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क्या विश्वगुरु के लिए अमेरिका जैसा बेशर्म और संवेदनहीन होना जरूरी हो गया है  

पिछले डेढ़ महीने से गाज़ा पट्टी इज़राइल जैसे अमेरिकी पिट्ठू देश की शिकारगाह बना हुआ है। इन डेढ़ महीनों में सबसे भयानक दृश्य फिलिस्तीनी बच्चों का क़त्ल है। अब तक दस हज़ार से अधिक बच्चे इज़राइल के हमले की भेंट चढ़ गए। यह सारा कत्लेआम हमास को सबक सिखाने के नाम पर हुआ है लेकिन […]

पिछले डेढ़ महीने से गाज़ा पट्टी इज़राइल जैसे अमेरिकी पिट्ठू देश की शिकारगाह बना हुआ है। इन डेढ़ महीनों में सबसे भयानक दृश्य फिलिस्तीनी बच्चों का क़त्ल है। अब तक दस हज़ार से अधिक बच्चे इज़राइल के हमले की भेंट चढ़ गए। यह सारा कत्लेआम हमास को सबक सिखाने के नाम पर हुआ है लेकिन अब इसका नैरेटिव बदल रहा है और पूरी दुनिया को पता चल गया है कि इस सबके पीछे कौन-कौन हैं और यह भी कि यह सारा खेल दरअसल साम्राज्यवाद के गर्भ से पैदा हुआ है।  विगत 7 अक्टूबर को तथाकथित हमास के द्वारा दागे गऐ रॉकेट के बाद इजराइल तथा अमेरिका ने मिलकर यह जो जवाबी कार्रवाई शुरू की है उसकी कई-कई परतें हैं। और इसका संदर्भ बहुत पुराना है।

मैं आज यहाँ अपने उन अनुभवों को साझा करना चाहता हूँ जो मैंने गाजा पट्टी में जाकर हासिल किया है।  बारह साल पहले मुझे एशियाई देशों की तरफ से, पहले अमन ओ कारवां में शामिल होने का मौका मिला था।  उस समय एक जनवरी से छः जनवरी, 2011 तक एक सप्ताह तक मुझे गाजा पट्टी में रहने का मौका मिला था। देखते ही लगा कि यह स्वतंत्र देश नही है। तीन तरफ से इजराइल के द्वारा 25-30 फ़ीट उंची कांक्रीट की दीवारें और उन दीवारों के ऊपर थोड़ी-थोड़ी दूर पर वॉच टॉवरों में इजराइल की सेना के जवान इस सघन मानव रहवास पर बड़ी-बड़ी दूरबीनों से जिस तरह नज़र जमाये हुये थे उसे देखकर यही महसूस हुआ कि यह जगह एक खुला हुआ  जेलखाना है।जिस दिशा में दीवार नही है, उस तरफ भूमध्य सागर है जिसमें गाजा पट्टी से लगे हुए किनारे से दस किलोमीटर तक इजराइल ने वॉटर माइन्स डाली हुई है, ताकि कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह की समुद्री हलचल करेगा तो वह जीवित नही रहेगा।

पश्चिमी दिशा बहुत ही संकरी है। वहां पर रफा नाम का बॉर्डर है। यह मिस्र के सिनाई रेगिस्तान से लगा हुआ है। यही गाजा से बाहर जाने का एकमात्र रास्ता है। मिस्र भले ही मुस्लिम बहुल देश है  और किसी समय (अब्दुल गमाल नासेर के समय) फिलिस्तीन की मुक्ति के लिए लड़ाई का नेतृत्व किया है, लेकिन अनवर सादात के समय से ही मिस्र ने इजराइल के साथ (कैंम्प डेविड) समझौता कर लिया। इसकी वजह से उनकी हत्या के बाद होस्नी मुबारक सत्ता में आए और उन्होंने भी इजराइल के साथ हाथ मिलाया था।  इसलिए गाजा से रफा बॉर्डर की तरफ से आवागमन बहुत ही कड़े सुरक्षा बंदोबस्त में है। बगैर वीसा पासपोर्ट किसी का भी आना-जाना असंभव है। कड़ाई से जांच-पडताल के बाद ही कोई व्यक्ति रफा के रास्ते मिस्र में प्रवेश कर सकता है।हम लोग एक जनवरी को सबसे पहले ‘अलअरिश‘ सिनाई रेगिस्तान में  स्थित एकमात्र हवाई अड्डे से होकर गाजा पट्टी में घुसे। मैं इस अनुभव से गुजरने के बाद ही यह बात लिख रहा हूँ। यह वास्तव में बहुत ही अपमानजनक है, लेकिन उसपर फिर कभी लिखूंगा। फिलहाल गाजा पट्टी के तत्कालीन हालात पर ही गौर करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं अपनी गाजा पट्टी और इराक की यात्राओं के अनुभवों को एक बार फिर लिखने के लिए प्रेरित हुआ हूँ तो इसका मुख्य कारण इन दोनों युद्धभूमियों को अपनी आंखों से देखने की वजह से ही है।

