अक्टूबर माह में अपनी तीन पसंदीदा फ़िल्में देखने को मिलीं इजाज़त, अर्थ और आखिर क्यूँ। रेखा, स्मिता पाटिल और शबाना आजमी के बेहतरीन अभिनय से ये फ़िल्में बेहद महत्वपूर्ण और दर्शनीय बन जाती हैं। सत्तर और अस्सी के दशक के समानांतर सिनेमा या आर्ट फिल्म्स (न्यू वेव सिनेमा) ने सिनेमा को एक नया आयाम दिया। इन अभिनेत्रियों ने कई फिल्मों में प्रभावशाली अभिनय किया। उनकी भूमिकाओं को आज भी सम्मान से याद किया जाता है। ये अभिनेत्रियाँ कभी भी रिस्क लेने से पीछे नहीं हटीं और बोल्ड तथा नये और प्रयोगात्मक विषयों पर बनी फिल्मों में डटकर काम किया। आर्ट फिल्मों के साथ ही व्यावसायिक सिनेमा की बड़ी हिट फिल्मों में भी इन तीनों अभिनेत्रियों ने काम किया। भारतीय सिनेमा की इन तीन नायिकाओं में से सबसे पहले शबाना आज़मी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर मैं बात करना चाहता हूँ-
भारतीय सिनेमा की मेरिल स्ट्रीप शबाना आजमी
शबाना आज़मी मेरी पसंदीदा अभिनेत्री हैं. नवम्बर 2021 के प्रथम सप्ताह में उनकी फिल्म अर्थ देखा तो उनकी फिल्मों के बारे में कुछ लिखने का मन हुआ। संपदा शर्मा (2021) इंडियन एक्सप्रेस में शबाना जी को भारतीय सिनेमा की सबसे वेर्सेटाइल अभिनेत्री मानते हुए उन्हें बॉलीवुड की मेरिल स्ट्रीप कहती हैं। स्ट्रीप अमेरिकन अभिनेत्री हैं जो अपनी पीढ़ी की सबसे प्रतिभाशाली अभिनेत्री मानी जाती हैं क्योंकि वे किसी भी किरदार में इस तरह बस जाती हैं कि सब कुछ वास्तविक सा लगने लगता है। उन्हें बहुत सारे पुरस्कार और सम्मान भी मिले हैं। सन 1970 के दशक में जब समानांतर सिनेमा आन्दोलन के फिल्मकार छोटे बजट की मुद्दा आधारित यथार्थवादी फ़िल्में बना रहे थे उसी दौर में सन 1974 में शबाना आज़मी ने अंकुर फिल्म से हिंदी सिनेमा की समानंतर श्रेणी की फिल्मों पदार्पण किया। शबाना आज़मी ने तत्कालीन नव यथार्थवादी फिल्मों में काम करके खूब नाम कमाया और एक संजीदा अभिनेत्री की पहचान बनाई। अपनी पहली ही फिल्म अंकुर के लिए शबाना को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। शबाना आज़मी ने अपनी प्रतिभा के दम पर समानांतर और मुख्य धारा के फिल्मों के बीच खिंची लकीर को पाटते हुए बेझिझक और सफलतापूर्वक काम किया. उन्होंने फकीरा में शशि कपूर, अमर अकबर एंथनी में विनोद खन्ना और परवरिश फिल्मों को काम बॉलीवुडीया लटके झटके वाले रोल किये और पेड़ों के इर्द-ग्रिद नाचने गाने का काम किया। 1980 के दशक में उन्होंने एक से बढ़कर एक समानांतर फिल्मों जैसे मासूम, मंडी, अर्थ में काम किया। राजेश खन्ना के साथ व्यावसायिक फिल्म अवतार में काम करते हुए उन्होंने चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है’ गीत गाया और थोड़ी सी बेवफाई ‘आँखों में हमने आपके सपने सजाये हैं’ जैसे गीत में ग्लैमरस रोल किया। उनकी प्रमुख फिल्मों के संक्षिप्त विवरण अगले पृष्ठों में प्रस्तुत हैं। अंकुर (1974) शबाना आज़मी की इस पहली फिल्म के निर्देशक श्याम बेनेगल जैसे शानदार व्यक्ति और फिल्मकार थे। भारतीय जातीय और सामन्तवादी समाज व्यवस्था में निचले स्तर की पिछड़ी और कमजोर जातियों में अपने शोषण के विरुद्ध खड़े होने की आहट इस फिल्म में मिलती है।