उत्तर प्रदेश के बांदा के पतौरा गांव में 31 अक्टूबर 2023 को जातिगत अत्याचार का एक भयावह मामला सामने आया है। जिसमें मृतिका के परिवार का कहना है कि 40 वर्षीय दलित महिला सुनीता के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, बेरहमी से उसकी हत्या कर उसका सिर व बायां हाथ काट लिया गया। सुनीता के शरीर से ब्लाउज और पेटीकोट गायब थे। उसका बायाँ हाथ कटा हुआ था जो उसकी छाती पर रखा था। उनका सिर कटा हुआ था और शरीर से कुछ दूरी पर पड़ा था।
बताया गया कि सुनीता पत्नी सोहन वर्मा ग्राम पतौरा, बांदा, की निवासी हैं और अनुसूचित जाति से हैं। उनके तीन बच्चे प्रियंका (18), नीरज (15) और रोहित (10) हैं। बीते 31 अक्टूबर की सुबह लगभग 8 बजे वे दोनों पट्टी-पत्नी बउवा शुक्ला की आटा चक्की पर प्लास्टर का काम करने गये थे। पीड़ित परिवार के घर से आटा चक्की बमुश्किल 100-200 मीटर की दूरी पर है। दोनों दोपहर करीब 12 बजे वापस आ गए।
दोपहर करीब एक बजे सुनीता का पति सोहन वर्मा सब्जी खरीदने नरैनी गया था। दोपहर ढाई बजे बउवा शुक्ला ने सुनीता के मोबाइल पर फोन कर दोबारा आकर प्लास्टर का काम करने के लिए कहा। लगभग एक घंटे के बाद, आटा चक्की के पास रहने वाले रामबहोरी, प्रियंका के पास गए। उन्होंने उससे उसकी माँ के बारे में पूछा। जब प्रियंका ने बताया कि वह आटा चक्की पर गयी हैं तो रामबहोरी ने प्रियंका को तुरंत वहां जाने को बोला।
प्रियंका आटा मील पर पहुँची तो वहाँ का दरवाजा बंद था। प्रियंका के अनुसार, उसने दरवाज़ा खोलने के लिए बहुत आवाज लगाई, लेकिन पहले किसी ने जवाब नहीं दिया। जब दरवाज़ा खुला, तो प्रियंका ने अंदर पाँच-छह लोगों को देखा, जिनमें से दो भाग गए। बाकी तीन (राजकुमार शुक्ल, बउवा शुक्ल और रामकृष्ण शुक्ल) ने उसे और अंदर नहीं जाने दिया। अंदर जाने को लेकर इनसे प्रियंका की धक्का-मुक्की भी हुयी, जिससे वह गिर पड़ी। इसी बीच उसने अपनी माँ का शव फर्श पर दिखाई पड़ा।
प्रियंका ने बताया कि माँ सुनीता के शरीर से ब्लाउज और पेटीकोट गायब थे। उसका बायाँ हाथ कटा हुआ था जो उसकी छाती पर रखा था। उनका सिर कटा हुआ था और शरीर से कुछ दूरी पर पड़ा था।
उसकी चीख-पुकार सुनकर घटनास्थल के आसपास और भी ग्रामीण एकत्र हो गए। उसने अपने पिता को फोन किया। कुछ देर बाद पुलिस भी मौके पर पहुंची लेकिन उन्होंने अपने साथ लाए कुत्ते को सबूत के लिए नहीं छोड़ा। उसने सर्कल अधिकारी नितिन कुमार (जो पुलिस उपाधीक्षक हैं और एफआईआर में नामित जांच अधिकारी भी हैं) को यह कहते हुए सुना ‘पंचनामा कराओ, जल्दी करो।‘ पुलिस के बाद उसके पिता भी मौके पर पहुंचे। बाद में, उसका भाई नीरज और उसके मामा पँहुचे।
एफआईआर करने में पुलिस ने की देरी
सुनीता के बेटे नीरज के अनुसार, 31 अक्टूबर को रात लगभग 10 बजे प्राथमिकी दर्ज करने के लिए नरैनी पुलिस के पास गए। पुलिस को हस्तलिखित पत्र देने का प्रयास किया गया। नीरज 10वीं कक्षा में पढ़ता है और अपने चाचा के यहाँ रहता है। चूँकि नीरज नाबालिग था इसलिए उसे अपने पिता के साथ अगले दिन आने के लिए कहा गया। इसलिए अगले दिन 01 नवम्बर को दोपहर 3:50 बजे एफआईआर दर्ज की गई।
