नायककथा में आज हम आपकी मुलाक़ात करवा रहे हैं रामदास राही से। उम्र अब पचासी के आस-पास जा चुकी है। देह के पोर-पोर में बुढ़ापा तारी हो चुका है पर हौसले आज भी किसी युवा की तरह हैं। ना वह थके हैं ना उनकी उम्मीदों पर कोई शिकन है। वह आज भी मन के युवा कंधे पर झोला लटकाये लोक के नायक भिखारी ठाकुर की यादों को संजोते हुये भी और संजोई-सहेजी यादों को किस्से में बुनकर देश भर में फैलाते हुये घूम रहे हैं। जब हर कोई अपने को ही नायक बनाने और अपने नायकत्व का आख्यान गढ़ने में लगा हो तब बहुत ही दुस्साहस का काम हो जाता है किसी और के नायकत्व को अपनी पीठ पर थाम कर दशकों लंबी, समय की पगडंडी पर यात्रा करना।
रामदास राही ऐसे ही सफर के राही हैं। एकला चलो की अवधारणा के साथ जीवन की कठिन पगडंडियों को पार करते हुये वह अविचलित भाव से लोक के नायक भिखारी ठाकुर का परचम उठाए हुये बढ़ते जा रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव पर जब शरीर उनके मन के साथ नहीं दौड़ पाता, तब मुट्ठी में सहेजा हुआ आक्रोश अंजुरी में छलक आता है। झल्लाहट से भीगे मन को फिर से धैर्य की कारा में बांधते हैं, थोड़ा सा सुस्ताते हैं और चल पड़ते हैं। कबीर जिस भाव से अपने प्रिय यानी निर्गुण ब्रम्ह को खोजते हैं, उसी राग के साथ रामदास राही अपने भिखारी ठाकुर को स्थापित करने के यत्न में जुटे रहते हैं। भिखारी ठाकुर के बहाने वह उस स्वाभिमान को सँजोने का यत्न भी करते हैं, जिसे जातीय तौर पर बार-बार कुचला गया। जिस जाति को किस्से–कथाओं से लेकर सामाजिक दहलीज पर बार-बार अपमानित किया गया, उस जाति में जन्मे अपने नायक को वह हर दिन नए सूर्य की तरह नई चमक के साथ लोक के बीच ले जाते हैं।
रामदास राही इस पूरे प्रयास में खुद को कहीं भी नायकत्व का लबादा नहीं पहनाते, बस वह समर्पित भाव से भिखारी ठाकुर के कृतित्व और व्यक्तित्व का बखान करते हैं। कभी संजीव के लिए भिखारी ठाकुर पर लिखे उपन्यास ‘सूत्रधार’ के सूत्रधार बन जाते हैं, तो कभी भिखारी ठाकुर के नाम पर आश्रम बनाने में लग जाते हैं। कई किताबें भी उन्होंने भिखारी ठाकुर पर लिखी हैं। भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर, 1887 को बिहार के सारन जिले के कुतुबपुर (दियारा) गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम दल सिंगार ठाकुर व माताजी का नाम शिवकली देवी था।
भिखारी ठाकुर भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी लोक जागरण के संदेश वाहक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक थे। वे बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे भोजपुरी गीतों एवं नाटकों की रचना एवं अपने सामाजिक कार्यों के लिये प्रसिद्ध हैं। वे एक महान लोक कलाकार थे। उन्हें भोजपुरी का शेक्शपीयर कहा जाता है। वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य-निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी। उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक की भाषा बनाये रखा। भिखारी ठाकुर ने लोक-कला के माध्यम से सामाजिक रूढ़ियों का प्रतिकार किया और नये मूल्यों का सृजन करते रहे। उनकी कला और उनका वैचारिक दुस्साहस, दोनों को धरोहर के रूप में सहेजने की जरूरत है। यह काम रामदास राही बखूबी कर रहे हैं। रामदास राही लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आश्रम के मंत्री एवं संस्थापक हैं। वे पिछले 50 वर्षों से भिखारी ठाकुर के साहित्य एवं स्मृतियों को सहेजने एवं प्रकाशित करवाने में लगे हुए हैं। उनकी बड़ी बहन के परपौत्र हैं। इन्होंने भिखारी ठाकुर को बहुत करीब से देखा है, उनके साहित्य एवं स्मृतियों को अपने जीवन और आचरण में आत्मसात किया है। रामदास राही की इस यात्रा और भिखारी ठाकुर से जुड़े उनके सरोकारों पर दीपक शर्मा की बातचीत हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। लोकल हीरो यानी लोक नायक के बहाने आप भी मिलिये रामदास राही से-
सबसे पहले आप अपने बारे में बताएं और आपने इतनी लंबी साहित्य की यात्रा कैसे तय की?
