Saturday, July 27, 2024
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मिर्ज़ापुर : शायर की क़ब्र पर उगी घास और समय की मांग से बाहर होती जा रही मिर्ज़ापुरी कजरी

उत्तर प्रदेश के लोकगायन में बहुत चर्चित विधा है कजरी। कजरी की बात होने पर मिर्ज़ापुरी कजरी और लोककवि बप्फ़त का नाम आना सहज है। दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। आज भले ही कजरी गायन की रौनक कम हो रही है लेकिन कजरी लेखक बफ़्फ़्त की लिखी कजरी आज भी गाई और सुनी जाती हैं। बेशक उनकी कब्र वीरान पड़ी है, उन्हें याद करने वाले कम हो गए हों लेकिन जब-जब कजरी की बात होगी बप्फ़त की याद जरूर आएगी।

मिर्जापुरी कजरी का नाम आते ही लोककवि बप्फ़त का नाम आना इतना सहज है कि इससे दोनों के बीच के संबंध को आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन अब दोनों ही जीवन-व्यवहार से दूर होते जा रहे हैं। हज़ारों कजरियाँ लिखनेवाले बप्फ़त शेख़ की कब्र पर घासें उग आई हैं और कजरी के दंगल अब इक्का-दुक्का ही हो पाते हैं। मिर्ज़ापुर जिले के सीखड़ गाँव में रह रही बप्फ़त की चौथी और पाँचवीं पीढ़ी बदहाली की ज़िंदगी जी रही है। गौरतलब है कि बप्फ़त गमछा बुनकर अपनी आजीविका चलाते थे। यह काम उनके बेटे और पोते ने भी किया लेकिन उनके परपोते मुकीम उर्फ छेदी और अमीन अंसारी कालीन बुनाई करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। उनके दोनों परपोते अपने परदादा की कई-कई कजरियाँ गाकर सुना देते हैं लेकिन उनकी स्मृतियों को सँजोने के लिए कुछ भी करने में वे लाचार हैं। बप्फ़त की कब्र के पास कुछ साल पहले नीम का एक बड़ा पेड़ हुआ करता था। मंसूबा था कि यह पेड़ बेचकर बप्फ़त की कब्र को पक्का कराया जाएगा लेकिन पेड़ कट गया और उसका पैसा कहाँ गया यह आज भी रहस्य बना हुआ है।

लोकस्मृतियों और किंवदंतियों में रचा-बसा जीवन

मिर्जापुरी कजरी को आज जो भी मुकाम हासिल है उसमें बप्फ़त का केंद्रीय योगदान है। कहा जा सकता है कि वह मिर्जापुरी कजरी के पितामह थे। वह वैसे ही थे जैसे आगरे में नज़ीर अकबराबादी थे। लोक स्मृतियों का विशाल विस्तार उनकी कविताओं से समृद्ध है। इसके बावजूद बप्फ़त की उपलब्धियों को सँजोने का कोई भी काम नहीं हुआ है। न उनकी कविताओं का कोई संकलन है और न ही उनका कोई स्मारक है। उनकी समृद्ध विरासत को सँजोने के लिए बप्फ़त की स्मृति में कजरी अकादेमी बनाई जा सकती थी लेकिन बप्फ़त के प्रति लगाव दिखानेवाले छुद्र राजनीति और संकीर्ण सोच के लोगों ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया। अत्यंत लोकप्रिय होने और जन-मन में बसे होने के बावजूद बहुत से लोगों के लिए बप्फ़त एक ‘मियाँ’ भर हैं। शायद इसीलिए बप्फ़त की कोई व्यवस्थित जीवनी भी नहीं है।

माना जाता है कि बप्फ़त का जन्म 19 वीं शताब्दी के मध्य-काल में मिर्ज़ापुर जिले के चुनार तहसील में स्थित सीखड़ गाँव में हुआ था। उनके छोटे परपोते अमीन अंसारी ने बताया कि उनके परिवार में गमछा बुनाई का काम होता था। उन्होंने यह काम सीख लिया था। कजरी लिखना और गाना उनका शौक था। उन्होंने कजरी गाकर नहीं बल्कि गमछा बीनकर ही अपनी आजीविका चलाई।