मुंबई से इराकी एयरवेज का जंबोजेट रात के दो बजे छूटता है और उसमें लगभग पांच सौ लोग बैठ सकते हैं। बगदाद जानेवाली इस फ्लाइट में चढते ही मैंने देखा कि हम कुछ बगदाद की बैठक में जाने वाले चार लोगों को छोड़कर बचे हुए अन्य यात्री ऐसे थे कि किसी का हाथ गायब है, तो किसी का पैर और किसी की आंखें। मतलब ज्यादातर इराकी यात्रियों में ऐसे लोग थे जो अमेरिका द्वारा 2003 में किए गए हमले की वजह से जख्मी हुए थे। यह फ्लाइट सिविलियन लोगों से खचाखच भरी हुई थी जो मुंबई में इलाज के लिए आए थे। मिलिटरी वाले तो इराक के मिलिटरी अस्पताल में या और कहीं इलाज करा रहे होंगे,  लेकिन इन सभी लोगों को देखकर मैं बहुत हैरान हुआ। सच कहूँ तो मैं बड़ी मुश्किल से अपनी सीट पर बैठ पाया और बहुत विचलित रहा। किसी भी तरह की यात्रा में मैंने अपने साथ ऐसे प्रवासियों से भरी हुई फ्लाइट नही देखी थी।बैठने के बाद जब फ्लाइट ने आकाश में उड़ान भरी तब  एयरहोस्टेस ने अनाउंस किया कि अब आप ‘बेल्ट खोल सकते’ हैं। इसके बाद मैंने अपने ज़ख्मी सहयात्रियों से बातचीत करना शुरू किया। उनमें कोई शिक्षक था तो कोई बिजनेसमेन और कोई किसान था। कुछ अन्य पेशे से भी जुड़े थे।

मुंबई के हवाई अड्डे से ही मुझे इराक युद्ध की विभीषिका का दर्शन होना शुरू हो गया था। कुछ घंटों के बाद सुबह के आठ बजे के आसपास हम बगदाद हवाई अड्डे पर पहुँच गए थे। हमें लेने के लिए विमान के भीतर ही प्रोटोकोल अफसर घुस आये थे और हमारे सामान को अपने हाथों में लेकर सबसे पहले हमें उतारा।  नीचे एयरपोर्ट के रनवे पर हमारे विमान की सीढ़ी के बिलकुल पास काली लंबी जनरल मोटर्स की दो कारें और दोनों कारों के आगे-पीछे दो बख्तरबंद तोपें लगी हुई गाड़ियाँ खड़ी थीं। हमको इनमें ही जाना था। मैंने गाडी के भीतर बैठते ही देखा तो ऐसा लगा कि मैं विमान के कॉकपिट में ही बैठा हूँ। यह देखकर ड्रायवर के साथ वाली सीट पर बैठे प्रोटोकोल अफसर ने कहा कि यह बुलेटप्रूफ कार है।एयरपोर्ट के बाहर निकलने के बाद हम दस किलोमीटर भी नही गए होंगे कि हमें पहले ही चेक पोस्ट पर रोका गया और गाड़ियों के बाहर निकलने के लिए कहा गया।  हमें बाहर खड़े करने के बाद कुछ सेंसर जैसे औजारों को हाथों में लेकर गाडी के भीतर से बाहर बोनेट और डिक्की खोलकर उन सेंसरों के द्वारा गाड़ी को चेक करने के बाद एक छः फुटा अमेरिकी जवान स्निफर डॉग को चैन पकडकर गाड़ी के पास आया और उस कुत्ते ने गाड़ी के अंदर और बाहर डिक्की तथा बॉनेट के अंदर अच्छी तरह सूंघा तब कहीं हमारी यात्रा आगे बढ़ी। हमारे रहने की जगह होटल ‘अलरशीद’ में थी जो बगदाद एअरपोर्ट से बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर होगी। लेकिन पहली चेकिंग की ही तरह हर दस किलोमीटर पर यह एक्सरसाइज और तीन-चार जगहों पर हुई।

