प्रधानमंत्री द्वारा संसद में पारित तीन कुख्यात कृषि कानूनों को निरस्त करने की घोषणा निश्चित रूप से किसान आंदोलन और पिछले एक साल से इन अन्यायपूर्ण कानूनों का विरोध करने वालों के लिए एक बड़ी जीत है। सरकार इस हद तक विफल रही कि भाजपा ने अपने सबसे पुराने सहयोगी में से एक अकाली दल को खो दिया क्योंकि जब सरकार ने यह निर्णय लिया, तो उसे लगा कि किसान विरोध से थक जाएंगे और कुछ समय बाद घर वापस चले जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
भाजपा ने अपनी तरफ से इस आन्दोलन को बदनाम करने और उसमें अंतर्विरोध पैदा करने की पूरी कोशिश की, और हमने विरोध-प्रदर्शनों को नुकसान पहुंचाने के हर तरह के प्रयास देखे। प्रारंभ में, किसानों को काउंटर विरोध के साथ धमकी दी गई थी। किसानों को सिंघू सीमा और टिकरी सीमा पर विरोध का सामना करना पड़ा जब स्थानीय गुंडों को इस बहाने किसानों के विरोध में लाया गया कि यह यातायात में अवरोध पैदा कर रहा है और स्थानीय लोगों के लिए समस्याएं पैदा कर रहा है। फिर आया ऐतिहासिक दिन जब किसानों ने गणतंत्र दिवस पर अपने ट्रैक्टरों के साथ दिल्ली में मार्च निकालने का फैसला किया। पुलिस ने झिझकते हुए उन्हें अनुमति दी और लाल किले में अफरा-तफरी मच गई। सरकार को आंदोलन को राष्ट्र-विरोधी बताकर दबाने का एक हैंडल मिल गया। प्राइम टाइम पर दलाल पहले से ही ‘आतंकवादियों‘ के खिलाफ ‘कड़ी‘ कार्रवाई करने के लिए जोर-शोर से चिल्ला रहे थे। स्थानीय लोगों को किसानों के खिलाफ भड़काने का हर संभव प्रयास किया गया। तीनों सीमावर्ती इलाकों में त्वरित पुलिस कार्रवाई की योजना बनाई जा रही थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने समझा कि गाजीपुर सीमा पर त्वरित कार्यवाही करने के लिए और वाहवाही लूटने के लिए यह उपयुक्त समय है। इसलिए योजना इतनी बारीकी बनाई जा रही थी ताकि पूरे नैरेटिव के हिसाब से सख्त कार्यवाही के खिलाफ कोई राजनैतिक माहौल न खड़ा हो। पूरी स्थिति पर सरकारी भोंपू एक-एक पल की लाइव जानकारी के लिए तैयार बैठे थे। दबाब इतना था कि जब बीकेयू नेता राकेश टिकैत गाजीपुर सीमा पर किसानों संबोधित कर रहे थे तो उनकी आँखों में आँसू निकल पड़े। बस, उनके आंसुओ ने किसानो में वह तूफ़ान पैदा कर दिया कि वे ट्रेक्टर भर-भर के रात में ही गाजीपुर बार्डर की तरफ कूच कर गए और सुबह होते-होते लाखो किसान वहा पहुँच चुके थे। यह देखकर पुलिस के हाथ-पाँव फूल गए और वह दबे पाँव वहाँ से निकल गयी। राकेश टिकैत की कॉल के बाद गाजीपुर सीमा किसानों के आंदोलन का केन्द्र बिन्दु बन गया था।
[bs-quote quote=”नरेंद्र मोदी और भाजपा राजनीतिक गणना के अनुसार सब कुछ करते हैं और चूंकि पार्टी को अगले साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश के चुनावों में मुश्किल हो रही थी, इसलिए उन्होंने इसकी घोषणा करने का फैसला किया। बेशक, इन दिनों वह ‘दरबारी मीडिया’ को उनके प्राइम टाइम शो के लिए चर्चा के लिए ‘पर्याप्त’ सामग्री देकर हर दिन लोगों से ‘बात’ करना चाहते हैं। वह लाइम लाइट में आए बिना एक भी दिन नहीं छोड़ना चाहते। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हरियाणा के किसानों की भारी भागीदारी ने वास्तव में सत्ताधारी दल के इस उस षड्यंत्र को को विफल कर दिया जो वे किसानों राष्ट्र-विरोधी साबित करने के लिए कर रहे थे। सत्ताधारी नेताओं को अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों से निपटना पड़ रहा था, जहां पिछले चुनावों में बड़े पैमाने पर उनको मतदान किया गया था। मसलन, दो आम चुनाव और 2017 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में। अगर यह केवल पंजाब के किसानों का मामला होता तो बीजेपी उन्हें अलग-थलग करके इसे अपना पसंदीदा देशभक्त-देशद्रोही खेल बनाने में सफल हो जाती, लेकिन वे असफल रहे क्योंकि राकेश टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन अधिक मुखर हो गई और अधिक ताकत के साथ आगे बढ़ी।
