रसोइया कहने के लिए तो सरकारी विद्यालय में काम करती हैं किंतु उनका मानदेय दैनिक मजदूरी से भी काफी कम होता है। परिषदीय विद्यालयों में मध्यान्ह भोजन योजना के तहत बच्चों को पका पकाया भोजन मिलता है, जिसकी संपूर्ण जिम्मेदारी रसोइयों की होती है। उनकी नियुक्ति हर वर्ष दस महीने के लिए ग्राम प्रधान और प्रधानाचार्य के सहमति से होती है। उनकी जिम्मेदारी बच्चों को खाना बनाने से लेकर खिलाने और बर्तन धोने तक की होती है। चूँकि परिषदीय विद्यालयों में कोई अतिरिक्त चपरासी नहीं होता है इसलिए व्यावहारिकता में प्रधानाचार्य उनसे स्कूल के कमरों, डेस्क, बेंच एवं कुर्सी- मेज की साफ-सफाई एवं झाड़ू-पोछा तक का काम करवाते हैं। दुकान से साग, सब्जी, मसाला, दाल और कोटा से अनाज लाने की जिम्मेदारी भी रसोइया की होती है। वर्तमान में विद्यालय को सुंदर रखने, सब्जी के उत्पादन के लिए बागवानी लगाने का प्रावधान किया है। इसके लिए जबकि कानूनी रूप से उनसे अतिरिक्त काम लिए जाने की मनाही है। फिर भी उन्हें करना पड़ता है। जबकि विद्यालयों पर सफाई करने लिए सरकार द्वारा सफाईकर्मियों की नियुक्ति हुई है।
पिछले वर्ष दिसम्बर में रसोइयों के मानदेय में 500 रुपये की बढ़ोतरी कर 1500 रुपये से 2000 प्रतिमाह किया गया है। मतलब एक दिन का मानदेय मात्र 70 रुपये। जबकि उत्तर प्रदेश में तय मजदूरी से भी कम है। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश ने अकुशल श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी मनरेगा की मजदूरी 230 रुपये प्रतिदिन से भी बहुत कम है। वर्ष 2005 में इन रसोइयों की मजदूरी 1000 रुपये मासिक था। मानदेय को बढ़ाने के लिए रसोइयों ने समय-समय पर सरकार के समक्ष विरोध एवं धरना प्रदर्शन किया। किंतु अब तक उनके पक्ष में कोई ठोस फैसला नहीं लिया जा सका है।
वर्ष 2019 में बस्ती की चंद्रावती देवी मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति पंकज भाटिया ने अनुच्छेद 23 के अंतर्गत एक फैसला सुनाया था जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘किसी भी पुरुष या महिला को न्यूनतम वेतन से कम देना मूल वेतन के अधिकारों का हनन है।’ उस हिसाब से किसी भी कुशल मजदूर का प्रतिदिन का वेतन न्यूनतम 410 रुपये होना चाहिए। किंतु वे 70 रुपये में ही अपना गुजरा-बसर करने के लिए मजबूर हैं। आए दिन शिकायतें मिलती रहती हैं कि रसोइयों का वेतन पिछले तीन महीने से बकाया है। समय से उनका मानदेय न मिल पाना भी उनके लिए परेशानियाँ लेकर आता है। इसके अंतर्गत विधवा या जिनके बच्चे सम्बंधित विद्यालय में पढ़ते हों, ऐसी महिलाओं को वरीयता दी जाती है। जिन महिलाओं के पास कोई अन्य अतिरिक्त विकल्प नहीं होता, उनके लिए 2000 रुपये में खर्च चलाना कितना मुश्किल होता होगा। जबकि उसी विद्यालय में पढ़ा रहे अध्यापकों का वेतन उनसे 25 गुना से अधिक होता है।
आज वेबसाइट MAHAVTC के अनुसार प्राथमिक शिक्षा और पीएम पोषण मध्यान्ह भोजन के निदेशक ने केंद्र सरकार के पास रसोइयों का मानदेय 3000 किये जाने का प्रस्ताव भेजा है। जबकि यह प्रस्ताव भी न्यूनतम मजदूरी से कम का है। 2019 में बस्ती की चंद्रावती देवी मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जो निर्णय सुनाया उसका भी उल्लंघन है। हाई कोर्ट के निर्णय के के आधार पर नहीं है।
