अंतराष्ट्रीय पर्यटन दिवस विशेष
भला कौन नहीं चाहता नई जगहों की तलाश करना, नए-नए लोगों से मिलना, नई संस्कृतियों से रूबरू होना। चाहे लोग कितने भी व्यस्त क्यों ना हों नई जगह की सैर करना नहीं भूलते। अक्सर पर्यटन स्थल से लोग न भूलने वाली स्मृतियां लेकर लौटते हैं। एक रिसर्च के अनुसार अधिक यात्रा करने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अन्य के मुकाबले ज्यादा अच्छा होता है और वे हमेशा अपने शरीर में अलग तरह की ताजगी का एहसास करते हैं, जिसके पीछे के वजह की बात करें तो कहा जाता है कि उनके शरीर में अलग- अलग तरह की जलवायु और वातावरण का प्रवेश होने का कारण वो ज्यादा स्वस्थ्य और ताजगी महसूस करते हैं। आज हम अचानक से यात्रा को लकेर इतनी बातें क्यों कर रहें हैं तो इसलिए क्योंकि आज अंतराष्ट्रीय पर्यटन दिवस है। इस अवसर पर विद्याभूषण रावत की रोम यात्रा……
बचपन में मेरे कॉलेज के प्रधानाचार्य अक्सर एक कहावत कहते थे कि ‘Rome Was Not Built in A Day’ अर्थात रोम एक दिन में नहीं बना, उस वक्त हम सोच भी नहीं सकते थे कि रोम कैसा शहर होगा। क्या यह वाकई में इतना खूबसूरत होगा जितना हम सोचते थे।
रोम से मेरा नाता इन्टरनैशनल लैण्ड कोयलिशन के जरिए जुड़ा, 1998 के बाद से तकरीबन 6 बार रोम जा चुका हूं और वहां एंवोटिनो हिल्स में बसा सेंट एजेल्मो होटल अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण मुझे बहुत प्रिय है। यह होटल परंपरा और आधुनिकता का प्रतीक है।
रोम दुनिया भर के रोमन कैथोलिक लोगों की आस्था का केन्द्र है। शहर से करीब 10 किमी. आगे वेटिकन सिटी है जहां पोप जाॅन पाल रहते हैं और दुनिया के एक मात्र धर्म गुरू जिन्हें राष्ट्राध्यक्ष का दर्जा प्राप्त है। यह ईसाइयत के दुनिया पर राज करने का प्रभाव ही है कि पोप जाॅन पाल जिनके राज्य की आधिकारिक जनसंख्या एक हजार से कम है तब भी वह संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता प्राप्त राज्य है हालांकि सारा कारोबार इटली में ही होता है। दुनिया में ऐसे भी आंदोलन हैं जो ऐसे धार्मिक नेताओं को राष्ट्राध्यक्ष का दर्जा दिए जाने का विरोध करते हैं और सोचते हैं कि कल ऐसे हालात दूसरे धर्मों के नेता भी पैदा कर सकते हैं। हमारे देश में तो कई ’पीठें‘ हैं जहां के शंकराचार्य अपने को राष्ट्राध्यक्ष से भी उपर मानते हैं और कभी उनके दिमाग फिर गये तो मुश्किल होगी, जामा मस्जिद के इमाम भी किसी नेता से कम नहीं।
भारत में धर्मान्ध शहरों के जो हाल हैं मुझे कुछ समानता रोम से नजर आई। जितनी धर्मान्ध जनता उतनी भ्रष्ट परंपरायें। भारत के पवित्र शहरों हरिद्वार, मथुरा, काशी इत्यादि में वो सब होता है जिसे ’सन्त‘ लोग अपवित्र बताते हैं। मतलब यह है कि रोम न केवल अपने पिज्जा, पाश्ता, और खानपान के लिए जाना जाता है, यहां नंगई भी उतनी ही अधिक है, रात्रि को टेलिविजन पर कई चैनल ’ब्लू‘ फिल्मों का प्रर्दशन और लड़कियों के विज्ञापन दिखाते हैं। रोम एयरपोर्ट सामान खोने के लिए भी मशहूर है। मैं इसका दो बार भुक्त भोगी हूं। एक बार सामान मिल गया, परंतु दूसरी बार उसका पता नहीं चल पाया। वेटिकन की पवित्र नगरी में चलते हुए आपको हिंट दिया जाता है कि ’जेबकतरों और लुटेरों से सावधान रहें। एयर पोर्ट के बाहर टैक्सी वाला वैसे ही झक करते हैं जैसे दिल्ली में होती है। रोम शहर का मेट्रो काफी छोटा है, केवल दो लाइनों वाला। एअर पोर्ट से होटल सेंट एजेल्मों तक आने के लिए लाइन बी का इस्तेमाल करना होता है। 