आगे चलकर शबाना जी ने श्याम बेनेगल के साथ मंडी, निशांत और जुनून फिल्मों में काम किया और ये सभी फ़िल्में हिंदी सिनेमा के इतिहास में विशिष्ट स्थान रखती हैं।
शतरंज के खिलाड़ी (1977) मुंशी प्रेमचन्द की कहानी शतरंज के खिलाड़ी के फ़िल्मी रूपान्तरण और इसी नाम से बनी फिल्म का निर्देशन सत्यजीत रे ने किया था। इस फिल्म में शबाना आज़मी ने एक उपेक्षित बेगम खुर्शीद की शानदार और यादगार भूमिका की थी. फिल्म के उस दृश्य को देखिये जब दो नवाबजादे देर रात शतरंज का खेल खेलने में मशगूल हैं और घर में जवान बेगम अपने शौहर का इंतज़ार कर रही है। वह अपनी नौकरानी हिरिया से दो बार बुलावा भेजती है और नौकरानी अवधी भाषा में कैसे नवाब साहब को अंदर आने का संदेशा देती है, ‘सरकार-हुजुर आपका दुल्हन बेगम बुलाई है’। लखनऊ के नवाबों का मुजरा सुनने और कोठे पर जाने का शौक दुनिया भर में मशहूर है। अंग्रेज लखनऊ पर आक्रमण करके अवध पर कब्जा करने आ रहे हैं तब भी वाजिद अली शाह (अमज़द खान) के दो अमीर मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली बेफ़िक्र (संजीव कुमार, सईद जाफरी) होकर दिन-रात शतरंज खेलने में मस्त हैं। बेगम लोग अपने शौहरों की इन आदतों से इतनी दुखी हैं कि यहाँ तक कहती हैं कि, ‘घर में रहकर शतरंज खेलने से अच्छा था कि कोठे पर पड़े रहते थे, कम से कम यह यकीन तो रहता था कि रात को घर नही लौटेंगे अब तो यहाँ घर पर रहकर भी नही मिलते और दिन रातअहमकों का खेल खेलते रहते हैं’।’ अंग्रेज अवध पर कब्जा कर लेते हैं तब शतरंज अंग्रेजी अंदाज में खेला जाने लगता है जिसमे खेलने वाले आमने-सामने नहीं रहते. यह फिल्म भारत के तत्कालीन लापरवाह, आत्मकेन्द्रित ऐयाश शासकों के चरित्र को सामने लाती है जो मुट्ठी भर अंग्रेजों के सामने कायरतापूर्वक समपर्ण कर देते हैं।
शबाना उन भाग्यशाली अभिनेत्रियों में हैं जिन्होंने सत्यजीत रे जैसे फिल्मकार के साथ किया है. सत्यजीत रे शबाना आज़मी के बारे में कहते हैं : ‘Her poise and personality are never in doubt. In two high pitched scenes, she pulls out the stops to firmly establish herself as one of our finest dramatic actresses’. (1980) फिल्म में शबाना ने अपने पसंदीदा अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के साथ काम किया था। एक दृष्टिबाधित प्रिंसिपल और अध्यापक की भूमिका में वे दोनों एक दूसरे से लड़ते झगड़ते पारस्परिक प्रेम की तलाश करते रहते हैं। यह फिल्म दुनिया में आपसी सम्बन्धों, भावनात्मक और धारणात्मक भेदों को स्पष्ट करती है।
