बनारसी मुसहर और रामप्रीत नट को बचाने की लड़ाई आसान नहीं है क्योंकि उनके लिए संघर्ष करने के लिए एक मजबूत विचारधारा वाले कानूनी लोग चाहिए। दरअसल बहुजन, दलित, अम्बेडकरी, हिन्दू, अहिंदू ये सभी बड़ी-बड़ी अस्मिताएँ हैं जो राजनैतिक हैं और गाँव में जातीय अस्मिता के वजन तले आसानी से टूट जाती हैं। आपको अच्छे वकील नहीं मिलते। बड़ी-बड़ी बातें कहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता समय पर गायब हो जाते हैं।
आज भी हम गाँवों में दलीय और जातीय राजनीति के अनुसार ही सही-गलत के निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। मुसहर और नट जातियों के तो वकील या नेता ही नहीं मिलेंगे। और यदि संघर्ष या मतभेद आपसी जातियों में है तो ‘बहुजन’ या ‘दलित’ कहलाने वाले वकील भी केस नहीं लेंगे।
‘गाँवों में अभी भी जातीय अस्मिताओं से ऊपर उठकर बौद्धिक ईमानदारी से काम करने की आवश्यकता है। तभी हम दलित-पिछड़ों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध एक बेहतर विकल्प खडा कर पायेंगे। नहीं तो समाज में शोषण की प्रक्रिया जारी रहेगी और साहित्य और राजनीति मात्र अपनी छिपी हुई महत्वाकांक्षायों की पूर्ति का साधन भर रहेगा जिसमें असल मुद्दे गायब रहेंगे। हमारी ‘सुविधाओं के अनुसार मुद्दे बनते-बिगड़ते रहेंगे। उसमे बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की भावना गायब रहेगी। आइये जन हित में अपने जातिगत पूर्वाग्रहों से बाहर निकलकर समाज जोड़ने का काम करें!’
हमारे सामने यही समस्या थी। दोनों परिवारों से बातचीत के बाद यह साफ़ पता चल चुका था कि बनारसी मुसहर हत्याकांड में बड़ी जातियों का खेल है और रामप्रीत नट को फंसाया गया है। रामप्रीत के परिवार की हालत तो बेहद खराब है। उनके परिवार के अधिकांश सदस्य बीमार हैं। उसके पिता भीख मांग-मांग कर गुजारा करते हैं। और बहुत साल पहले अपने घर से बाहर ही थे लेकिन रामप्रीत जब से जेल में था तब से वह उसके लिए भीख मांग मांग कर पैसे इकठा कर रहे हैं। रामप्रीत का स्वास्थ्य ख़राब है और उसकी पत्नी भी बीमार रहती है। उसकी किडनी की समस्या थी और इलाज चल रहा था। बच्चे बहुत छोटे हैं। जब मैंने बनारसी मुसहर को न्याय कैसे मिले लेख लिखा तब मेरे लिए यह एक बेहद दुखद स्थिति थी क्योंकि प्रेरणा केंद्र से कुशीनगर जिले का मुख्यालय पडरौना बहुत दूर था और दोनों ही परिवारों के लिए भी कोइलसवा गाँव से पडरौना जाना बिना निजी वाहन के संभव नहीं था। जब तक हमें इस घटना के पूरे तथ्यों की जानकारी मिली तब तक बहुत देर हो चुकी थी और लॉकडाउन के कारण वैसे ही कोई सरकारी कार्य नहीं हो पा रहा था। तब भी मैंने कोशिश की यह प्रश्न लोगों के समक्ष आये और कोविड के दौरान भी दलितों पर हो रही हिंसा और उसमें सरकारी तंत्र की असफलता की जानकारी लोगों को दी जाए। इससे यह भी पता चले कि गाँवों तक पहुँचते-पहुँचते क्यों हमारे बड़े बड़े नारे विफल हो जाते है।
घटना के बाद एक संगठन की कहानी
