सामाजिक न्याय का परचम उठाकर, समानान्तर राजनीति की धुरी बने रहने वाले नेता शरद यादव नहीं रहे। शरद यादव प्रायोगिक राजनीति के पुरोधा थे और इसीलिए वे प्रायोगिक राजनीति के नेता कम, इंजीनियर ज्यादा थे जो बार-बार नए राजनीतिक माडल का ट्रेंड सेट करते और उस माडल का मालिक किसी और को बना देते या फिर कोई और उस माडल पर कब्जा कर लेता था। अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने दलित और पिछड़े समाज को राजनैतिक रूप से आगे बढ़ाने के लिए तमाम मौकों पर अपने हित-लाभ से समझौता किया और दूसरों को आगे बढ़ाकर उसे बादशाहत सौंप दी। यह कहा जाए कि वह समाजवाद के सिपाही ही नहीं बल्कि समाजवादी संत भी थे तो गलत नहीं होगा। वह शरद यादव ही थे जिन्होंने लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार और वीपी सिंह को सत्ता का मालिक बनाने के लिए बार-बार खुद को दांव पर लगाया था। दुखद यह रहा कि शरद यादव ने जिसे भी आगे बढ़ाया उसी ने शरद यादव को किनारे कर दिया पर महत्वपूर्ण यह था कि ऐसी परिस्थिति में भी शरद यादव कभी विचलित नहीं होते थे बल्कि हर बार और ज्यादा ताकत से नया निकष सजाने में लग जाते थे।
आजादी से ठीक डेढ़ महीना पहले यानी 1 जुलाई, 1947 को जन्मे शरद यादव का सक्रिय राजनीतिक जीवन 1970 से शुरू हुआ। डॉ. राममनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा और जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के प्रभाव से शरद यादव ने छात्र जीवन में ही राजनीति में प्रवेश किया और अपनी राजनैतिक कुशलता से न सिर्फ छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए बल्कि छात्र राजनीति को भी मुख्यधारा की राजनीति के सापेक्ष खड़ा करने का काम किया। सन 1972 में छात्र राजनीति में सक्रिय आंदोलनकारी भूमिका की वजह से उन्हें जेल जाना पड़ा। उनकी इस जेल यात्रा ने उन्हें भारतीय लोकदल में लोकप्रिय नेता बना दिया और जेल में रहते हुए ही 1974 में जबलपुर लोकसभा के लिए हुए उपचुनाव में उन्होंने सत्ता-सीन कांग्रेस के उम्मीद वार को हराकर महज 27 साल की उम्र में लोकसभा में प्रवेश कर लिया।
[bs-quote quote=”1990 में शरद यादव ने मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान जैसे नेताओं को आपने साथ लामबंद कर वीपी सिंह को विश्वास में लेकर मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करवाने में बड़ी भूमिका निभाई। तमाम विरोध के बावजूद शरद की टीम इस मुद्दे पर टस से मस नहीं हुई और इस मसविदे ने पूरे देश में पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज के उत्थान का नया मार्ग प्रशस्त कर दिया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
भारतीय लोक दल के लिए यह जीत अत्यंत महत्वपूर्ण थी और इस जीत ने शरद यादव को भी देश की निर्णायक राजनीति में बड़ी भूमिका दे दी। 1977 में वह नवगठित जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में पुनः जबलपुर लोक सभा चुनाव जीतने में कामयाब हुए। 1978 में शरद यादव अपनी तेज-तर्रार छवि के दम पर युवा लोकदल के अध्यक्ष बन गए। यही वह समय था जब कई तरह की राजनीतिक ताकतें भी मिलकर तो कभी बिखरकर कांग्रेस का पराभव करने की कोशिश में लगी हुई थी। जनता पार्टी भी इसी प्रयास के तहत साकार हुई थी पर 1979 में ही यह प्रयास भी खंडित हुआ और जनता पार्टी का विभाजन हो गया और शरद यादव, चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में लोकदल के साथ चल पड़े। सिर्फ शरद यादव ही नहीं बल्कि जेपी आंदोलन के ज्यादातर नेता चौधरी चरण सिंह के साथ इस भावना के साथ चल पड़े कि यही दल है जो भारतीय समाज के सामाजिक और राजनैतिक उत्थान की नई इबारत लिखेगा।