पिछले एक साल में इन शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में 750 से अधिक किसान मारे गए। वे सभी, जिन्होंने एक बड़े उद्देश्य के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, उन्हें ‘शहीद‘ कहा जाता है। इसे भुलाया नहीं जाना चाहिए कि केंद्र सरकार हमारे द्वारा चुनी हुई सरकार है, उसके राजनीतिक नेतृत्व द्वारा किसान आंदोलन को विफल करने के प्रयास किया जाना बेहद असंवेदनशील रहा है। किसानों की बुनियादी मांगें ऐसी नहीं हैं जो सरकार को पूरा करनी थीं बल्कि वे तो सिर्फ काले क़ानूनों की वापसी चाहते थे। इसके लिए वे हर तरह की परिस्थिति में डटे रहे।
जो उत्तर भारतीय मौसम की चरम सीमाओं से अवगत है, वह आसानी से समझ सकता है कि भयानक शीतलहरी वाली ठंड, तप्ति हुई गर्मी और बारिश के मौसम में दिल्ली में खुले आसमान के नीचे सोना कितना मुश्किल और कठिन रहा है।सर्द मौसम के कारण कई किसान मर गए और कई आत्महत्या करने को मजबूर हुए लेकिन हमने सहानुभूति या समर्थन का एक भी शब्द नहीं सुना। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से पिछले सात या आठ वर्षों में, सरकार, भाजपा या उसके मंत्रियों ने कभी भी आंदोलनों में लोगों की मौत पर एक भी शब्द नहीं कहा। छात्र विरोध, सीएए-एनआरसी या किसानों का विरोध करने के लिए उन्होंने हर तरह के षड्यंत्र किए। भाजपा-संघ से निकले नेताओं या उनकी डफली बजाने वाले हर व्यक्ति का पूरा फोकस दर्द, पीड़ा और क्रोध की उन कहानियों को पूरी तरह से अनदेखा करना या चिल्ला-चिल्ला कर उनकी निंदा करने पर था। इतनी संवेदनहीनता थी कि इस सरकार ने ‘कोरोना संकट‘ से ‘सफलतापूर्वक‘ निपटने के लिए अपनी पीठ थपथपाई। जबकि हम सभी ने देखा कि भारत चार लाख पैंसठ हजार से अधिक मौतों के साथ संकट से निपटने के मामले में सबसे बुरी हालत में था, लेकिन उनके द्वारा विलाप, सहानुभूति या अपनी असफलता के लिए मुंह से एक भी नहीं शब्द नहीं निकला।
इसके बजाय, सरकार से सवाल करने वाले किसी भी व्यक्ति को न केवल बदनाम किया गया और धमकाया गया अपितु उसे पुलिस कार्यवाही और कड़े कानूनों का सामना करना पड़ा। मीडिया सरकार के प्रोपेगंडा का मुख्य हथियार बन गया है जिसने अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह से खो दिया क्योंकि यह केवल विरोधियों को बदनाम करने और ‘सर्वोच्च नेता‘ का महिमामंडन करने के लिए कहानियां गढ़कर प्रसारित कर रहा था। यह सब केवल एक संवेदनहीन समाज का निर्माण करता है जहाँ मृत्यु और क्रूरता का सामान्यीकरण कर दिया गया है।
[bs-quote quote=”आज जब प्रधानमंत्री ने एक लंबा भाषण दिया, तो उन्हें यकीन था कि पूरे देश में किसानों के ‘बहुसंख्यक’ ने वास्तव में ‘समर्थन’ किया होगा क्योंकि कानून से उन्हें फायदा होता। नरेंद्र मोदी ने तब कहा कि ‘सरकार’ कुछ किसानों को समझाने में असमर्थ है और देश के ज्यादातर किसानों के साथ तो बातचीत की गयी है और वे खुश है लेकिन और वह किसी को भी अकेला महसूस नहीं कराना चाहते हैं इसलिए अधिक ‘राष्ट्रीय’ हित में, वह बिल वापस ले रहे थे। यद्यपि यह अपने आप में अत्यधिक आपत्तिजनक और असंवैधानिक है क्योंकि प्रधान मंत्री या कोई भी मंत्री वास्तव में संसद के बाहर किसी नीति स्तर के निर्णय की घोषणा नहीं कर सकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
