आपरेशन सिंदूर के बाद बिहार में नरेंद्र मोदी व नीतीश कुमार के कई संबोधनों को अगर ध्यान से सुना जाए,तो आगामी चुनावों को लेकर पक रहीं रणनीति कुछ-कुछ स्पष्ट होने लगेंगी। विक्रमगंज में दिए गए दोनों नेताओं के भाषण ने तो बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया है कि आने वाले समय में भाजपा-जदयू गठबंधन किन राजनीतिक-वैचारिक रणनीतियों की ओर बढ़ने जा रहा है।
अगर काराकट, बिहार में दिए भाषण को देंखे तो मोदी ने अपने आपको राम और राष्ट्रवाद का चैंपियन तो घोषित किया ही, सामाजिक न्याय का चैंपियन भी खुद को घोषित कर दिया।
साथ यह दावा कर दिया कि 2014 के बाद ही सामाजिक न्याय बिहार मे उतरा है, राशन, शौचालय, आवास व बैंक खाते को मोदी ने सामाजिक न्याय की दिशा में लिया गया बड़ा क़दम बताया।
पर आश्चर्यजनक रूप से मोदी ने अपने संबोधन में जाति जनगणना को कराने का श्रेय तक लेना ज़रूरी नहीं समझा, इस मसले का जिक्र तक नहीं किया। आखिर में इसकी क्या वज़ह हो सकती है?
एक बात तो ये समझ में आ रही है कि अगर जाति जनगणना पर ज्यादा चर्चा की जाएगी तो यह संभव है कि इसका श्रेय विपक्ष के खाते में चला जाए, यह मान लिया जा सकता है कि विपक्ष के दबाव में मोदी सरकार को झुकना पड़ा।
दूसरी बात यह भी हो सकती है कि जाति जनगणना बिहार चुनाव के दौरान अगर बहस के केंद्र में आ गया तो यह भी हो सकता है कि भाजपा का कोर वोटर यानि अपर कास्ट भी नाराज़ हो जाए या निष्क्रियता की ओर चला जाए।
शायद इस दोहरे ख़तरे को भांपते हुए ही ऐसा लगता है कि भाजपा ने इस सवाल पर चुप्पी साधने या जाति जनगणना की चर्चा को सीमित रखने की रणनीति पर काम करने की योजना की तरफ बढ़ रही है और शायद इसी असुरक्षा बोध के चलते ही बिहार में उच्च जाति आयोग का गठन भी आनन-फानन में कर दिया गया है।
हालांकि काराकाट में आयोजित जनसभा में नीतीश कुमार ने ज़रूर,जाति जनगणना कराने का फैसला लेने के लिए प्रधानमंत्री को विशेष धन्यवाद दिया।
इस बात से भी यही लगता है कि नीतीश कुमार इस मसले पर गाहे-बगाहे चर्चा करते रहेंगे, ताकि विपक्ष को मुद्दा विहीन कर दिया जाए या इस मुद्दे को विपक्ष से छीन लिया जाए।
भाजपा द्वारा जाति जनगणना पर ज्यादा चर्चा करते रहने से एक ख़तरा यह भी है कि बिहार में 65 फीसदी आरक्षण का मसला फिर से बहस में आ जाएगा। इस मसले पर भी यह आम छवि बनी हुई है कि भाजपा के लोगों ने भाजपा के इशारे पर ही इस नये आरक्षण को भी रद्द करवाया।
यह सवाल भी बिहार की जनता में चर्चा-ए-आम है कि 65 फीसदी आरक्षण को 9वीं अनुसूची में डालकर इसे आसानी से बचाया जा सकता था,पर मोदी सरकार ने जानबूझ कर ऐसा करने से इंकार कर दिया।
नीतीश कुमार से सवाल है
इस सवाल पर नीतीश कुमार भी कटघरे में खड़े मिलेंगे। जदयू, मोदी सरकार का हिस्सा हैं या यूं कहें कि मोदी सरकार, जदयू के समर्थन पर ही टिकी हुई है, बावजूद इसके 65 फीसदी आरक्षण को नीतीश कुमार 9वीं अनुसूची में क्यों नही डलवा पाएं?
