Friday, March 29, 2024
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  आज साहित्य के क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में समीक्षात्मक लेखन हो रहा है| प्रत्येक रचनाकार चाहता है कि उसकी रचनाओं पर समीक्षाएं लिखी जाएँ ताकि अधिक से अधिक पाठकों तक रचना के बारे में जानकारी का प्रसार हो| पत्र-पत्रिकाओं में भी प्राय: समीक्षा के लिए कुछ पृष्ठ या कालम नियत रहते हैं| समीक्षा के […]

 

आज साहित्य के क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में समीक्षात्मक लेखन हो रहा है| प्रत्येक रचनाकार चाहता है कि उसकी रचनाओं पर समीक्षाएं लिखी जाएँ ताकि अधिक से अधिक पाठकों तक रचना के बारे में जानकारी का प्रसार हो| पत्र-पत्रिकाओं में भी प्राय: समीक्षा के लिए कुछ पृष्ठ या कालम नियत रहते हैं| समीक्षा के लिए लेखकों अथवा प्रकाशकों द्वारा पुस्तक की प्रतियाँ संपादक की प्रतियाँ भेजे जाने का चलन है| कुछ संपादक समीक्षा के लिए लेखकों/प्रकाशकों से पुस्तकें स्वयं आमंत्रित करते हैं तथा अपने परिचय या पसंद के लेखकों से समीक्षा लिखवाते हैं| बहुत से लेखक आग्रहपूर्वक मित्र लेखकों से अपनी रचनाओं की समीक्षा लिखवाकर तो कुछ बड़े या वरिष्ठ लेखक युवा या जूनियर लेखकों से अपनी पुस्तक की समीक्षा लिखवाकर पत्र/पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाते हैं| नामवर लेखकों पर लिखने से भी नाम होता है, इस धारणा का अनुसरण करते हुए बहुत से युवा लेखक वरिष्ठ और स्थापित लेखकों की रचनाओं की स्वेच्छा से समीक्षा लिखते हैं| बहुत से युवा लेखक स्थापित पत्रिकाओं में छपने की लालसा में समीक्षा लेखन का सहारा लेते हैं तो बहुत से आर्थिक अभाव के कारण भी उन पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा लेखन करते हैं, जहां से प्रकाशित रचनाओं पर पारिश्रमिक दिए जाने की व्यवस्था है| सरकारी पत्रिकाओं को यदि छोड दें तो हिन्दी में ऐसी पत्रिकाएँ बहुत कम हैं जो रचनाओं पर पारिश्रमिक देती हैं| पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा लिखने वाले इन लेखकों में प्राय: विद्यार्थी होते हैं| समीक्षा लेखन के वर्तमान परिदृश्य को देखने से प्रतीत होता है कि कुल मिलाकर समीक्षा एक प्रकार का प्रायोजित लेखन है|

[bs-quote quote=”महत्वपूर्ण पुस्तकों पर टीका या भाष्य लिखने की भारतीय साहित्य में लंबी परंपरा रही है| इस तरह के भाष्य और टीकाएँ प्राय: धार्मिक-दार्शनिक ग्रन्थों की लिखी गई हैं| इसका कारण यह भी हो सकता है कि भाष्य और टीका लिखने की परंपरा जब विकसित हुई तब लेखन प्राय: धार्मिक-दार्शनिक विषयों पर ही केन्द्रित होता था| गीता और संख्याकारिका पर भाष्य लिखे गए हैं जबकि रामचरित मानस पर टीका लिखी गई हैं| इनमें गीता और सांख्यकारिका दार्शनिक ग्रंथ हैं जबकि रामचरित मानस धार्मिक महाकाव्य है| आज साहित्य का स्वरूप तब की अपेक्षा काफी बदल गया है| भाष्य और टीकाएं काफी विस्तृत, और कई मामलों में मूल ग्रंथ से भी बड़ी रही हैं| भाष्य में पुस्तक की व्याख्या होती है तो टीका में उसकी आलोचना होती है| आलोचना को टीका का ही आधुनिक रूप कहा जा सकता है| आधुनिक साहित्य में समीक्षा लेखन का विकास आलोचना के बाद हुआ है|” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

प्राय: समीक्षा और आलोचना को एक ही माना जाता है| ऐसा मानने में कोई बड़ी सैद्धान्तिक या वैचारिक दिक्कत भी नहीं है| आलोचक और समीक्षक दोनों ही रचना के बारे में अपना अभिमत व्यक्त करते हैं| इसमें रचना और रचनाकार के साथ सहमति और असहमति दोनों के लिए समान अवसर होता है| किन्तु, लगभग समानार्थी होते हुए भी आलोचना और समीक्षा के बीच एक सूक्ष्म अंतर है| आलोचना में आलोचक द्वारा अपनी रूचि, पसंद और वैचारिक अनुकूलता का ध्यान रखा जाता है| किसी लेखक को खारिज या स्थापित करना इसी पर निर्भर करता है| किन्तु इसके उपरांत आलोचना, समीक्षा की तरह प्रायोजित लेखन नहीं है| आलोचना में किसी रचना का गहन एवं सूक्ष्म अध्ययन कर उसके विभिन्न पक्षों एवं प्रभावों की किन्हीं पूर्व-स्थापित मूल्यों, मानदण्डों, विचारों, सिद्धांतों एवं परम्पराओं के आधार पर सामाजिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक व्याख्या और विश्लेषण किया जाता है| आलोचना में खण्डन और मण्डन दोनों का समान महत्व होता है| अपितु, जैसाकि आलोचना शब्द से ही प्रतीत होता है इसमें आलोचक निर्ममता की हद तक भी रचना या रचनाकार की धज्जियां उड़ाते हुए उसका खण्डन कर सकता है| साहित्य में ‘निंदक नियरे राखिए’ शायद आलोचक के लिए ही प्रयुक्त हुआ है, समीक्षक के लिए नहीं| क्योंकि आलोचक द्वारा लेखक की कमज़ोरियाँ को उजागर कर उसे उन कमजोरियों को दूर करने में सहायता मिलती है| आलोचना के बारे में यह धारणा उपयुक्त ही है कि अच्छी और सशक्त आलोचना लेखक के मार्गदर्शन और प्रेरणा का काम कर अच्छे लेखन की भूमि तैयार करती है|