कथित तौर पर राज कुमार शुक्ला, बउवा शुक्ला और राम कृष्ण शुक्ला द्वारा ने सुनीता का सिर काटा था। जबकि एफआईआर के दो दिन बाद से ही पुलिस का कहना है कि यह एक दुर्घटना है जो संयोग बस हुई है।
इस मामले में पुलिस पर लीपा-पोती का आरोप लगाते हुए बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच, चिंगारी संगठन, दलित डिग्निटी एण्ड जस्टिस सेंटर, विद्या धाम समिति, युवा मानव अधिकार दस्तावेजीकरण मंच ने पूरे मामले की अपने स्तर पर जांच की है।
फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग टीम के अनुसार कैसी है पुलिस की जांच-पड़ताल
जब सुनीता का परिवार पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज करने के लिए संघर्ष कर रहा था, तो मामले की जांच कर रहे डीएसपी, नरैनी के सीओ नितिन कुमार कथित तौर पर गांव पहुंचे। उन्होंने ग्रामीणों को आश्वस्त किया कि यह घटना आटा चक्की में फँसने की वजह से हुई एक दुर्घटना है। यहां तक कि उन्होंने मीडिया को भी इस बारे में जानकारी दी। ऐसा लगता है कि कथित अपराधियों को आसानी से बाहर निकालने के लिए गवाहों की जांच शुरू होने से पहले ही वे इस ‘दुर्घटना’ की असंभव कहानी को दोहराते जा रहे थे। 02 नवम्बर को पुलिस अधीक्षक अंकुर अग्रवाल ने बांदा पुलिस के ट्विटर हैंडल के माध्यम से जानकारी दी कि प्रारंभिक जांच के बाद यह पाया गया कि यह घटना दुर्घटनावश आटा चक्की में फंस जाने के कारण हुई थी(गाँव के लोग इस पोस्ट की पुष्टि नहीं करता है)। ये मीडिया ब्रीफिंग न केवल जांच की निष्पक्षता के बारे में आशंकाएं पैदा करती हैं, बल्कि पीड़ित के लिए निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का हनन भी करती है। इसके अलावा पुलिस मीडिया ब्रीफिंग पर गृह मंत्रालय की 2010 परामर्श का भी उल्लंघन करती हैं।
फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग करने गई टीम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ‘पुलिस द्वारा बाद की जांच को देखकर भी यह आशंकाएं पैदा होती हैं।’ ग्रामीणों के मुताबिक, ‘प्रशासन बिना पोस्टमार्टम कराए ही शव को ठिकाने लगाना चाहता था और लोगों के दबाव के कारण ही शव का पोस्टमार्टम अगले दिन कराया गया। जिस जल्दबाजी से शव का पोस्टमार्टम कराया गया, उसे लेकर परिजन और ग्रामीण संदेह में हैं। पोस्टमार्टम के तुरंत बाद पुलिस ने कथित अपराधियों द्वारा बताई गई उसी कहानी को दोहराया, कि यह घटना एक दुर्घटना थी। इसके अलावा, फैक्ट-फाइन्डिंग के दौरान जमा की गई गवाही के आधार पर, पुलिस ने 03.11.2023 तक अपराध स्थल को सील नहीं किया, जो कि 31.10.2023 को घटना होने के 3 दिन बाद है।’
फैक्ट-फाइन्डिंग दल में दलित डिग्निटी एण्ड जस्टिस सेंटर की ऐडवोकेट रश्मि वर्मा, बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के ऐडवोकेट कुलदीप बौद्ध, विद्या धाम समिति के राजा भैया, चिंगारी संगठन की मोबिना खातून, युवा मानव अद्धिकार दस्तावेजीकरण मंच के ऐडवोकेट वंशिका मोहता तथा युवा मानव अद्धिकार दस्तावेजीकरण मंच विपुल कुमार शामिल थे। उन्होंने हत्या और दुर्घटना दोनों पहलुओं को ध्यान में रखकर इस मामले की पड़ताल की जिसके आधार पर जरूरी तथ्यों को उल्लेखित किया।