उनके प्रारम्भिक जीवन के बारे में दो तरह के बयान मिलते हैं। कहा जाता है कि उन्हें बचपन में उन्हें कौड़ी खेलने की लत लग गई। काम से ज्यादा उन्हें कविता बनाने और कौड़ी खेलने में मज़ा आता था। शायद पिता की डांट अथवा किसी और बात से दु:खी होकर वह कलकत्ता चले गए। वहाँ कौड़ी खेलते हुए अंग्रेजी पुलिस के हाथ लग गए। उन दिनों यह एक अपराध था इसलिए बप्फ़त को इसकी सज़ा मिली। अंग्रेजी पुलिस ने उनको काला पानी अर्थात अंडमान निकोबार द्वीप समूह भेज दिया। वहाँ वह कई साल तक रहे।

कहा जाता है कि वहाँ पड़ोस में रहनेवाले एक परिवार में उनका आना-जाना था। उसी परिवार की एक महिला उनकी कविताओं को बड़ी दिलचस्पी से सुनती। धीरे-धीरे उनके बीच प्रगाढ़ संबंध बन गए और एक समय ऐसा आया कि उन्होंने एक दूसरे के बिना जीने से इन्कार कर दिया और मिर्ज़ापुर चले आए।

कजरी के लोककवि बप्फ़त के परपोते मुकीम उर्फ छेदी, अमीन अंसारी और अज़ीम उर्फ लबेदी

उनके परपोते अमीन अंसारी कौड़ी खेलने और पुलिस द्वारा काला पानी भेजे जाने की बात को नहीं मानते बल्कि उनका मानना है कि उनके परदादा कालापानी घूमने गए थे। वहाँ से जिस महिला को लेकर वह आए थे बाद में उसी से उन्होंने शादी की। उनके दो बेटे हुये करीमुल्ला और इक़बाल। बप्फ़त की पहली शादी किशोरावस्था में ही कर दी गई थी लेकिन जब वह अपनी दूसरी पत्नी के साथ वापस आए तो पहली पत्नी को तलाक दिया। अमीन ज़ोर देकर कहते हैं कि यह तीन तलाक जैसा मामला नहीं था बल्कि उन्होंने अपनी पहली पत्नी से कहा कि जब मुझे एक के ही साथ रहना है तो दो का निर्वाह करने के नाम पर मैं तुम्हारी ज़िंदगी क्यों चौपट करूँ जबकि मैं पूरे मन से उसके साथ हूँ जिसे लेकर आया हूँ। इस प्रकार आपसी सहमति से उन्होंने पहली पत्नी से संबंध खत्म किया।

बप्फ़त ने लंबी उम्र पाई। उनकी मृत्यु अस्सी साल की अवस्था में 25 अप्रैल 1936 में हुई। उनकी क़ब्र के पास ही उनकी पत्नी की भी क़ब्र है।

तथ्यहीन सूचनाओं के जाल में एक लोककवि

कुछ लोग कहते हैं कि कालापानी में जिस महिला से उन्हें प्रेम हुआ वह जाति की ठकुराइन थीं और बप्फ़त की शायरी एवं कजरी से बेहद प्रभावित थीं। इसी कारण उनके यहाँ इनका प्रायः आना-जाना होता रहता था। वे इन्हें बहुत सम्मान देती थीं। उनकी इसी भावना को देख पड़ोसियों के दिलोदिमाग में बवंडर मच गया। अफवाहों का परिणाम यह हुआ कि ठाकुर साहब ने अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया। ऐसी स्थिति में ठकुराइन साहिबा ने कहा ‘जब झूठ में ही हम बदनाम हो गए तो क्यों न हम एक हो जाएं’ सो उन्हें बप्फ़त ने अपनी जीवनसंगिनी बना लिया। कुछ लोग कहते हैं कि वह पूर्वांचल का ही कोई ठाकुर परिवार था। उनकी पत्नी को पढ़ा-लिखा बताया जाता है। लोगों का कहना है कि बप्फ़त जब मौखिक रचना करते थे तो वह लिख लेती थीं।