बगदाद एअरपोर्ट से होटल ‘अलरशीद’ तक रास्ते के दोनों तरफ गाजा की तरह बीस-पच्चीस फीट ऊँची कंक्रीट की दीवारें बनी हुई थीं। तथाकथित ‘ग्रीनफील्ड’ नामक इलाके में से गुजरते हुए हमें अगल-बगल की कोई भी झलक देखने को नहीं मिली।मुझे लगा कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा ने घोषणा की है कि ‘अमेरिकी सेना ने इराक खाली कर दिया है।’ यह बिलकुल झूठ था। सफ़ेद झूठ। अमेरिकी सेना की मौजूदगी एयरपोर्ट के बाहर निकलते ही दिख रही थी और वे जो कांक्रीट की दीवारें हैं उनके दोनों तरफ के एरिया को ‘ग्रीनफील्ड’ बोला जाता है। जहाँ पर कभी सद्दाम हुसैन के राजमहल जैसे मकानों का अस्तित्व था, वहां अब अमेरिकी सेना ने अपना डेरा जमाया हुआ था।होटल ‘अलरशीद’ पहुँचने और फ्रेश होने और नाश्ता करने के बाद मैंने सोचा कि थोड़ा पैदल घूमने चलते हैं,  लेकिन जैसे ही होटल के गेट तक पहुंचे तो गार्ड ने रोककर कहा कि ‘बाहर जाने की मनाही है’। घूमना-फिरना है तो होटल के चारदीवारी वाले इलाके में ही घूमिए। बाहर अकेले और सुरक्षा की वजह से पैदल जाने की मनाही है।

उसके बाद हमें बैठक के लिए ले जाया गया। वही बख्तरबंद गाडिय़ों के बीच में हमारी गाड़ी थी।  मैंने प्रोटोकॉल अफसर से कहा कि ‘हमें हमारे घर के पड़ोसी भी पहचानते नहीं और यहां यह सब किसलिए? दूसरी महत्वपूर्ण बात कि ऐसे बंदोबस्त की वजह से ही किसी को लगेगा कि इस गाड़ी में कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति जा रहा है और असुरक्षा के लिए यह अटेंशन सीकिंग है। ऐसी किसी भी असाधारण गाड़ी से निकलने के बाद मुझे नहीं लगता कि हमारी तरफ कोई देखेगा। लेकिन आपके इस तरह के बंदोबस्त से बेमतलब हमें खतरा पैदा हो सकता है। उसने सुनकर मेरी बात अनसुनी कर दी।हमारी बैठक की जगह इराक की पार्लियामेंट के अंदर ही दूसरे हॉल में आयोजित की गई थी। देखा तो विश्व के विभिन्न देशों से लोग आए हुए थे और इराक के तत्कालीन राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को हटाकर अमेरिकी सेना की तरफ से बैठाएं गए जलाल तलबानी ने उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए बैठक की शुरुआत की। होटल से पार्लियामेंट के बीच पांच किलोमीटर भी फासला नहीं होगा लेकिन बगदाद की सड़कों पर यातायात नहीं के बराबर था। जो भी यातायात दिखाई दे रहा था वह हमारे जैसे ही बख्तरबंद गाड़ियों के काफिले के साथ था। अमेरिकी सेना द्वारा चेकिंग की व्यवस्था एयरपोर्ट से आने वाले रास्ते से भी ज्यादा और कड़ी थी।

अमन ओ कारवां यात्रा के दौरान डॉ सुरेश खैरनार और डॉ अनूप श्रमिक

बैठक में बातचीत का विषय इजराइल के जेलों में बंद फिलिस्तीन के नागरिकों को जेलों में दी जा रही अमानवीय यातनाओं और जेल के कोड ऑफ कंडक्ट के खिलाफ किए जाने वाले व्यवहार को लेकर था। हमारी बैठक के समय इजराइल के जेल में बंद फिलिस्तीन के कैदियों की भूख हड़ताल चल रही थी।  इसे लेकर विश्व भर से आए हुए प्रतिनिधियों ने  अपनी चिंता व्यक्त करते हुए उनकी मांगों को समर्थन दिया। सबने यूएन से हस्तक्षेप करने की मांग की।मेरी राय में इजराइल के खिलाफ यूएनओ के सबसे ज्यादा प्रस्ताव पारित होने के बावजूद जिस इराक में बैठ कर हम लोग मानवाधिकारों की चर्चा कर रहे थे वहाँ पर अमेरिका और उसके साथ यूएनओ और उसके अध्यक्ष कोफी अन्नान ने मिलकर इराक की क्या हालत बना दी थी इस पर भी बात होनी चाहिए थी।