फैक्ट-फाइन्डिंग टीम ने घटना को लेकर क्या बताया है अपनी रिपोर्ट में
सुनीता एक चालीस साल की दलित महिला थीं, जिनके साथ कथित तौर पर सामूहिक बलात्कार किया गया और बेरहमी से उनका सिर काट दिया गया। यह प्रथम-दृष्ट्या, एक जातिगत अत्याचार, सामूहिक बलात्कार और हत्या का मामला था जो कि ‘शुक्ला परिवार’ द्वारा किया गया था, जहाँ सुनीता और उनके पति काम करते थे। जांच प्रक्रिया में भी कई कमियाँ पाई गईं। ये स्पष्ट रूप से पुलिस द्वारा दुर्भावनापूर्ण इरादे और जानबूझकर की गई लापरवाही की ओर इशारा करता है, जिसका उद्देश्य जांच को भटकाना और इस जघन्य अपराध के आरोपियों को बचाना मालूम होता है। आरोपी क्षेत्र के प्रभावशाली सामाजिक एवं राजनैतिक व्यक्ति हैं जिनका कथित तौर पर सत्तारूढ़ दल से करीबी संबंध भी है।’
- इस अपराध से दो तरह के बयान निकल कर आ रहे हैं- एक तरफ मृतिका के परिवार वाले आरोप लगा रहे हैं कि सुनीता का सामूहिक बलात्कार तथा हत्या हुई, और दूसरी तरफ आरोपियों का कहना है कि उसकी मौत आटा चक्की में एक हादसे से हुई। पुलिस की जांच में बिना किसी निष्पक्ष और उचित पड़ताल के आँखें बंद करके आरोपी के बयान को मान लिया गया है।
- अपराध के स्थान की तस्वीरों, मृतिका के शरीर की स्थिति और आटा चक्की के आसपास या शरीर पर खून के जमाव या छीटों के न होने से ये पता चलता है कि आटा चक्की में फँसकर मरने की कहानी गलत है।
- एफआईआर में इस कथित अपराध की गंभीरता को दर्शाते बहुत सारे महत्त्वपूर्ण खंडों का उल्लेख नहीं है जैसे कि आईपीसी की धारा 376A और 376D। ऐसा लगता है कि पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करने के वक़्त ऐसे जानबूझ कर किया गया था।
- नामित तीन में दो आरोपियों को अब तक गिरफ्तार नहीं किया है और ऐसा लगता है कि वे इस जांच को प्रभावित करने में सक्रिय रूप से शामिल रहे हैं। चूंकि अपराध के स्थान का स्वामित्व अभियुक्तों के पास है और फैक्ट-फाइन्डिंग टीम द्वारा ली गई तस्वीरों से यह पता चलता है कि उसे पुलिस द्वारा उचित रूप से सील नहीं किया गया है, तो अपराध स्थल के साथ छेड़छाड़ और सबूत मिटाने की आशंका है। तीसरे आरोपी को सुनियोजित तरीके से कमतर अभियोगों के तहत गिरफ्तार किया गया है, जो जन दबाव को कम करने, मामले को कमजोर करने तथा जाँच और प्रचलित घटनाक्रम को नया रुख देने के लिए लिया गया कदम प्रतीत होता है।
- अभी तक की गई जांच को देखकर लगता है कि इसे पुलिस द्वारा आरोपियों के “हादसे” वाले कथन के हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा गया है और यहाँ तक कि आरोपियों और जांच निकाय के बीच मिलीभगत भी दिखाई देती है जिससे कि अपराध की जघन्यता और आरोपियों की भूमिका को कमतर साबित किया जा सके।
क्या दर्ज है एफआईआर में