सन 1981 में इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी की मृत्यु से रिक्त हुई सीट के लिए लोकसभा का उपचुनाव आया तब लोकदल के पास शरद यादव से बेहतर और लोकप्रिय कोई दूसरा युवा चेहरा नहीं था जिसकी वजह से शरद यादव को अप्रत्याशित रूप से मध्यप्रदेश से उठाकर उत्तर प्रदेश की बहुत हद तक अपरिचित जमीन पर कांग्रेस के सबसे ताकतवर प्रत्याशी राजीव गांधी के सामने चुनाव में उतार दिया गया। राजीव गांधी के पास जहां भाई की आसमयिक और हृदय विदारक मृत्यु की सहानुभूति और इंदिरा गांधी का पुत्र होने का ग्लैमर था, वहीं शरद यादव के पास महज अपने वैचारिक आग्रह के सिवा कुछ भी नहीं था। अमेठी उस समय कांग्रेस का किला कहलाता था जहां लोक दल के पास इतना मजबूत संगठन भी नहीं था कि हर बूथ पर वह अपना एजेंट बना पाते। दरअसल, शरद यादव पैराशूट प्रत्याशी बनना भी नहीं चाहते थे पर लोकदल के बड़े नेता नानाजी देशमुख ने चौधरी चरण सिंह को इस शर्त पर मना लिया था कि शरद यादव का कौशल राजीव पर भारी पड़ सकता है। अगर राजीव को हमारी पार्टी से कोई टक्कर दे सकता है तो वह सिर्फ शरद यादव ही हैं और न जीते तो भी शरद यादव राजीव के बरक्स खड़ा रहने की ताकत रखते हैं। फिलहाल वही हुआ जिसका अंदेशा था। राजीव भारी बहुमत से चुनाव जीत गए और शरद यादव राजीव गांधी से हारने वाले पहले नेता बने। पर यह चुनाव शरद यादव के राजनीतिक जीवन का अच्छा मोड़ साबित हुआ। इस चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश ही शरद यादव की राजनीतिक कर्मभूमि बन गई। 1984 के आम चुनाव में एक बार फिर शरद यादव उत्तर प्रदेश की ही बदायूं लोक सभा से लड़े और एक बार फिर कांग्रेस के ही उम्मीदवार सलीम इकबाल शेरवानी से हार गए। लेकिन यह कहानी यहाँ खत्म नहीं हुई, बल्कि शरद यादव अगले पाँच साल तक बदायूं की जमीन को अपने पक्ष में उर्वरा बनाने की कोशिश में लगे रहे और 1989 में कांग्रेस के उम्मीदवार राम नरेश यादव को पराजित करके उत्तर प्रदेश के रास्ते संसद में प्रवेश किया। इस चुनाव में कांग्रेस संसद में सबसे पार्टी जरूर थी पर पूर्ण बहुमत तक नहीं पहुंच सकी थी। ऐसे में शरद यादव ने एक नए किस्म का राजनीतिक कौशल दिखाते हुए सम्पूर्ण विपक्ष के एकीकरण के सूत्रधार की भूमिका अख्तियार की और लेफ्ट-राइट दोनों को मध्यमार्ग पर लाकर जनता दल के नेता वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया। शरद यादव नई सत्ता के सबसे ताकतवर नेताओं की सूची पर पहले पायदान पर खड़े हो गए और वीपी सिंह के मंत्रिमंडल में कपड़ा मंत्री के रूप में कैबिनेट मंत्री का पद ग्रहण किया।
यह भी पढ़ें…
1990 में शरद यादव ने मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान जैसे नेताओं को आपने साथ लामबंद कर वीपी सिंह को विश्वास में लेकर मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करवाने में बड़ी भूमिका निभाई। तमाम विरोध के बावजूद शरद की टीम इस मुद्दे पर टस से मस नहीं हुई और इस मसविदे ने पूरे देश में पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज के उत्थान का नया मार्ग प्रशस्त कर दिया। मण्डल आयोग के सामने आते ही पूरे देश में एक नए तरह का राजनीति ट्रेंड खड़ा