यूएनओ अमेरिका का गुलाम बना हुआ है। इजराइल की निर्मिति से लेकर विएतनाम, अफगानिस्तान, इराक, पनामा, निकारागुआ, रवांडा, बोस्निया, सर्बिया अर्थात तथाकथित शीतयुद्ध के दौरान जितनी भी लड़ाइयाँ हुईं उन सभी में अमेरिका ने बहुत आपराधिक काम किया है। फिर भी यूएनओ की आज तक ऐसी कोई भी भूमिका याद नहीं आ रही है कि उसने कभी अमेरिका के खिलाफ कोई कार्रवाई करने की हिम्मत दिखाई हो। इस बैठक में भी यूएनओ की तरफ से फिलिस्तीन के कैदियों के लिए किसी रियायत की उम्मीद करना बेकार है। इसकी बजाय हमें इस पर विचार करना चाहिए कि जैसे महात्मा गाँधी ने आज से सौ वर्ष पहले दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद वाली सरकार के खिलाफ सत्याग्रह के अहिंसक हथियार का इस्तेमाल करके अपनी लड़ाई में जीत हासिल की थी, वैसे ही इजराइल की जेलों में बंद कैदियों के अनशन का हथियार शायद ज्यादा कारगर कदम होगा। हुआ भी ऐसा ही। इजराइल को उन कैदियों की कई मांगों को मानना पड़ा था।

 

इसलिये मेरा कहना है कि किसी भी देश की सरकार और जनता के बीच फर्क करना चाहिए। जनता में काफी लोगों को जो गलत लगता है,  वह सरकार को सही लगता है। जैसे नरेंद्र मोदी ने 7 अक्टूबर के तुरंत बाद अपने ट्विटर हेंडल से जारी किया ‘हम इजराइल के साथ हैं’। और इस आधिकारिक वक्तव्य ने पचहत्तर सालों की फिलिस्तीन के प्रति भारत की भूमिका को उलट दिया। बैठक के बाद हमारी वापसी के टिकट चार दिनों बाद के थे तो प्रोटोकॉल अफसर ने पूछा की ‘आपको और क्या देखने की इच्छा है?’ मैंने कहा कि ‘नजफ और कर्बला जाना संभव है?’ उसने कहा कि ‘कल सुबह ब्रेकफास्ट के बाद पोर्च में तैयार रहिएगा।’ बगदाद से इन दोनों जगहों का फासला दो सौ किलोमीटर था। दूसरे दिन सुबह नाश्ता करके हम लोग तैयार थे और वैसी ही बख्तरबंद गाड़ियों के बीच में हमारी यात्रा शुरू हुई। हमारा कारवां जैसे ही बगदाद शहर से बाहर निकला तो रास्ते में एक बड़ी नदी दिखाई पड़ी। मैंने प्रोटोकॉल अफसर को पूछा कि यह  कौन-सी नदी है?’  उसने कहा कि ‘यह टिगरिस नदी है।’

मैंने तुरंत उससे कहा कि ‘नागपुर की एक श्रद्धालु महिला मित्र ने मुझसे इस नदी का पानी लाने के लिए कहा है। क्या हम गाड़ी रोककर थोड़ा पानी ले सकते हैं?’ इसपर उसने कहा कि ‘अमेरिकी सेना ने हमारी सभी नदियों के जल में जहरीले केमिकल मिला दिए हैं, इसलिए इस पानी में उंगली डालना भी खतरनाक है। हमारे जितने लोग युद्ध में मारे गए, उससे कहीं अधिक लोगों की मौत इन नदियों का विषैला पानी पीने की वजह से हुई है। अब तक दस-पंद्रह लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है, जिसमें आधी संख्या पंद्रह साल से कम उम्र के बच्चों की है। ये आँकड़े अमेरिका द्वारा जापान के दो शहरों नागासाकी और हिरोशिमा पर क्रमशः 6 और 9 अगस्त 1945 को गिराये एटम बमों के बाद मारे गए लोगों की मौत से अधिक बड़े हैं। लेकिन इस विभीषिका की चर्चा विश्व के मीडिया में कहीं भी नहीं है।  यह भी अमेरिका और तथाकथित मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे पर हंगामा करने वाले यूरोप का मीडिया से गायब है।

बरबादी के मंज़र

बगदाद से नजफ-कर्बला जाते हुए समय रास्ते के दोनों तरफ हमने एक भी इमारत को खडा नही देखा। सब मलबे में ढेर में तब्दील हो चुकी थीं। फिलहाल कहीं-कहीं टिन से बने हुए टेम्परेरी मकान हैं। अमेरिका विश्व के ऊपर अपना राजनीतिक प्रभाव बनाने के लिए पांच सौ सालों से यही प्रॅक्टिस करता आ रहा है। इसके साथ ही वह विश्व को सभ्यता, मानवाधिकार तथा शांति का पाठ पढ़ाने का काम भी करता रहता है।  अभी-अभी इसी हफ़्ते इजराइल में जो बायडेन ने जाकर और क्या किया? अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति  चाहे वह किसी भी पार्टी का हो,  वह इन्हीं करतूतों को अंजाम देने का ही काम करता आया है। इजराइल की निर्मिति के समय यूएनओ में इजराइल बनाने के पक्ष में मतदान के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति हॅरी ट्रूमन ने भारी दबाव डालकर इजराइल को मान्यता देने के लिए मजबूर किया। उदाहरण के लिए हैती नामक एक देश को 50 लाख डॉलर का कर्ज देकर इजराइल बनाने के पक्ष में वोट देने के लिए मजबूर किया था।लेकिन नरेंद्र मोदी को इज़राइल के समर्थन की क्या पड़ी थी? वस्तुतः वह बचपन से ही संघ की शाखा के प्रशिक्षण की वजह से इस्लामोफोबिया के शिकार हैं। लेकिन वह भूल गए कि वह संघ के स्वयंसेवक के साथ ही भारत जैसे बहुआयामी देश के प्रधानमंत्री भी हैं और संघ लाख इजराइल के गुणगान करता रहे, लेकिन भारत की जनता में हमारे जैसे बहुत से लोगों को लगता है कि इजराइल की निर्मिति हजारों वर्ष पुराने फिलिस्तीनी लोगों के मर्जी के खिलाफ हुई थी।