मैं रामदास राही, संस्थापक एवं मंत्री, लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आश्रम कुतुबपुर सारण बिहार। मेरा जन्म 4 मार्च, 1942 ई को ग्राम सेमरिया पोस्ट बड़हरा भोजपुर बिहार में हुआ था। मैं बहुत सामान्य परिवार से हूँ, मेरे पिताजी राजगृही ठाकुर बंगाल पुलिस में थे। परिवार में शिक्षा का खास माहौल नहीं था, न ही साहित्य की कोई खास विरासत थी। मेरी शिक्षा किसी विश्वविद्यालय में भी नहीं हुई। लेकिन मैं बचपन से ही साहित्य का अध्ययन करता रहा हूँ। साथ ही कुछ मौलिक रचना का प्रयास करता था। इन्हीं प्रयासों से मैं हिंदी, संस्कृत और भोजपुरी के कई पुस्तकों का अध्ययन किया। मुझे यात्राएं करना बहुत पसंद है। ज्यादातर यात्रा मैंने साहित्य के लिए की हैं। उत्तर भारत के हिंदी और भोजपुरी के नामचीन साहित्यकारों एवं संपादकों से मिलना हुआ है। उसके साथ-साथ मेरी लेखनी भी चलती रही। भिखारी ठाकुर मेरे गुरुदेव हैं। मैं उनके साहित्य का बचपन से ही अध्ययन करता रहा हूँ। इसी क्रम में मैंने भिखारी ठाकुर पर अपनी कृति भाई विरोध समीक्षा पुस्तक भिखारी ठाकुर के भक्ति भावना में लोकमंगल के आयाम, के साथ भिखारी ठाकुर कुतुबपुर से कुतुबपुर तथा भिखारी ठाकुर स्मृतियों के फलक पर लिखी। कुछ मनीषी साहित्यकारों के सहयोग से भिखारी ठाकुर ग्रंथावली (भाग 1 और भाग 2) एवं भिखारी ठाकुर रचनावली के लिए गुरुदेव के साहित्य का संग्रह किया एवं उसे प्रकाशित कराया। इसके अतिरिक्त मैंने बाबू रघुवंश नारायण पर जिंनगी जिसे जिया, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का प्रकाशन कराया। मेरे एक मित्र एवं सहयोगी रहे कर्मयोगी आचार्य द्वारिका सिंह पर भी एक पुस्तक है। हिंदी एवं भोजपुरी के कई पत्रिकाओं में मेरे आलेख प्रकाशित हैं। आकाशवाणी पटना में मेरे कई वक्तव्य प्रकाशित हुए हैं। देशभर से कई शोधार्थी एवं साहित्यकार भिखारी ठाकुर से संबंधित जानकारी लेने के लिए मेरे पास आते रहे हैं। भिखारी ठाकुर पर बात करने के लिए मैंने कभी किसी को मना नहीं किया। भिखारी ठाकुर ग्रंथावली प्रकाशित होने के बाद सन 1980 में बिहार सरकार द्वारा मुझे सम्मानित किया गया था। एक सम्मान भिखारी ठाकुर स्कूल ऑफ ड्रामा पटना द्वारा मुझे भिखारी ठाकुर धरोहर सम्मान भी मिला है। इसके अतिरिक्त विभिन्न साहित्यिक आयोजनों एवं संस्थान द्वारा मुझे अनेक प्रकार के सम्मान एवं पुरस्कार मिलते रहे हैं।
भिखारी ठाकुर को आप कब से जानते हैं और उनके साथ आपका क्या रिश्ता रहा? आप उनके साथ के वक्त पाठकों से कुछ साझा करें?