लेकिन तार्किक रूप से देखने पर कई बातें बेसिर पैर की मालूम देती हैं। कालापानी अंडमान की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में है जो हिन्द महासागर में स्थित है। अंग्रेजों द्वारा बनवाई गई कुख्यात सेल्यूलर जेल पोर्ट ब्लेयर में ही है। इसे लोकभाषा में कालापानी कहते हैं जिसका मतलब ऐसी जगह के रूप में निकाला जाता है जहां से ज़िंदा बचकर कोई नहीं आ सकता। इस लिहाज से देखा जाय तो बप्फ़त कवि कालापानी गए हों यह तार्किक नहीं लगता। क्योंकि उस जमाने में उत्तर भारत से सज़ायाफ़्ता कैदी ही उधर भेजे जाते थे। कोई मिर्ज़ापुर से चलकर वहाँ घूमने जाय यह तो बिलकुल कपोल कल्पना लगती है। कलकत्ता का ज़िक्र आता है कि घर से नाराज होकर वे वहाँ गए। ठाकुर की पत्नी से प्रेम की अधिक संभावना भी कलकत्ता में ही दिखती है क्योंकि उस दौर में पूर्वी उत्तर प्रदेश से लोग कलकत्ता ही जाते थे। कलकतवा से बलमुआं मोर आय गइलन अथवा लागल झुलनिया क धक्का बलम कलकत्ता निकल गए जैसी पंक्तियों में उस शहर का ज़िक्र है जहां रोजगार मिलता था। कलकत्ता को लेकर लोकमानस में सैकड़ों गीत हैं।

उससे भी ज्यादा हास्यास्पद यह लगता है कि वह जिस महिला को अपने साथ लेकर आए वह जाति से ठकुराइन थी। बेशक भारत एक जाति-व्यवस्था वाला देश है लेकिन आज से डेढ़-पौने दो सौ साल पहले कोई ठाकुर साहब वहाँ क्यों गए होंगे? उन्नीसवीं शताब्दी में सबसे कम माइग्रेशन जिन जातियों का हुआ था उनमें सबसे ऊपर ठाकुर जाति थी क्योंकि भोजन के रूप में इनके सामने कोई संकट नहीं था। अगर वह वहाँ के मूल निवासी रहे होंगे तो वहाँ उत्तर भारत जितनी सघन जाति व्यवस्था रही हो यह कैसे संभव है? तीसरी बात यह कि उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध में स्त्री शिक्षा के बहुत अधिक सबूत नहीं मिलते। स्त्री शिक्षा के लिए वह शैशव काल था और इसका विस्तार निश्चित रूप से बहुत सीमित रहा होगा।

यह जरूर हो सकता है कि बप्फ़त की प्रसिद्धि देखकर लोगों ने महिला की जाति गढ़ ली हो। यह भी संभव है कि वह महिला ऐसे परिवार की रही हो जो अपने को ठाकुर कहने में गर्व महसूस करता हो। आज भी लोग इस तरह से अपनी श्रेष्ठता साबित करते रहते हैं। वे आपसी बात-विचार में अपने लिए एक मिथक बनाने में गर्व की अनुभूति करते हैं। बप्फ़त अनपढ़ थे और महिला पढ़ी-लिखी थी, इसमें कोई अचरज की बात नहीं लेकिन जिस कालखंड की बात हो रही है उसके हिसाब से इन प्रचलित कथाओं पर भरोसा होना मुमकिन नहीं है।

उपरोक्त तर्कों के आधार पर प्रतीत होता है कि बप्फ़त की ज़िंदगी के बारे में सुनी-सुनाई बातें ही ज्यादा प्रचलित हैं और उनकी असली ज़िंदगी के रहस्य सामने आना अभी बाकी हैं।

बप्फ़त की कविताओं की रेंज बहुत बड़ी है

यह सत्य है कि अभी तक बप्फ़त की रचनाओं के बारे में केवल अनुमान है। वास्तव में उनकी संख्या कितनी है इसके बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं है। कुछ लोगों द्वारा कतिपय संकलन किया गया है। इनमें एक महत्वपूर्ण नाम शितिकण्ठ मिश्र का है जिनके द्वारा बनाई गई बप्फ़त की कविताओं की पाण्डुलिपि नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी में सुरक्षित है। कुछ और लोगों ने भी कुछ कविताओं को दर्ज किया है। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्राध्यापक वीरपाल सिंह यादव ने भी इस विषय में संभवतः कुछ काम किया है।

