हीरा अपनी आभा से सभी को मोहित करता है, चकित, विस्मित भी करता है। मगर जानने वाले यह भी जानते हैं कि हीरा अपने आरंभिक रूप में हीरा नहीं रहता, एक अनगढ़ पत्थर मात्र ही रहता है। इस अनगढ़ पत्थर पर किसी जौहरी की पारखी नजर जब पड़ती है, तो वह उसे तराशकर हीरा बना डालता है। कुछ यही हाल लेखकों का भी है। लेखकों की कलम की धार पहचान कुछ पारखी उस लेखक को सफलता के सोपान तक पहुँचा डालते हैं। फणीश्वरनाथ रेणु ऐसे ही अनगढ़ हीरा थे, जिन्हें अनेक प्रबुद्ध जौहरियों का साथ मिला, जिससे उनकी प्रतिभा निखरती रही। रामबृक्ष बेनीपुरी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती से लेकर नलिन विलोचन शर्मा, और गीतकार शैलेन्द्र तक अनगिनत नाम हैं, जिन्होंने रेणु को अग्रेषित किया है। मगर इनमें कुछ नाम ऐसे भी हैं, जो परदे के पीछे रहकर उन्हें अग्रेषित किया। प्रकाशक रजनीकांत सिन्हा ऐसे ही उन कुछ शख्सियत में से थे, जिन्होंने रेणु को प्रकाश में लाया। वैसे रेणु स्वयं जाज्वल्यमान नक्षत्र थे। मगर उसे और अधिक उद्भासित करने का काम रजनीकांत सिन्हा ने अपने सीमित संसाधनों में भी बेहतरीन ढंग से किया। हिन्दी पट्टी के लेखकों की समस्या बेटी के विवाह की होती है, क्योंकि वे कभी ढंग से लक्ष्मी की उपासना कर नहीं पाते। निराला का शोकगीत ‘सरोज स्मृति’ इसका ज्वलंत उदाहरण है। दिनकर अपनी उपलब्धियों में यह भी गिनाते थे कि ‘उन्होंने नौ-नौ लड़कियों की शादी की है।’ रेणु भी इससे कुछ अलग नहीं थे। वह सीधे-सादे मध्यमवर्गीय कृषक परिवार से थे। उनका समस्त जीवन अराजकता भरा ही रहा। और आजीवन भाग-दौड़ करते, संघर्ष करते रह गये। ऐसे में धन-संचय का समय कहाँ? जीवन की सांध्य-बेला में उन्हें यह चिंता सता रही थी कि रजनीकांत सिन्हा ने उन्हें उबार लिया और उनकी बेटी को सहर्ष पुत्रवधू स्वीकार कर लिया। इस प्रकार रेणु चिंतामुक्त हुए।
[bs-quote quote=”यह तो संयोग रहा कि कुछ समय पूर्व रजनीकांत सिन्हा के तृतीय सुपुत्र आलोक सिन्हा से मुलाकात हो गई। फिर भी संकोच का एक झीना परदा तो था ही, जो कुछ पूछने की इजाजत नहीं देता था। विगत वर्ष भारत यायावर ने फोन किया और आदेश किया कि उन्हें अपने संपादन में निकलने वाली एक पत्रिका के लिए रेणु पर एक आलोचनात्मक आलेख चाहिए। मैंने विवशता प्रकट की तो वे झिड़ककर बोले- आपके पड़ोस में ही आलोक सिन्हा हैं, उनसे मिलो और जरूरी जानकारी और सामग्री ले लो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
