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ग्राउंड रिपोर्ट

कार्यपालिका व न्यायपालिका का टकराव लोकतन्त्र के लिए घातक

2024 के बाद से ही शक्ति संतुलन में नया परिवर्तन दिखने लगा है, यानि 2014 के बाद से लगातार जो पावर का पलड़ा संघ-भाजपा के पक्ष में झुका हुआ दिखता था, अब उसमें परिवर्तन दिखने लगा है।यानि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच बार-बार जो तालमेल देखा जा रहा था वहां एक शिफ्टिंग दिख रही है।

कार्यपालिका व न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ता ही जा रहा है, उप राष्ट्रपति यानि राज्यसभा के उप सभापति और एक भाजपा सांसद द्वारा सुप्रीम कोर्ट व चीफ़ जस्टिस पर लगातार हमले किए जा रहे हैं, कोर्ट को अपने हद में रहने की हिदायत दी जा रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने जब अनुच्छेद 142 द्वारा प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करते हुए राज्यपालों और राष्ट्रपति के अधिकारों की सीमा निर्धारित करने की कोशिश की, तो उप राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 142 के प्रयोग पर सार्वजनिक तौर पर हमला बोला और ‘इसे लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल’ तक कह डाला। फिर सुप्रीम कोर्ट पर सुपर संसद की तरह व्यवहार करने का आरोप भी लगाया।

उसी तरह नये वक़्फ़ बिल पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा कई सवाल खड़े किए जाने बाद हमेशा नकारात्मक वजहों से सुर्खियों में रहने वाले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे भी भड़क उठे।

और यहाँ तक कह डाला कि देश में धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है, सीधे चीफ़ जस्टिस संजीव खन्ना को टारगेट करते हुए उन्होंने फिर कहा कि अगर हर बात के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना है तो संसद और विधानसभा का कोई मतलब नही है, इसे बंद कर देना चाहिए। निशिकांत दुबे तो यह भी कहते पाए गए कि इस देश में जितने भी युद्ध हो रहे हैं, उसके जिम्मेदार केवल चीफ़ जस्टिस आफ इंडिया संजीव खन्ना साहब है।

अब ज़रूर सोचने वाली बात है कि कार्यपालिका व विधायिका की तल्खी न्यायपालिका से इतनी क्यों बढ़ती जा रही है या खासकर के भाजपाई नेतृत्व  इतने गुस्से में क्यों है और इस टकराव की मूल वजह क्या है?

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क्या बात सिर्फ इतनी  है कि कोर्ट ने वक़्फ़ बिल से संबंधित कई सवाल पूछ लिए है..

कोर्ट ने यही तो पूछ लिया कि 14वीं-15वीं सदी के मस्जिदों, मजारों का काग़ज़ कहां से देगा कोई और जब कोई रजिस्ट्रेशन ही नही होता था, तब फिर वक़्फ़ बाई यूज़र का अधिकार कैसे छिना जा सकता है।

या यह कि क्या हिन्दू संगठनों में अब मुस्लिम सदस्यों को भी रखा जाएगा।

कोर्ट का सरकार से 7 दिन के अंदर जबाब देने के लिए कहना,क्या इतना नागवार गुजरा कि सीधे सीजेआई को निशाने पर ले लिया गया।

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा निशिकांत दुबे के बयान को निजी यान बता दिया, उनके ऊपर कोई कार्रवाई नहीं की गई और केवल यह कह कर पल्ला झाड़ लिया गया कि भाजपा सुप्रीम कोर्ट का सम्मान करती है।

निशिकांत दुबे अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के सलाह के बाद भी रूके नहीं, चुनाव आयोग पर भी हमला बोल दिया।

एक पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी जो 1971 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भी रहे हैं, को तो उन्होंने सांप्रदायिक बता दिया और कहा कि ‘आप चुनाव आयुक्त नहीं थे, आप एक मुस्लिम आयुक्त थे।’ और यह भी कह दिया कि ‘झारखंड के संथालपरगना में सबसे ज़्यादा बंग्लादेशी घुसपैठिए आप के कार्यकाल में ही वोटर बने।’

इस तरह का तीखा हमला पूर्व चुनाव आयुक्त पर भी सिर्फ इस लिए किया गया क्योंकि उन्होंने ने भी सरकार द्वारा लाए गए, नये वक़्फ़ बिल की आलोचना की है और कहा है कि ‘नया वक्फ अधिनियम निस्संदेह मुस्लिमों की भूमि हड़पने के लिए सरकार की एक भयावह योजना है।’

हर कोई सोच रहा है कि आखिर क्या वज़ह हो सकती है, जिसके चलते इतने तीखे हमले भाजपा की तरफ से और खुद राज्यसभा सभापति के जरिए किए जा रहे हैं।

क्या यह भाजपा के ताक़त का प्रदर्शन है या कुछ और है, क्या शक्ति संतुलन में कोई बदलाव आ रहा है या क्या भाजपा को भविष्य की कोई चिंता सता रही है?