अंग्रेजों ने फिलिस्तीन छोड़ने के पहले भारत-पाकिस्तान विभाजन जैसे ही 14 मई 1948 को इजराइल की निर्मिति की। उस समय फिलिस्तीन का क्षेत्रफल 10,000 वर्ग मील था, जिसमें से इजराइल को 5,700 वर्ग मील दे दिया और फिलिस्तीन के लिये 4300 वर्ग मील ही छोड़ा। जबकि फिलिस्तीन की कुल जनसंख्या उस समय 20 लाख थी। उसमें 14 लाख से अधिक अरब और 6 लाख यहूदी थे। मतलब कुल फिलिस्तीन की जनसंख्या में यहूदियों की संख्या एक तिहाई थी। इसके  बावजूद अंग्रेजों ने यहूदियों को सब से अच्छी किस्म की जमीन दे दी। वह भी 56% दे दिया। जबकि 56% से अधिक जनसंख्या वाले फिलिस्तीन के हिस्से में मात्र 44% ही जमीन आई। इसके बाद से ही इजराइल और फिलिस्तिनियों के बीच चल रहा विवाद आज गाजा पट्टी पर चल रहे युद्ध तक कायम है। अब तो पचहत्तर सालों में इजराइल के हिस्से में लगभग अस्सी प्रतिशत से अधिक जमीन आ चुकी है जो फिलिस्तीन के समय-समय पर हुए युद्ध और तथाकथित आतंकवाद के नाम पर की गई कार्रवाई के के कारण हड़प ली गई है। अब गाजा पट्टी को खाली कराने के लिए इजराइल ने खुलकर ऐलान कर दिया है। पचहत्तर सालों से इज़राइल फिलिस्तीन के लोगों के ऊपर लगातार अन्याय करता आ रहा है। फिलिस्तीनी जमीन पर कब्जा करते हुए उन्हें दिवारों के भीतर जेल जैसे हालात में डाला। वेस्ट बैंक हो या गाजा पट्टी इज़राइल को फिलिस्तीनी ज़मीन पर दखल करने का बहाना चाहिए। अब फिलिस्तीन के नक्शे को राई के दाने जैसे बना कर रख दिया है।  अभी 7 अक्तूबर के बहाने समस्त फिलिस्तीनी लोगों का जनसंहार करने की शुरुआत की गई है। 23 लाख की जनसंख्या में से आधी आबादी को खुलेआम कहा जा रहा है कि ‘तुम गाजा का आधा हिस्सा खाली करो’। विश्व का कोई भी सभ्य समाज इस कृत्य का समर्थन नहीं कर सकता।

जिस नरेंद्र मोदी ने ‘गुजरात-2002’ के मॉडल की आदत के कारण एक क्षण का विचार किए बगैर ‘इजराइल के साथ हैं’ कह दिया और वैसे ही अमेरिका के राष्ट्रपति जो बायडेन ने खुद इजराइल पहुंच कर अपने साथ पांच हजार नौसैनिक से लदे हुए जहाजी बेड़े को भूमध्य सागर में उतार दिया है। यह वही अमेरिका है, जिसने अपने जन्म के समय से ही दो करोड़ रेड इंडियन लोगों को मारकर अपना तथाकथित राष्ट्र बनाने की शुरुआत की थी। पिछले पांच सौ सालों से अमेरिका संपूर्ण विश्व में अबतक कितने लोगों की जाने ले चुका है? इसका व्यापक आँकड़ा किसी से छिपा नहीं है। लेकिन अमेरिका में भी हमारे जैसे स्वतंत्र विचार करने वाले लोग हैं। और यह भी साफ-साफ बता रहे हैं कि हम इस तरह की बर्बरता के खिलाफ हैं। मोदी हो या जो बायडेन या नेतन्याहु, सभी अपनी क्षुद्र राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए मानवता के खिलाफ गुनाह कर रहे हैं। ठीक वैसे ही, जैसे सौ वर्ष पहले हिटलर-मुसोलिनी ने किया था। बीस साल पहले इराक के ऊपर हमला करते हुए बुश ने भी ऐसा ही अपराध किया था।  भले ही इन सब गुनाहों को रोकने के लिए ही यूएनओ की स्थापना की गई है, पर न्यूयार्क में स्थित यूएनओ को अमेरिका द्वारा और अधिक मात्रा में  धन मुहैया कराने की वजह से ही वह शुरू से अमेरिका के दबाव में रहकर अपने निर्णय लेता है।