अर्थ (1982) फिल्म की पूजा (शबाना आज़मी) एक अनाथ लड़की है जिसका सिर्फ एक ही सपना है कि उसका खुद का अपना घर हो। जब एक दिन अचानक उसका पति इंदर नए घर की चाबी सौंपता है तो उसे यकीं ही नहीं होता। उसके पति के इतने पैसे कहाँ से मिलते हैं पूछने पर वह टाल जाता है। वह एक अन्य अमीर महिला कविता (स्मिता पाटिल) के प्यार में पड़ जाता है। कविता एक फिल्म अभिनेत्री है और इन्दर उसके साथ ही काम करता है और पैसे कमाता है। पूजा की नौकरानी का पति शराबी है किसी अन्य महिला के साथ सम्बन्ध रखता है और आये दिन उसको पीटता रहता है तो उसे सलाह देती रहती है लेकिन बाद में खुद ऐसी ही परिस्थिति में फंस जाती है। वह घर छोड़कर महिलाओं के हॉस्टल में रहने चली जाती है। बुरे दिनों में राज (राज किरन) उसकी मदद करता है. पूजा और राज अच्छे मित्र बन जाते हैं। राज पूजा से शादी करना चाहता है लेकिन वह दुबारा किसी बंधन में बंधना नही चाहती. कविता मनोरोग की बीमारी और असुरक्षा की भावना से बीमार होती चली जाती है। पूजा की मेड अपनी एकमात्र बेटी को पढ़ा लिखाकर एक अच्छा नागरिक बनाना चाहती है। घरों में झाड़ू-पोछा करके स्कूल फीस के लिए उसने एक हजार रूपये बचाए हैं जिसे उसका शराबी पति चुरा लेता है जो दूसरी महिला के पास नशे में धुत मिलता है। अपने शराबी और दुराचारी पति की हत्या करके वह खुद पोलिस स्टेशन में सरेंडर कर देती है। उसे अपने बेटी के भविष्य की चिंता खाए जाती है। खुद परेशान हाल और टूटी हुई पूजा को जीवन जीने का जैसे मकसद मिल जाता है। वह अपनी नौकरानी की बेटी के भविष्य को संवारने में जीवन का अर्थ दिखने लगता है। पूजा अपने अच्छे सहयोगी पुरुष मित्र राज के विवाह और साथ जीने के प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकराकर खुद की तय की हुई स्वावलंबी और स्वाभिमान की राह पर चल पड़ती है. वह अपनी तरह किसी दूसरी बेटी को अनाथालय में नहीं जाने देना चाहती जहाँ इंदर जैसे पुरुष मजबूरी का फायदा उठाकर उसका जीवन बर्बाद कर दें। ऐसा निर्णय एक मजबूत महिला ही ले सकती है और मेरा मानना है कि रील लाइफ में पूजा और रियल लाइफ में शबाना दोनों ही सेल्फ मेड मजबूत इरादों वाली महिला हैं।
अर्थ फिल्म इस अर्थ में सार्थक फिल्म है कि आरम्भ में अपनी हर जरुरत के लिए पति पर निर्भर और पति द्वारा छोड़े जाने पर रोने वाली पूजा एक कमजोर महिला से आत्मनिर्भर और अकेले जीवन जीने का दृढ़ संकल्प लेने वाली सशक्त महिला बनने की कहानी हैं. मोहन राकेश कृत आषाढ़ का एक दिन के कालिदास की तरह जब फिल्म का नायक इन्दर मल्होत्रा वापस पूजा (शबाना) के पास आकर फिर से नया जीवन शुरू करने की बात करता है तो नायिका उसे दुबारा मौका नहीं देती। अपने जन्मदिन के दिन पति से तलाक पाकर जब दोस्त के घर आँखों में आंसू लिए वह केक काटने पहुंचती हैं तो आँखों में दुःख के आंसू और होंठों पर ओढ़ी हुई मुस्कान देखकर उनका दोस्त गाता है तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिसे छुपा रहे हो। भारतीय हिंदी सिनेमा के रुपहले परदे पर उकेरा गया यह दो परस्पर विरोधी भावों के समन्वय का यह अद्भुत दृश्य है जिसे शबाना जी ने अपने भावप्रवण अभिनय से जीवंत कर दिया है।