रसोइये दबाव में करते हैं काम
खबर 27 सितम्बर 2024 को अखबार जागरण में खबर छपी, हेडिंग थी ‘मानदेय में एक हजार वृद्धि पर झारखंड के मिड डे रसोइयों की बल्ले बल्ले।’
एक हजार में किसका बल्ले-बल्ले हो सकता है? इस एक हजार बढ़ने के बाद रसोइयों को मिलेगा मात्र 2400 रूपये महीने। क्या अखबार के सम्पादक को इस बात का जरा भी इल्म है कि कोई गरीब व्यक्ति भी मात्र 2400 में कैसे घर चला सकता है। लेकिन अखबार सरकार का गुणगान कर अपना नम्बर बनाने में आगे होते हैं या आज की भाषा में कह सकते हैं गोदी मीडिया सरकार के हर किये गए छोटे से काम का इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार कर बताती है कि सरकार गरीबों की पक्ष में सोच रही है।
इस खबर को यहाँ देने का मात्र एक कारण यह है कि सभी प्रदेशों की सरकार गरीब-मजदूरों के लिए कितना सोचती है। हर प्रदेश में मिड डे मील बनाने वाले रसोइयों को इसी तरह का मानदेय दिया जा रहा है।
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मिड डे मील बनाने वाले रसोइये विद्यालयों में प्रधानाचार्य का भारी दबाव महसूस करती हैं कि एक शैक्षणिक सत्र के बाद प्रधानाध्यापक उनकी जगह किसी अन्य महिला या पुरुष को न रख लें। इनका मानदेय वर्तमान में मात्र 2000 रुपये है। इस आधार पर उनका प्रतिदिन का मानदेय करीब 70 रुपए होगा। जो कि उनके दैनिक खर्च के हिसाब से काफी कम है। मात्र इतने पैसे में अपने घर के लिए साग, सब्जी एवं राशन की व्यवस्था नहीं कर सकतीं। फिर कपड़े, दवा व अन्य खर्च के लिए अपनी ज़रूरतें कैसे पूरी करती होंगी? अप्रैल 2022 से पहले उनका मानदेय 1500 रुपये ही था। इस आधार पर उनका प्रतिदिन का मानदेय 50 था। वर्ष 2019 से पहले उनका मानदेय तीस रुपए प्रतिदिन की दर से 1000 रुपये था। क्या विद्यालय में पाँच से छ: घंटे रहने वाली रसोइयों का मानदेय इतना पर्याप्त है? यह एक गंभीर सवाल है, इस पर सरकार को विचार करना चाहिए।
कभी-कभी प्रधानाध्यापक कन्वर्जन कास्ट में आनाकानी करते हैं, तो उनके द्वारा बनाये गये खाने का गुणांक कमजोर हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में विद्यालय स्टाफ के अन्य सदस्य एवं अभिभावकों द्वारा उन्हें डाँट भी सुननी पड़ती है। यदि वे स्कूल में बचे हुए भोजन का उपयोग अपने लिए कर लेती हैं तो उनके ऊपर चोरी का भी आरोप लगा दिया जाता है और उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाने लगता है। जबकि बचे हुए खाने का अन्य कोई उपयोग नहीं होता है।
उन्हें मात्र दस महीने का मानदेय ही मिलता है। ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान दो महीने का मानदेय उन्हें नहीं दिया जाता।
इन सब के बीच सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि रसोइयों के लिए किसी भी प्रकार की छुट्टी का प्रावधान नहीं है। इस विद्यालय में अन्य स्टाफ के लिए 14 आकस्मिक अवकाश के साथ मेडिकल की छुट्टियों का प्रावधान है। महिला स्टाफ के लिए तीज, त्योहार, व्रत के साथ-साथ शिशु देखभाल के लिए अतिरिक्त छुट्टियां मिलती हैं। किंतु रसोइयों को प्रत्येक कार्य दिवस में उपस्थित होकर निर्देशानुसार बच्चों को भोजन उपलब्ध कराना होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि उन्हें किसी भी प्रकार की छुट्टी की आवश्यकता होती है तो इसके लिए क्या सरकारी प्रावधान है? जिसका जवाब पाने के लिए मैंने कई प्रधानाध्यापकों से बातचीत की, लेकिन किसी ने आज तक कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया।