वैसे भिखारी ठाकुर मेरी परदादी के छोटे भाई थे। इसलिए हम उन्हें बचपन से जानते हैं। एक बार आरा मिरगंज में रामाध्यान सिंह के यहाँ दशहरा का तीन दिन का कार्यक्रम होता था। वर्ष 1962 तब मैं करीब 20 वर्ष का था, दशहरा के दिन मेरी इच्छा हुई कि भिखारी ठाकुर का कार्यक्रम देखा जाए। हम रात में ही मिरगंज पहुंच गए थे। वहां अतिथियों के रहने की एक अलग व्यवस्था थी वहाँ अतिथियों के बीच बैठे हुए भिखारी ठाकुर जी को सब लोग घेरे हुए थे। मैने बाबा का चरण स्पर्श किया तो वे बोले कहां से? तो मैंने कहा- सिमरिया से बाबा। इसके बाद बाबा ने मेरा कुशलछेम पूछते हुए अपने आदमियों से मेरे नाश्ता, भोजन पानी और रहने की व्यवस्था करवा दिए। बाबा बीच-बीच में पूछ लेते थे भरपेट खइला हा? कउनो बात की तकलीफ नईखे न! वस्तुत: बाबा बहुत अच्छे व्यक्तित्व के थे। सज्जन आदमी थे। सबके लिए एक पैर पर खड़े रहते थे। 1964 ई० में हमारे शादी के साल बाबा हमारे गाँव सिमरिया नेवता लेकर आए हुए थे। गाँव घर के लोग बाबा का चरण स्पर्श करते हुए प्रणाम करते थे। बाबा सबसे प्रेम से मिलते और कुशल समाचार पूछते थे। उस समय घर पर हम ही थे। बाबा को रात्रि में आराम और सादा भोजन की जरूरत होती थी। बाबा के इच्छानुसार हमने उनकी सेवा किया। सुबह नाश्ता करने के बाद हम बाबा के साथ आरा रोड तक गए। बस आया और बाबा बस में बैठ गए। बाबा ख्यातिल्लब्ध व्यक्ति थे। बस में बैठे हुए सारे यात्री उन्हें पहचानते थे और प्रणाम करते थे। इसके अलावा और कई मुलाकातें हुईं जो मेरे लिए बहुत सुखद था।
आपको कब लगा कि भिखारी ठाकुर की साहित्य पर काम करना चाहिए फिर आपने इस अभियान की शुरुआत कैसे किया?
इसकी एक लंबी कथा है जिसे मैंने अपने हाल ही के पुस्तक ‘भिखारी ठाकुर स्मृतियों के फलक पर’ में विस्तार से लिखा है। फिर भी यहाँ मैं थोड़ी सी जानकारी दे देता हूँ। 10 जुलाई 1971 को भिखारी ठाकुर का देहावसान हो गया। उनके बाद उनके नाटकों का पाठ उनके भतीजे गौरी शंकर ठाकुर करते थे। वे शराब के नशे में धुत्त रहते थे। भिखारी ठाकुर जो अपने कलाकारों के साथ आत्मीय संबंध रखते थे लेकिन उनका भतीजा इस विरासत को संभाल नहीं पाया। उनका कलाकारों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं था। उन्हें समय से मजदूरी नहीं देते थे, न ही सामान को सही ढंग से संभलकर रख पाते थे इसलिए कुछ कलाकारों ने धीरे-धीरे उनका साथ छोड़ना आरंभ कर दिया। तभी मुझे लगने लगा कि भिखारी ठाकुर का त्याग, तपस्या, साहित्य और कला उनके साथ समाप्त हो जाएगी। तब मैंने भिखारी ठाकुर के व्यक्तित्व और कृतित्व को सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्ष को सजोने का संकल्प लिया। हमें जहां-जहां भिखारी ठाकुर से संबंधित पत्र-पत्रिकाएं, भजन, कीर्तन, नाटक और अन्य जानकारियां मिलती मैं पढ़ता जाता। उनसे संबंधित कुछ विद्वान लोग से भी जानकारी इकट्ठा किया। उस समय महेश्वराचार्य द्वारा लिखी गई एक पुस्तक ‘जनकवि भिखारी ठाकुर’ निकाला था, जिसे हमने विस्तार से अध्ययन किया। सबसे पहले सन् 1973 ई० में हमारे प्रिय मित्र श्री कृष्ण शर्मा जो एक सामाजिक कार्यकर्ता थे और उनके मित्र सच्चिदानंद सरमेरा कॉलेज के प्राचार्य बिंदेश्वरी