Friday, March 29, 2024
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उस्लापुर की सगुना बाई

बिलासपुर से लखनऊ जाने के लिए गरीब रथ पर चढ़ने के लिए जब उस्लापुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहुंची तब एक महिला कुली दिखाई दीं जो अन्य यात्रियों का सामान ट्रेन में चढ़ाने के लिए खड़ी थीं। उनसे कुछ जानने और बात करने की उत्सुकता बढ़ी। बात करने पर अपना नाम सगुना बाई बताया। सगुना […]

बिलासपुर से लखनऊ जाने के लिए गरीब रथ पर चढ़ने के लिए जब उस्लापुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहुंची तब एक महिला कुली दिखाई दीं जो अन्य यात्रियों का सामान ट्रेन में चढ़ाने के लिए खड़ी थीं। उनसे कुछ जानने और बात करने की उत्सुकता बढ़ी। बात करने पर अपना नाम सगुना बाई बताया। सगुना बाई के पति उस्लापुर प्लेटफॉर्म पर कुली का काम करते थे लेकिन किसी बीमारी से उनका निधन हो गया। पति के निधन के बाद उनके सामने बच्चों को किस तरह पाला जाए ये समस्या सामने आई। उन्होंने बताया कि कहाँ जाती, किसके सामने हाथ फैलाती क्योंकि सवाल रोजी-रोटी का था। बच्चे छोटे थे, उनकी पढ़ाई-लिखाई और देखरेख कैसे होती? इसकी चिंता बहुत थी, कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।

सगुना बाई अनपढ़ हैं लेकिन उनकी जीवटता ने उन्हें इस काम को करने का संबल दिया। बातचीत में उन्होंने बताया कि कई साल पहले ही उनके बच्चे रोजी-रोजगार से लग गए हैं और कई बार सगुना बाई को काम नहीं करने के लिए कहा लेकिन उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहते हुए मना कर करते हुए कारण बताया कि आर्थिक आधार उन्हें मजबूती देता है।

पति पंजीकृत कुली थे, ऐसे में उनके मन में यह बात आई कि क्यों न पति के बदले खुद कुली का काम कर लें और इसके लिए जब बात करने गईं तो स्टेशन इंचार्ज ने मना किया लेकिन बाद में उन्हें कुली के काम के लिए पंजीकृत कर लिया। जब पहली बार साड़ी पर कुली का एप्रेन पहन स्टेशन आईं अन्य पुरुष कुलियों ने भी उन्हें अजीब नजरों से देखा और हँसी उड़ाई। लोगों के ये भरोसा था कि ज्यादा दिन तक इस काम में टिक नहीं पाएंगी क्योंकि भारी सामान उठाना और एक प्लेटफॉर्म से दूसरे प्लेटफॉर्म पर लेकिन जाना, गाड़ी में उतारना चढ़ाना इसके बस का नहीं लेकिन स्त्रियों को कम आंकने वाले भूल जाते हैं कि आज के समय में स्त्रियों ने बहुत से ऐसे क्षेत्रों में झंडा बुलंद किया है जिसे केवल पुरुषों ने अपने काम का गढ़ मानते रहे हैं। सगुना बाई अनपढ़ हैं लेकिन उनकी जीवटता ने उन्हें इस काम को करने का संबल दिया। बातचीत में उन्होंने बताया कि कई साल पहले ही उनके बच्चे रोजी-रोजगार से लग गए हैं और कई बार उनको काम नहीं करने के लिए कहा लेकिन उन्होंने स्पष्ट रूप से मना करते हुए  कहा कि आर्थिक आधार उन्हें मजबूती देता है। और शायद यही बात है कि उम्र के इस पड़ाव में भी लगातार मेहनत कर रही हैं। सगुना बाई और  इस जज़्बे को सलाम यदि स्त्रियों को पितृसत्ता के खिलाफ खड़े होना है तो हर स्त्री को आर्थिक रूप से सक्षम होना जरूरी है।

अपर्णा
अपर्णा रंगकर्मी और गाँव के लोग की संस्थापक कार्यकारी संपादक हैं।

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