लेकिन लिखित रूप में बहुत ज्यादा उपलब्ध न होने के बावजूद बप्फ़त हजारों लोगों की ज़बान पर सुरक्षित हैं। मिर्ज़ापुर अंचल के गाँव-गाँव में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो उनकी लिखी रचनाओं को आराम से सुना देंगे। बेशक ऐसे लोग धीरे-धीरे विदा होते जा रहे हैं लेकिन अभी भी बहुत बड़ी संख्या है जो बप्फ़त की मुरीद हैं।

बप्फ़त ने मिर्जापुरी कजरी की एक अलग शैली विकसित की। उन्होंने अपनी स्थानीय भाषा शैली में लिखना आरम्भ किया और जीवनपर्यंत इसी भाषा शैली में लिखते रहे। उन्होंने गीत की कई शैलियों को अपनाया लेकिन कजरी विधा को वे शिखर पर ले गए।

अपनी कजरी के लिए बप्फ़त की ख्याति देश और काल की सीमाओं के पार तक फैली। भारत ही नहीं, ट्रिनिडाड, टोबैगो, मॉरीशस, गुयाना और फ़िजी आदि देशों में भी उनकी धमक पहुंची, जहाँ हिंदी और भोजपुरी भाषी गिरमिटिया मजदूरों के द्वारा उनके लिखे भजन, निरगुन व कजरियों को बड़ी तन्मयता से गाया और सुना जाता रहा। जहाँ हिन्दी और भोजपुरी भाषी गिरमिटिया मजदूरों की पीढ़ियाँ आज भी आबाद हैं, वहाँ लोकश्रुतियों में बप्फ़त के कई प्रसंग आज भी जिंदा हैं।

किसानों और श्रमजीवियों की संस्कृति के गायक बप्फ़त की कविताओं को पढ़ते हुये स्पष्ट हो जाता है कि उनपर कबीर का गहरा प्रभाव तो था ही, लोक में विद्यमान आस्था और राग-विराग के भी वह समर्थ कवि थे। उनके रूपक प्रायः अपनी व्यंजनाओं में सुनने वालों को ऐसी वीतरागी अवस्था में ले जाते हैं जहां भौतिक चमक-दमक से ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य का आत्मबल दिखाई देता है।

वह स्वयं जिस सामंती समाज की उपज थे उसमें आमजन का शोषण करके अपने वैभव को अधिक से अधिक बढ़ाने की ललक एक प्रमुख मूल्य था। न्याय-अन्याय की अवधारणा ताकतवर की इच्छा के अनुरूप बनती-बिगड़ती थी। ऐसे में सामाजिक संवेदना का संकट आम बात थी। बप्फ़त अपनी शायरी में इस बात पर गहरी टिप्पणी करते हैं। वह आज पर ही ध्यान देने की जगह कल यानी भविष्य की परिस्थितियों के मूल्यांकन पर ज़ोर देते हैं। उनकी कई कजरियों में यह बात मिलती है।

उनके लिए इंसान का इंसानी भावनाओं से भरा होना बहुत बड़ी बात थी और किसी भी दिखावे या पाखंड को जीवन के लिए गैरज़रूरी मानते हैं। एक तरह से उन्होंने पाखंडपूर्ण और ढकोसलामय जीवन की आलोचना की है। अपनी एक कजरी में वह कहते हैं- गली गली घूम घूम कर/होती क्यों परेशान सखी घर बइठे बैकुंठ मिले जब /साबित रहे इमान सखी…
इन्हीं कारणों से बप्फ़त की दर्जनों कविताओं को कई बिरहियों और नौटंकी के कलाकारों ने अपने तरीके से संगीत में ढाला और गया।

इसके साथ ही बप्फ़त ने अनेक लोकप्रचलित कथाओं, रामायण, महाभारत और कुरआन आदि के विविध प्रसंगों को अपनी कजरियों में ढाला। उनकी कजरियाँ प्रायः कथात्मक और लंबी हुआ करती हैं। यह भी दिलचस्प है कि सीखड़ में जब कई-कई अखाड़े के कजरी गायक मुक़ाबले में खड़े होते तो प्रायः उनकी कजरियों के रचनाकर बप्फ़त ही होते। हर कोई अपने अंदाज और कला कौशल से जीत का स्वाद पाता।