मंडी (1983) श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित फिल्म है जिसमें शबाना आज़मी एक वेश्यालय चलाने का काम करती हैं. वह एक साहसी हैदराबादी महिला है जिसकी परदे पर मौजूदगी मुख्य आकर्षण ह। यह फिल्म पाकिस्तानी उर्दू लेखक गुलाम अब्बास की कहानी आनंदी पर आधारित यह राजनीतिक व्यंग्य फिल्म है। इसी साल सन 1983 में शबाना आज़मी और नसीरुद्दीन शाह अभिनीत एक और महत्वपूर्ण फिल्ममासूम (1983) रिलीज हुई। एक धोखा खायी हुई पत्नी और दो बेटियों की माँ और सौतन के बेटे की अपने घर में मौजूदगी के बीच जिस तरह कशमकश भरी अदाकारी शबाना की वह लाजवाब है। मासूम और अर्थ दोनों फिल्मों में उनका नाम इंदु है और दोनों ही फिल्मों में उन्होंने पति पत्नी के रिश्ते में धोखा खायी स्त्री की भूमिका को बखूबी जिया है। मासूम फिल्म के क्लाइमेक्स पर एक महिला के अंदर छिपी माँ और क्षमा कर देने का बडप्पन दिखाकर पश्चाताप में जी रहे अपने पति को फिर से अपना लेने का भाव उन्होंने परदे पर बखूबी प्रस्तुत किया है। शबाना निजी जीवन से लेकर फिल्मों तक बोल्ड निर्णय लेने के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने जब सन 1996 में दीपा मेहता की फिल्म फायर में नंदिता दास की जेठानी की भूमिका निभाने का निर्णय लिया जो कि बहुत ही विवादास्पद रहा। अकेली और उपेक्षित महिला का समलैंगिक रिश्ते में शामिल होने का निर्णय वाकई बहुत साहस का काम था। हॉलीवुड की फिल्म गॉडफादर को तो सभी जानते हैं लेकिन बॉलीवुड में जब गॉडमदर बनाने की बारी आई तो उसकी ज़िम्मेदारी शबाना आज़मी ने अपने कन्धों पर ली। यह फिल्म संतोकबेन जडेजा की जीवनी पर बनाई गयी थी जो एक माफिया से राजनेता तक का सफ़र तय करती है। अपने स्पष्टवादी विचारों और बोल्ड व्यक्तित्व के लिए जानी जाने वाली शबाना आज़मी जी ने एक दबंग महिला की भूमिका के साथ पूर्णतः न्याय किया।
मकड़ी (2002) फिल्म में उन्होंने पहली बार बच्चों को डराने का काम किया तो मार्निंग रागा (2004) फिल्म में एक गायिका की भूमिका की जिसमे वास्तविक दिखने के लिए बाकायदा संगीत सीखा। राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्म 15 पार्क एवेन्यू (2005) में शबाना आजमी (अंजलि) ने सिजोफ्रेनिया से पीड़ित अपनी बीमार बहन के दर्द को जिस गम्भीरता और संवेदनशीलता से परदे पर उतारा उसे दर्शकों और समीक्षकों ने बहुत सराहा. 