5 यूरो का टिकट लेकर आप रोम, ओस्टिएंजी नामक स्टेशन पर उतर सकते हैं जो मशहूर पिरामिड के पास है, वहां से होटल तक की यात्रा कार या पैदल अपनी सुविधानुसार की जा सकती है। लगभग एक किलोमीटर का सफर और 5 यूरो।
अबकी बार मैं रोम 27 जून की सुबह पहुंचा और सान्ताप्रिस्का होटल में रहा जो पिरामिड स्टेशन के बिल्कुल पास है, शाम को हमलोग ब्रूस मूर के घर पर पहूंचे जो यहां से 7-8 किलोमीटर पर है। मेरे साथ मिगेल थे बोलिविया से, स्टाव्री पलाहा अल्वानिया से, और वेल जकोर्त विश्व बैंक से, फिलीपिन्स से जिंग, इटली की ल्यूचिया और पेरू के फर्नान्डो की साथ, बृस और उनकी पत्नी कनाडा से है और गत 23 वर्षों से उनकी प्यार मोहब्बत बढ़ी ही है, कम नहीं हुई है। एनी द्वारा बेहतरीन भोजन तैयार किया गया और अनेक देशों की शराब से माहौल और भी अच्छा हो गया।
अगले दिन रात्रि में हमें एक सामूहिक भोज पर जाना था और रोम की उम्बर नदी के तट पर ’एनैकौण्डा‘ वोट में बने खूबसूरत होटल में इसकी व्यवस्था की गई थी। हमलोग लगभग 9 बजे वहां पहुंचे। नदी का तट खूबसूरत था लेकिन यूरोप के अन्य शहरों की तरह जहां पर्यावरण के मापदण्ड बहुत सख्त हैं, रोम की यह नदी प्रदूषित नजर आई। पहली बार मुझे मच्छर दिखाई दिये। बोट में टायलर सिस्टम भी था परंतु मेरा शक है कि वह सारा नदी में जा रहा होगा क्यों कि वह क्षेत्र में अकेली नाव थी।
हम लोगों ने पूरे इटैलियन अंदाज में पार्टी का आगाज किया। कुछ लोग बीयर लिये तो अधिकांश वाइन और फिर शुरू हुआ विशेष इटैलियन डिनर जिसमें एक-एक करके लगभग 6 राउन्ड पर अलग-अलग किस्म की डिशेज थी। मच्छियों को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया। पहली मच्छी कुछ और किस्म की, फिर फ्राइड छोटी मच्छी फिर एक कांटे वाली इत्यादि। ल्यूचिया बताती हैं कि एक मामूली सी या गरीब इटैलियन परिवार भी खाने पर जी खोलकर दावत देता है। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि लोग इतना अधिक कैसे खा लेते हैं और आश्चर्य इस बात का कि खाने के बाद डेजर्ट के नाम पर पपीता और फ्रूट चाट भी शामिल था। यूरोप और अमेरिका में लोग रात्रि को चाय या काॅफी से बाय-बाय करते हैं। यूरोप के अन्य शहरों की तरह रोम में खुले बाजार खूब लगते हैं और खरीदारों की जर्बदस्त भीड़ होती है। चीन का सामान यहां भी दिखाई देता है।
30 जून 2004 को हम डिनर के लिए एक खुले रेस्टोरेन्ट में पहुंचे। ल्यूचिया, जिंग, लोरना (यूगांडा), मिगेल (बोलीविया), रमीरो (निकरागुआ) के मित्र साथ थे। यूरोप में एक अच्छी बात यह होती है कि जब आफिसियल डिनर नहीं होता तो लोग पैसे जमा करके भी आपस में बैठ सकते हैं। साथ बैठकर खाना खाना केवल एक व्यक्ति के द्वारा ही आर्डर किया जाए ऐसा भारत में सोचा जाता है। मुझे लगता है मिल बांटकर खाने की जो परंपरा हमारे गावों में है उसकी ही यह एक मिसाल है।