सौन्दर्य और अध्यात्म का अनूठा अंदाज

बप्फ़त की कजरियों में जहां श्रृंगार और सौंदर्य की अनुभूति की सघनता मिलती है वहीं उनकी निर्गुण रचनाओं में परमात्मा से चिर-मिलन की अतृप्त अभिलाषा दिखती है। वह जितने गहरे भावों के चितेरे थे उतने ही बड़े शब्द शिल्पी भी थे। तुक और तान का उनके यहाँ जैसा समन्वय मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

इन्हीं कारणों से बप्फ़त की कजरी सबसे बेजोड़ है। इनकी कजरियों का असर इतना व्यापक था कि इसे सुनने के लिए लोग-बाग दूर-दूर से आते रहे हैं। बताया जाता है कि वह एक वक्त था कि गाँवों में जब किसी के घर कजरी का आयोजन होता तो मेहमानों का जमावड़ा इतना अधिक हो जाता था कि सोने-बैठने के लिए खटिया नहीं मिल पाती थी। तमाम लोगों के यहाँ तो मेहमानों के खाने-पीने के लिए हन्डे अथवा बड़ी डेग चढ़ते थे।

यह वह जमाना था जब गाँव पुर के लोगों में मैत्री की भावनाएं इस कदर थीं कि किसी के घर शादी पड़ जाती थी तो अपने लोगों में चर्चा कर दिया जाता था ताकि आसानी से बर्तन, भांड़े, खटिया, बिछौने की व्यवस्था हो सके। आयोजन से पूर्व लोग सूचित कर देते थे ताकि उसी तारीख पर कोई अन्य जन अपने घर शादी ब्याह इत्यादि कार्यक्रम न रख दें। इस तरह की भावनाएं और छबियाँ फिलहाल इस समय तो देखने को नहीं मिलतीं।

बप्फ़त के पैतृक गाँव सीखड़ में हर साल उनकी स्मृति में कजरी गायन का वार्षिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। यह बावन द्वादशी के दिन अपरान्ह कुश्ती दंगल के रूप में आरम्भ होता है। सायंकाल कजरी गायन की शुरुआत होती है। दूसरे दिन शाम को इसका समापन होता है। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है।

एक समय था जब यहाँ कजरी गायकों का तांता लगता था। उनमें होड़ होती थी कि कौन श्रद्धांजलि देने में बाजी मारता है। श्रोताओं की इतनी भारी भीड़ लगती कि कार्यक्रम स्थल छोटा पड़ जाता था। कभी-कभी तो प्रकृति भी कजरी सुनने वालों की दीवानगी की परीक्षा लेती थी। कार्यक्रम के दौरान बारिश होने लगती तो भी लोग भींग कर कजरी सुनते और अपना स्थान नहीं छोड़ते थे।

सीखड़ के उपेक्षित कबीर

बप्फ़त को लोक ने जितना मान दिया उतना सीखड़ ने उन्हें मान नहीं दिया बल्कि यथासंभव उपेक्षित ही किया। सीखड़ की रामलीला सौ वर्ष पुरानी मानी जाती है जिसके मंचन में बप्फ़त की बहुत सी रचनाएँ शामिल की जाती हैं। खासतौर से जब लाग निकलती है तब उनकी कई रचनाएँ गायी जाती हैं।

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सीखड़ रामलीला कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष और नवचेतना नामक संस्था के संचालक सीईओ मुकेश पाण्डेय सौरभ

सीखड़ रामलीला कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष और नवचेतना नामक संस्था के संचालक सीईओ मुकेश पाण्डेय सौरभ कहते हैं ‘बप्फ़त शायर की रचनाओं की जो शृंखला है वह बहुत बड़ी है लेकिन दुर्भाग्यवश उसे संकलित नहीं किया जा सका है।’ मुकेश को उनकी कई रचनाएँ याद हैं और उन्होंने गाकर सुनाया। उनके पिता भी बप्फ़त की शायरी के मुरीद थे।