एफआईआर में तीन कथित अपराधियों पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 302 और 376 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (एससी/एसटी पीओए) की धारा 3(2)(v) के तहत मामला दर्ज किया गया है। एफआईआर की धाराओं में परिलक्षित अपराध की गंभीरता के बावजूद, पुलिस ने कथित अपराधियों को गिरफ्तार करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया, जो न केवल बेदाग घूम रहे थे बल्कि प्रभावशाली ढंग से जांच की दिशा पर दबाव डाल रहे हैं और जांच को गुमराह कर रहे हैं। पोस्टमार्टम हाउस में आरोपी राजकुमार शुक्ला मौजूद था और उसने एक मीडिया रिपोर्टर को बयान दिया कि महिला और उसका पति उसके बटाईदार (भूमिहीन किरायेदार) थे और यह घटना एक दुर्घटना का मामला था।
पुलिस की चुप्पी के खिलाफ सामने आया जनाक्रोश तब हुई गिरफ्तारी
आरोपियों और कानून-प्रवर्तन एजेंसियों के दबाव के बावजूद, अपराध की गंभीरता के कारण जनता एकजुट हुई और उन्होंने तीनों आरोपियों की तत्काल गिरफ्तारी की मांग की।
लगभग दो सप्ताह तक कोई कार्रवाई न होने के बाद जब सहानुभूतिपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया तो उन्हें शांत करने के लिए, पुलिस ने 16.11.2023 को एक आरोपी राजकुमार शुक्ला को गिरफ्तार कर लिया गया, ऐसा परिवार और ग्रामीणों का आरोप है। लेकिन, जैसा कि गिरफ्तारी ज्ञापन से पता चला है, एफआईआर में उल्लिखित धाराओं के तहत आरोपी को गिरफ्तार करने के बजाय, आरोपों को कमजोर करने के दुर्भावनापूर्ण इरादे से, आरोपी को आईपीसी की धारा 304A, 287, धारा 201 (यानी, लापरवाही के कारण मौत का कारण) और एससी/एसटी पीओए अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत गिरफ्तार किया गया।
एफआईआर के अंदर अपराधों को बदलने से यह हुआ कि ‘हत्या’ और ‘बलात्कार’ के मामले में सजा, जो सजा न्यूनतम आजीवन कारावास होती, वह ‘लापरवाही के कारण मौत’ के मामले में घटकर अधिकतम 2 साल की कैद हो गई है और पूरा अपराध जमानती हो गया है। इसके अलावा, अन्य दो आरोपियों को गिरफ्तार करने और पुलिस हिरासत की मांग करने के बजाय (जिससे पुलिस को मामले की सच्चाई सामने लाने के लिए आरोपियों से आगे पूछताछ कर पाती), पुलिस आरोपी के वकीलों की न्यायिक हिरासत की मांग से सहमत दिख रही है, जो एक बार फिर दर्शाता है कि पुलिस परिवार की कहानी की पड़ताल नहीं करना चाहती है।
पुलिस जांच की स्थिति पर उपलब्ध साक्ष्य
01.11.2023 को गिरवां पुलिस स्टेशन, ग्राम पतौरा, जिला बांदा, उत्तर प्रदेश द्वारा आईपीसी की धारा 302 (हत्या के लिए सजा) और 376 (बलात्कार के लिए सजा) और एससी/एसटी पीओए अधिनियम की धारा 3(2)(v ) (अनुसूचित जाति के सदस्यों के खिलाफ किए गए उन अपराधों के लिए सजा जो आईपीसी के तहत 10 साल या उससे अधिक के कारावास के लिए दंडनीय है) के तहत एफआईआर संख्या 296/2023 दर्ज की गई थी। हालांकि जानकारी के मुताबिक एफआईआर में तीन लोगों को आरोपित किया गया है, लेकिन एफआईआर में सामूहिक बलात्कार की धारा (धारा 376D) और पीड़िता की मृत्यु कारित करने की सज़ा की धारा (धारा 376A) का उल्लेख नहीं किया गया है। खंड 376A और 376D दोनों में 20 साल या उससे अधिक की कैद से लेकर मौत तक की सजा हो सकती है।
पोस्टमार्टम रिपोर्ट