प्रसाद सिंह ने भिखारी ठाकुर की जयंती मनाने की इच्छा जताई। हमने उनके इस उत्तम विचार का स्वागत किया और उनसे पत्राचार होने लगा। किंतु हमारे पास भिखारी ठाकुर की कोई तस्वीर नहीं थी। उस समय जलेश्वर ठाकुर पटना सचिवालय के निगरानी विभाग में काम कर रहे थे, वे हमारे रिश्ते में छोटे भाई थे। मैंने उनसे भिखारी ठाकुर की एक तस्वीर की इच्छा जताई। तस्वीर के लिए कुतुबपुर में भिखारी ठाकुर परिवार से पूछा गया तो उनके पास भी नहीं थी। गाँव के लोग भिखारी ठाकुर की जयंती मनाने के नाम पर हमारी हंसी उड़ा रहे थे। लोग कहते थे कि नचनिया के जयंती मनवाल जाई। लेकिन हम प्रयास में लगे रहे। तस्वीर के लिए कई विद्वानों से संपर्क किया अंत में पांडे नर्मदेश्वर सहाय वकील की मदद से वह तस्वीर प्राप्त हो गई। यह वही तस्वीर है जिसमें भिखारी ठाकुर अपने सब लोग के पुस्तक में कई जगह पगड़ी बांध के कुर्सी पर बैठे हुए हैं। तब यह तस्वीर हमने सासाराम आकर श्री कृष्णा शर्मा को दे दिया। लेकिन 1973 में जयंती नहीं मना पाए हम लोग। जयंती 13 अप्रैल 1974 ई को दोबाह बाजार में एक पीपल के पेड़ के नीचे नर्मदेश्वर ठाकुर जलेश्वर ठाकुर श्री कृष्णा शर्मा, गौरी शंकर ठाकुर दूधनाथ ठाकुर, कैलाश ठाकुर, देवमणि ठाकुर, झूलन राम ठाकुर, इकबाल पांडे आदि लोगों की उपस्थिति में एक छोटे से ओसरे में एक चौकी पर तस्वीर फूल माला और दीया जलाकर मनाई गई। सबने उनके प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित किया। अंत में हमने अपनी बात रखी कि हम भिखारी ठाकुर के साहित्य और कला को अछुण्ण बनाते हुए जन-जन के बीच में भिखारी ठाकुर की कृतियों का ध्वज फहराते रहेंगे। हर साल पूस मास सूदी पंचमी के दिन उनकी जयंती मनाएंगे। इसके बाद उनकी विधिवत जयंती 7 जनवरी 1975 को प्रधानाध्यापक मुनि सिंह के प्रयास से भव्य आयोजन के साथ मनाई गई। इसी प्रकार विभिन्न विद्वानों के साथ मिल बैठकर हमने हर साल भिखारी ठाकुर की जयंती मनाने का कार्यक्रम आरंभ कर दिया। इसी क्रम में गुरुदेव की 88वी जयंती समारोह 25-26 दिसंबर 1976 को बैजनाथ सिंह उच्च विद्यालय कुल्हड़िय में धूमधाम से मनाई गई थी। जयंती समारोह की अध्यक्षता आश्रम के अध्यक्ष और जाने-माने साहित्यकार पंडित हंस कुमार तिवारी और उद्घाटन रामरतन राय कल्याण मंत्री बिहार सरकार के द्वारा हुई। पटना विश्वविद्यालय के कुलपति आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा जी को हमने मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया था। इस अवसर पर महेश्वराचार्य जी को सम्मानित किया गया था। उद्घाटन भाषण में राम रतन जी ने कल्याण विभाग से दो हजार रुपए देने की घोषणा किये। उस दिन एक कवि सम्मेलन हुआ था। जिसकी अध्यक्षता हिंदी विभाग के महाकवि आरसी प्रसाद और सम्मेलन का उद्घाटन सुप्रसिद्ध साहित्यकार शिल्पी उपेंद्र महारथी जी ने किया था। अतिथियों का स्वागत प्रधानाध्यापक मुनि सिंह के द्वारा हुई थी। जयंती समारोह के अभिभावक आचार्य द्वारिका सिंह जी तथा आयोजक लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आश्रम कुतुबपुर था। यह एक भव्य आयोजन था।
70 के दशक में उनकी जयंती की तारीख अलग-अलग तिथि को कैसे पड़ती थी?