पिरामिड स्क्वैयर से करीब 2 किलोमिटर आगे रोमा आस्टीऐजी लेन के समीप इस खुले बाजार में मदहोश करने वाला म्यूजिक चल रहा है और पास में ’काफी हाउस‘ स्टाइल में ट्रेड यूनियन का खुला प्लेटफार्म है जहां अमेरिका, ईराक, लेबर सभी पर बहस हो रही है।
इटली में लेबर आंदोलन मजबूत रहा तथा दूसरी ओर रोमन राजाओं और धर्मगुरूओं के दबाव से पुरातनपंथी शक्तियां भी उतनी ही शक्तिशाली हैं। मुसोलिनी के देश में, पोप के वेटिकन जाने वालों की संख्या 10 प्रतिशत से कम है। वेटिकन दुनिया के ईसाइयों को भले ही अपनी और आकर्षित करता हो परंतु स्थानीय स्तर पर चर्च जाने से लोग कतराते हैं। वेटिकन में बिना चुन्नी के, स्लीवलैस टाॅप और हाफ पैंट पहनकर आने की साफ मनाही है, मैं अपनी सहयोगी बारवरा को चिढ़ाते हुए कहता हूं कि उसकी एण्ट्री वेटिकन में प्रतिबंधित है ताकि भगवान उत्तेजित न हो सकें। वैसे हमारी परम्पराओं में महिलाओं को इन्द्र से लेकर अनेक अय्याश भगवानों की सभाओं में नृत्य करते अक्सर दिखाया गया है लेकिन संतई दिखाने वाले हमें बड़े-बड़े ज्ञान देंगे परंतु खुलेपन के बावजूद भी रोम में कैथोलिक महिलाओं में लड़को के प्रति आकर्षण है। यहां सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट प्रतिबन्धित नहीं है क्योंकि हमारी तरह लड़कियों को गर्भ में मारने का रिवाज इधर नहीं है परंतु रोम की महिलाएं अपने लड़कों को अधिक तरजीह देती हैं। जब सोनिया ने राहुल को राजनीति में आगे किया तो मुझे इस बात का अंदाजा हुआ कि ये परंपरायें दोनों देशों में समान है। वैसे हम इस खुलेपन में इटली का मुकाबला नहीं कर सकते क्योंकि सड़कों पर लड़कियों का प्रतिशत अधिक है।
इटली के लेबर मुवमेंट का पता इस बात से चल जाता है कि यहां की सड़कों, रेलवे स्टेशनों और ट्रेनों में नारेबाजी खूब होती है। पिछले पचास वर्षों में इटली में 55 से अधिक प्रधानमंत्री हुए हैं। यहां ट्रेनों और स्कूलों की बिल्डिंगें नारे लिखने वालों ने खराब की हुई हैं। यूरोप के दूसरे देशों में इतनी बूरी हालत नहीं है इस वक्त इटली में कार्पोरेट का दबदबा है और वहां का प्रधानमंत्री देश का सबसे बड़ा उधोगपति भी है, हलांकि वहां खुलेपन की नीति पहले से ही अपनाई गई परंतु यूरोपीय संघ में मिलने और यूरो की स्वीकार्यता की कीमत इटली को अधिक चुकानी पड़ी क्योंकि अर्थव्यवस्था का हाल बूरा था। इटली की अधिकृत मुद्रा लीरा थी जो बहुत ही बुरी हालत में थी। एक रूपये की कीमत लगभग 1500 लीरा हुआ करती थी, अचानक से यूरो के आने के फलस्वरूप कीमतों में बेतहासा वृद्धि हुई है।
