जोशीमठ उत्तराखंड का पुराना और धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण शहर है। यह बद्रीनाथ के करीब है। 25-30 हजार की जनसंख्या वाले इसी शहर में शंकराचार्य का मठ है। लेकिन पिछले कुछ समय से यह अलग कारणों से चर्चा में है। जोशीमठ अपने अस्तित्व के गहरे संकट से जूझ रहा है और यहाँ अफरातफरी मची हुई है। शहर के 4,500 मकानों में से 610 मकानों में दरारें पड़ गई हैं। मकानों छतें और फर्श दो-दो, तीन-तीन हिस्सों में बंट गए हैं। कई दीवारें बीच से धसक गई हैं। कुछेक मकान टेढ़े हो गए हैं। मीडिया में वायरल तस्वीरों में कई छतों को बल्लियों और शहतीरों के सहारे गिरने से रोका गया है। कुल मिलकर स्थिति बड़ी डरावनी हो चुकी है। जीवन की सुरक्षा को लेकर आशंकाएं बहुत बढ़ गई हैं।
आज से पचास साल पहले ही जोशीमठ शहर को भू-स्खलन की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र में घोषित किया जा चुका था। इसके बावजूद हमारे देश के लोगों की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल कर उस जगह को अधिक से अधिक व्यावसायिक बनाने का खेल चलता रहा। इस क्रम में कॉर्पोरेट और सरकारों ने सभी पहाड़ों को बुरी तरह से क्षत-विक्षत कर डाला। राजनीति ने इसे एक दुधारू गाय मानकर इतना दूहा कि दूध की जगह खून निकलने लगा लेकिन राजनीतिज्ञों को न दया आई न शर्म। स्वयं प्रधानमंत्री अपना कामकाज छोडकर इन स्थानों पर जाकर रमने लगे ताकि लोगों की धार्मिक भावनाओं को पुचकारा जा सके। सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने और निहित राजनीतिक उद्देश्य के लिए जान-बूझकर पर्यावरण और भविष्य की अनदेखी करते हुए चारों धाम का विकास करना इसी की एक कड़ी था। इसी बद्रीनाथ धाम में कुछ दिनों पहले अचानक बादल फटने से कितनी बड़ी तबाही हुई थी यह आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। उस समय लोगों के शवों का मिलना तो बहुत दूर, सिर्फ जूते और चप्पल भर मिल सके। यह एक बड़ा इशारा था कि प्रकृति इस तथाकथित विकास से विक्षोभित हो रही है। लेकिन इसी क्षेत्र 1990-91 में अत्यंत विनाशकारी भूकंप की तबाही देखने के बाद भी उससे कोई सबक नहीं लिया गया।
भारत की सरकार कितनी असंवेदनशील है यह कोरोना के समय और उसके पहले नोटबंदी के समय सबने देखा। एनआरसी से लेकर किसानों तथा केंद्रीय विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों के आंदोलनों के समय में, समस्त विश्व ने देखा है कि जनतंत्र से चुनकर जाने वाले लोग अपने ही देश के लोगों की समस्याओं के बारे मे कितने असंवेदनशील हैं? और इन सभी आंदोलनकारियों को टुकड़े-टुकड़े गैंग, खालिस्तानी, पाकिस्तानी और देशद्रोही कहकर बदनाम किया गया जिसमें लोकतंत्र के तथाकथित चौथे स्तंभ मीडिया ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की। क्या देशभक्ति का ठेका सिर्फ वर्तमान समय के सत्ताधारी दल और उसकी अन्य इकाइयों ने ले रखा है?
यह इशारा समस्त हिमालय अर्थात सिक्किम से लेकर कश्मीर तक के लिए था। लेकिन क्या इससे भारत के शासकवर्ग ने कोई सबक लिया? अभी हवाओं में धारा 370 हटाने के पराक्रम का गुब्बारा उड़ रहा है। लेकिन वास्तव में कश्मीर के विकास के नाम पर कश्मीर की वादियों के तथाकथित विकास के नाम पर कार्पोरेट जगत को पूरी छूट दे दी गई है। और सच मायने में उन पर सरकार का कोई नियंत्रण भी नहीं है। इसलिए हमारी आंखों के सामने कश्मीर वादी के तबाह और वीरान होने की खबरें आने में कोई देरी नहीं लगने वाली है। और वहां पहले से ही जारी सुल्तानी आपदाओं के साथ अब आसमानी आपदाओं की शृंखला शुरू हो सकती है!