वाराणसी के बेसिक शिक्षा के अंतगत आने वाले एक अध्यापक ने बताया कि उनके विद्यालय में रसोइयों को पिछले दस महीने से कोई मानदेय नहीं कई बार दबाव बनाने के बाद 4500 रुपये खाते में डाले गए। ऐसा क्यों पूछने बताया कि सरकार की तरफ से जब आता है तब दिया जाता है। यह विडम्बना है कि उसी विद्यालय में काम करने वाले सभी शिक्षकों और क्लर्क का वेतन एक तारीख को खाते में जमा हो जाता है। यह भी देखा गया है कि महीने के शुरूआती दिनों में छुट्टी होने पर पिछले महीने की आखिरी तारीख को वेतन जमा हो जाता है लेकिन मात्र दो हजार महीने मानदेय महीनों-महीनों पेंडिंग रहता है।
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स्थानीय प्रशासन के पास भी जाने में असमर्थ
जब एक रसोइये से पूछा कि 10-12 महीने का मानदेय बकाया रहने पर भी ये स्थानीय प्रशासन के पास नहीं जाते, उन्होंने जवाब में बताया कि अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाना ही चाहिए लेकिन हम लोगों को पूरे एक दिन की छुट्टी लेनी पड़ती है, जिसके कारण मिड डे मील नहीं बन पाने से बच्चों को मुश्किल होती है, उससे बढ़कर हमारा एक दिन का मानदेय काट लिया जाएगा। फिर जिलाधिकारी के कार्यलय पर पहुँचने के लिए किराया के 100-150 रुपये के व्यवस्था करनी पड़ती है, जिसकी व्यवस्था नहीं हो पाती। वैसे ही इतना कम मानदेय महीनों नहीं मिलने से घर चलाने के लिए उधार लेना पड़ता है।
क्या सरकार को महंगाई का अनुमान नहीं है। दिन पर दिन महंगाई बढ़ रही बड़े अधिकारियों, नेता-मंत्री का वेतन लाखों में है और जब जब-तब उसमें वृद्धि हो जाती है लेकिन हम मजदूरों को सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। हमारे बच्चे बिना पढ़े रह जाते हैं क्योंकि जहाँ खाने की सुविधा मुश्किल से जुट पाती हो वहां विद्यालय की शिक्षा के बाद बच्चे काम में लग जाते हैं।
मध्यान्ह भोजन योजना भारत सरकार ने 15 अगस्त (1995) से लागू किया था। वर्ष 2003 में इसका विस्तार सभी परिषदीय विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों तक कर दिया गया। तब से बच्चों को दोपहर में लगातार पका-पकाया हुआ पौष्टिक भोजन दिया जा रहा है। भोजन को चखने की जिम्मेदारी विद्यालय के अध्यापकों या प्रधानाध्यापकों की होती है। इसके पश्चात ही बच्चों को वितरित करने का प्रावधान है। लेकिन विद्यालय स्टाफ के सदस्य भोजन चखे बिना रजिस्टर पर दस्तखत कर बच्चों को भोजन करा देते हैं।
आज भी देश में लाखों बच्चे गरीबी रेखा के नीचे का जीवन-यापन करते हैं और वे स्कूल में जाना इसलिए आरंभ कर दिए कि उनके लिए दोपहर का भोजन मिलना सुनिश्चित है। मध्यान्ह भोजन योजना का उद्देश्य ही है कि बच्चों के नामांकन में वृद्धि करना एवं उन्हें पोषण युक्त आहार उपलब्ध कराना। इसलिए सरकार को रसोइयों के मानदेय पर विचार करना चाहिए साथ ही उन्हें महंगाई भत्ते के साथ न्यूनतम कुशल मजदूरी का मानक तय करे। ताकि इस क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को भी समाज में सिर उठाकर जीने में सहारा मिल सके।