रोम की खूबसूरती उसकी परम्पराओं में आधुनिकता का समावेश करके और बढ़ जाती है। यहां भी मार्केट या नई ईमारत बनने से पूर्व इतिहास मंत्रालय की अनुमति लेनी पड़ती है, और रोम की इतिहास को देखते हुए यहां ये कार्य मुश्किलों भरे हैं। आखिर रोम पेरिस और लंदन की तरह इतिहास की एक महत्वपूर्ण गवाह रहा है और ऐतिहासिक स्थलों और इमारतों की बचाव की बात नहीं होती तो हम केवल आधुनिक कांक्रीट होंगे। यूरोप के किसी भी शहर में इतिहास के प्रति लगाव की बात देखी जा सकती है जो हमारे पास नहीं है। हमारी ऐतिहासिक इमारतों में ’ मीना लव रिकू‘ या ’आई लव यू‘ जैसे बेहूदगी के नजारे मिलेगें जो ऐतिहासिक स्थलों के प्रति हमारे नजरिये को बताती हैं। असल में हमलोग ईमारतों की ऐतिहासिकता को देखने नहीं प्रेम करने की जगह ढूंढने इन स्थानों पर जाते हैं, और अब तो आधुनिकता पुरातत्व और ऐतिहासिकता को विस्थापित कर रही है। इस सन्दर्भ में यूरोप से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
इटली अपने फैशन के लिए मशहूर है, रोम, पेरिस, लन्दन में फैशन का पागलपन है लेकिन रोम में यह पागलपन अधिक दिखाई देती है। दोपहिया गाड़ियों के अलग-अलग मॉडल और उसमें बैठे अजीबोगरीब मोड्यूल आपको सोचने को मजबूर करते हैं कि यदि सबकुछ मिल गया तो बचा क्या। क्या अर्थतंत्र के सहारे ही जिन्दगी है। लेकिन इटली की एक पीढ़ी इस बेलगाम दौड़ को अच्छा नहीं मानती।
ल्यूचिया बताती हैं कि कैसे आफिसों में ऐसी लड़कियां बढ़ रही हैं जिनके तन पे बिल्कुल कम कपड़े हो। सप्ताहान्त में ऐसी पार्टियां होती हैं जो सी-बीच या स्विमिंग पूल में आयोजित होती है। मतलब बिल्कुल साफ है कार्पोरेट का संसार अब जिंदगी को और रंगीन मिजाज बना रहा है और उसमें अपने कार्यकर्ताओं का सहयोग भी चाहता है। ल्यूचिया बहुत मेहनतकश महिला है। अपनी मां का वह अभी भी ख्याल रखती है, हलांकि उनका घर रोम से बहुत दूर है। पिछले वर्ष वह बहुत परेशान रहती थी, उसके दिल में एक दर्द था। मैनें पूछा ल्यूचिया तुम परेशान नजर आती हो क्या बात है? ल्यूचिया ने बताया कि उसका 18 वर्षीय बेटा आवारागर्दी करता है, हमेशा गुस्से में रहता है, घर में देर रात आना वैसे भी रिवाज है। फिर अपने पति की ओर से भी वह बेहद परेशान थी। इस वर्ष जब मुलाकात हुई तो वह खुश नजर आ रही थी। मैनें पूछा ल्यूचिया तुम्हारा बेटा कैसा है, तो वह बोली ’आजकल मेहनत कर रहा है, वैसे वह अपनी कक्षा में असफल हो गया था परंतु आजकल उस पर ’पेरिस‘ घुमने का जुनून सवार है अतः वह उसकी खातिर मेहनत कर रहा है। ल्यूचिया ने अपने पति से सम्बन्ध विच्छेद कर लिए और वह खुश है। वैसे यूरोप में ऐसी घटनाओं पर कोई खास बहस नहीं होती लेकिन ल्यूचिया अपने देश में बढ़ते भौतिकवाद से परेशान है। वह कहती है कि तुम हिन्दुस्तानी रिश्तों में इतना यकीन करते हो और हम भौतिकवाद में। इस भौतिकवाद का अंत आवश्यक है क्योंकि यह अपनी पराकाष्ठा को पार कर चुका है। जवानी में मस्ती छाती है और आखिर में अकेलापन काटने को दौड़ता है।
[bs-quote quote=”इटली अपने फैशन के लिए मशहूर है, रोम, पेरिस, लन्दन में फैशन का पागलपन है लेकिन रोम में यह पागलपन अधिक दिखाई देती है। दोपहिया गाड़ियों के अलग-अलग मॉडल और उसमें बैठे अजीबोगरीब मोड्यूल आपको सोचने को मजबूर करते हैं कि यदि सबकुछ मिल गया तो बचा क्या। क्या अर्थतंत्र के सहारे ही जिन्दगी है। लेकिन इटली की एक पीढ़ी इस बेलगाम दौड़ को अच्छा नहीं मानती।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