हमने उनकी जयंती हिंदी महीने के अनुसार मानना आरंभ किया था। जिसके अनुसार उनका जन्मदिन पूस मास के सुदी पंचमी को पड़ता है। बाद में सभानाथ पाठक जी ने अंग्रेजी महीने से गणना करके 18 दिसंबर 1887 निर्धारित किया। अब अंग्रेजी महीने के अनुसार ही मनाई जाती है।
लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आश्रम कुतुबपुर का निर्माण आपने ही कराया। इस विषय पर कुछ प्रकाश डालिए।
लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आश्रम कुतुबपुर की स्थापना बिहार सरकार की मदद से उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की स्मृतियों में 1974 ई० में मैंने ही किया है। उसका उद्देश्य मुख्यतः भिखारी ठाकुर की कृतियों का संग्रह, संपादन एवं प्रकाशन, वर्तमान भोजपुरी लोक मंडलियों का परिमार्जन, उनकी संगीत, नृत्य, नाटक का प्रशिक्षण, विकास और आयोजन, भोजपुरी रंगमंच का विकास, भिखारी ठाकुर ग्रंथावली का संपादन तथा प्रकाशन करना आदि था। इसके लिए विभिन्न पदाधिकारियों की नियुक्ति की गई थी। जिनके नाम और पदनाम ‘भिखारी ठाकुर स्मृतियों के फलक पर’ पुस्तक में मैंने दे दिया है। धीरेंद्र प्रसाद सिन्हा अध्यक्ष, रामदास ठाकुर मंत्री, जलेश्वर ठाकुर संयुक्त मंत्री, शीलानाथ ठाकुर कोषाध्यक्ष के अतिरिक्त अन्य सदस्य नियुक्त हुए थे। इसमें धीरेंद्र प्रसाद सिन्हा और जलेश्वर ठाकुर ने तन मन धन से बड़ा योगदान दिया था। आश्रम की स्थापना के लिए आचार्य द्वारका प्रसाद सिंह ने बिहार सरकार से जमीन के लिए आवेदन किया था। जो कि 14 दिसंबर 1975 ई को बिहार सरकार द्वारा 11 कट्ठा जमीन आश्रम के नाम रजिस्ट्रेशन हुआ था। यह जमीन भिखारी ठाकुर परिवार से लिया गया था। जिसमें 104 फीट लंबा 54 फीट चौड़ा आश्रम के चहारदीवारी के बीच लोक कलाकार भिखारी ठाकुर की मूर्ति की स्थापना हुई। आश्रम के निर्माण में तत्कालीन बिहार सरकार में मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर जी ने हमारे निवेदन को स्वीकार करते हुए आश्रम के नाम भवन निर्माण के लिए 12 हजार पाँच सौ रुपया दिए थे। जिससे आश्रम के भवन निर्माण मंच की स्थापना दो कमरे और चहारदीवारी का निर्माण हुआ। हम कर्पूरी जी के योगदान को कभी नहीं भूलेंगे। भवन निर्माण में पैसे और सामान घट जाता था तो मैं खुद अपनै मित्रों से आग्रह करके जैसे-तैसे उपलब्ध कराता था।
यदि आपका प्रयास नहीं रहा होता तो भिखारी ठाकुर ग्रंथावली भाग 1 भाग 2 और भिखारी ठाकुर रचनावली का प्रकाशन नहीं हो पाया होता। इसके पीछे के संघर्ष की कहानियों के कुछ हिस्से को साझा करें।
इसका सारा विवरण हमने वर्ष 2014 में हरिवंश द्वारा संपादित ‘रंगयात्रा’ पत्रिका में एक लेख ‘भिखारी ठाकुर के रचना संसार। : संग्रह प्रकाशन तक’ में संक्षिप्त रूप से दे दिया है। इसका वर्णन करने लगेंगे तो बहुत समय लग जाएगा। फिर भी संक्षिप्त रूप से कहना चाहूँगा कि भिखारी ठाकुर के साहित्य को सजोने में मैंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुदान दिया है। इसके लिए मैंने खून पसीना एक किया है। आज जो हम लोगों के हाथों में भिखारी ठाकुर रचनावली है, इसकी बहुत कठिन यात्रा रही है। उनके परिवार के लोग तो उनकी पांडुलिपियों को ले जाकर मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को