घटना के महज 3 दिन और एफआईआर दर्ज करने के 2 दिन के भीतर ही पुलिस ने सार्वजनिक रूप से यह कह दिया है कि यह घटना एक दुर्घटना है, न कि सामूहिक बलात्कार और हत्या का मामला। यह स्पष्ट नहीं है कि इस बिंदु पर जांच की स्थिति क्या थी जिससे पुलिस इस निष्कर्ष पर पहुंची और यहां तक कि इस आधार पर उसने एक सार्वजनिक बयान भी जारी किया। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, ये मीडिया ब्रीफिंग न केवल जांच की निष्पक्षता के बारे में आशंकाएं पैदा करती हैं, बल्कि मीडिया को पुलिस ब्रीफिंग पर गृह मंत्रालय की 2010 कर परामर्श का भी उल्लंघन करती हैं, जिसमें कहा गया है कि पुलिस अधिकारियों को अपनी ब्रीफिंग आवश्यक तथ्यों तक ही सीमित रखनी चाहिए और प्रेस के पास चल रही जांच के बारे में आधी-अधूरी, काल्पनिक या अपुष्ट जानकारी के साथ जल्दबाजी में नहीं जाना चाहिए।
पहले 48 घंटों में, घटना के तथ्यों और जांच शुरू हो जाने के अलावा कोई अनावश्यक जानकारी जारी नहीं की जानी चाहिए।
घटना की सूचना मिलने के 17 दिन बाद दिनांक 17.11.2023 को पुलिस ने राजकुमार शुक्ला को गिरफ्तार कर लिया। राजकुमार शुक्ला की गिरफ्तारी की जनरल डायरी में ये दर्ज किया गया है कि यह गिरफ्तारी आईपीसी की धारा 302, 376 (जिसके तहत मूल रूप से एफआईआर दर्ज की गई थी) के बजाय आईपीसी की धारा 304A, 287 और 201 और पीओए अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत की गई है। अन्य दो आरोपियों की अभी भी गिरफ्तारी नहीं हो सकी है।
अभियुक्त राजकुमार शुक्ला की गिरफ़्तारी एफ़आईआर दर्ज होने के 17 दिन बाद हुई है और इस संबंध में इस देरी के कारण के बारे में पुलिस द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों में कोई स्पष्टीकरण उपलब्ध नहीं है। इसके बावजूद कि अपराध एक आटा चक्की में हुआ था जो कि आरोपी के ही स्वामित्व और नियंत्रण में है, आरोपियों द्वारा सबूतों के साथ छेड़छाड़/नष्ट करने की प्रबल संभावना के बावजूद पुलिस ने गिरफ्तारी के लिए त्वरित कार्रवाई नहीं की। 17.11.2023 दोपहर 12:11 बजे की जनरल डायरी प्रविष्टि में एफआईआर 296/2023 के अपराधों को आईपीसी की धारा 304A, 287 और 201 और पीओए अधिनियम की धारा 3(2)(v) के रूप में दिखाया जा रहा है, न कि आईपीसी की धारा 302, 376, जिसके तहत मूल रूप से एफआईआर दर्ज की गई थी।
हालांकि कानूनी और प्रक्रियात्मक तौर पर पुलिस के पास जांच पूरी करने और अपने निष्कर्ष पर पहुंचने की स्वतंत्रता है कि किसी घटना पर कौन सी धाराएं लागू होती हैं और एफआईआर में उल्लिखित धाराओं पर टिके रहने का कोई कानूनी आदेश नहीं है, लेकिन फिर भी इस बात का कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है कि जांच की दिशा को हत्या और बलात्कार से बदलकर लापरवाही से मौत, मशीनरी के संबंध में लापरवाहीपूर्ण आचरण और अपराध के सबूतों को गायब करना आदि की ओर क्यों मोड़ दिया गया। जनरल डायरी प्रविष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि जांच अधिकारी ने गिरफ्तारी के समय आरोपी व्यक्तियों द्वारा दी गई कहानी को आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया है और तदनुसार अपराधों को बदल दिया है।