एक बात तो समझ में आ रही है कि 2024 के बाद से ही शक्ति संतुलन में नया परिवर्तन दिखने लगा है, यानि 2014 के बाद से लगातार जो पावर का पलड़ा संघ-भाजपा के पक्ष में झुका हुआ दिखता था, अब उसमें परिवर्तन दिखने लगा है।यानि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच बार-बार जो तालमेल देखा जा रहा था वहां एक शिफ्टिंग दिख रही है।

आम तौर पर कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका एक ही दिशा में नहीं चलते रहे हैं और सांविधान  की सर्वोच्चता उसके द्वारा निर्मित प्रावधान के चलते, सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं,एक दूसरे को एक स्तर तक बैलेंस करते रहे हैं।

चेक एंड बैलेंस की प्रणाली के जरिए कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों आमतौर पर एक दूसरे को दुरुस्त करते रहे हैं और संविधान की यही आंकाक्षा भी रही है।

पर 2014 के बाद संविधानिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली में भारी परिवर्तन आया, चेक एंड बैलेंस की लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवधान पैदा किए गए, यानि कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका रूप के स्तर पर तो पहले जैसे ही बने रहे, पर उनके अंतर्वस्तु को पर्याप्त मात्रा में बदल दिया गया, इन्हें एक दूसरे को दुरुस्त या संतुलित करने की क्षमता को कमजोर कर दिया गया।

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इस बदलाव के कई उदाहरण हैं, बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में हम सबने देखा कि कार्यपालिका जो चाहती थी, उसी तरह का फैसला आया, फैसले से पहले के आख्यान को अगर सुनें तो साफ-साफ लगेगा कि फैसला मस्जिद के पक्ष में आने वाला है, जैसे कि कोर्ट ने ये माना कि हां मस्जिद को गिराने की आपराधिक कार्रवाई की गई, अवैध तरीके से मूर्ति रखी गई और ये कि ताला भी खोला गया और ये भी साफ-साफ कहा गया कि वहां मंदिर होने का कोई निशान नहीं पाया गया।

पर जब फैसले का समय आया तो सारे तथ्यों को दरकिनार कर दिया गया, बहुसंख्यक हिंदुओं के तथाकथित भावनाओं को केंद्र में ला दिया गया और सरकार के मंशानुरूप ही मंदिर के पक्ष में फैसला दे दिया गया।

या इसी तरह अनुच्छेद 370 को जब एक झटके में मोदी सरकार ने हटा दिया, तब भी देश को लग रहा था कि न्यायपालिका इस मसले पर ज़रूर सकारात्मक हस्तक्षेप करेगी, पर ऐसा नही हुआ और सरकार की मंशा के अनुरूप ही फैसला आया।

Ews आरक्षण के ज़रिए जब सरकार ने द्विज जातियों को खुश करने के लिए आरक्षण की मूल भावना के खिलाफ जाकर आरक्षण दे दिया तब भी कोर्ट ने हस्तक्षेप करना ज़रूरी नही समझा।

विधायिका और न्यायपालिका को सीएए कानून के मामले में भी एक साथ देखा गया, जो धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात करता है।

एससीएसटी एक्ट को कमजोर करने की कोशिश तो खुद एक समय कोर्ट ने ही की,जो इस सरकार की मंशा के अनुरूप ही था, पर जनता के भारी विरोध के चलते, न चाहते हुए भी सरकार को संसद में संशोधन लाना पड़ा।

धीरे-धीरे 2014 के बाद से बार-बार ऐसा समय आया जब साफ-साफ लगने लगा कि न्यायपालिका और कार्यपालिका एक ही दिशा के राही होते जा रहे हैं, उनके बीच चेक और बैलेंस खत्म होता जा रहा है।

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पर 2024 के बाद से एक बार फिर ऐसा लग रहा है कि शक्ति संतुलन में बदलाव आ गया है, 400 पार का नारा देने वाले 240 पर सिमट गए हैं। बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा है इस सरकार को और यह झटका भाजपा को हिंदुत्व के गढ़ माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में ही लगा है। अयोध्या तक उन्हें हारना पड़ा है और यह सब इसलिए हुआ क्योंकि जनता बीच यह परशेप्सन बनता गया कि भाजपा संविधान के लिए ख़तरा है।

यानि 2024 के बाद की जो सरकार है वह 2014 व 2019 के बनिस्बत एक कमजोर सरकार है।

जिसका इक़बाल जनता के बीच भी कमजोर हुआ है। अर्थव्यवस्था भी संकटग्रस्त है, वैश्विक दबाव भी अमेरिकी दबाव भी सरकार ज्यादा झेलना पड़ रहा है। विपक्ष भी थोड़ा मजबूत हुआ है और उसका मनोबल ऊंचा हुआ है,  सक्रियता बढ़ी है।

इन्हीं ख़ास संदर्भों के चलते लोकतांत्रिक संस्थाओं को थोड़ा सांस लेने का मौका मिल रहा है। न्यायपालिका ने संविधान के आलोक में कुछ फैसले लेने फिर से शुरू कर दिए हैं। साथ ही संघ-भाजपा में 2024 से पहले की ताकत को फिर से हासिल करने की छटपटाहट भी बढ़ती ही जा रही है, इन्हीं वजहों से न्यायपालिका पर संघ-भाजपा ने हमला और तेज कर दिया है। निशिकांत दुबे या उप राष्ट्रपति द्वारा दिया जा बेहद आपत्तिजनक बयान असल में भाजपा की इसी छटपटाहट व कमज़ोरी का, बार-बार प्रदर्शन है। चूंकि हिंदुत्व की ढ़ेर सारी परियोजनाएं अभी अधूरी हैं, सो आने वाले समय में ऐसा लग रहा है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव व संविधान पर हमले और बढ़ने वाले हैं।

मनीष शर्मा
मनीष शर्मा
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बनारस में रहते हैं।

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