एक उत्सुकता तो थी कि ऐसे व्यक्ति के बारे में कुछ जाना जाये। किन्तु शहरी भागदौड़ में किसी को इतनी फुरसत कहाँ! यह तो संयोग रहा कि कुछ समय पूर्व रजनीकांत सिन्हा के तृतीय सुपुत्र आलोक सिन्हा से मुलाकात हो गई। फिर भी संकोच का एक झीना परदा तो था ही, जो कुछ पूछने की इजाजत नहीं देता था। विगत वर्ष भारत यायावर ने फोन किया और आदेश किया कि उन्हें अपने संपादन में निकलने वाली एक पत्रिका के लिए रेणु पर एक आलोचनात्मक आलेख चाहिए। मैंने विवशता प्रकट की तो वे झिड़ककर बोले- ‘आपके पड़ोस में ही आलोक सिन्हा हैं, उनसे मिलो और जरूरी जानकारी और सामग्री ले लो।’
आलोक जी ने तत्परतापुर्वक सामग्री उपलब्ध कराई और तत्संबंधी जानकारी दी, जिसका प्रतिफल यह हुआ कि मैं वर्ष 2021 में रेणु पर चार आलेख लिखने में सफल रहा। मगर मेरे मन के कोने में तो रजनीकांत छिपे थे, जिन्होंने रेणु के जीवन के उत्तरार्ध में उनकी भरसक मदद की थी। और बाद में अपने प्रकाशन से दो महत्वपूर्ण शोध-ग्रंथ क्रमशः रेणुः संस्मरण और श्रद्धांजलि(1978) तथा रेणुः कर्तृव्य और कृतियाँ (1983) का प्रकाशन किया। ये दोनो ही शोध-ग्रंथ विद्वानों और शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुए।
अगोरा प्रकाशन की बुक अब किंडल पर भी उपलब्ध है:
रजनीकांत सिन्हा मूलतः नालंदा जिला के निवासी थे। एक औसत किसान परिवार के सदस्य के रूप में इनका आरंभिक जीवन संघर्षमय ही रहा। मैट्रिक पास करने के उपरांत वह पटना के बी.एन.कॉलेज से आई.एस.सी. पास किये। तदुपरांत बी.ए. में नामांकन करा लिया। कतिपय कारणों से वह अपनी आगे की पढ़ाई जारी न रख वापस घर लौट गये और एक गणित शिक्षक की नौकरी पकड़ ली। इसी दौरान वह एन.सी.सी. गाइड भी बन गये और इस रूप में अच्छी ख्याति प्राप्त की और चर्चित पुस्तक एनसीसी गाइड भी लिख डाली। इसी दौरान बिहार शरीफ में नालंदा प्रेस भी खोल डाली।
मगर यहाँ भी उन्हें मन नहीं लगा, तो शिक्षक की नौकरी छोड़ पटना वापस आ गये और यहाँ हिमाचल प्रेस की स्थापना कर उसी में रम गये। उनके इस काम में उनके मित्रों ने भी भरपूर सहयोग किया। दरअसल रजनी बाबू में सामाजिक असमानताओं और अंधविश्वास के प्रति जबरदस्त रोष था। धार्मिक कर्मकांडों के वह सख्त विरोधी थे। और उन्हें अपने समानधर्मा विचारवाले लोग पटना में ही मिल सकते थे, सो पटना आ गये थे। यहाँ उनका प्रेस चलता और सामाजिक सुधार की गतिविधियाँ भी चलतीं। यह संयोग ही था कि हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ रामबुझावन सिंह उनके सहपाठी थे और अपने मित्रों के संग रामबुझावन बाबू आये दिन उनके प्रेस में बैठकी करते नजर आते थे। प्रेस का काम बढ़िया चल निकला था और इसी के साथ रजनी बाबू को समानधर्मा विचारों वाले लोग भी मिल रहे थे, जिनकी खातिरदारी करने में वे कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते थे।
1974 ई0 के आसपास रामबुझावन बाबू ही रजनी बाबू और रेणु के बीच मध्यस्थ बने और दोनों को समधियाने के लिए आश्वस्त किया। रजनी बाबू के ही शब्दों में ‘बेटे की शादी में पैसे के लाभ से ज्यादा लोभ रेणु से संबंध का मुझे सताने लगा और मैं इस लोभ का संवरण न कर सका।’
