदी देश के रूप में इस का गठन होगा। हर ज़ायनिस्ट यहूदी नहीं है और न ही हर यहूदी ज़ायनिस्ट है। अन्य देशों में रहने वाले यहूदी, जायनिस्ट की इस मांग का विरोध कर रहे थे क्यों की वो जहाँ रह रहे थे उस देश को छोड़ना नहीं छह रहे थे उन्हें वहां की नागरिकता मिली हुयी थी इसलिए उनके सामने एक नैतिक प्रश्न था. धर्म को एक कसोटी मानने में समस्या कल भी थी और आज भी है। धर्म को राष्ट्र का आधार मानने में समस्या यह है कि उस राष्ट्र के लोग क्या दूसरे देश में नहीं जायेंगे? धरती पर बहुत सारे धर्म आये और गए क्या इस बिना पर किसी को राष्ट्र से बाहर कर दिया जाये?
[bs-quote quote=”2019 में, डोनाल्ड ट्रम्प की अध्यक्षता में, अमेरिका ने घोषणा की कि फिलिस्तीनी भूमि पर इजरायल का कब्ज़ा “जरूरी नहीं कि अवैध” हो। इस तरह का वक्तब्य दशकों से चली आरही अमेरिकी नीति में एक नाटकीय मोड़ है वेस्ट बैंक और पूर्वी यरुशलम में इजरायल के निवासियों की आबादी इजरायल की जनसंख्या की तुलना में तेज दर से बढ़ रही है। इज़राइल की 6.8 मिलियन यहूदी आबादी का लगभग 10 प्रतिशत इन कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों में रहती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यह भी सच्चाई है कि दुनिया भर में यहूदियों के साथ जितना बुरा बर्ताव हुआ शायद ही पहचान के नाम पर किसी के साथ इतना अत्यचार हुआ होगा। यूरोप से लेकर पश्चिम तक इतिहास में कई बार ऐसा हुआ कि उन्हें देश छोड़ कर दूसरी जगहों पर भागना पड़ा। अपनी पहचान के करण उन्हें मानवाधिकारों से वंचित किया गया। वो अलग बस्तियों में रहते थे जिसका इतिहास लम्बा है। उनके खिलाफ मजाक गड़े जाते थे, दुष्प्रचार किया जाता था की ये लोग अच्छे नहीं हैं .जर्मनी में तो उनके खिलाफ ये भी अफवाहे उड़ाई गयी थी ये जर्मन लड़कियों को बहकाकर उनसे शादी कर लेते हैं ये जर्मन प्रजाति को दूषित करना चाहते हैं. इस तरह की अफवाहे ही हिटलर को यहूदी नरसंहार करने में बड़ी भूमिका निभाई।
अरबों का मानना है कि यहूदी विस्थापन अरब मुसलमानों की वजह से नहीं हुआ था। और न तो इसके लिए ज़िम्मेदार थे। सन् 1920 तक फ़िल्स्तीन में यहूदी क़रीब 6 से 7 प्रतिशत ही रहते थे जबकि शेष जनसंख्या अरब व अन्य की थी जिसमें अधिकांस जनसँख्या अरब मुस्लिम की थी इसके बाद ईसाई थे। मूल रूप से रह रहे अरबों को उन्हें अपनी भूमि से हटाकर इज़राइल बनाने का ज़ायनिस्टियों का दावा कही से भी तार्किक नहीं था । ऐसा इसलिए क्यों की धर्म एक होने पर कोई देश किसी ब्यक्ति को नागरिकता दे सकता है क्या. यहूदी राष्ट्र के रूप में इजराइल को रहने का अधिकार है तो क्या यह अधिकार फलिस्तीन अरबों का नहीं है. और दुनिया में ऐसी मिशल नहीं है की धर्म के नाम पर दुनिया भर में बसे एक ही धर्म के लोगों को लाकर बसा दिया जाये और वहां पर रहे दुसरे धर्म के मूल निवासी को हटा दिया जाये. ज़ायनिस्ट के विपरीत इज़राइल में आज भी पर्याप्त संख्या ऐसे लोगों की है जो यह मानते हैं कि फ़िलिस्तीन अरब को उनका हक़ मिलना चाहिए। उनमे से कईयों ने फ़िलिस्तीन अधिकारों के लिए लडे़ भी। इज़राइल में ख़ासकर विद्वानों की एक जमात है जो फ़िलिस्तीन अरबों के अधिकारों के लिए बहुत लिखा और पढ़ा। दुनिया भर में विगत दो दशकों से धार्मिक कट्टरता बढ़ी है और यहूदी समुदाय भी इसका अपवाद नहीं है। जिसका परिणाम हम दक्षिण पंथ राजनीति के उदय के रूप में देख रहे हैं।
