Wednesday, December 24, 2025
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वंदे मातरम् : पहले परहेज अब मौका देख विवाद खड़ा कर रही संघी ताकतें

सांप्रदायिक धारा अब पूरा वंदे मातरम् गाना लाने की मांग कर रही है, उसने यह गाना कभी नहीं गाया था। यह मुख्य रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बैठकों में गाया जाता था। वंदे मातरम् का नारा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वालों ने लगाया था। चूंकि RSS आज़ादी के आंदोलन से दूर रहा और अंग्रेजों की 'बांटो और राज करो' की नीति को जारी रखने में उनकी मदद की, इसलिए उन्होंने यह गाना नहीं गाया और न ही यह नारा लगाया।

सांप्रदायिक राष्ट्रवाद और ‘कर्तव्यों-अधिकारों’ की अवधारणा

जैसे-जैसे भारत में हिंदू राष्ट्रवाद बढ़ रहा है, हमारे राष्ट्रीय आंदोलन और संविधान में मौजूद 'अधिकारों' की अवधारणा को हिंदुत्व की राजनीति द्वारा धीरे-धीरे कमज़ोर किया जाना है। यहीं से नॉन-बायोलॉजिकल नरेंद्र मोदी अधिकारों को कमज़ोर करने और कर्तव्यों को हाईलाइट करने के लक्ष्य को हासिल करने की यात्रा शुरू करते हैं। लॉर्ड मैकाले द्वारा शुरू किए गए डंपिंग एजुकेशन सिस्टम की मांग इसी दिशा में एक छोटी सी कोशिश थी। अब 26 नवंबर को संविधान दिवस पर इसे और साफ़तौर पर कहें तो, 'हाल ही में संविधान दिवस (26 नवंबर, 2025) पर भारतीय नागरिकों को लिखे एक लेटर में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नागरिकों के लिए अपने आधारभूत कर्तव्यों को पूरा करने के महत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि इन ड्यूटीज़ को पूरा करना एक मज़बूत डेमोक्रेसी और 2047 के लिए उनके 'विकसित भारत' विज़न की दिशा में देश की तरक्की की नींव है।

क्या मंदिर बना कर देश के जख्मों को भरा जा सकता है?

मोदी का रामराज्य, रहीम के अनुयायियों से नफ़रत पर आधारित है। वह न्याय की अवधारणा के खिलाफ है। अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय 'लोकविश्वास' पर आधारित था, जिसे इस अंधाधुंध प्रचार के जरिए गढ़ा गया था कि भगवान राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था जहाँ बाबरी मस्जिद थी। यह इस तथ्य के बावजूद कि सन 1885 में अपने निर्णय में अदालत ने कहा था कि वह ज़मीन सुन्नी वक्फ बोर्ड की सम्पति है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का अयोध्या मामले में फैसला क़ानून पर नहीं बल्कि भगवान द्वारा सपने में उन्हें दिए गए निर्देशों पर आधारित था क्योंकि इस बात का कोई सुबूत नहीं है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राममंदिर को तोड़ कर किया गया था।

क्या मन में धोती और चुटिया धारण कर मैकाले को समझा जा सकता है

मोदी और उनके जैसे लोग सोचते हैं कि मैकाले/अंग्रेजों का लाया हुआ कल्चर सीधी लाइन में चला। दिलचस्प बात यह है कि वे खुद भाषा या धर्म पर आधारित यूरोपियन स्टाइल के राष्ट्रवाद के पक्ष में हैं। भारत में जो हुआ वह कहीं ज़्यादा मुश्किल था, जहाँ इंग्लिश एजुकेशन की शुरुआत ने मॉडर्न लिबरल वैल्यूज़ को लाने में मदद की और समाज के सभी वर्गों जैसे दलितों और महिलाओं के लिए ज्ञान के रास्ते खोले, जो शिक्षा से दूर थे, जहाँ गुरुकुल जैसी शिक्षा सिर्फ़ ऊँची जाति के पुरुषों तक ही सीमित थी।

अमेरिका में हिंदुत्व के बढ़ते विरोध के चलते आरएसएस कर रहा है पैरवी 

अमरीका में भी हिंदुत्व चिंता का विषय है। अनेक रिपोर्टों  में हिन्दुत्ववादियों की उनके एजेंडा से जुड़ी गतिविधियों को उजागर किया गया है। रपट में बताया गया है कि किस तरह हिन्दू राष्ट्रवादी समूह अमरीका में हिन्दू धर्म के संकीर्ण और राजनीति पर आधारित संस्करण को बढ़ावा दे रहे हैं।  इसके अलावा, हिन्दुत्ववादी, ऊंची जातियों के वर्चस्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकार हैं और अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णुता का भाव रखते हैं। अमरीका में हिंदुत्व के बढ़ते विरोध के चलते ही शायद आरएसएस को अपनी छवि सुधारने के लिए लॉबियिंग फर्म की सेवाएं लेने की ज़रुरत पड़ी है।