ल्यूचिया के बातों में वाकई दम है, रोम में रेस्टोरेन्ट या पार्टियों में कभी आप बैठिये तो जहां युवा मदमस्त हैं वहीं कोने में आपको कोई बुजुर्ग अकेले में मदिरा पान करती दिखाई देगी और यदि आप उनके साथ बैठने की बात कहें तो बहुत गर्म जोशी से आपका स्वागत करेंगे। उनकी युवाओं से कोई शिकायत नहीं होती क्योंकि अपनी जवानी में वे भी ऐसा ही किये थे लेकिन कुरेदने पर उन्हें भी लगता है रिश्तों में मजा है। हलांकि इटली, फ्रांस और जर्मनी में रिश्ते अभी भी मजबूत हैं लेकिन हमारी तरह नहीं जहां मां-बाप अपने बच्चे के भविष्य का हर फैसला खुद करते हैं और उसे हमेशा छोटे बच्चे की तरह देखते हैं यूरोप में मां-बाप अपने बेटे-बेटी की शारीरिक आवश्यकताओं और व्यक्तिगत जिंदगी को समझते हैं और इसलिए 16 वर्ष के बाद ज्यादातर बच्चे अपने इंतजाम स्वंय करते हैं। पवित्रता के भारतीय परंपरा के ठीक उल्टे यहां लड़के-लड़की के रिश्ते अपनी आवश्यकतानुसार बदलते रहते हैं। और शायद यही कारण है कि स्त्री हिंसा, बालात्कार, भ्रुण हत्या जैसी घटनायें इधर कम है।
रोम आने से पूर्व वियाना में मैं एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाइट का इंतजार कर रहा था तो एक भारतीय परिवार अपनी अपनी दूसरी फ्लाइट के इंतजार में था। महिला के साथ उसकी 4 वर्षीय छोटी बेटी और लगभग सात वर्ष का बेटा था। मां ने बेटे को बिस्कुट का पेकेट दिया और उसमें से एक बिस्कुट निकाल कर बेटी को दे दिया। मां ने तो वह किया जो हमारे देश में अधिकांश घरों में होता हैं और जिसे कभी भी आश्चर्य नहीं माना जाता। परंतु यहां छोटी बच्ची ने कोहराम खड़ा कर दिया लेकिन मां की हिम्मत नहीं हुई कि उसे बिस्कुट का दूसरा पैकेट दे दे या बड़े बच्चे से लेकर बराबर दे सके। पड़ोस में बैठी एक आस्ट्रियन महिला ने पास जा कर दोनों बच्चों को एक-एक चाकलेट दिया और चुप कराया। बच्ची कुछ देर चुप रही लेकिन फिर रोने लगी और उसकी मां उस पर गुस्सा किये जा रही थी, आस्ट्रियन महिला की समझ में तो नहीं आया लेकिन मेरी समझ में आ गया था कि पंजाब में लड़के-लड़कियों में इतना अंतर क्यों? टोरंटो और लंदन में भांगड़ा करने और अपने धन और वैभव का पूर्ण प्रदर्शन करने के बाद भी भारत के नव धनाढ्य वर्ग की सोच में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं दिखाई दिया ये बात मुझे दुख देती है। अपनी संस्कृति का खूब शोर करने के बाद हम जेन्डर बराबरी में यकीन नहीं करते, यह एक शर्मनाक बात है।
[bs-quote quote=”वापस आते वक्त वियाना में वहीं ’प्रर्दशन‘ करने वाले एक भारतीय परिवार को दो अलग-अलग सीटें मिल गई। दो पति-पत्नी मध्य में और दोनों की पत्नियां विंडो सीट चाहती थी, पति महोदय जुगाड़ में लग गये और अकेले या दुकेले लोगों की तलाश हुई। एक स्मार्ट से लड़की पर नजर गई तो उसने साफ तौर पर इंकार कर दिया। मेरे आगे एक सज्जन थे जो पहले तो तैयार हो गये पर अचानक उन्हें ख्याल आया कि जो सीट उन्हें मिल रही है वहां खुब बच्चे हैं तो उन्होनें अपना इरादा छोड़ दिया ’’नहीं जी मुझे नहीं जाना, वहां बच्चे हैं और मुझे बच्चों से सख्त नफरत है।‘‘” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