कोई कैसे भूल सकता है कि कैसे मीडिया विरोध स्थलों पर सब कुछ की ‘निगरानी‘ कर रहा था। ‘फेक न्यूज‘ ‘संवाददाता‘ ‘दुनिया‘ को बता रहे थे कि कैसे किसान इन विरोध स्थलों पर ‘आराम से’ रह रहे हैं और कैसे किसानों के बीच असंतोष बढ़ रहा है? यह कहा गया था कि किसान, दूध पी रहे हैं, ड्राई फ्रूट खा रहे हैं और उनके टेंटों में शानदार एसी लगा हुआ है। खबरें ऐसे ‘दौड़ाई’ जा रही थीं कि वे जैसे किसान नहीं गुंडे और आतंकवादी हैं। लेकिन वह सब विफल रहा। कार्यकर्ताओं और आंदोलन से जुड़े लोगों सहित कई लोगों से मिलने और समर्थन में मै भी कई बार इन विरोध-स्थलों पर गया था और मैं इतना ही कह सकता हूँ कि शहरी अंग्रेजी बोलने वाले मध्यम वर्ग से बहुत बेहतर है किसानों की राजनीतिक समझ।
किसानों ने तरह-तरह से विरोध प्रदर्शन किए लेकिन सब कुछ शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक था। यह पूरा आंदोलन इस बात का उदाहरण है कि कैसे दमनकारी शासन के खिलाफ शांति से लड़ाई लड़ी जाए, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि मौजूदा सरकार चुनावी मौसम में शक्तिशाली कृषक समुदायों का विरोध करने का जोखिम नहीं उठा सकती थी। डाउन टू अर्थ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2020 में कृषि संबंधी विरोधों की कुल संख्या 2,188 थी जो पिछले वर्ष की तुलना में 19% अधिक थी। यह भी बताया गया था कि 2013 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम पारित होने के बाद भारत में कृषि विरोध काफी कम हो गया था और ‘सहमति‘ को एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारक बनाने के साथ-साथ अधिग्रहित भूमि के लिए मुआवजे को अच्छी तरह से निर्धारित नियमों और शर्तों के तहत प्रदान किया जा रहा था।
पिछले दो वर्षों में, किसानों द्वारा कई अखिल भारतीय आम हड़तालें बुलाई गईं। कई चक्का जाम, रेल रोको हुये। उनमें से अधिकांश तब भी शांतिपूर्ण रहे हैं जब पुलिस ने सख्ती का सहारा लिया। लखीमपुर खीरी की भयावह घटना को, जहां एक केंद्रीय मंत्री का बेटा अपनी तेज रफ्तार एसयूवी के नीचे कई किसानों और एक पत्रकार को कुचलने की नृशंस घटना में शामिल था, कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। यह साबित करता है कि वर्तमान सरकार के अधिकारी और प्रशासन कैसे काम कर रहे हैं। सरकार के चमचे स्वतंत्र रूप से विरोधियों को गाली दे रहे थे, संविधान का दुरुपयोग कर रहे थे और भारत की समावेशी और बहुलतावादी संस्कृति में उनका कोई विश्वास नहीं है लेकिन पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। इसके बरक्स सरकार के असंवैधानिक कार्यों पर सवाल उठाने वालों को कड़े कानूनों के तहत गिरफ्तार किया जा रहा था। उन्हें अपमानित करने और डराने के लिए प्रक्रियाएं अपनाई जा रही थीं। फर्जी न्यूज फैलाने वालो, नफ़रत और उन्माद का जहर फ़ैलाने वाले तथाकथित पत्रकारों, कलाकारों को जेड प्लस सुरक्षा प्रदान की गई थी लेकिन कोई सवाल नहीं पूछा गया था। क्या नफ़रत फैलाने वाले कलाकार या पत्रकार हो सकते हैं? आखिर क्यों वर्तमान शासन में उन्हें खुली छूट है?