नशीले मुद्दों से अधिक इंसानी ज़िंदगियों के बारे में सोचने की जरूरत

युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। धर्म, जाति, राष्ट्रवाद जैसी नशीले मुद्दों से बाहर आकर उन इंसानी जिंदगियों के बारे में सोचने की जरूरत है, जो युद्ध का कोई पक्ष नहीं होते, लेकिन उन्हें जबरन इधर या उधर का पक्षधर बनाया जाता है, ताकि शासक वर्गों के स्वार्थ की भट्टी में उनकी बलि दी जा सके। इस युद्धरत समय में शांति की आवाज बुलंद करना ही राष्ट्रभक्ति है, चाहे इस समय यह आवाज कितनी ही कमजोर क्यों न हो। इस विश्व की और इस उपमहाद्वीप की सभ्यता को युद्ध नहीं, शांति ही आगे बढ़ाएगी।

क्या हिटलर का नया अवतार हैं ट्रम्प

इजरायल गाजा पट्टी में रहने वाले फिलिस्तीनियों का वैसा ही नरसंहार कर रहा है, जैसा हिटलर ने यहूदियों के साथ किया था। वर्तमान यहूदी प्रधानमंत्री नेतन्याहू गाजा में यही कर रहे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प उनकी मदद कर रहे हैं और गाजा पट्टी को उन्हें सौंपने की बात कर रहे हैं। सौ साल से भी पहले ट्रम्प के रूप में दूसरा हिटलर उभर रहा है।

कार्यपालिका व न्यायपालिका का टकराव लोकतन्त्र के लिए घातक

2024 के बाद से ही शक्ति संतुलन में नया परिवर्तन दिखने लगा है, यानि 2014 के बाद से लगातार जो पावर का पलड़ा संघ-भाजपा के पक्ष में झुका हुआ दिखता था, अब उसमें परिवर्तन दिखने लगा है।यानि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच बार-बार जो तालमेल देखा जा रहा था वहां एक शिफ्टिंग दिख रही है।

घोड़े भड़के, तो भड़के क्यों?

वैसे तो संघी गिरोह को पूरे संविधान पर ही आपत्ति है। वे इस संविधान को बदलने की फिराक में हैं। माननीय उपराष्ट्रपति ने अनुच्छेद-142 को निशाने पर लिया है। उनका कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय सुपर संसद जैसा व्यवहार कर रहा है। इसके लिए उन्होंने संविधान के अनुच्छेद-142 को जिम्मेदार ठहराया है। भारतीय संविधान का यह अनुच्छेद सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने हेतु आदेश जारी करने की शक्ति देता है। इसलिए इस अनुच्छेद को सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण शक्ति (सुप्रीम पॉवर ऑफ सुप्रीम कोर्ट) के रूप में भी जाना जाता है। वे सुप्रीम कोर्ट को मिले इस पॉवर पर भड़के हुए हैं। उनका कहना है कि यह अनुच्छेद लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ मिसाइल हमला करता है और इस अनुच्छेद का उपयोग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति के लिए कोई समय सीमा तय नहीं कर सकता।

अल्पसंख्यकों के हित में नहीं है नया वक्फ कानून

मुस्लिमों के खिलाफ लगातार एक नैरेटिव सेट करने का काम किया जा रहा है। जैसे एक देश लेने के बाद भी भारत में कितनी प्रॉपर्टी पर मुस्लिम वक्फ के नाम पर काबिज है। यह पूरी तरह सही नहीं है। नए कानून में वक्फ बाई यूजर का प्रावधान खत्म कर दिया गया है। इससे आने वाले समय में विपरीत असर धर्म विशेष पर हो सकता है।

भाजपा के 45 वर्ष : तोड़फोड़ और विध्वंस का इतिहास

जनसंघ के लोगों ने 7 अप्रैल, 1980 को भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। इसकी स्थापना के अब 45 साल पूरे हो गए हैं। अपनी स्थापना के पांच साल के अंदर (1985) लाल कृष्ण आडवाणी ने शाह बानो विवाद की आड़ में बाबरी मस्जिद व राम जन्मभूमि विवाद को हवा दी,  रथ यात्राओं की राजनीति की, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की घटना के साथ भाजपा की स्थापना से लेकर अब तक की पूरी राजनीति को आस्था के सवाल पर ला खड़ा किया और यह सफर बिना रुके आज तक चल रहा है।
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