एक दिन दिल्ली से मुझे एक मित्र का फोन आया जिनका संगठन मानवाधिकारों पर काम कर रहा है। उन्होंने मुझसे इस सम्बन्ध में पूछा तो मैंने उन्हें बताया के कैसे दो दलितों को एक दूसरे का दुश्मन बनाकर मामला रफा-दफा हो गया है और दोनों परिवार अब बहुत मुश्किल आर्थिक हालात से गुजर रहे हैं। मैंने रामप्रीत के विषय में भी बताया कि वो जेल में है और उसका परिवार भी मुश्किल हालत में है। हमारे मानवाधिकारवादी लोगों ने कहा के वे जल्दी से जल्दी हमारे केंद्र का दौरा करना चाहेंगे और फिर उस गाँव जायेंगे जहाँ यह घटनाक्रम हुआ। मैंने उन्हें बताया कि रिपोर्ट तो मैंने पूरी बनायी है और मैं उत्पीड़ित लोगों को अपने केंद्र में बुला दूंगा। यदि आपको गाँव देखना हो तो हम केवल घूमने के नाम पर ही वहाँ जायेंगे। वह राजी हो गए और फिर जनवरी में 4 सदस्यों की एक टीम के साथ वे सब प्रेरणा केंद्र पहुंचे। वहाँ बातचीत के बाद ही वे सभी गाँव जाने की जिद करने लगे। मैंने उन्हें कहा कि गाँव की राजनीति अलग होती है और यदि आप वहाँ इस प्रकार से जाएंगे तो बहुत कुछ पता भी नहीं चलेगा और विपक्षी लोग भी अलर्ट हो जायेंगे। फिर बाद में उन लोगों को परेशान करेंगे। मैंने उन्हें कहा कि बनारसी मुसहर और रामप्रीत नट की पत्नी को हम अपने केंद्र पर बुला लेते हैं और आप उनसे वहाँ बातचीत कर लीजिये।
‘मैंने पहले ही जांच दल के सदस्यों को बता दिया था कि आप सावधानी से गाँव जाएँ क्योंकि गाँव में आप तो बड़ी-बड़ी बातें कह कर चले जायेंगे लेकिन इन मुसहर या अन्य लोगों को तो यही रहना है। इसलिए ऐसा काम न करें कि उन्हें बाद में परेशानी हो। मैं यह मानता हूँ कि कई बार काम बिना हंगामे और तमाशे भी हो जाते हैं, हालाँकि आज के सोशल मीडिया के दुआर में जब हम ‘चैंपियन’ दिखना चाहते हैं तो हर छोटी-बड़ी बात को सोशल मीडिया पर डाल कर अपनी महानता का बखान करना चाहते हैं।’
खैर, सभी लोग कोइलासवा गाँव पहुंचे और जैसे होना था वैसे ही हुआ। क्योंकि अधिकांश साथी फैक्ट फाइंडिंग के नाम पर दिल्ली से ‘पर्यटन’ के लिए आते हैं। वे ‘गाँव’ देखना चाहते हैं। ‘मुसहर’ क्या ‘चीज’ है? उसको अपने कैमरे में कैद करना चाहते हैं। और दिखाते ऐसे हैं कि जैसे आज ही समस्या का समाधान करा लेंगे। मैंने 30 साल से अधिक के अपने कार्यों में यह पाया कि गाँव में जाकर किसी बात की जानकारी प्राप्त करना इतना आसान नहीं है जितना लोग सोचते हैं। यह दो बातों पर निर्भर करता है। पहला ये कि आप हैं कौन ? यदि उत्पीड़ित आपके प्रति भरोसा नहीं रखता तो आप बात नहीं कर सकते। इसके अलावा जो मुख्य समस्या होती है वह है निष्पक्ष जांच की। लोग जातिगत निष्ठाओं के आधार पर ही बात रखते हैं। यदि जाति का ‘अंदरूनी’ मामला है तो ‘कुछ’ नहीं हुआ या कुछ नहीं देखा या दूसरे की ही गलती है आदि बात बताई जाती हैं। यदि आप ‘तमाशा’ लगाकर ‘जांच’ कर रहे हैं तो मुमकिन है बीच में बड़े लोगो के ‘खुफिया’ लोग भी हस्तक्षेप करें। इन खुफिया लोगों का काम अपने ‘मालिक’ को पूरे घटना की जानकारी देना और कौन क्या कह रहा था यह बताना होता है। कई बार आपस में तू-तू मै-मैं हो जाती है क्योंकि बिरादरी में फूट डालने के लिए ऐसे दलाल जरुरी होते हैं।