[bs-quote quote=”पश्चिमी उत्तर प्रदेश और विशेषकर जाट पिछले दो दशक में भाजपा के समर्थक बन गए। सच कहूं तो भारतीय राजनीति के मंडलीकरण के बाद जाटों ने सवर्ण पार्टियों का अधिक से अधिक पक्ष लिया और भाजपा उनके लिए स्वाभाविक थी। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के माध्यम से भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे को खेती के क्षेत्र में धकेल दिया गया, जिसने इस क्षेत्र के मुसलमानों को अलग-थलग कर दिया और उन्हें अवांछित बना दिया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
भूमि अधिग्रहण अधिनियम की तरह इन क़ानूनों को लाने के लिए सरकार निश्चित रूप से एक अलग योजना पर काम करेगी इसलिए सतर्क रहने की जरूरत है। यह सुझाव देकर राज्यों के माध्यम से कार्य कर सकता है कि भूमि राज्य का विषय है। केंद्र के दिशा-निर्देशों के अनुसार विभिन्न राज्यों ने पहले ही अपने भूमि कानूनों में संशोधन किया है। अगर चीजें राजनीतिक रूप से काम नहीं करती हैं, तो न्यायपालिका एक विकल्प है। न्यायिक सक्रियता के मौजूदा रुझान कुछ उम्मीद पैदा करते हैं। हम चाहते हैं कि यह और अधिक सक्रिय हो और ऐसे प्रश्न पूछे जो राजनीतिक दल या मीडिया नहीं पूछ पा रहे। अभी तक भूमि अधिग्रहण, वन, झुग्गी बस्तियों के मामलों पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के सभी निर्णयों की सावधानीपूर्वक जांच आपको बता सकता है कि सरकार के चहेते कैसे बने। उनके निर्णय ने तो आदिवासियो को अपनी ही भूमि पर ‘अतिक्रमणकारी‘ बना दिया जिस भूमि की उन्होंने सदियों से रक्षा की। हम जानते हैं कि उसके बाद क्या हुआ। जब भारी हंगामा हुआ तो आदेश उलट दिया गया लेकिन फिर भी विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल किया गया। जस्टिस मिश्रा अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के प्रमुख हैं और हर चीज पर सरकार की नीति का खुलकर समर्थन करते हैं।
किसान इन बिलों का विरोध करने के लिए इतने उग्र क्यों थे? तीनों विधेयकों का उद्देश्य निजी कंपनियों के व्यावसायिक हितों की रक्षा करना और उनका एकाधिकार बनाना था। किसान अच्छी तरह से समझ चुके थे कि उनकी जमीन और जीवन खतरे में है। बेशक, हम इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि इन बिलों को वापस लेना किसानों के लिए प्यार नहीं है, बल्कि चुनाव की बुनियादी बातों पर वापस जाना है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और विशेषकर जाट पिछले दो दशक में भाजपा के समर्थक बन गए हैं। सच कहूं तो भारतीय राजनीति के मंडलीकरण के बाद जाटों ने सवर्ण पार्टियों का अधिक से अधिक पक्ष लिया और भाजपा उनके लिए स्वाभाविक पार्टी थी। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के माध्यम से भाजपा के हिंदुत्व के एजेंडे को खेती के क्षेत्र में धकेल दिया गया, जिसने इस क्षेत्र के मुसलमानों को अलग-थलग कर दिया और उन्हें अवांछित बना दिया। ध्रुवीकरण का इस्तेमाल बीजेपी ने हमेशा सत्ता के खेल के लिए किया है, लेकिन इस प्रक्रिया में जाट राजनीतिक रूप से हाशिए पर चले गए। हरियाणा जैसे राज्य में जहां जाटों ने भाजपा को वोट दिया, पार्टी में अभी भी खत्री समुदाय का एक मुख्यमंत्री है। किसान आंदोलन ने पुराने जाट गौरव और मुसलमानों के साथ जुड़ाव पैदा किया। जाट-मुस्लिम एकता वास्तव में वह आखिरी चीज थी जिसके बारे में भाजपा कभी सोच भी नहीं सकती है क्योंकि यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी के लिए एक अत्यंत कठिन स्थिति पैदा करने के लिए बाध्य है जहां पार्टी के नेता अपने निर्वाचन क्षेत्रों में कोई भी यात्रा करने में असमर्थ थे।