दे दिए थे। उसका क्या हुआ आज तक पता नहीं चला। हमने कुतुबपुर आश्रम के द्वारा 1979 ईस्वी में भिखारी ठाकुर ग्रंथावली भाग 1 तथा 1986 ईस्वी में भिखारी ठाकुर ग्रंथावली भाग 2 प्रकाशित करवाया। पहला भाग का उद्घाटन माननीय मुख्यमंत्री बिहार सरकार रामसुंदर दास जी ने तथा दूसरे भाग का उद्घाटन बिहार सरकार के शिक्षा मंत्री अर्जुन विक्रम साह ने किया था। आलोचक नामवर सिंह और गणेश चौबे जी ने ग्रंथावली की तारीफ किया था। वर्ष 2005 में उनके संपूर्ण रचनाओं का संकलन एक साथ भिखारी ठाकुर रचनावली बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से प्रकाशित कराया। इसके प्रधान संपादक डॉ. वीरेंद्र यादव तथा संपादक नागेन्द्र प्रसाद सिंह है। इसके लिए मुझे कितना ठोकर खाना पड़ा, कितनी लड़ाइयां लड़नी पड़ी, मैं नहीं बता सकता। पहले भिखारी ठाकुर की रचनाएं कोलकाता के हावड़ा में फुटपाथी साहित्य के रूप में छपी थी। जिसका कवर व वाइंडिंग ठीक नहीं थी। कुछ रचनाएं इधर-उधर छिटकी पड़ी थी। कुछ लोग भिखारी ठाकुर की रचनाओं को हेर-फेर कर अपने नाम से छपवा कर बाजार में बेच रहे थे, भिखारी ठाकुर अपनी रचनाओं को एक रजिस्टर में संकलित किए हुए थे, उसमें ज्यादातर उनके पद्य थे, गद्य बहुत कम था। उसमें भी सारी रचनाए आगे पीछे थी। इसके बाद नागेन्द्र प्रसाद सिंह के आवास पर बैठकी हुई और तय किया गया कि भिखारी ठाकुर की रचनाओं को तीन भाग में छापा जाए। संपादक मंडल ने मुझको जिम्मेदारी दिया कि रचनाओं की लेखनी तैयार करें और इसके लिए अविनाश जी का मदद लेते रहें।
हम 1977 ई० से ही भिखारी ठाकुर रचनाओं और कलाकारों के मुख से सुनी हुई, बिखरी हुई बातें जहां जहां से मिलती साहित्य में इकट्ठा करते जाते थे। भिखारी ठाकुर का भतीजा गौरी शंकर ठाकुर हू-ब-हू भिखारी ठाकुर का अभिनय करता था। रचना संकलन में उससे भी काफी मदद मिला। गौरीशंकर ने हम लोगों के सम्मुख भिखारी ठाकुर के द्वार पर पुराने कलाकारों के साथ नाटक का पूरा अभिनय किया। इसके बाद गौरीशंकर की मंडली जहां-जहां जाती थी, हम और जलेश्वर ठाकुर नाटकों की पांडुलिपि लेकर वहां वहां जाकर रचना का मिलान करते थे और अंत में सारी रचनाए अविनाश सिंह विद्यार्थी जी को सुपुर्द कर दिए। इस प्रकार ग्रंथावली तैयार हुई।
संजीव जी ने अपने उपन्यास ‘सूत्रधार’ में आपका जिक्र किया है और आपके योगदान को सराहा है। हम जानना चाहते हैं कि आपकी उनसे कितनी बार मुलाकात हुई होगी और वे किस संदर्भ में आपसे बातें करते थे?
संजीव जी मेरे अच्छे दोस्त हैं। उनसे मेरी कई बार मुलाकात और बातचीत हुई है। ज्यादातर बात पत्राचार के माध्यम से होती थी। एक बार की घटना है जब संजीव जी और नरेन जी भिखारी ठाकुर के दरवाजे पर आए थे। वहां उनको कोई नही़ पहचान रहा था। दोनों लोग चारपाई पर बैठकर गपशप कर रहे थे। संयोग से उसी दिन हम भी छपरा से कुतुबपुर पहुंचे थे। संजीव जी ने अपने मित्र से मेरा परिचय कराया और चाय नाश्ते के बाद बातचीत होने लगी। मैंने कहा कि कुतुबपुर चकिया दयाल चक में भिखारी ठाकुर जी के समय के जो कलाकार थे उनसे आपका भेंट करा देंगे। मैंने उन्हें एक सादा कागज देते हुए कहा कि यह आगन्तुक रजिस्टर है, इस पर अपने विचार लिखकर दस्तखत कर दीजिए, हम यहाँ के सभी कलाकारों से आपकी मुलाकात करा देंगे। सुबह