[bs-quote quote=”आलोक जी ने तत्परतापुर्वक सामग्री उपलब्ध कराई और तत्संबंधी जानकारी दी, जिसका प्रतिफल यह हुआ कि मैं वर्ष 2021 में रेणु पर चार आलेख लिखने में सफल रहा। मगर मेरे मन के कोने में तो रजनीकांत छिपे थे, जिन्होंने रेणु के जीवन के उत्तरार्ध में उनकी भरसक मदद की थी। और बाद में अपने प्रकाशन से दो महत्वपूर्ण शोध-ग्रंथ क्रमशः रेणुः संस्मरण और श्रद्धांजलि(1978) तथा रेणुः कर्तृव्य और कृतियाँ (1983) का प्रकाशन किया। ये दोनो ही शोध-ग्रंथ विद्वानों और शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुए।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मगर इसमें एक बड़ी सामाजिक बाधा भी थी। हमारे हिंदू समाज की जाति प्रथा ही कुछ ऐसी है कि यह विभिन्न हजारों उपजातियों में बँटा है। शांति प्रसाद जैन कॉलेज, सासाराम के हिन्दी विभागाध्यक्ष और समाज विज्ञानी डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार ‘हर जाति अपने से नीची एक जाति खोज लेती है। और यह सिद्धांत जाति बनाने वाले का दिया हुआ है ताकि इस बला का ठीकरा हर जाति के सिर फोड़ा जा सके।’ रजनी बाबू ने इसकी बिल्कुल परवाह न करते हुए अपनी स्वीकृति दी और धूमधाम से शादी की। हर जगह रेणु का मान रखा और अपने सामाजिक सौहार्द का परिचय दिया।
यह शादी इस रूप में भी विलक्षण था कि उन दिनों पटना से पूर्णिया का आवागमन काफी कठिन था। आलोचकों ने इसे विलक्षण नाम भी दिया- ‘मगध और मिथिला का मिलन’। वाकई कहने के लिए ये दोनों क्षेत्र बिहार से हैं। मगर इन दोनों क्षेत्रों की भाषा-बोली, रहन-सहन, खान-पान में भी विविधता है। बिल्कुल अलग प्रकार की संस्कृति झलकती है। मगध यदि अकाल को भुगतता है, तो मिथिला बाढ़ को। ऐसे में जब मिलन हो, तो चौंक स्वाभाविक है। रेणु शाक्तपूजक मानसिकता के, तो रजनी बाबू अंधविश्वासों के कट्टर विरोधी। कुछ-कुछ बौद्ध मानसिकता के भी कहे जा सकते हैं। फिर भी उन्होंने स्वयं में लचीलापन लाते हुए लगभग आगे बढ़कर इस संबंध को स्वीकार करने का दुस्साहस दिखाया। वैसे सच यह भी है कि इसके लिए उनके प्रिय मित्रों का भी इसमें योगदान रहा है। अपनी तरफ से उन्होंने रेणु को हर प्रकार की छूट दी और उन्हें भरसक भारी-भरकम वैवाहिक खर्चों से दूर रखा। यह अलग बात है कि रेणु ने बेटी के विवाह में दिल खोलकर खर्च किया।
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यह 1975 ई0 का समय था। और आगे के समय में कैसे तूफान आये, आंदोलन हुए, हम जानते हैं। इस आंदोलन में रेणु ने खुद को लगभग झोंक ही दिया था। और इसी से उनकी तबीयत लगातार बिगड़ती गई, जो अंततः जानलेवा सिद्ध हुई। मगर इस दौरान रजनी बाबू ने अपनी तरफ से उनकी भरसक सेवा की। 1977ई0 में उनके देहांत के पश्चात् शोध-ग्रंथ रेणुः संस्मरण और श्रद्धांजलि की तैयारी में जुट गये और देशभर के रेणु से जुड़े साहित्यकारों से रचनाएँ मँगवाई। लेखकों से रचनाएँ लिखवाना और मँगवाना कितना कठिन है, यह संपादकों का कटु अनुभव रहा है। फिर भी पुस्तक जब निकली, तो आलोचकों ने इसकी मुक्तकंठ से सराहना की।