किसी रचना की आलोचना का विस्तार कुछ पृष्ठ से लेकर बृहद ग्रंथ तक हो सकता है| समीक्षा में इतने विस्तार की संभावना और अवसर नहीं होता| वह कुछ शब्दों या पृष्ठों तक सिमटी होती है| आलोचना की तुलना में समीक्षात्मक ग्रंथ बहुत कम लिखे गए हैं| किसी रचना में कमज़ोरियाँ ढूंढकर उनका विवेचन करने के लिए विस्तार आवश्यक है| समीक्षा में इतने विस्तार में जाने की प्राय: गुंजाइश नहीं होती, इसलिए समीक्षा में रचना या उसके लेखक की प्राय: प्रशंसा ही की जाती है| कमजोरियों को प्राय: नजर-अंदाज किया जाता है अथवा थोड़ा-बहुत उल्लेख भर किया जाता है| किसी भी लेखक के लिए अपनी आलोचना को सहज रूप से स्वीकार करना सरल नहीं होता है| तीखी आलोचना के कारण कई बार लेखक और आलोचक के परस्पर संबंध खराब हो जाते हैं| समीक्षाओं से उस तरह की कटुता बहुत कम संभावित होती है|

समीक्षा सम्यकता की मांग करती है| इसमें समीक्ष्य पुस्तक या रचना के कथ्य, शिल्प आदि की सम्यक विवेचना कर उसकी विशेषता और कमजोरियों का उल्लेख किया जाता है| समीक्षा में मुख्य कोशिश होती है पाठक को रचना के प्रति जिज्ञासु बनाकर उसकी ओर आकृष्ट करना| क्योंकि पुस्तक की समीक्षा पढ़कर पाठक पुस्तक की ओर आकृष्ट होंगे, तभी वे पुस्तक को खरीदेंगे या खरीदने की संस्तुति करेंगे| पुस्तकें बिकेंगी तो प्रकाशक को मुनाफा होगा और इससे उसका व्यवसाय फले-फूलेगा| यह विशुद्ध बाजारवाद है| बाजार का सीधा सा नियम है कि जो दिखाता है वह बिकता है| दिखेगा नहीं तो बिकेगा कैसे| कहने की आवश्यकता नहीं है कि बाजारवाद में ब्रांड बिकता है| इसलिए समीक्षा के लेखन-प्रकाशन के माध्यम से लेखकों के ब्रांड तैयार किए जाते हैं और ब्राण्डों के प्रति आकर्षण का माहौल तैयार किया जाता है| ब्रांड के विकास में समीक्षा खाद का काम करती है| समीक्षाओं के द्वारा ब्रांडेड लेखकों की रचनाओं को अधिक से अधिक प्रचारित किया जाता है| यही कारण है कि कभी-कभी किसी लेखक की एक पुस्तक की अनेक समीक्षाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराई जाती हैं| किसी एक पुस्तक की किसी एक पत्रिका में अनेक समीक्षाएं प्रकाशित होने के कई उदाहरण स्दामाने आए हैं| हद तो तब हो जाती है जब किसी पत्र/पत्रिका के एक ही अंक में किसी पुस्तक की एक से अधिक समीक्षाएं प्रकाशित की जाती हैं जबकि बहुत से लेखकों की अच्छी पुस्तकों की एक समीक्षा भी प्रकाशित नहीं की जाती| बाजार के इस खेल के चलते बहुत से लेखक रातों रात ब्रांड बन जाते हैं और बहुत लेखक महत्वपूर्ण लेखन करने के बावजूद गुमनाम से रह जाते हैं| बाजार के इस प्रभाव और चमक के चलते बहुत से लेखक प्रसिद्धि और प्रचार के लिए अपनी पुस्तकों की समीक्षा स्वयं ही लिखकर किसी मित्र लेखक के नाम से, अपने संपर्क के पत्र/पत्रिका में प्रकाशित करवाते हैं| समीक्षक/संपादकों को सुरापान-सुख अथवा चाटुकारिता के कौशल से अपनी पुस्तक की समीक्षा लिखवाने और प्रकाशित कराने के कई उदाहरण मिल जाएंगे| इस सब का प्रभाव यह देखने को मिल रहा है कि बहुत सी कमजोर रचनाएँ और रचनाकार प्रसिद्धि पा रहे हैं, जबकि सशक्त रचनाएँ और रचनाकार उपेक्षित हो रहे हैं| यह स्थिति साहित्य के लिए शुभ नहीं है|

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