इराक युद्ध को तो अमेरिका ने यूएनओ को साथ लेकर ही लड़ा था। यूएनओ द्वारा तथाकथित रासायनिक हथियारों की जांच करने और एक भी हथियार न मिलने के बावजूद अमेरिका ने इराक पर हमला कर के उसे अपने कब्जे में कर लिया है। यूएनओ की तरफ से अमेरिका के उपर कोई कार्रवाई नहीं हुई। अमेरिका के ऐसे गुनाहों की बहुत बड़ी फेहरिस्त है। अगर इन अपराधों के लिए अमेरिका की सज़ा मुकर्रर की जाय तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जा सकता है। लेकिन वही अमेरिका किराये के लेखकों से ‘सभ्यता का संघर्ष’ ( Clash of Civilization ! ) जैसी लफ्फाजी करवाने की हिमाकत करता है। क्या यही अमेरिकी सभ्यता है? वर्तमान समय में संपूर्ण गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक के इलाकों को दीवारों के भीतर बंद कर के पूरा नियंत्रण इजराइल का हो चुका है। मोसाद और इजराइली सेना के द्वारा इतना जबरदस्त सर्विलांस लगाया गया है कि वहाँ के चप्पे-चप्पे की खबर इज़राइल को है। ऐसे में हमास की कोई गतिविधि क्या मोसाद या इजराइली सेना की नजरों से बची होगी? अब तो शक यह होने लगा है कि वर्तमान प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू को राजनीतिक संजीवनी देने और बचा-खुचा फिलिस्तीन हड़प लेने के लिए ही तो यह सब कुछ नहीं किया होगा! ऐसा भी हो सकता है? जिस तरह इराक में रासायनिक हथियार के नाम पर सद्दाम हुसैन को फांसी की सजा दी गई और इराक के ऊपर हमला किया गया,जिसमें संपूर्ण रूप से इराक को खंडहरों में तब्दील कर दिया। दस-पंद्रह लाख से अधिक लोगों की मौत हो गई, जिसमें आधे से अधिक पंद्रह साल के से कम उम्र के बच्चे थे।

फिलिस्तीन के ऊपर हुये इस हमले के उद्देश्य क्या उससे अलग है? 1980 के दशक के इरान-इराक युद्ध से लेकर संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों तक छद्म युद्ध के दो दशकों में इराक पर हमले की पृष्ठभूमि तैयार की गई थी। इस क्षेत्र के लिए अमेरिकी विदेश नीति में आई तब्दीलियों को एक नज़र देखना बहुत जरूरी है। 1979 में इरान की इस्लामिक क्रांति ने वहाँ मौजूद लोकतन्त्र का गला घोंट दिया। यह अमेरिकी विदेश नीति का एक रूप था। इसके उलट इरानी इस्लामी क्रांति ने इरान में इस्लामिक-राष्ट्रवादी सरकार बनाकर अमेरिका की अवधारणा को बदल कर रख दिया। तब अमेरिका ने इरानी क्रांति के प्रभाव को रोकने के लिए इराक की तरफ रुख किया। उस समय अमेरिका को सद्दाम हुसैन के तानाशाह होने को लेकर कोई समस्या नहीं हुई। उस युद्ध के समय अमेरिका ने इराक को एक से बढकर एक विनाशकारी हथियारों का प्रयोग करने के लिए दिया था। उस युद्ध में दोनों देशों के कुल मिलाकर 50 लाख से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया  था। उस समय दोनों देशों की आबादी 10 करोड़ ( इरान – 7 करोड़ तथा इराक – 3 करोड़) थी।

 