प्रथम विश्व युद्ध का समय अरब इजराइल संघर्षों की शुरुवात थी जिसकी तीव्रता आधुनिक काल में राष्ट्रवाद के उदय के कारण थी। राष्ट्रवाद विचारधारा जातीय श्रेष्ठता पर आधारित थी। इसी जातीय श्रेष्ठता की वजह से जर्मनी में नाज़ीवाद का उदय हुआ जिसने यहूदियों का क़त्लेआम किया। यह क़त्लेआम यकायक नहीं था। बल्कि यहूदियों के ख़िलाफ़ एक प्रोपगंडा फैलया गया। तरह तरह के राजनीतिक मिथ (myth) उनके साथ जोड़े गए। इसी तरह दुनिया भर में फैला एंटी-सेमिटिज़्म ने यहूदियों के साथ भेद्वाव को बढावा दिया और प्रथम विश्वयुद्ध ने इस समस्या को बढ़ा दिया जिसकी विभीषिका द्विताय विश्वयुद्ध के बाद देखने को मिली।
प्रथम विश्वयुद्ध के समय 1917 में बाल्फ़ोर घोषणा पत्र को समझने की जरूरत है जो एक जायनिस्ट योजना थी. जिसे 1920 में ब्रिटिश जनादेश लागू होने पर स्वीकार कर लिया गया है। दूसरी तरफ़ शरीफ़ हुसैन माइक मोहन पत्राचार को समझना ज़रूरी है। यह पत्राचार प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान 10 पत्रों का आदन प्रदान था। अंग्रेजो की अस्पष्टता और अवसरवाद ने भी इस समस्या को बढ़ाया। अंग्रेज़ अपने हित के लिए समय के अनुसार दोनों का इस्तेमाल करना चाह रहे थे। ब्रिटेन ने शरीफ़ हुसैन को आश्वासन दिया की युद्ध के बाद फ़िलिस्तीन, जॉर्डन और सीरिया को मिलाकर ट्रांस्जॉर्डन अरबों को दिया जायेगा। प्रथम विश्व युद्ध में ज़ायनिस्ट ने अंग्रेजों के साथ अपनी कार्यप्रणाली और योजनाओं को लागू करवाने में सफल रहे जबकि अरबों को नकार दिया गया था।
[bs-quote quote=”आज इज़राइल में क़रीब 20 प्रतिशत आबादी फ़िलिस्तीन अरबों की है जिसे इज़राइल इसरायली अरब कहता है। इज़राइल की ऑफ़िशियल भाषा हिब्रू है जबकि दूसरी भाषा अरबी है। पुरानी पीढ़ी के लोग ख़ासकर ओरिएण्टल यहूदी लोग अरबिक भाषा बोलते और समझते हैं जबकि नयी इज़रायली पीढ़ी की अब यह दूसरी भाषा नहीं रही।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
विश्व युध्य की समाप्ति के बाद अंग्रेज़ों ने फ़िलिस्तीन पर कब्ज़ा कर लिया और फिर बाद में 1920 में बने लीग आफ़ नेशन्स के बाद ब्रिटिश जनादेश के तहत इस क्षेत्र पर शासन किया। ब्रिटिश जनादेश भी फ़िलिस्तीन अरबों को निराश किया क्योंकि मैंडेट व्यवस्था में बाल्फोर घोषणा पत्र को पूरी तरह से अपना लिया गया था जो कि एक ज़ायनिस्ट प्लान था जब मैंडेट लागू हुआ था उस समय साठ हज़ार यहूदी ही फ़िलिस्तीन में थे। इसने यहूदी आप्रवाजन को बढ़ावा दिया और उनके लिए विशेष रियायतें दी जाने लगीं। फ़िलिस्तीन अरबों ने पक्षपात का आरोप लगाया और अब यह मानने लगे कि फ़िलिस्तीन उनके हाथ से अब जाने लगा है। अरबों ने विद्रोह भी किया। कई जगह फ़िलिस्तीन अरब और नव आगंतुक यहूदियों में दंगे भी हुए। अंग्रेज़ परेशान हो कर द्वतीय विश्व युध्य (WW-II) के बाद, नवगठित संयुक्त राष्ट्र ने अंग्रेजो के कहने पर फलिस्तीन को दो भाग में बाटने की एक ऐसी योजना का प्रस्ताव दिया जो ऐतिहासिक फिलिस्तीन के 55 प्रतिशत भाग को यहूदी राज्य निर्माण के लिए और 45 प्रतिशत भाग को अरबों के लिए मंजूरी दी इस बटवारे में यरुशलम को अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र के नियंत्रण में रखा गया। फिलिस्तीनियों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि उस समय, उनके पास 94% ऐतिहासिक फिलिस्तीन का स्वामित्व था और इसमें 67 प्रतिशत आबादी शामिल थी। 14 मई, 1948 को, ब्रिटिश जनादेश की समय सीमा समाप्त से पहले अरब-इजरायल के पहले युद्ध की शुरुआत हो गयी। ज़ायोनी सैन्य बलों ने कम से कम 750,000 फिलिस्तीनियों को निष्कासित कर दिया और 78% ऐतिहासिक फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया। शेष 22 प्रतिशत को वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी में विभाजित कर दिया गया था। यह लड़ाई जनवरी 1949 तक जारी रही जब इजरायल और मिस्र, लेबनान, जॉर्डन और सीरिया के बीच युद्धविराम समझौता हुआ।