हिमालय की गोद में रहने वाले सभी लोगों के अस्तित्व का सवाल है। हम हिमालय के बारे में कितना भी धार्मिक, पौराणिक कथाओं का गाना गाते रहें और कहते रहें कि हमारी संस्कृति बहुत पुरानी है। उसने अग्निबाण से लेकर प्लास्टिक सर्जरी तक की प्रगति की है लेकिन यह सब केवल थोथा सच है। पारिस्थितिकी की जानकारी रखने वाले किसी भी सचेत व्यक्ति को यह मालूम होगा कि विश्व के सबसे नए पहाड़ों में हिमालय का शुमार होता है। इस कारण हिमालय में सतत भू-स्खलन से लेकर सिस्मिक हलचलों का होना लगातार जारी है।
इसीलिये आज से पचास साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने गढवाल के कलेक्टर एम.सी. मिश्रा को इसकी जांच करने के लिए कहा था। कलेक्टर ने 18 लोगों की कमेटी बनाकर रिपोर्ट सौंप तैयार करवाई थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘जोशीमठ ऐतिहासिक सिस्मिक और लैंड स्लाइड क्षेत्र में आता है, इसलिए यहाँ किसी भी प्रकार की परियोजना लागू नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इससे यहां की भौगोलिक स्थिति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।’
लेकिन इस क्षेत्र के सिस्मिक और लैंड स्लाइड ज़ोन घोषित हो जाने के बावजूद क्या इस पर ध्यान दिया गया? आईआईटी कानपुर के वरिष्ठ विशेषज्ञ प्रोफेसर जी डी अग्रवाल ने कई सरकारी कमेटियों के सदस्य की हैसियत से हिमालय के ग्लेशियर से लेकर नदियों और पहाड़ी क्षेत्र के बारे में तकनीकी रिपोर्टों को लिखा है। गौरतलब है कि प्रोफेसर अग्रवाल ने अपने जीवन को खपाकर हिमालय में होने वाली परियोजनाओं का विरोध किया था। आई आईआईटी से सेवानिवृत्ति के बाद तो वे खुद को गंगापुत्र कहने लगे थे और गंगा तथा समस्त हिमालय पर्वत के साथ हो रही छेड़खानी का विरोध करते-करते अपने प्राणों की आहुति भी दे दी। इसके पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तकनीकी सहयोग करने के लिए पत्र लिखकर उन्हें आगाह किया था, लेकिन बीस-बाईस घंटे देश के लिए काम करने वाले हमारे प्रधानमंत्री को प्रोफेसर अग्रवाल के खतों के जवाब देने के लिए फुर्सत नहीं मिली। अंत में भारत ने एक काबिल वैज्ञानिक को ‘खोने का पाप’ किया है।
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वर्तमान सरकार का दिमाग ठिकाने पर कहाँ है? उस पर तो हर बात में पूर्ववर्ती सरकार को नीचा दिखाने का जूनून सवार है। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के दौरान हमने इंदिरा गाँधी की सरकार के खिलाफ आवाज उठाने के जुर्म में आपातकाल में जेल में बंद कर देने के बावजूद हम इंदिरा गाँधी की कई नीतियों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए फिलिस्तीन तथा बंगलादेश के मुक्ति के सवाल पर लड़ाई में बंगलादेश के नागरिकों का साथ देने की उनकी पहल भारतीय राजनीति के इतिहास की गौरवशाली उपलब्धि है। सबसे महत्वपूर्ण बात (1971-72) जेनेवा कन्वेंशन में पर्यावरण संरक्षण के ऊपर उनका दिया हुआ भाषण है जिसके बाद भारत में पहली बार पर्यावरण मंत्रालय का गठन किया गया। पर्यावरण संरक्षण के लिए किए हुए उपायों में पर्यावरण मंत्रालय का निर्माण बहुत महत्वपूर्ण है। केरल की सायलेंट वैली जैसी परियोजना को रद्द करने से लेकर महाराष्ट्र-आंध्र के सीमावर्ती इलाके में बननेवाले तीन बांधों के खिलाफ बाबा आमटे की अगुआई में हुए आंदोलन के कारण उन परियोजनाओं को भी रोकने के लिए आज इन्दिरा जी को याद किया जा सकता है। आज जोशीमठ के विलुप्त होने के दृश्यों को देखते हुए बरबस उनकी याद आ रही है।
काश! वर्तमान प्रधानमंत्री को पंचतारांकित गुफाओं के भीतर फोटो सेशन के आगे बढ़ने की दृष्टि भी मिली होती तो वह समस्त हिमालय के क्षेत्र में विकास के नाम पर, पहाड़ों के साथ चल रही छेड़खानी पर तुरंत रोक लगाने का फैसला लिए होते। तब शायद उनकी 56 इंच की छाती 36 इंच की नही होती। बल्कि मिडिया तो उसे साठ इंच की बनाने को तैयार बैठा है. अगर यह सच नहीं है प्रधानमंत्री की छवि बनाने के अलावा नौ सालों में मीडिया ने और कौन सा काम किया है?