इससे उत्साहित होकर वह अगले शोध-ग्रंथ रेणुः कर्तृव्य और कृतियाँ की तैयारी में लग गये। लगभग पाँच सौ पृष्ठों के इस शोध-ग्रंथ का जब 1983 ई0 में रजनी बाबू के ही प्रकाशन से प्रकाशित हुआ, तो उसे देखकर आलोचक चकित-विस्मित रह गये। इस पुस्तक से आर्थिक लाभ तो कुछ हुआ नहीं, मगर सराहना भरपूर मिली। चूँकि यह आलोचना-ग्रंथ है, इसका मूल्य तो विद्वान और शोधार्थी ही जान-समझ सकते हैं, उन्हें इसे सभी को निःशुल्क उपलब्ध कराया। रेणु के शोधार्थी जब पटना आते, तो वे रजनी बाबू के मेहमान बनकर रहते थे। वह उन्हें हर वह जानकारी और सुविधा उपलब्ध कराते थे, जिससे उस शोधार्थी का रेणु पर शोध आसान हो जाये। स्वर्गीय भारत यायावर इसके लिए उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे।
‘उन दिनों मैं इंटर-स्नातक का छात्र था। दुनियादारी भी नहीं समझता था। कभी-कभार बाबूजी के प्रेस में जाता, तो पाता कि वह इस ग्रंथ के प्रकाशन के लिए कितने परेशान हैं’ आलोक सिन्हा बताते हैं- ‘देश-भर में रेणु के पाठक-प्रशंसक-आलोचक बिखरे पड़े हैं। वह समय फोन-मोबाइल आदि का भी नहीं था, जो चट किसी से संपर्क हो जाए। सभी कुछ भारतीय डाक-तार की कृपा से संपर्क संभव होता था। या कभी कोई आया-गया या आप कहीं आये-गये, तो बातचीत होती थी। इसमें स्वाभाविक समय, श्रम तो लगना ही था, यह व्यय-साध्य भी था। फिर भी उन्होंने पाँचएक साल के घोर परिश्रम के बाद इसके प्रकाशन में सफल हुए। इससे कोई वित्तीय लाभ हुआ नहीं। लगभग सभी प्रतियाँ निःशुल्क ही वितरित हो गईं। दरअसल बाबूजी के पास रेणु के पाठक, प्रशंसक, आलोचक आते, तो वह उन्हें हर संभव सहयोग करते थे। कोई यदि किताबों का मूल्य देना भी चाहे, तो सौजन्यतावश नकार जाते थे कि इस ग्रंथ का समुचित मूल्यांकन हो सके।’
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लगभग पाँच सौ पृष्ठों के इस भारी-भरकम ग्रंथ के प्रकाशन में उन्हें कितनी मशक्कत करनी पड़ी, यह उनके एक वक्तव्य से समझा जा सकता है- ‘जिन विद्वानों ने इसमें भाग लिया है, उन्होंने यज्ञ की महत्ता को ही परखने की चेष्टा की है। जिन विद्वानों ने इसमें भाग नहीं लिया, उनमें से अधिकांश तक मैं पहुँच ही नहीं सका और जिन कुछ-एक के पास पहुँच भी सका, वे इस यज्ञ के संयोजक की पात्रता और क्षमता को संदिग्ध दृष्टि से देखते रहे और यज्ञ की संभावित विध्न-बाधाओं के प्रति आशंकित रहे। कुछ ऐसे भी रहे, जिन्हें इसमें यश-प्राप्ति के आसार नजर नहीं आये।’