उल्लेखनीय है कि जहां पीओए अधिनियम की धारा 3(2)(v) के साथ जोड़े गए हत्या और बलात्कार के अपराध में कम से कम आजीवन कारावास की सजा है, वहीं लापरवाही से मौत का अपराध (खंड 304A आईपीसी) अधिकतम 2 वर्ष की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय है। इसके अलावा, धारा 287 आईपीसी (मशीनरी के साथ लापरवाहीपूर्ण आचरण) और धारा 201 आईपीसी (अपराध के सबूतों को गायब करना, या अपराधी को बचाने के लिए गलत जानकारी देना) दोनों गैर संज्ञेय और जमानती अपराध हैं और अधिकतम 6 महीने की सजा के साथ दंडनीय हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि अपराध की प्रकृति और गंभीरता को कम करने और आरोपियों को छोटे अपराधों के लिए फंसाने का प्रयास किया जा रहा है।
आरोपियों ने जो कहा पुलिस ने उसे ही कहानी बना दिया
25.11.2023 और 28.11.2023 को अभियुक्त राजकुमार शुक्ला की ओर से दाखिल जमानत अर्जी पर सुनवाई के लिए मामला बांदा जिला न्यायालय की विशेष न्यायाधीश (एससी/एसटी, अत्याचार निवारण अधिनियम) श्रीमती अनु सक्सेना के समक्ष सूचीबद्ध किया गया था। राज्य ने जमानत का विरोध करते हुए 28.11.2023 को जवाब दाखिल किया। हालाँकि, ऐसा लगता है कि न केवल अपराध के आरोपों को कमजोर करने बल्कि ‘अपराध’ को ही बदलने का प्रयास किया जा रहा है।
जमानत याचिका पर अपने जवाब के पैरा 2 और 3 में, पुलिस ने तर्क दिया है कि, ‘जांच के दौरान संकलित साक्ष्यों के आधार पर अपराधों को हत्या और बलात्कार से बदलकर लापरवाही और मशीनरी के साथ लापरवाह आचरण के कारण मौत में बदल दिया गया है।‘ पुलिस का दावा है कि वह पोस्टमार्टम रिपोर्ट, पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों के बयान, राज्य मेडिको-लीगल विशेषज्ञ की राय और स्लाइडों की जांच के आधार पर वैज्ञानिक साक्ष्य आदि पर भरोसा करके इस निष्कर्ष पर पहुँची है जो कि अभियुक्तों के हितों के हक में है।
हालांकि किसी और सबूत का उल्लेख नहीं किया गया है, ऐसा लगता है कि पुलिस ने आरोपी के बयानों को जैसा का तैसा स्वीकार कर लिया है। घटना के बारे में शिकायतकर्ता की कहानी की जांच करने के इरादे की स्पष्ट कमी दिखाई देती है।
राज्य ने आगे तर्क दिया है कि जब पुलिस मौके पर पहुंची तो आटा चक्की चल रही थी और उन्होंने गिरफ्तार आरोपी को आटा चक्की के बाहर पाया। राज्य का तर्क है कि आरोपी द्वारा आटा चक्की अवैध रूप से चलाई जाती है और इस कारण जिस क्षेत्र में मोटर और शाफ्ट रखे जाते हैं उसे जानबूझकर अंधेरे में रखा जाता है ताकि वहाँ कुछ दिखाई ना दे। राज्य की दलील यह है कि इसके कारण आरोपी ने आटा चक्की और मशीनरी चलाने में लापरवाही बरती है और इसी लापरवाही के परिणाम स्वरूप मृतक की हत्या हुई है। तदनुसार, एफआईआर आईपीसी की धारा 302 और 376 के तहत एक को आईपीसी की धारा 304A, 287 और 201 के साथ-साथ पीओए अधिनियम की धारा 3(2)(v) में परिवर्तित कर दिया गया है।