सबसे पहले 4 नवंबर 1979 के दिन तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास पर ईरान की क्रांतिकारी सेना ने कब्जा किया था और उसके बाद 70 अमेरिकी नागरिकों को कब्जे में लेकर के 444 दिनों तक बंदी बनाकर रखा हुआ था। उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर थे। उसी के बाद अमेरिका ने इराक के सद्दाम हुसैन की मदद से ईरान के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया जो 8 साल तक चलता रहा। तथाकथित शीतयुद्ध के दौरान यह सबसे लंबे समय की लड़ाई थी, जिसमें दोनों तरफ के लाखों लोगों की मौत हो गई। संसाधन तथा अन्य नुकसान हुआ सो अलग।यहां पर लेकिन ऐसी योजना भी बनायी गयी कि युद्ध किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच सके। इसलिए आठ साल से अधिक वर्षों तक वह युद्ध चला था।  दोनों देशों के सिर्फ सैनिकों की मृत्यु के आँकड़े बीस लाख से अधिक थे। मैंने ईरान में दिसम्बर 2010 में ‘अमन ओ कारवां’ के समय एक दर्जन से अधिक शहीद स्मारकों को देखा है।

आखिरी शहर, शायद दियारबकिर, के शहीद स्मारक पर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने अपने श्रद्धांजलि के भाषण में कहा कि ‘मैं महान अलमाइटी अल्लाह से दुआ मांग रहा हूँ कि हे अल्लाह मुझे इस मुल्क में दोबारा आने पर और कोई शहीद स्मारक नही दिखाई देनी चाहिए।’ हर शहीद स्मारक के कब्रिस्तान में ईरानी सेना में शामिल बीस से तीस साल की उम्र के एक से सवा लाख नौजवानों की कब्रों पर साफ-साफ उनका ‘नाम, उम्र तथा कहाँ और कब मारे गए’ यह लिखा है। इस प्रकार ग्यारह स्मारकों के कुल नौजवानों की संख्या पंद्रह लाख से अधिक ही होगी और लगभग उतनी ही संख्या में इराक के भी होंगे। नागरिकों को मिला कर पचास लाख से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। इसमें अमेरिका का क्या नुकसान हुआ?जब से मैंने होश सम्हाला तब से फिलिस्तीन के आतंकवादियों के बारे में बहुत कुछ पढ़ और सुन रखा था। इसलिए जब मैं वहाँ गया तो वहां के अस्पताल से लेकर स्कूल तथा विश्वविद्यालय की इमारतों में घुसकर गौर से देखने की कोशिश कर रहा था कि कहीं अस्पताल या स्कूल की आड़ में आतंकवाद के केंद्र तो नहीं है ना?लेकिन इसके उलट अस्पतालों से लेकर स्कूलों तथा रिहायशी मकानों और विश्वविद्यालय में सभी इमारतों के हिस्से बम या मोर्टार के हमलों से टूटे हुए मिले। दीवारों में बड़े-बड़े छेद थे। यहाँ तक कि किसी इमारत का बेडरूम झूल रहा था तो कहीं किचन टेढ़ा हो रहा था। विश्वविद्यालय के प्रांगण की आधी से अधिक इमारतों को इसी तरह बमों या मोर्टार के हमलों से टूटे हुए देखा था। तब गाजा पट्टी में 10-15 लाख लोग रहते थे। अब लगभग दोगुने यानी 20-25 लाख हैं। गाजा पट्टी का कुल क्षेत्रफल 39 वर्ग मील है जो उत्तरपूर्व में इजराइल की तरफ से घिरा है। इसकी दो दिशाओं की तरफ से 25-30 फीट ऊँची कांक्रीट की दीवारें हैं। पश्चिमी दिशा में भूमध्य सागर और नुकीले हिस्से में मिस्र का रफा बॉर्डर है। गाजा पट्टी की कुल मिलाकर यही साइज बनती है। अमेरिका की राजधानी वॉशिंगटन डी सी की साइज से डबल। और जनसंख्या में वॉशिंग्टन डीसी से तिगुनी। मतलब विश्व के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में गाजा पट्टी की गणना होती है। उसी के आधा हिस्से को अब इजराइल खाली करने को कह रहा है।  मतलब पहले से ही गाजा विश्व की सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में शुमार है, और अब आधे बचे हुए हिस्से में 23 लाख से अधिक लोगों को समेटने की इजराइल की धमकी से लगता है कि इसीलिए 7 अक्टूबर के दिन तथाकथित हमास के द्वारा हमला करवाया गया था क्या? क्योंकि हमास को पैदा करने वाला भी इजराइल ही है। नब्बे के दशक में यासिर अराफात के पीएलओ का प्रभाव कम करने के लिए इजराइली एजेंसी मोसाद ने हमास को पैदा करने की साजिश की है। अब इज़राइल उसे आतंकवादी संगठन बोल रहा है, लेकिन इस आतंकी संगठन को समय-समय पर पालने-पोसने का काम कौन कर रहा था?