ध्यातव्य यह है कि यह वह समय था, जब संपूर्ण क्रांति को ‘भ्रांति’ की संज्ञा दी जाने लगी थी। जनता पार्टी विभिन्न खेमों-गुटों में बँटकर नष्ट-भ्रष्ट हो चुकी थी। सत्तापिपासु जो लोग थे और कांग्रेस से निकलकर जनता पार्टी में आये थे, वही असफलता का ठीकरा दूसरों के माथे फोड़ते हुए पुनः घर-वापसी कर रहे थे या अन्य दलों का निर्माण कर रहे थे। और ऐसे में आंदोलनों से जुड़े लोग अछूत से बनते जा रहे थे। मगर रेणु का लेखन ठोस जमीन पर निर्मित था। सो चाह कर भी उसे अनदेखा किया जाना नामुमकिन था। रेणु का लेखन देश-देशांतर के गाँव-गाँव में ही नहीं, जन-जन के मन-मानस में फैल चुका था, जिससे एक अलग प्रकार की जागृति और चेतनता आई थी। यही कारण है कि तथाकथित पिछड़ी जातियों में जो जागृति आई, उसने कांग्रेसी कल्चर में सेंधमारी कर उसे नेस्तनाबूद किया और बिहार-उ0प्र0 जैसे भारी-भरकम राज्यों में क्षेत्रीय दलों का दबदबा बढ़ा और सत्तासीन भी हुए।
मगर यह सब तो आगे की बात है। महत्वपूर्ण यह कि रेणु के लेखन को पुनर्मूल्यांकन की जरूरत थी। और उस विषमताभरे संक्रमणकाल में रजनीकांत ने यह बीड़ा उठाया और अपने शरीर-स्वास्थ्य का ख्याल न रखते हुए, भारी-भरकम खर्चों की परवाह न करते हुए उपर्युक्त ग्रंथ का प्रकाशन किया। आमतौर पर देखा तो यही जाता है कि साहित्यिक व्यक्तित्वों को दिवंगत होने के उपरांत विस्मृत कर दिया जाता है और उनका लेखन पुस्तकालयों की शोभा-वस्तु बनकर रह जाता है। लोगों को उसमें कोई लाभ-लोभ जो नहीं दिखता। मगर इस लाभ-लोभ से परे रजनीकांत सिन्हा ने रेणु की इस आलोचनात्मक ग्रंथ को प्रकाशित करने का जोखिम उठाया।
रजनी बाबू एक सुसंस्कृत परिवार से ताल्लुक रखते थे। उन्हें बच्चों के कॉमिक्स-प्रेम के वजह से भी बहुत कोफ्त होती थी। इसलिये वह बाल-साहित्य पर भी विशेष जोर दिया करते थे। इस क्षेत्र की उदासीनता परख कर उन्होंने खुद ही बाल-साहित्य की रचना की। खेद है कि उनके इस कार्य का समुचित मूल्यांकन नहीं किया गया, क्योंकि हिन्दी-पट्टी के साहित्य में ‘बाल-साहित्य’ को दोयम दर्जे का काम समझा जाता है। काश हम समझ पाते कि बाल-साहित्य ही प्रौढ़-साहित्य को अग्रेषित करता है। आज जो पठनीयता का संकट है, उसका कारण यही है कि नई पौध पनप नहीं पा रही।
जो भी हो, रजनी बाबू अपने प्रिटिंग-प्रेस के व्यवसाय में काफी सफल रहे और अपने परिवार को एक समृद्ध विरासत दे गये। उन्होंने रेणु से संबंधित वृहत् यज्ञ-कार्य संपादित किये-कराये। समाज-सुधार में उनके विचारों और योगदान को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। नेपथ्य में रहने वाले ऐसे व्यक्तित्व रजनीकांत सिन्हा के जयंती पर हमारी श्रद्धांजलि।
चितरंजन भारती लेखक हैं और पटना में रहते हैं।