सबसे पहले हमने चकिया के सरयू सिंह से मुलाकात कराया और इसके बाद गौरीशंकर ठाकुर ने सभी कलाकारों को अपने यहाँ स्वयं बुला लिए। सब कलाकार आए, दरी बिछाई गई, गौरीशंकर ने कलाकारों से परिचय कराय। उन्होंने भिखारी ठाकुर के पुत्र शीलानाथ ठाकुर और उनकी पत्नी तथा गौरीशंकर ठाकुर और उनकी पत्नी से बातचीत किया। इसके बाद बारी-बारी से सभी कलाकारों से बातचीत हुई। पत्राचार के माध्यम से मेरी उनसे आगे भी बातचीत होती रही और वे सारी जानकारी लिपिबद्ध करते गयें। एक दिन उन्होंने पत्र भेजा कि उपन्यास की पांडुलिपि तैयार है, आप आकर अंतिम में देख लेंगे तो हमको संतोष हो जाएगा। तब तक राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक रामधारी सिंह जी दिवाकर जी ने कहा कि “राही जी, आप ही के भरोसे संजीव उपन्यास लिख रहे हैं।” संजीव जी ने अपनी पांडुलिपि को पूरा पढ़कर मुझे सुनाया। उसमें जहां-जहां कुछ अंश छूट गया था, मैं बताता गया और वे जोड़ने गए। इसके बाद उनके साथ विदेशिया शैली पर खूब चर्चा हुई। संजीव जी अच्छे व्यक्तित्व के समदर्शी लेखक हैं। उन्होंने अपने उपन्यास में विदेशिया शैली को खुलकर भिखारी शैली नाम देने का साहस किया। इस प्रकार सूत्रधार उनकी एक अमर कृति बनकर तैयार हुई जो प्रकाशित होकर आप लोग के सामने हैं।
भिखारी ठाकुर के बारे में लोगों में एक संशय बना रहता है कि उन्हें पद्मश्री सम्मान और राय बहादुर की उपाधि मिली थी कि नहीं?
भिखारी ठाकुर को पद्मश्री नहीं मिला था। यह वर्ष 2020 में रामचंद्र माझी को मिला था। रामचंद्र माझी भिखारी ठाकुर नाथ मंडली में सबसे अंत में जुड़ा लेकिन उनके भीतर नाट्य- कला का ज्ञान ठीक से नहीं था या कह लीजिए कि वह विधिवत प्रशिक्षण नहीं ले पाया था। उसने भिखारी ठाकुर के नाटक के गीतों में अश्लील नृत्य करने लगा था जो कि उनके नाटक का हिस्सा नहीं था। जहां तक राय बहादुर के उपाधि का प्रश्न है यह उपाधि ब्रिटिश सरकार ने 1940 ईस्वी में दिया था जिसका जिक्र स्वयं भिखारी ठाकुर ने अपने एक पत्र में किया है तथा जगदीश चंद्र माथुर ने भी अपने लेख में राय बहादुर की उपाधि देने का जिक्र किया है। भिखारी ठाकुर अपने सारे मेडल एक जैकेट में सुरक्षित रखे थे। उनके परिवार के लोग उनमें से कितना बचा कर रखा है, इसकी जानकारी मुझे नहीं है।
भिखारी ठाकुर के निधन के बाद उनके कलाकारों का जीवन कैसा रहा?
ठाकुर जी की निधन के बाद उनके कलाकार कुछ दिन तक गौरीशंकर ठाकुर के साथ नाटक मंडली में काम किये फिर कुछ ने उनका साथ छोड़ दिया, कुछ उनके साथ बने रहे। उनकी आजीविका का साधन और कुछ नहीं था। उसमें सभी कलाकार आर्थिक रूप से बेहद कमजोर, दलित और पिछड़े वर्ग से थे । ज्यादातर कलाकार खेती-बाड़ी करने वाले थे। गौरी शंकर का निधन हो गया तो कलाकारों के लिए और अधिक संकट आ गया। ये कलाकार मेरे द्वारा आयोजित कार्यक्रम में उपस्थित होते थे लेकिन अब ज्यादातर कलाकारों का निधन हो गया है। गिनती से मात्र चार कलाकार ही बचे हुए हैं। जो अपने दयनीय हालत में है। वे सब बूढ़े हो गए हैं और अस्वस्थ रहते हैं। उनकी शुधि लेने वाला कोई नहीं है। वे कलाकार हैं किशुनदेव, लखीचंदराम, छोटका रामचंद्र और शिवबरण।
भिखारी ठाकुर के नाट्य शैली को कुछ लोग लौंडा नाच कहते हैं आप इस शब्द से सहमत है या असहमत?