दिए गए भाषण से यह भी स्पष्ट हुआ कि आपरेशन सिंदूर से भी चुनाव में मुद्दा रहेगा, पर यही एकमात्र मुद्दा नहीं रहेगा और भाजपा के लिए इसे केन्द्रीय मुद्दा बनाए रखना भी बेहद मुश्किल काम होगा क्योंकि जितना ज्यादा आपरेशन सिंदूर चर्चा में लाया जाएगा, उतना ही ज्यादा इस आपरेशन से जुड़ी, असफलताओं पर चर्चा होने लगेगी, जिनका जबाब देना भाजपा व एनडीए के लिए असंभव होता जाएगा।
सीज़फायर के बाद से ही बहुत सारे सवाल जनता के ज़ेहन में कौंध रहे हैं, जिनका उसे संतोषजनक जबाब नहीं मिल रहा है, जिसके चलते इस आपरेशन को लेकर जनता में निराशा बढ़ती ही जा रही है।
सबसे बड़ा सवाल तो सीज़फायर पर ही है कि किसने सीज़फायर कराया क्योंकि डोनाल्ड ट्रम्प अभी भी सीज़फायर कराने का श्रेय लिए जा रहे हैं और अब तो अमेरिकी प्रशासन ने अपने न्यायालय में पेश किए गए हलफनामे में भी सीज़फायर का लिखित रूप से जिक्र कर दिया है।
जैसे-जैसे बिहार चुनाव में आपरेशन सिंदूर को भाजपा द्वारा चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की जाएगी, वैसे-वैसे यह सवाल जो जनता के ज़ेहन के साथ भाजपा समर्थकों के मन भी में भी लगातार उठते रहेंगे कि क्या सचमुच प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप के दबाव मे आकर युद्ध को रोक दिया,अगर ऐसा है तो वह कौन सा दबाव है, जिसके चलते प्रधानमंत्री मोदी लगातार ट्रंप द्वारा दिए जा रहे अपमानजनक बयानों के बावजूद, एक चुप हज़ार चुप वाली मुद्रा में बने हुए हैं।
बिहार चुनाव में मोदी व नीतीश कुमार की चुनावी रणनीति
इस बार पुलवामा जैसा माहौल बिल्कुल ही नही है। पहले जैसा कोई अंध राष्ट्रवादी उन्माद फैसा सकने में भाजपा असफल साबित हुई है। ऐसे समय में सतह के नीचे दबे हुए प्रश्न भी उभर आते हैं, जिनका जबाब देना सत्ता के लिए मुश्किल होता जाता है। प्रधानमंत्री मोदी खुलकर ट्रंप को जबाब क्यों नही दें रहे हैं?
यही वज़ह है कि आपरेशन सिंदूर से जुड़े बहुत से सवाल हवा में तैरने लगे हैं।
भारत पूरी दुनिया में कूटनीतिक मोर्चे पर इतना अलग-थलग में कैसे पड़ा या पहलगाम में अटैक करने वाले चरमपंथी कहां गुम हो गए? अगर सुरक्षा का फैल्योर था तो किसी ने अब तक कोई जिम्मेदारी क्यों नही ली या पाक प्रायोजित चरमपंथ को दुनिया ने क्यों स्वीकार नहीं किया और कश्मीर का इतना ज्यादा अंतराष्ट्रीयकरण कैसै हो गया?
इस बार बिहार चुनाव में भाजपा बेहद सलेक्टिव होकर आपरेशन सिंदूर को मुद्दा बनाएगी और इस बात को लेकर सजग रहेगी कि सरकार की असफलता से जुड़े सवाल कही चुनाव के केंद्र में ना आ जाए।
आपरेशन सिंदूर से ही जुड़ी हुई एक और बात बिहार में, प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के दौरान सुनने मिली, जब उन्होंने बिहार से शहीद हुए मोहम्मद इम्तियाज को श्रद्धांजलि देकर उन्हें श्रद्धापूर्वक याद किया।
इसका एक राजनीतिक निहितार्थ यह है कि इस बार बिहार चुनाव में आपरेशन सिंदूर का सीधे-सीधे साम्प्रदायीकरण करने से भाजपा शाय़द बचेगी। ऐसे भी भाजपा के लिए आम तौर बिहार को कम्युनलाइज करना पहले भी आसान नही रहा है,बिहार के इतिहास और भूगोल के चलते,संघ के कमजोर होने की वज़ह से भी और खास तरह के गठबंधन के चलते भी ऐसा होता रहा है.ऐसे में काराकट में दिए भाषण के बाद यह भी लग रहा है कि आने वाले समय में भाजपा अपना कम्युनल टोन थोड़ा लो रखेंगी.यानि शीर्ष नेतृत्व इन मसलों पर कम बोलेगा,और नेतृत्व के किन्हीं और हिस्सों को इन मसलों को सौंप दिया जाएगा.
विक्रमगंज,जनसभा के दौरान संबोधन में नीतीश कुमार ने फिर से महिलाओं के प्रश्न को बेहद गंभीरता से संबोधित किया,और सभा में महिलाओं की बड़ी उपस्थिति का जिक्र भी किया, साथ ही साथ बिना नाम लिए राजद पर हमला भी बोला, और बिना बोले ही राजद के जंगलराज को,इस बार भी महिलाओं के एंगेल से चुनावी मुद्दा बनाए रखने का संकेत दिया.
हालांकि ठीक इसी समय बिहार के हर शहर में खुलेआम बंदूकें लहराईं जा रही हैं,ख़ून की होली खेली जा रही है, राजधानी पटना को हिस्ट्रीशीटर्स और शूटरों ने जैसे कंट्रोल कर लिया है.
इसी लिए प्रधानमंत्री मोदी ने इस नए जंगलराज को ढकने की रणनीति के तहत ही,शायद बस्तर नरसंहार को बिहार में एजेंडा बना रहे है,और बिहार में 2014 बाद से माओवाद को लगभग ख़त्म कर देने का श्रेय लेने की कोशिश अपने संबोधन में करते दिख रहे हैं। हालांकि इस नए नैरेटिव के बावजूद यह देखना बाकी है कि पुराना जंगलराज का नैरेटिव अभी की नयी परिस्थितियों में भी कितना चल पाता है।