मैंने पहले ही जांच दल के सदस्यों को बता दिया था कि आप सावधानी से गाँव जाएँ क्योंकि गाँव में आप तो बड़ी-बड़ी बातें कह कर चले जायेंगे लेकिन इन मुसहर या अन्य लोगों को तो यही रहना है। इसलिए ऐसा काम न करें कि उन्हें बाद में परेशानी हो। मै यह मानता हूँ कि कई बार काम बिना हंगामे और तमाशे भी हो जाते हैं, हालाँकि आज के सोशल मीडिया के दुआर में जब हम ‘चैंपियन’ दिखना चाहते हैं तो हर छोटी-बड़ी बात को सोशल मीडिया पर डाल कर अपनी महानता का बखान करना चाहते हैं।
इस तरह जब वे लोग गाँव गए तो लोगों से बातचीत की टेम्पटेशन में जो सलाह मैंने दी थी वह भूल गए। इसलिए वे सभी अपनी पूरी दुकान खोलकर मुसहर बस्ती में बैठ गए। कैमरा, नोटबुक और सब कुछ। ऐसे समय में ताकतवर लोगों के अपने गुप्तचर भी गाँव में होते हैं और वे चुपचाप सब जानकारी देते हैं। अक्सर पीड़ितों सेव सहानुभूति रखने वाले लोगों अथवा गवाहों को समझा भी दिया जाता कि क्या कहना है। जिससे लोग सही जानकारी नहीं देते। बल्कि भ्रमित करनेवाले और गलत तथ्यों का विवरण देते हैं। कई बार जब लोग गाँव से निकल जाते हैं तो फिर उन्हें परेशान किया जाता है। खैर, गाँव के मुसहरों ने अपनी बात ईमानदारी से और बेहद मजबूती से रखी। सभी ‘फैक्ट फाइंडर’ करीब दो घंटे गाँव में रहे।
“एक दिन फिर एक प्रान्त से एक ‘अम्बेडकरवादी’ का फोन आया और उन्होंने कहा के वह इस गाँव में जाना चाहते हैं और इस सन्दर्भ में प्रेस कांफ्रेंस भी करना चाहते हैं। मैंने उन्हें कहा कि माफ़ कीजिएगा, यहाँ के लोग अपनी बात स्वयं रख सकते हैं। आपको अपने राज्य को छोड़कर यहाँ आकर प्रेस कांफ्रेंस करने की जरूरत नहीं है। मतलब यह कि लोग जब तक दूसरे के दुःख-दर्द को अपनी राजनीति का हथियार बनाना न छोड़ दें, तब तक न तो एकता बन सकती और न ही सफलता मिलेगी। संस्थाएँ या व्यक्ति इसलिए महान न बताये जाए कि वे ‘बहुत नामी’ हैं। या उन्हें बहुत ‘पुरस्कार’ मिल गए हैं। अपितु उनके काम के रिकॉर्ड देखे जाएँ।”
उसके बाद अगले दिन गाँव से राजमति देवी और रामप्रीत नट के पिता को बुलाकर उनका वीडियो रिकॉर्ड किया गया। हमसे कहा गया कि वीडियो में वे बताएँ कि अपनी मर्जी से बयान दे रहे हैं। बहुत सारी कानूनी नौटंकियाँ हुईं। ऐसा लगा कि ये लोग अब तुरंत ही केस फाइल करने वाले है। अगले दिन उन्होंने हमें बताया कि हम लखनऊ में एक कार्यक्रम में जा रहे हैं और यदि बनारसी मुसहर के परिवार के लोग और रामप्रीत की पत्नी वहाँ आ सकें तो बहुत अच्छा होगा। मैंने उनसे कहा कि लखनऊ में किसी मीटिंग में भेजकर इनका काम नहीं बनेगा। लेकिन फिर मुझे लगा के ये वकील लोग हैं शायद कुछ और कागज-पत्रों पर दस्तखत वगैरह करवाना हो और हम स्वैच्छिक संगठनों की मजबूरी भी जानते हैं। लखनऊ में बनारसी मुसहर की पत्नी और बेटा भी गए। मैंने अपने केंद्र की एक साथी को वहाँ लगाया था ताकि ये लोग ठीक से पहुँच सकें। यह बात जनवरी आखिर की है और लखनऊ से जाने के बाद से संगठन और लोगों ने दोबारा एक दिन भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर उन्होंने इस सन्दर्भ में किया क्या? आज तक करीब 7 महीने हो गए। हमें यह पता नहीं कि उन्होंने कोई फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट बनाई या नहीं। जिस मामले के लिए उन्होंने हमसे कहा कि तुरंत केस फाइल करना है – हाई कोर्ट में और लोअर कोर्ट में, उस पर बस चुपचाप बैठ गए।