विकास की धुन सवार होने के कारण चार धाम के यात्रियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने के लिए चार लेन की सड़कें और वह भी युद्ध स्तर पर हिमालय के पहाड़ों को डायनामाइट से उड़ाकर किया जा रहा है। यह सब 50 साल पहले की रिपोर्ट की अनदेखी करते हुए धड़ल्ले से हो रहा है क्योंकि मोदी सरकार को पिछली सरकारों को नाकारा साबित करके अपने को कर्मठ और विकास-पुरुष साबित करना है।
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ज़ाहिर है उनकी प्राथमिकता में आम लोगों के जीवन की रोजमर्रे की चीजों की कोई जगह नहीं है बल्कि वे इसका सिर्फ दिखावा करने प्रचार के बल पर अपनी श्रेष्ठता बनाये हुए हैं। वास्तव में यह अमेरिका और यूरोपीय देशों की नकल करते हुए भौंडा प्रदर्शन है और लोग विकास के नशे में चूर हैं। आठ-आठ लेन की सड़कें किनकी समृद्धि का द्योतक हैं? जिस देश में बेरोजगारी का कोई अंत नहीं है और एक तबका सम्पन्नता का नंगा नाच कर रहा है वहाँ क्या प्राथमिकता होनी चाहिए इस पर अब गंभीरता से सोचने की जरूरत है। इस समृद्धि ने कितने लोगों की जाने ली है?
इसी तरह बुलेट-ट्रेन का सपना है। जहाँ भारतीय रेल को जनता की मज़बूरी बना दिया गया है और देशी उद्योगपतियों को बेतहाशा छूट देकर इसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया गया है। सब तरह की पर्यावरणीय पाबंदियां हटाकर उद्योगपतियों को नदियों और पहाड़ों-जंगलों को सरेआम चबा जाने का लाइसेंस दे दिया गया है। लोगों की धार्मिक आस्था का लाभ उठाने के लिए विशेष रूप से धर्म का व्यवसायिकरण कर दिया गया है। आज देश की आधी आबादी पीने के शुद्ध पानी से कोसों दूर है। बच्चे-बच्चियों के लिए स्कूलों को खोलने की जगह बंद करने के उदाहरण सामने आ रहे हैं। महिलाओं के लिए शौचालय जैसे आवश्यक सुविधाओं के अभाव में महिलाओं की तकलीफ को लेकर कोई पहल नहीं हो रही है, लेकिन लोगों को आस्था के सवाल पर बहला-फुसलाकर उन्हें अपने टुच्ची राजनीतिक एजेंडे के तहत इस्तेमाल किया जा रहा है।
तथाकथित परियोजनाओं और सबसे महत्वपूर्ण बात उनके लिए धन उगाही के लिए स्थानीय बैंकों से लेकर एशियाई तथा विश्व बैंक की नजरों में धूल झोंककर कर्ज़ लिया जा रहा है। दुनिया में भारत की गरीबी उन्मूलन, ग्रीन ऊर्जा के विकास जैसे शब्दों के जाल बिछाकर उनसे पैसे उगाहने के लिए झूठे प्रोजेक्ट पेश करके कर्ज वसूल किया जा रहा है। इन सबका एक सिरा जोशी मठ की त्रासदी के रूप में भी देखनी चाहिए।

आज सुंदरलाल बहुगुणा की 98वीं जयंती है और वह अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक हिमालय बचाओ की कोशिश करते रहे। कभी पेड़ों की कटाई रोकने हेतु, चिपको आंदोलन, तो कभी हिमालय जैसे कच्चे पहाड़ पर बनने वाले टिहरी के बांध के विरोध में आंदोलन।
लेकिन टिहरी तो बन ही गया और उसके कारण टिहरी गांव आज पूरी तरह पानी के अंदर है जो दौ सौ फीट की गहराई में जलाशय में तब्दील हो गया है। अगर कल जोशीमठ की तरह टिहरी के क्षेत्र में भी कुछ ऐसा हुआ तो कितनी बड़ी आपत्ति आ सकती है? कुछ लोगों का तो कहना है कि ‘अगर किसी कारण से टिहरी के बांध परियोजना का कुछ गड़बड़ हुआ तो बहुत बड़ी आपत्ति आ सकती है। कुछ समय के भीतर दिल्ली भी उस बाढ़ की चपेट में आ सकती है। बीचवाले गांव तो उसके भी पहले काल के गाल में समा जायेंगे। यदि हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने का सिलसिला बंद नहीं करेंगे तो फिर प्रकृति का प्रकोप से क्या- क्या खोना पड़ेगा इसका कोई हिसाब नहीं।
यह इतिहास मे खंडहरों की शक्ल में मौजूद है। वर्तमान सरकार इन्हीं खंडहरों के ऊपर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंक रही है। क्या यह सब इसी क्षुद्र राजनीति का अवश्यम्भावी परिणाम है?