जून 1967 के युद्ध के दौरान, इजरायल ने सभी ऐतिहासिक फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया और 300,000 फिलिस्तीनियों को उनके घर से निष्कासित कर दिया। इज़राइल ने उत्तर में सीरियाई गोलन हाइट्स और दक्षिण में मिस्र के सिनाई प्रायद्वीप पर भी कब्जा कर लिया। 1978 में, मिस्र और इजरायल ने एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए जिसके कारण इजरायल को मिस्र के क्षेत्र से हटना पड़ा। इजरायल ने फिलिस्तीनी भूमि यहूदी बस्तियां बसाना शरू कर दिया। कब्जे वाले वेस्ट बैंक और पूर्वी यरुशलम में कम से कम 250 बस्तियों (130 आधिकारिक और 120 अनौपचारिक) में रहने वाले 600,000 – 750,000 इज़राइली बसा दिया। इजरायल बसावट पूरी तरह से अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत अवैध हैं जो चौथे जिनेवा कन्वेंशन का उल्लंघन करते हैं जिसके अनुसार कब्जा वाले क्षेत्र में अपनी आबादी को उस क्षेत्र में स्थानांतरित नहीं किया सकता।
2019 में, डोनाल्ड ट्रम्प की अध्यक्षता में, अमेरिका ने घोषणा की कि फिलिस्तीनी भूमि पर इजरायल का कब्ज़ा “जरूरी नहीं कि अवैध” हो। इस तरह का वक्तब्य दशकों से चली आरही अमेरिकी नीति में एक नाटकीय मोड़ है वेस्ट बैंक और पूर्वी यरुशलम में इजरायल के निवासियों की आबादी इजरायल की जनसंख्या की तुलना में तेज दर से बढ़ रही है। इज़राइल की 6.8 मिलियन यहूदी आबादी का लगभग 10 प्रतिशत इन कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों में रहती है। इजरायल ने बाहर से आने वाले यहूदी अप्रवासियों को नागरिकता प्रदान की और उन्हें सरकारी सब्सिडी दी जिससे उनकी रहने की लागत काफी सस्ती हुयी । 2020 तक, वेस्ट बैंक में 463,535 यहूदी रिकॉर्डेड बसे हुए थे और पूर्वी यरुशलम में इनकी संख्या 220,200 है ।
फिलिस्तीन और पड़ोसी देशों में स्थित संयुक्त राष्ट्र के 58 आधिकारिक शिविरों में 1.5 मिलियन फिलिस्तीनी शरणार्थी रह रहे हैं। कुल मिलाकर, पाँच मिलियन से अधिक पंजीकृत फ़िलिस्तीनी शरणार्थी हैं जो ज्यादातर इन शिविरों के बाहर रहते हैं। फिलिस्तीनी शरणार्थियों की दुर्दशा दुनिया में सबसे भयावह और अनसुलझे शरणार्थी समस्या है। ओस्लो समझौते पहला फिलिस्तीनी-इजरायल शांति समझौते था जिससे फिलिस्तीनी प्राधिकरण (पीए) का गठन का मार्ग प्रशस्त हुआ था, एक प्रशासनिक निकाय है जो फिलीस्तीन पर शासन करता है।
ग़ाज़ा और वेस्ट बैंक के कुछ क्षेत्रों पर आज फ़िलिस्तीनियन ऑथोरिटी अपनी सरकार चला रही है लेकिन वहाँ आज भी इज़राइल सेना का प्रभुत्व बना हुआ है, वो इज़राइल से आजाद नहीं है हर एक मामलों में। वेस्ट बैंक में फ़िलिस्तीन अरबों की बस्तियों में ऊँची ऊँची दीवारें लगा दी गयी हैं। सुरक्षा चौकियों पर उन्हें कई घंटे बिताने पड़ते हैं तब जाकर वो एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ-जा सकते हैं। स्वास्थ्य समस्या, ग़रीबी, अशिक्षा और सबसे ज्यादा पानी की समस्या फ़िलिस्तीनियों के लिए संकट का विषय है। जिसके लिए फ्लिस्तीनियन अरब ,इज़राइल को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। कुछ फ़िल्स्तीनी अरब अब यह भी कहने लगे हैं कि घंटों सुरक्षा चौकियों पर खड़े रहने से अच्छा है कि इज़राइल पूरे क्षेत्र को कब्ज़ा क्यों नहीं ले लेता। आज फ़िलिस्तीन अरबों की हालत वैसी ही है जैसी कभी यहूदियों की रही है। जैसे उन्हें मुक्त आवगमन की छूट नहीं थी उन्हें घंटों लाइन में खड़े रहना होता था, आज़ादी शब्द से वो परिचित नहीं थे।