रोम के मेट्रो लोरियेटीन में मुझे एक भारतीय मिले और मेरे साथ एक काली और दो गोरी महिलाओं को देख मन ही मन जलने लगे। वह मेरी पूरी हिस्ट्री जानना चाहते थे और जिस तरह से वह इन महिलाओं को देख रहे थे वह उनके इरादों और तौर-तरीकों को दिखा रहा था। अपने को मुम्बई का बताकर उन्होनें मुझसे पूछा क्या पंजाबी हो? मुझे एक दूसरे देश में पहली ही बार में ऐसे दुस्साहस करने वालों से सख्त नफरत है, खैर मैनें उनको टरकाया और अपने स्टेशन पिरामिड में उतर उनसे विदा ली।
लाॅरटीना स्टेशन पर एक और भारतीय से मुलाकात हुई जो एक खुली दुकान में इलैक्ट्रानिक सामान बेच रहा था, ’नो डिस्काउन्ट सर‘ उसने कहा, मुझे लगा श्री लंका से है लेकिन बाद में उसने बताया कि वह नोएडा से है। और फिर मुझसे बोला कि अगर आप अक्सर इटली आते हैं तो मेरे एक रिश्तेदार को लेते आइए, मैनें कहा धन्यवाद, हम भारतीय जुगाड़ लगाने में माहिर हैं लेकिन यह नहीं समझते की कई बार अधिक उस्तादी चलती नहीं।
वापस आते वक्त वियाना में वहीं ’प्रर्दशन‘ करने वाले एक भारतीय परिवार को दो अलग-अलग सीटें मिल गई। दो पति-पत्नी मध्य में और दोनों की पत्नियां विंडो सीट चाहती थी, पति महोदय जुगाड़ में लग गये और अकेले या दुकेले लोगों की तलाश हुई। एक स्मार्ट से लड़की पर नजर गई तो उसने साफ तौर पर इंकार कर दिया। मेरे आगे एक सज्जन थे जो पहले तो तैयार हो गये पर अचानक उन्हें ख्याल आया कि जो सीट उन्हें मिल रही है वहां खुब बच्चे हैं तो उन्होनें अपना इरादा छोड़ दिया ’’नहीं जी मुझे नहीं जाना, वहां बच्चे हैं और मुझे बच्चों से सख्त नफरत है।‘‘
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि भारतीय जब अपने देश के लोगों के पल्ले पड़ते हैं तो उनके जुगाड़ फेल हो जाते हैं। जरूरत से ज्यादा चतुराई ठीक नहीं होती ’भारतीयों को अपने सोच में खुलापन लाना होगा‘ कमीनेपन से बचना पड़ेगा और यह मानकर चलना होगा कि कोई यदि कुछ कहता नहीं तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वह जानता नहीं। खुले दिल के लोग कहीं भी चल जाते हैं और सबको अपना बनाते हैं लेकिन अपने लिए स्पेशल ट्रीटमेंट की आदतों वालों को यूरोप पसंद नहीं आयेगा उनके लिए तो दिल्ली की अफशरशाही अच्छी जो एयरपोर्ट पहुंचकर उनको पिछले दरवाजे से बाहर निकलवा देती है। लेकिन इस सारी प्रक्रिया में हमारी प्रतिबद्धता और क्षमता पर ही असर पड़ता है। जो भारतीय अपनी परंपराओं में खुलापन लाये वो आज आसमान पर छाये हुए हैं। और आज दुनिया उनका लोहा मानती है। इटली की इस यात्रा से मुझे उनकी और अपनी परंपराओं का तुलनात्मक अध्ययन करने में मजा आया और उम्मीद है ये संस्मरण हमारे समाज को मजबूत करेगा।
विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।
काफी ज्ञानवर्धक और समाज संस्कृति के सभी पहलुओं को समेटकर लिखा गया यात्रा वृतांत। खानपान की आदतों को भी चिन्हित करने के बाद रोम देखने की इच्छा हो रही है । वृतांत को भारत के संदर्भ और भी रोचक बना रहे हैं।