 

लगभग एक सप्ताह के दौरान गाजा पट्टी के सभी क्षेत्रों में जाने का मौका मिला था और मुझे रह-रहकर आश्चर्य होता रहा कि आधी से भी अधिक इमारतें इजराइल के हमलों से टूटी हुई हैं। कुछ लोगों को ऐसे मकानों में भी रहते हुए देखा था। बगल से इजराइल कभी भी मोर्टार या रॉकेट से हमला कर सकता है। लोग साक्षात मौत के साये में जी रहे हैं। कभी भी कुछ हो सकता है।

इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने कहा था कि ‘गाजा दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेल है’। गाजा की आधी आबादी अठारह साल से कम उम्र के लोगों की है। डिफेंस फॉर चिल्ड्रेन इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार गाजा में पिछले अठारह साल में एक लाख से अधिक बच्चों ने अपनी जान गवाई है। आगे रिपोर्ट में कहा गया है कि आधे से अधिक बच्चे आत्महत्या के विचारों से जूझ रहे हैं।

एक इजराइली बनाम बीस फिलिस्तीनी मौत का अनुपात है। इस प्रकार इजराइल की आबादी 93 लाख है और क्षेत्रफल 22 हजार वर्ग किलोमीटर है  तो फिलिस्तीन की कुल जनसंख्या 49 लाख  और क्षेत्रफल 6 हजार वर्ग किलोमीटर है। इजराइल का जीडीपी 40 लाख करोड़ रुपये है जबकि फिलिस्तीन की कोई जीडीपी ही नहीं है।  इजराइल में  प्रति व्यक्ति आय 44000 रुपये है तो फिलिस्तीन में महज़ 3700 रुपये है। इजराइली की जीवन प्रत्याशा दर 82 वर्ष  है तो फिलिस्तीनी की मात्र 74 वर्ष। बेरोजगारी का अनुपात इजराइल में 3 प्रतिशत है तो फिलिस्तीन का 24 प्रतिशत।गरीबी रेखा का अनुपात इजराइल में 03 प्रतिशत है तो फिलिस्तीन में 24 प्रतिशत है। कुल मौतों का अनुपात 2008 से इजराइलियों का 308 है तो फिलिस्तिनियों की 6407 मौतें हो गई थीं। ये आकड़े संयुक्त राष्ट्र के हवाले से लिए गए हैं।वास्ताविकता और भी भयानक है।

फिलिस्तीन की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चौपट हो चुकी है। वहाँ कोई भी चीज नहीं बन रही है। कोई भी इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। कोई भी रोजगार नहीं है। वहाँ कोई हवाई अड्डा अथवा बन्दरगाह नहीं है। सब कुछ इज़राइल के पास है। यहाँ तक कि पीने के पानी पर भी इज़राइल का अधिकार है। सत्तर लाख से अधिक फिलिस्तीनी पूरी दुनिया में शरणार्थी बनकर घूम रहे हैं। यह संख्या इजराइल की आबादी से भी अधिक है। और अगर फिलिस्तीन के पास रोजगार और इन्फ्रास्ट्रक्चर होता तो शायद फिलिस्तीनियों को इतने बुरे दिन न देखने पड़ते। शायद गाज़ा को ऐसी तबाही भी न देखनी पड़ती और इज़राइल का दुस्साहस इतना न होता कि वह अपने अपराधों के लिए शर्मिंदा होना तो दूर अपने को सही साबित करने के लिए मानवता के विरुद्ध हर कुकर्म करने पर उतारू हो गया है। वह अधिकाधिक बेशर्म होता जा रहा है। अभी अक्टूबर की 7 तारीख के बाद शुरू हुए युद्ध में मारे गए लोगों के आंकड़े और गाजा में बच्चों के साथ क्या हो रहा है?

यह मनुष्यता के खिलाफ गुनाह चल रहा है क्योंकि गाजा पट्टी में आधी आबादी अठारह साल से कम उम्र के बच्चों की है। इजराइल की सेना ने छः हफ्तों से वहां पर पानी-बिजली का कनेक्शन काट दिया है और रफा बॉर्डर पर सैकड़ों की संख्या में राहत सामग्री से भरे ट्रक खड़े हैं। लेकिन इजराइल की सेना उन्हें गाजा पट्टी में प्रवेश करने नही दे रही है। जबकि दुनिया के दादा अमेरिका के राष्ट्रपति जो बायडेन और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक खुद अपनी तरफ से इजराइल में बेंजामिन नेतान्याहु से मिलकर लौटे हैं।

गोरे लोगों का विश्व के अन्य लोगों के प्रति रवैया कितना नस्लीय और भेदभावपूर्ण होता है इस समय ने यह बात सिद्ध कर दी है। गोरों ने शर्मिंदगी और संवेदना दूर फेंक दी है। लेकिन एक लोकतान्त्रिक और विश्व मानवता के प्रति संवेदनशील देश भारत जो अपने आपको विश्वगुरु साबित करने की कोशिश कर रहा है क्या उसको अमेरिका के जैसा बेरहम, बेशर्म और संवेदनहीन होना पड़ेगा?

 

 

गाँव के लोग
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