बड़ी संख्या में यहूदी भी यह मानते हैं कि फ़िलिस्तीन अरबों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है और दो देश के समाधान के रूप में इसका हल तलाश करने की कोशिश करते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है की इतना गोला-बारूद, आक्रामकता के रहते फ़िलिस्तीनियों की आवाज़ नहीं दबाई जा सकती। इज़राइल भी अपने आप को हारा हुआ महसूस करता है और पूरा क़ब्ज़े की घोषणा कर देता है तो फ़िलिस्तीनी अरबों को नागरिकता देनी पड़ेगी और नागरिकता देगा तो वोटिंग अधिकार भी नहीं देगा और यदि नहीं देगा तो दुनिया में उसके लोकतंत्र को कौन मानेगा। डर में सिर्फ फ़िलिस्तीन ही नहीं रह रहे हैं बल्कि इज़राइल निवासी भी। ॲस्क़ेलान एक शहर है जिसकी की सीमा ग़ाज़ा से सटी है। ॲस्के़लान शहर में सड़क के क़िनारे होटल, पार्क एवं बच्चों के खेल के ग्राउंड में ऐसी इमारतें बनायी गयी हैं जो ग़ाज़ा की तरफ़ से आये किसी भी तरह के रॉकेट हमला से उन्हें बचाया जा सकता है। ऐसा बताया गया की अगर आप 8 सेकंड दौड़ लगा लेते हैं तो आप को एक बंकर ज़रूर मिल जायेगा जहाँ इन रॉकेट हमलों से बचा जा सकता है। जबकि आज एंटी रॉकेट मिसाइल इज़राइल में लगी हुयी है। शांति का मतलब तब है जब नागरिकों को इस तरह के बंकर की ज़रूरत न पड़े। मनोविज्ञानी मानते हैं आज भी बहुत लोग ऐसे हैं जिनकी पूर्व में हुए रॉकेट के हमलों की आवाजे सुनकर उनकी मनोदश ठीक नहीं है। एक नेता ने यह बताया की वास्तव में इज़राइल हार गया है यदि फ़िलिस्तीन अरब आज भी हमको टक्कर दे रहे हैं। इसका मतलब है की फ़िस्तीनियों को हराया नहीं जा सकता।
आज इज़राइल में क़रीब 20 प्रतिशत आबादी फ़िलिस्तीन अरबों की है जिसे इज़राइल इसरायली अरब कहता है। इज़राइल की ऑफ़िशियल भाषा हिब्रू है जबकि दूसरी भाषा अरबी है। पुरानी पीढ़ी के लोग ख़ासकर ओरिएण्टल यहूदी लोग अरबिक भाषा बोलते और समझते हैं जबकि नयी इज़रायली पीढ़ी की अब यह दूसरी भाषा नहीं रही। इज़राइल में अरब इज़राइल सांस्कृतिक परिषद् की स्थापना अरब और यहूदियों को एक दूसरे के निकट लाने की लिए नागरिक संगठनों द्वारा कोशिश की गयी थी लेकिन निरंतर समस्या बनी रहने की वजह से बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सका।
अरब और इजराइल के बीच कुछ वर्षों बाद इस तरह के संघर्ष होते रहते हैं इन संघर्सों से इजराइल को और भी क्षेत्र पर नियंत्रण का मैका मिल जाता है. उतने साल इजराइल चैन से रहता है. बहुत लोगों का यह भी मानना है की इजराइल पूरे क्षेत्र को आधिकारिक रूप से नियंरण में क्यों नहीं कर लेता इसका सीधा जवाब है इजराइल फिलस्तीन अरबों को सिर्फ जेल की रखना चाहता है यदि अधिकारिक रूप से मिला लेगा तो फलिस्तीन अरबों की संख्या इजराइल के बराबर य उससे अधिक हो जाएगी और उनका सरकार में बहुमत भी हो सकता है. इसलिए ये संघर्ष इजराइल के लिए फायदेमंद हैं।
(डॉ. अजीजुर्रहमान आज़मी अलीगढ़ मुस्लिम विवि के वेस्ट एशियन स्टडी सेण्टर में अस्सिटेंट प्रोफेसर हैं )
Dated : 25 June, 2021