यह उनके नाट्य शैली को बदनाम करने की साजिश है। लौंडा नाच से अश्लीलता का बोध होता है यह एक प्रकार से असामाजिक शब्द है। भिखारी ठाकुर के साथ इस शब्द का प्रयोग करना उचित नहीं है। भिखारी ठाकुर का नाटक सॉन्ग रूपक नाटक है। इस शब्द का प्रयोग करने वाले लोग धूर्त और मक्कार हैं। हां यह सच था कि उस समय महिलाएं नाट्य मंडली के साथ नहीं होती थी। उनका अभिनय पुरुष ही करते थे और यह विशेषता सिर्फ भिखारी ठाकुर के नाटकों के साथ नहीं है। पुरुषों के द्वारा महिलाओं का अभिनय उससे पहले से हो रहा था। भिखारी ठाकुर के नाट्य शैली को लौंडा नाच कहने वाला जेएनयू का एक शोधार्थी जैनेन्द्र दोस्त है जो कि महाथेथर है। उसने ही रामचंद्र माझी को पाँच हजार रुपया देकर दिल्ली में अश्लीलतापूर्वक नचवाया था। अभिनय और कला की बहुत-सी भाव भंगिमाएं होती है जिसका ज्ञान सबको नहीं है। जगदीशचंद्र माथुर ने भिखारी ठाकुर को भरत मुनि के परंपरा का नाटककार कहा है और राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें अनगढ़ हीरा कहा। भिखारी ठाकुर सांस्कृतिक योद्धा और साहित्य के धरोहर हैं।
अब आपकी बातचीत भिखारी ठाकुर परिवार से नहीं होती है, इसका क्या कारण है?
मैंने कुतुबपुर में लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आश्रम की स्थापना किया। उनके संग्रह का संकलन किया। उनके परिवार के लोग भिखारी ठाकुर को कफ़न बहुत पहले ही दे चुके थे। वे लोग इस धरोहर को सजोने का प्रयास नहीं किये। हमने जब भिखारी ठाकुर पर काम करना आरम्भ किया, जहां-तहाँ से पैसे इकट्ठा करके उनका आश्रम बनवाया, उनकी जयंती एवं पुण्यतिथि पर अनेक कार्यक्रम करवाए, उनके पुस्तकों का प्रकाशन कराया, अब वे लोग कहने लगे कि भिखारी ठाकुर हमार बाबूजी है। राही जी हमार धन खा रहे हैं। मुझे उनके इस बात पर बहुत दुख हुआ। वे लोग आश्रम से मेरी कुर्सी हटवा दिए। कुछ बाबू साहब लोगों की बातों में आकर मुझे कुतुबपुर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिए। वहां के पट्ट और सिलाओं से मेरा नाम मिटवा दिए। यदि हमने भिखारी ठाकुर पर काम ना किया होता तो वे लोग उन्हें कब का मिटा चुके होते जो आज उन्हें अपना धन और संपत्ति मानकर गुमान कर रहे हैं। उन्हें कोई नहीं जान पाता। लेकिन मैं भोजपुरी माटी के इस कलाकार को मिटने नहीं देना चाहता था। भिखारी ठाकुर की स्मृतियों को बचाने के लिए मैं आज भी लड़ाई लड़ रहा हूँ। अब मैं अपने अगले पुस्तक की तैयारी में लग गया हूँ। पुस्तक का नाम होगा ‘आधुनिक नाटक कर भिखारी ठाकुर’।
कार्यक्रम करवाने के लिए या पुस्तक छपवाने के लिए आप पैसों का इंतजाम कैसे करते थे?
देखिए, मेरे पास व्यक्तिगत तौर से कोई नौकरी या बिजनेस नहीं है। फिर भी मेरा सब काम आसानी से हो जाता है। यह सारा काम मैंने आप ही जैसे लोगों से भीख मांग कर किया है। मेरी बात को कोई इनकार नहीं करता है। जहां तक कार्यक्रम करवाने की बात है, मैं जिसके यहां कार्यक्रम करवाता था उनसे आग्रह करता था कि आप पाँच-दस आदमी के लिए खाना-नाश्ता देने का प्रबंध कर दीजिए, बस इतने से मेरा कार्यक्रम सफल हो जाता था।
आपने साहित्य के लिए इतना काम किया लेकिन आपकी जीवनी कहीं उपलब्ध नहीं है?
कुछ लोगों ने जीवनी के लिए आग्रह किया था लेकिन मुझे फुर्सत ही नहीं मिला। भिखारी ठाकुर की जीवनी को लोग पढ़े और याद करें, उनकी कृतियों पर चिंतन और मनन करें मेरी यही इच्छा है। मेरी जीवनी न भी रहेगी तो मुझें कोई अफसोस नहीं होगा।
बातचीत करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार।