दिल्ली: पिछले महीने उत्तरकाशी में अचानक ढह गई सिलक्यारा-बड़कोट सुरंग में कैद हुए इकतालीस मजदूरों को सुरक्षित जिंदा निकाल लाने वाले दिल्ली और उत्तर प्रदेश के 12 कामगारों ने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के दिए पचास हजार रुपए के चेक को जमा करने से इंकार कर दिया है। रैट होल माइनर कहे जाने वाले इन मजदूरों ने (जिनमें दो ठेकेदार भी हैं) कहा है कि अगर हफ्ते भर में उनकी मांगों को पूरा नहीं किया गया तो वे राज्य सरकार की यह पुरस्कार राशि लौटा देंगे।
यह जानकारी देहरादून से शुक्रवार को अपने-अपने घर लौटे मजदूरों ने दी। गुरुवार को पुष्कर सिंह धामी ने इस टीम को चेक वितरित किए थे, उस वक्त इन्होंने चेक लेने से इंकार कर दिया था लेकिन समझाने बुझाने के बाद आखिरकार इन्होंने पुरस्कार ले लिया, हालांकि चेक न भुनाने का सामूहिक फैसला भी लिया है।
बचाव टीम के एक सदस्य कासगंज के नासिर खान ने बताया, “हमें पैसे नहीं चाहिए, सम्मान चाहिए, काम चाहिए। पचास हजार में हमारा क्या होगा? हमने मना कर दिया था लेने से, लेकिन मुख्यमंत्री ने हमारी नौकरी और अन्य मांगों पर विचार करने का हफ्ता भर समय मांगा है। फिलहाल हमने चेक ले लिया है लेकिन जमा नहीं करेंगे।”
इसी टीम के मोनू जो बुलंदशहर के अख्तियारपुर में रहते हैं, उन्होंने बताया, “बात तो यही हुई थी कि पैसों से क्या होगा। मैंने तो अपना चेक लगा दिया है। बाकी का नहीं पता। भाई, तुम हमारे गांव आकर देखो हमारे क्या हालात हैं, समझोगे कि हमारा इतने से कुछ नहीं होने वाला।”
नासिर कहते हैं, “किसी भाई को जरूरत हुई और उसने चेक लगा भी दिया तो हम वो पैसा बाद में उन्हीं के लिफाफे में लौटा देंगे, इस पर हम सबकी सहमति है।”
पचास हजार में होगा क्या?
प्रधानमंत्री के ड्रीम प्रोजेक्ट चारधाम सड़क परियोजना के अंतर्गत बनाई जा रही उत्तराखंड की सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को पिछले महीने की 28 तारीख को दिल्ली की एक कंपनी रॉकवेल एंटरप्राइजेज के लोगों ने निकाला था, जिसे वकील हसन और मुन्ना कुरैशी चलाते हैं। वकील हसन की टीम में शामिल कथित रैट होल माइनर या जैक पुशर दिल्ली और पश्चिमी यूपी के नौजवान हैं।
जब 25 नवंबर को अमेरिकी ऑगर मशीन सुरंग में फंस गई, तब परियोजना का निर्माण कर रही नवयुग दंजीनियरिंग कंपनी ने इस टीम को बचाव अभियान में बुलाया। जो काम मशीन नहीं कर सकी वह इन नौजवानों ने मात्र 26 घंटे में अपने हाथों से कर दिखाया।
इस कामयाब अभियान के बाद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने प्रत्येक को पचास-पचास हजार रुपये देने की घोषणा की थी। इसी सिलसिले में इन्हें गुरुवार 21 दिसंबर को देहरादून बुलाया गया था। वहां वकील हसन की टीम ने चेक लेने से इनकार कर दिया और थोड़ी देर के लिए प्रशासनिक अमले के सामने संकट पैदा हो गया।
नासिर बताते हैं, ‘’हमारा कहना था कि हम जो काम करते हैं वे सारे सरकारी ठेके होते हैं, फिर उनमें प्राइवेट वर्कर से काम क्यों करवाया जाता है? सरकारी काम में सरकारी लोग लगने चाहिए। यानी या तो हमें ये रेगुलर करें, पक्की नौकरी दें या फिर कम से कम इतनी व्यवस्था कर दें कि हम अपने घर चला सकें। पचास हजार रुपये के ईनाम से क्या होता है?”
फिर चेक लिए क्यों? इस पर नासिर का कहना है, ‘’उनके अधिकारी ने हम लोगों से बात की। मुख्यमंत्री ने खुद कहा कि वे हमारी मांग पर विचार करेंगे। तब जाकर हम लोगों ने चेक लिया, लेकिन ये कह दिया कि हफ्ते भर इंतजार करने पर अगर कोई जवाब नहीं आता है तो हम उनके पैसे लौटा देंगे।‘’
नायक बना कर धोखा
रॉकवेल के इन दिहाड़ी मजदूरों को एक ओर जहां पूरे देश में नायक की तरह सराहा गया, वहीं इनके साथ बचाव अभियान के बाद दो बार धोखा हो चुका है। पहला तो यही, कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने घोषणा करने के बाद लंबे समय तक राशि नहीं दी, जिससे इनका दिल टूट गया। फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इन्हें विधानसभा में आने का न्योता भेजा और इनसे मिले नहीं।
इसके अलावा, 13 दिसंबर को जब यह टीम सोनी टीवी के बुलावे पर मुंबई गई तो वहां कार्यक्रम के जजों ने इन्हें एक-एक लाख रुपये देने का वादा किया था। उनके अलावा सोनी टीवी ने अलग से एक लाख देने को कहा था। कुल चार लाख का वादा था लेकिन अब तक केवल सोनी टीवी के एक लाख आए हैं। बाकी के तीन लाख का कुछ अता-पता नहीं है।
बचाव अभियान के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा घोषित एक-एक लाख की रकम काफी पहले आ चुकी है, मोनू और नासिर दोनों इसकी पुष्टि करते हैं।
सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि परियोजना निर्माण की ठेकेदार नवयुग इंजीनियरिंग ने वकील हसन की टीम को मौके पर एक पैसा नहीं दिया। मोनू बताते हैं कि कंपनी ने कहा था कि वह इन्हें ‘सरप्राइज’ देगी। उस ‘सरप्राइज’ के बारे में अब तक कोई अपडेट नहीं है।
आत्मसम्मान की जद्दोजहद
नासिर और मोनू, सौरभ, अंकित, देविंदर, जतिन (सभी दलित)- उत्तर प्रदेश के ये छह लड़के वकील हसन की एक कॉल पर घंटे भर के भीतर तैयार होकर 24 नवंबर की रात उत्तराखंड के लिए निकल गए थे। इन्होंने वहां जाने के लिए 17000 रुपये में एक गाड़ी बुक की थी।
नासिर कहते हैं, “बस ये मान कर मैं गया था कि इसके तो कुछ नहीं मिलने हैं, अल्लाह का काम है!” मोनू कहते हैं, “हमें इस काम के लिए चुना गया, यही बड़ी बात है।”
जिन लोगों ने बिना किसी अपेक्षा या सौदे के इकतालीस लोगों की जान बचाई, वे महज लाख दो लाख की प्रोत्साहन राशि को पाने के लिए आज महीने भर बाद भी पैन कार्ड बनवाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। अभियान की सफलता के बीस दिन बाद मोनू अपने साथियों के पैन कार्ड आवेदन भरने में लगे हुए थे।
उस दिन फोन पर उन्होंने बताया था, “गांव के सीधे सादे लड़के हैं, इनके पास पैन कार्ड नहीं है। वही बनवाने आया हूं। पर्ची भर दी है, नंबर आ जाएगा तो पैसे मिलने में आसानी होगी।”
महीना होने को आ रहा है और देश इन नौजवानों की वीरता को भुला चुका है। ठीक उसी तरह, जैसे यह सरकार ओलिंपिक में पदक लाने वाले खिलाडि़यों का योगदान भुला चुकी है। यह संयोग नहीं है कि हरियाणा का खिलाड़ी अपना पद्मश्री लौटा रहा है तो यूपी का मजदूर पचाास हजार का चेक।
अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी से लेकर एक आम मजदूर तक सबकी बुनियादी मांग केवल आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा की है, जिससे इस देश के अस्सी करोड़ लोगों को महज पांच किलो अनाज के बदले सरकार ने महरूम कर दिया है।