संस्थाओं की भी मजबूरी है लेकिन हकीकत ये है कि वे अंततः इसमें ही लिप्त हो जाती हैं। जनहित याचिकाएँ भी वे आ रही हैं जहाँ आपको राजनीतिक या व्यावसायिक लाभ हो। आप नजर आएँ और यह दिखे कि आपके अलावा कोई और काम नहीं कर रहा। नहीं तो इतने मामले हैं कि समय नहीं मिलेगा। हम भी जानते है कि सब जगह मुफ्त में काम नहीं होता लेकिन कुछ काम तो जनहित के करने ही चाहिए।
ऐसी कहानियाँ कम नहीं हैं
मैं यह बात इसलिए कह रहा हूँ कि समुदायों के साथ अगर ईमानदारी से काम करना है तो ‘ईनामदारी’ की बेईमानी से बाहर आना पडेगा। बहुत से लोग अपनी ‘पब्लिसिटी’ के प्रति इतने ‘सतर्क’ हैं कि मूल मुद्दे से भटक जाते हैं और बहुतों के लिए दलित-पिछड़ा मात्र उनके ‘डाटा कलेक्शन’ का साधन होकर रह गया है। लोग आपके लिए ‘शोध’ का विषय न बनें बल्कि आपके सरोकार उनके सुख-दुःख में भागीदार बनने का साधन हैं। यदि कानूनी सहायता देने वाले मित्र भी केवल अपने ‘कागजों’ की खानापूर्ति करेंगे तो लोगों का भरोसा तो टूट जाएगा। इस घटना ने मुझे बहुत उद्वेलित किया और मैं इस पूरी प्रक्रिया के दौरान खुद को बेहद असहज और असहाय महसूस कर रहा था।
एक दिन फिर एक प्रान्त से एक ‘अम्बेडकरवादी’ का फोन आया और उन्होंने कहा के वह इस गाँव में जाना चाहते हैं और इस सन्दर्भ में प्रेस कांफ्रेंस भी करना चाहते हैं। मैंने उन्हें कहा कि माफ़ कीजिएगा, यहाँ के लोग अपनी बात स्वयं रख सकते हैं। आपको अपने राज्य को छोड़कर यहाँ आकर प्रेस कांफ्रेंस करने की जरूरत नहीं है। मतलब यह कि लोग जब तक दूसरे के दुःख-दर्द को अपनी राजनीति का हथियार बनाना न छोड़ दें, तब तक न तो एकता बन सकती और न ही सफलता मिलेगी। संस्थाएँ या व्यक्ति इसलिए महान न बताये जाए कि वे ‘बहुत नामी’ हैं। या उन्हें बहुत ‘पुरस्कार’ मिल गए हैं। अपितु उनके काम के रिकॉर्ड देखे जाएँ। एक लेखक या सामाजिक कार्यकर्त्ता इसलिए महान नहीं है कि वह कितने देश गया या उसे कितने पुरस्कार मिले अपितु उसकी समझ कितनी है? उसने लिखा क्या है और उसका पिछला रिकॉर्ड कैसा है? कई बार तो हमें ‘पुरस्कार’ मिलने के बाद पता चलता है कि ‘व्यक्ति’ या ‘संस्था’ कितनी ‘महान’ है।
गाँवों में अभी भी जातीय अस्मिताओं से ऊपर उठकर बौद्धिक ईमानदारी से काम करने की आवश्यकता है। तभी हम दलित-पिछड़ों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध एक बेहतर विकल्प खड़ा कर पायेंगे। नहीं तो समाज में शोषण की प्रक्रिया जारी रहेगी और साहित्य और राजनीति मात्र अपनी छिपी हुई महत्वाकांक्षायों की पूर्ति का साधन भर रहेगा जिसमें असल मुद्दे गायब रहेंगे। हमारी ‘सुविधाओं के अनुसार मुद्दे बनते-बिगड़ते रहेंगे। उसमे बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की भावना गायब रहेगी। आइये जन हित में अपने जातिगत पूर्वाग्रहों से बाहर निकलकर समाज जोड़ने का काम करें !