हो गया। हर जाति-समाज अपने भविष्य के मद्देनजर अपनी जाति के नेता के झंडे के नीचे एकत्रित होने लगा। उत्तर प्रदेश और बिहार में तेजी से उभरते नए राजनीतिक समीकरण को जब तक कोई और देख और समझ पाता तब तक शरद यादव ने अपनी दूरदर्शिता से उसके आगे की भूमिका रचकर जनता दल की उत्तर प्रदेश की कमान मुलायम सिंह यादव को और बिहार की कमान लालू प्रसाद यादव को पकड़ा दी थी। कमोबेश यह भारत के पिछड़े समाज को मजबूत करने की दिशा में शरद यादव द्वारा किया गया सबसे महत्वपूर्ण काम था, जिसने पिछड़े समाज को तेजी से वंचना की खाई से निकालकर समाज की मुख्यधारा का बगलगीर बना दिया। पिछड़ी जाति के अपमानजनक जीवन को सम्मान के गौरव से आभूषित करने का जो प्रयास शरद यादव ने किया उसकी नींव पर कई नई राजनीतिक पार्टियों के घराने आबाद हो गए।
शरद यादव ने इसके बाद बिहार को अपनी राजनीति का केंद्र बनाया। सन 1991 में वह जनता दल से बिहार की मधेपुरा सीट से चुनाव जीतकर पहले ऐसे सांसद बने जो पूर्व में दो और प्रदेशों से सांसद रह चुके थे। इसके बाद उनकी राजनीतिक पारी लगातार उथल-पुथल भरी रही। जिन लोगों को भी शरद यादव ने सत्ता के केंद्र में स्थापित किया था वे सब शरद यादव की सैद्धांतिक राजनीति के खिलाफ अपनी महत्वाकांक्षी राजनीति को आगे बढ़ाने की कोशिश में लग गए और शरद यादव के ही खिलाफ खड़े हो गए।
यह भी पढ़ें…
जनता दल यूनाइटेड पर नीतीश कुमार की कब्जेदारी के बाद से शरद यादव की पुरअसर राजनीतिक सक्रियता का दौर लगभग खत्म हो गया था। इसके बावजूद उनके राजनैतिक कौशल का सम्मान पक्ष और विपक्ष दोनों समान रूप से करते रहे। उनकी आवाज संसद की जरूरी और महत्वपूर्ण आवाजों में गिनी जाती रही है। शरद यादव ने कभी भी कटुता और विद्वेष की राजनीति नहीं की। पिछड़े समाज को राजनैतिक और सामाजिक सम्मान दिलाने के जिस सपने के साथ उन्होंने राजनीति में कदम रखा था उसका आजीवन ईमानदारी से निर्वाहन किया। 75 वर्ष की उम्र में 12 जनवरी को उनका निधन हो गया।
हालांकि राजनीति को शुद्धतावादी चश्मे से देखने वाले लोग शरद यादव के राजनीतिक विचलन का प्रचार करते हुये उनकी भूमिका को गड्डमड्ड और महत्व को कमतर आंकने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन मुझे लगता है भारत की राजनीति में कुछ भी स्याह सफ़ेद मात्र नहीं है बल्कि हर चीज के कई रंग हैं। इन रंगों को विश्लेषित करने में बेशक निर्ममता का परिचय देना चाहिए फिर भी बुनियादी चीजों को नकारना उस इतिहास को ही नकारना होगा, जिससे देश का वर्तमान निर्मित हुआ है। शरद यादव राजनीतिक रूप से ताकतवर दौर में भी अपना कोई निजी केंद्र बनाने के पक्षधर नहीं थे बल्कि सामूहिकता के मूल्यों के आधार पर उन्होंने निर्णय लिए। संसद में एक गूँजती हुई आवाज थे। शायद ही किसी मुद्दे पर वे चुप रहे हों। वे बोलते थे और जमकर बोलते रहे। मंडल आयोग को लागू करवाने और आजीवन उसकी तर्जुमानी करनेवालों में शरदजी अग्रणी रहे। महिला आरक्षण के मुद्दे पर उनको खलनायक की तरह चित्रित किया गया लेकिन अंत तक वे आरक्षण में वर्चस्व को लेकर उसकी मुखर आलोचना करते रहे। क्रीमी लेयर के नाम पर आरक्षण की आलोचना करनेवाले शायद ही इस पर कभी सोचते हों।
वे संसद में पिछड़ों की सबसे मुखर और महत्वपूर्ण आवाज थे। गहरे शोक के साथ हम उन्हें सादर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
कुमार विजय फिल्मकार एवं राजनैतिक विश्लेषक हैं और मुंबई में रहते हैं।
[…] […]