[bs-quote quote=”उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दलों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे अपने बचाव को न छोड़ें क्योंकि कृषि बिल को वापस लेने की परिणति लखनऊ में सरकार बदलने में होनी चाहिए जो कि दिल्ली में एक राजनीतिक बदलाव के लिए आवश्यक है जिसे भारत 2024 में देख रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अखिलेश यादव की रैलियों में बड़े पैमाने पर भारी भीड़ के साथ-साथ प्रियंका गांधी के लगातार प्रयासों ने भी उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के लिए समस्याएं पैदा की है। प्रारंभ में, भाजपा ने महसूस किया कि प्रियंका या कांग्रेस के बढ़ावा देने से उन्हें उत्तर प्रदेश में मदद मिलेगी, लेकिन यह नीति पिट गयी है और लोग अब कांग्रेस का नाम ले रहे है हालांकि वह अभी भी इस स्थिति में नहीं है कि अकेले बीजेपी को चुनौती दे सके लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं में जान आ गयी है। प्रियंका की लगातार बैठकों और राजनीतिक सक्रियता से कांग्रेस को मदद मिली है। उत्तर प्रदेश निश्चित रूप से भाजपा को बुरा सपना दे रहा है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री द्वारा ‘पूर्वाञ्चल एक्सप्रेसवे ‘के उद्घाटन के अवसर पर वायु सेना के जरिये एक एयर शो करवाया गया। यह और कुछ नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से चुनावी नौटंकी थी जिससे लोग प्रभावित नहीं हुए।अखिलेश यादव की अगले दिन रैली ने वास्तव में राज्य में लोगों के मूड को दिखाया। अभी भी तीन-चार महीने बाकी हैं और भाजपा नेता अब जनता में जाकर कहेंगे कि प्रधानमंत्री ने ‘राष्ट्रीय हित‘ में एक निर्णय ले लिया है। इसलिए मोदी भारत के लिए ‘महत्वपूर्ण‘ हैं। इसलिए मैं कह रहा हूँ कि किसानों ने लड़ाई आधी जीती है और जब तक 2022 में लखनऊ में परिवर्तन नहीं आता हम सोच भी नहीं सकते कि उनकी जीत हुई है।
उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दलों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे अपने मुद्दों को न छोड़ें। कृषि बिल को वापस लेने की परिणति लखनऊ में सरकार बदलने में होनी चाहिए जो कि दिल्ली में एक राजनीतिक बदलाव के लिए आवश्यक है जिसे भारत 2024 में देख रहा है। किसानों ने अपनी लड़ाई ईमानदारी और बहदुरी से लड़ी है और अब समय आ गया है कि विपक्ष के लोग भारत के लोगों की भावनाओं को समझें, एकजुट हों, दीर्घकालिक गठबंधन बनाएं और साहस और दृढ़ विश्वास के साथ लड़ाई लड़ें ताकि ऐसे जनविरोधी कानून को कभी दिन का प्रकाश न मिले और इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया जाय। सभी राजनीतिक दलों को एक सबक लेना चाहिए कि जनता को हल्के में नहीं लेना चाहिए और सूचना के मुक्त प्रवाह की अनुमति देनी चाहिए क्योंकि सरकार को समय-समय पर चेतावनी देने के लिए एक विश्वसनीय मीडिया जरूरी है ताकि उसे पता चल सके कि जमीन पर क्या हो रहा है। दुर्भाग्य से, भाजपा नेतृत्व इस संबंध में मीडिया की तुलना में अधिक जमीन पर था और नतीजा यह है कि मोदी ने यह निर्णय लिया क्योंकि वह अच्छी तरह से जानते हैं कि अपने ही घटकों की अनदेखी की राजनीतिक कीमत बहुत अधिक हो सकती है।
हम आशा करते हैं कि किसानों, मजदूरों और अन्य लोगों की एकता बनी रहेगी ताकि भारत के विचार को मजबूत किया जा सके और कोई भी सरकार भविष्य में इस तरह के जनविरोधी निर्णय लेने की हिम्मत न कर सके। किसानों के विरोध की सफलता ने दिखाया कि शक्तिशाली तानाशाही सरकारों को भी शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोधों के माध्यम से घुटनों पर लाया जा सकता है परन्तु यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि लड़ाई तब तक नहीं जीती जा सकती जब तक कि ताकत और एकजुटता का यह प्रदर्शन आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश और देश के राजनीतिक परिवर्तन में प्रतिबिंबित न हो।
विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।