5 सितम्बर 1986 को कराची में प्लेन हाईजैक की घटना पर बनी फिल्म नीरजा में शबाना आज़मी ने एयर होस्टेस नीरजा भनोट की माँ की भूमिका की थी। आतंकवादियों द्वारा अपहरण किये गए प्लेन पर एक माँ की बेटी के फंसे होने पर किस तरह के डर और भरोसे के विचारों का उहापोह उसके मन में चलता है इसे बखूबी शबाना जी ने परदे पर प्रस्तुत किया है। फिल्म के अंतिम दृश्य में जिस तरह वे अपनी शहीद बेटी के बारे में अपनी बात रखती हैं वह अभिनय क्षमता की उनकी उंचाई को प्रदर्शित करता है. जज्बा (2015) फिल्म में ऐश्वर्या राय ने दुबारा परदे पर जब इरफ़ान खान के साथ वापसी की तो शबाना भी एक बच्ची की माँ की भूमिका में थीं और राय को जबर्दस्त टक्कर दी. अपनी बेटी के साथ हुए अन्याय का बदला लेने के लिए गरिमा चौधरी (शबाना), शहर की मशहूर क्रिमिनल लायर अनुराधा वर्मा (ऐश्वर्या राय) की बेटी का सनाया (सारा अर्जुन) अपहरण कर लेती है. अनुराधा वर्मा केस लड़कर गुंडों को कोर्ट से बरी करवा देती हैं. अपनी बेटी के रेप और मर्डर का बदला अपने हाथों से लेने के लिए गरिमा यह काम कराती है फिर उन्हें खुद सजा देती है। इस फिल्म में शबाना की भूमिका शोले फिल्म के ठाकुर से मिलती जुलती है जो गब्बर को खुद मारना चाहते हैं और इस काम के लिए दो पेशेवर अपराधियों की मदद लेते हैं। इकहत्तर साल की उम्र में शबाना आज़मी ने द एम्पायर (2021)फिल्म में मुगल बादशाह बाबर की दादी इसान दौलत (शाह बेगम) के रोल में अपने दमदार अभिनय से फिर प्रभावित किया।
राजनीतिक और सामाजिक भूमिकाएँ
फिल्मों से अलग उनके व्यक्तित्व के कई अन्य पहलू भी हैं. राज्यसभा सांसद रहते हुए लखनऊ के निशातगंज में पेपर मिल कालोनी में उन्होंने अपने शायर पिता कैफ़ी आज़मी की याद में इस अकादमी का निर्माण कराया था. संयोगवश लखनऊ के कैफ़ी आज़मी अकादमी के सभागार में 17 दिसम्बर 2017 में मेरे पहले कविता संग्रह नदियाँ बहती रहेंगी का विमोचन हुआ था। इस अकादमी में सभागार, नाट्य अभिमंच और एक शानदार पुस्तकालय भी स्थापित किया गया है। शबाना आज़मी ने आजमगढ़ जनपद स्थित अपने पैतृक गाँव मेजवा में निजी संस्था (एनजीओ) ‘मेजवा वेलफेयर सोसाइटी’ की स्थापना करके महिलाओं को स्वावलंबी बनाने हेतु चिकनकारी केंद्र, बच्चों के लिए स्कूल और कम्प्यूटर सेण्टर स्थापित किए हैं. नियमित अंतराल पर वह अपने गाँव जाकर इन कार्यों की प्रगति सुनिश्चित कराने का काम करती रहती हैं।
मुंबई शहर में भी वह गृहविहीन लोगों के लिए वह काम करती हैं और अपने कद का उपयोग उनके हित में करती हैं। शबाना जी के लिए कला का उदेश्यपूर्ण होना आवश्यक है। कला कला के लिए’ सिद्धांत में उन्हें यकीन नहीं है। वह फिल्म अभिनेत्री के साथ, स्टेज कलाकार, एक्टिविस्ट और राजनीतिक चेतनासंपन्न व्यक्तित्व हैं। वह संवाद में विश्वास रखने वाली महिला हैं। पिता शायर और गीतकार थे, पति जावेद अख्तर भी शायर, गीतकार और संवाद लेखक हैं घर में बचपन से ही साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक माहौल मिला. हिंदी-उर्दू और अंग्रेजी पर उनकी अच्छी पकड़ है जो उन्हें अपनी बात को राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय मंचो पर रखने