सीखड़ के युवा कवि ज्ञानेश मणि पाठक बताते हैं कि ‘मेरे बचपन में बप्फ़त शायर के बारे में हमारे बाबा, पिता, चाचा, दादी वगैरह बताया करते थे। वे लोग उन्हें गृहस्थ फकीर कहते थे। मेरे पिता उनकी कई कजरियाँ सुनाया भी करते थे। उनमें से एक लाइन मुझे याद है कि कौन जवाब खुदा के देबा जब पूछिहें मुसुक चढ़ायके। एक तरह से जो पाखंड हिन्दू धर्म में या और समाज में आ गया था उस पर उन्होंने बहुत गंभीर टिप्पणी की है। कुरीतियों पर कुठाराघात किया। जब मैं बड़ा हुआ तो मालूम हुआ उनकी याद में इस गाँव में हर साल कजरी का कार्यक्रम होता है। उनके बारे में धीरे-धीरे मैंने काफी कुछ जाना। इस गाँव के उमेशचन्द पाण्डेय ने उनकी रचनाओं का बड़ा संकलन तैयार किया है।’

सीखड़ के युवा कवि ज्ञानेश मणि पाठक

बप्फ़त का घर देखना एक दुखद अनुभव है। कई पीढ़ियों के बीच अब कोई यादगार चीज नहीं बची, सिवा उस कुएं के जिसे बप्फ़त ने बनवाया था और जिसपर पुराने दिनों में एक घिर्री लगाई गई थी और अब सबमरसिबल पंप से पानी निकाला जाता है। कुएं के पास ही खाली जगह को दिखते हुये उनके परपोते अमीन अंसारी कहते हैं कि यहीं बप्फ़त शायर गमछा बुना करते थे। उसी से उनकी आजीविका चलती थी। उनकी कजरी से खुश होकर एक बड़े जमींदार ने उन्हें सौ बीघा ज़मीन देनी चाही लेकिन उन्होंने नहीं ली। कजरी लिखना गाना उनका शौक था। उसे व्यापार नहीं बनाया।

उनके शिष्यों की विशाल मंडली थी और कुएं के पास रोज महफिल जुटती थी। उनके बहुत से चेले नामचीन कजरी गायक बने। अमीन और उनके बड़े भाई की यादों में बप्फ़त की कई कजरियाँ हैं और उन्हें बहुत शौक से सुनाते हैं। वह भी चाहते हैं कि सरकार उनके परदादा की सुध ले और उनका स्मारक बनवाए। अमीन और उनके परिवार में आजीविका का कोई ठोस साधन नहीं है। दोनों भाई कालीन बुनाई करते हैं।

बप्फ़त की क़ब्र हमेशा घास-फूस से ढँकी रहती है। वहाँ जाने का कोई रास्ता तक नहीं है। अगर ऐसे ही रहा तो एक दिन लोग यह भी भूल जाएंगे कि यहाँ एक बड़ा लोककवि अपनी संगिनी के साथ सो रहा है।

कजरी के लोककवि बप्फ़त द्वारा बनवाया गया कुआं

कुछ लोग कहते हैं कि मिर्ज़ापुर प्रशासन ने सावन में बप्फ़त की याद में एक दिन की छुट्टी मुकर्रर की है। इसके बावजूद कुछ वर्षों से पहले जैसी दीवानगी में कमी होने लगी है। बदलती हुई उत्पादन व्यवस्था में कजरी चलन से बाहर होती जा रही है। बप्फ़त जैसे कद्दावर लोककवि की समृद्ध विरासत इसका शिकार होने लगी है। मिर्ज़ापुर में चकबंदी अधिकारी, लेखक और लोकसाहित्य के मर्मज्ञ अतुल यादव कहते हैं ‘यह दुखद है कि कवि की क़ब्र के पास खड़ा नीम का पेड़ कट गया और उसका पैसा किसके पास गया पता नहीं लेकिन उनके चाहनेवालों से यह उम्मीद स्वाभाविक है कि अपने कवि की स्मृति सँजोने के लिए आगे आयें।’

2 COMMENTS

  1. सर, आप और आपकी टीम ने अच्छी मेहनत की है। बप्फ़त जैसों को संजोए रखना हमारी ज़िम्मेदारी है। इस तरह के अन्य विस्मृत पुरखों को भी आप ढ़ूढ़ निकालेंगे और उनको विस्मृत होने से बचाएंगे ऐसी उम्मीद है..

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