फैक्ट-फाइन्डिंग के दौरान एकत्र की गई गवाही के अनुसार, परिवार ने उस स्थान के आसपास, जहां शव या सिर पाया गया था, या दीवारों पर या आटा चक्की पर उस तरह का रक्तपात या खून के छींटे नहीं देखे, जैसा कि अपेक्षित था, अगर उस स्थान पर ही यह दुर्घटना हुई होती। परिवार द्वारा खींची गई घटना की तस्वीरें इस बात की पुष्टि करती हैं। उपरोक्त बातें कथन पर गंभीर संदेह पैदा करती हैं कि यह घटना आटा चक्की में हुई एक दुर्घटना थी और ऐसा शक होता है कि आरोपी द्वारा एक फर्जी अपराध स्थल बनाया गया है। उदाहरण के लिए कटा हुआ बायां हाथ मृतक की छाती पर पाया गया था।
कारण जो दर्शाते हैं कि जाँच को जानबूझकर कमजोर करने की कोशिश की गई है
1-अभियुक्त की मेडिकल जांच – सीआरपीसी की धारा 53A के अनुसार, साथ ही डीजीपी, उत्तर प्रदेश द्वारा दिनांक 17.01.2013 को जारी 2013 के परिपत्र संख्या 3, 8 पैरा 4(ix) के अनुसार, सीआरपीसी की धारा 53A के तहत एक चिकित्सा परीक्षा तुरंत आयोजित की जानी चाहिए। आरोपी को बलात्कार के अपराध में गिरफ्तार किया गया है। चूंकि आरोपी को आईपीसी की धारा 376 के तहत गिरफ्तार नहीं किया गया है, इसलिए ऐसा लगता है कि आरोपी की चिकित्सकीय जांच करने की आवश्यकता को दरकिनार कर दिया गया है। यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस ने किसी आरोपी की मेडिकल जांच करायी है या नहीं।
2-पीड़िता की मेडिकल जांच – पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चलता है कि योनि स्वैब स्लाइड को संरक्षित कर लिया गया है। यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस ने फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट के आधार पर या केवल चिकित्सा विशेषज्ञों की राय के आधार पर बलात्कार के अपराध को खारिज कर दिया है। निष्पक्ष जांच से ही पता चल सकता है कि क्या यह सामूहिक बलात्कार का मामला है, जैसा कि पीड़िता के परिवार के सदस्यों ने आरोप लगाया है।
3- अपराध स्थल और साक्ष्यों को सील करना और संरक्षित करना – जिस परिसर में अपराध हुआ है, उस परिसर की फैक्ट-फाइन्डिंग टीम ने तस्वीरें लीं जो इस बात को उजागर करती हैं कि पुलिस ने किस तरीके से उस क्षेत्र को सील किया और उसकी घेराबंदी की है। वहीं परिसर के मुख्य द्वार को पुलिस ने सील भी नहीं किया गया है। वास्तव में, फैक्ट-फाइन्डिंग टीम को दी गई गवाहों की गवाही के आधार पर पुलिस ने 11.2023 तक, यानी 31.10.2023 को हुई घटना के 3 दिन बाद तक अपराध स्थल को सील नहीं किया था। इससे आशंकाएं पैदा होती है कि आरोपी व्यक्तियों द्वारा साक्ष्यों से छेड़छाड़ और उन्हें नष्ट किया गया है, विशेष रूप से चूंकि आटा चक्की और परिसर का स्वामित्व आरोपी व्यक्तियों के पास है। एसओसी का मुख्य प्रवेश द्वार सील कर दिया गया आटा चक्की का मुख्य दरवाजा सील नहीं किया गया है।
फैक्ट-फाइन्डिंग दल में दलित डिग्निटी एण्ड जस्टिस सेंटर की ऐडवोकेट रश्मि वर्मा, बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के ऐडवोकेट कुलदीप बौद्ध, विद्या धाम समिति के राजा भैया, चिंगारी संगठन की मोबिना खातून, युवा मानव अद्धिकार दस्तावेजीकरण मंच के ऐडवोकेट वंशिका मोहता तथा युवा मानव अद्धिकार दस्तावेजीकरण मंच विपुल कुमार शामिल थे।