में मदद करती है। हैबेरमॉस कहते भी हैं कि अधिक भाषाएं जानने वाले लोग बेहतर संवाद कर पाते हैं। अमिताभ बच्चन की तरह वे भी अपने पिता की क्रांतिकारी कवितायें पढ़ती रहती हैं। समाज में महिलाओं के बराबरी के हक की बात करती हुई कैफ़ी आज़मी की नज्म है ‘उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे, तुझमे शोले भी हैं, बस अश्क की निशानी ही नहीं, तू हकीकत भी है, दिलचस्प कहानी ही नहीं, तेरी हस्ती भी है एक चीज, जवानी ही नही’. शबाना आज़मी इस नज्म की प्रेरणा से अपने और अन्य महिलाओं के बेहतरी और बराबरी के लिए काम करती रहती हैं।
समकालीन मुद्दों पर बेबाक समझ और पहलकदमी
शबाना फिल्मों के अलावा देश के राजनीतिक मुद्दों, साम्प्रदायिक मामलों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर खुलकर अपने विचार रखे है। कला और समानांतर सिनेमा से लेकर पूर्णतः व्यावसायिक फिल्मों में उन्होंने काम किया, नाम और सफलता अर्जित की। इस सम्बन्ध में उनका कहना है कि भारत में एक समय में ही 18 वीं, 19 वीं, बीसवीं, और इक्कीसवीं सदी के सोच वाले लोग रहते हैं। अपने देश में सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई विविधता इतनी ज्यादा है कि लोग सभी तरह के विरोधाभासों को स्वीकार कर लेते हैं। सन 2016 में सिल्वरथ्रोन ने हॉवर्ड बिजनेस स्कूल के लिए शबाना आज़मी पर केन्द्रित एक इंटरव्यू में रोहित देशपांडे से बातचीत करते हुए उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को सामने लाने का काम किया। उनके माता-पिता दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय थे। घर में राजनीतिक माहौल था इसलिए देश-समाज के विभिन्न मुद्दों के बारे में शबाना जी की अपनी समझ विकसित हुई जो उनके विचारों और कार्यों में दिखती है। संसद सदस्य रहने के दौरान उन्होंने नेशनल स्लम पालिसी बनाने, महिलाओं के विरुद्ध घरेलू हिंसा सम्बन्धी कानून, और जनसँख्या पर बहस में अपने विचारों को स्पष्टता से रखने का काम किया क्योंकि वे ग्रासरूट पर इन मुद्दों से वह जुड़कर काम करती रही हैं।
सिल्वरथ्रोन सीन शबाना आज़मी के बारे में लिखते हैं कि जब लोग सत्तर की उम्र के बाद रिटायर होने का प्लान करते हैं आज़मी इस उम्र में पूरी तरह से फिल्मों और सामाजिक जीवन में सक्रिय हैं। वे ‘एंटनी एंड क्लियोपैट्रा’ से एक वाक्यांश उधृत करते हैं जो उनके उपर बिलकुल फिट बैठती है: ‘age cannot wither her, nor custom stale her infinite variety’. उम्र से बेपरवाह वे अपने अंदाज से खूब लम्बी जीती रहें और काम करती रहें हमारी यही दुआ है. अपनी पहली फिल्म अंकुर (1974) से गॉडमदर (1999) और द एम्पायर तक वे पिछ्ले चालीस साल से सार्वजनिक जीवन और फिल्मों में सक्रिय हैं जिसके लिए उन्हें पांच राष्ट्रीय पुरस्कार सहित ढेरों सम्मान मिले हैं जो उनके कठिन परिश्रम, लगन, निष्ठा और प्रतिभा के संयुक्त प्रतिफल हैं।