लोगों को धार्मिक विश्वास की घुट्टी पिलाकर बरगलाना और पाखंडपूर्ण राष्ट्रीयता के जुमले से उनको गुमराह करने का सिलसिला ज्यादा समय तक नहीं चलेगा। जब केदारनाथ, जोशीमठ जैसे तीर्थस्थल भी प्राकृतिक आपदा के शिकार बनते हैं तो कौन भगवान बचाने के लिए आ रहे हैं? लोगों को मंदिरों का दर्शन कराने के नाम पर जो सस्ती राजनीति शुरू है उसे अविलंब बंद करनी चाहिए। अन्यथा देश को प्रलय के गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकता। इन सबसे जन-धन की कितनी म हानि होगी इसकी गिनती करने के लिए भी कोई नहीं बचेगा।
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भाजपा सरकार ने जोशीमठ और उसके नज़दीक ही तपोवन-विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजना के विकास के एशियन डेवलपमेंट बैंक से कर्ज़ लिया है। लेकिन यह जोशीमठ के लिए कितना खतरनाक है इस पर कोई विचार नहीं किया। सबसे हैरानी की बात यह है कि हमारी सरकार ने एशियन डेवलपमेंट बैंक को प्रोजेक्ट रिपोर्ट में कहा है कि ‘फॉसिल फ्यूल के कारण होने वाले पर्यावरणीय प्रदूषण को रोकने के लिए जलविद्युत परियोजना बहुत महत्वपूर्ण है और यह हमारे देश की गरीबी हटाने के लिए विशेष रूप से बहुत जरूरी है। लेकिन जोशीमठ के परिसर में रहने वाले गरीबों का क्या होगा? जलविद्युत परियोजना के लिए विशालकाय सुरंगें बनाने से हिमालय पर्वत के साथ जो खिलवाड़ होगा और जिसकी वजह से जो पर्यावरणीय नुकसान होगा उसका कोई आकलन नहीं दर्ज़ किया।
वर्तमान प्रधानमंत्री ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रहते हुए तथाकथित गुजरात मॉडल की जितनी भी परियोजनाओं को मान्यता दी है उनमें से एक में भी पर्यावरणीय मानदंडों का पालन नहीं किया है। उदाहरण के लिए कांडला पोर्ट भारत का पहला पोर्ट है जो किसी प्रायवेट कंपनी को दिया गया है। अडानी समूह ने कांडला पोर्ट अपने हाथों में लेने के चंद दिनों के भीतर अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय धरोहर मॅन्ग्रोव के जंगलों खत्म करने का काम शुरू किया। इस कारण अदानी समूह को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दो सौ करोड़ रुपये का जुर्माना भी लगाया था। इस पर तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि यह ग्रीन ट्रिब्यूनल ही नहीं चाहिए। अब जिस मंत्रिमंडल में इस तरह के लोग होंगे तो इनसे कौनसा पर्यावरण संरक्षण होगा? इसकी कीमत अब जोशीमठ की तबाही के रूप में मिलना शुरू हो रही है। ऋषिकेश से बद्रीनाथ के लिए शीघ्र गति के लिए महामार्ग का निर्माण कार्य युद्धस्तर पर जारी है।
वर्तमान सरकार को पर्यावरण संरक्षण विकास कार्य के लिए बाधा लगता है। यह मैं नहीं बल्कि इस सरकार के मंत्री खुलेआम बोलते हैं। जावडेकर इसके एक उदाहरण हो गये हैं। वे हमारे विदर्भ में झुडपी जंगल को जंगल मानने के लिये ही तैयार नहीं हैं. जिस देश में पहले ही जनसंख्या और जंगल का अनुपात बहुत कम हो, उसमें जंगल के अस्तित्व को बचाने का प्रयास करने की जगह तथाकथित विकास के बुखार में बचे-खुचे जंगल कार्पोरेट जगत को देने के लिए वे सबसे पहले उन्हें जंगल मानने से इनकार कर रहे हैं। इसको उन्होंने जंगल की श्रेणी से हटाने की साजिश शुरू करते हुए फॉरेस्ट ऐक्ट के लागू होने से बचाने पर जुट गये हैं। इस तरह की हरकतों को क्या आप कहेंगे?

विकास के लिए सब-कुछ की बलि दी जा रही है। आदिवासी समुदायों और पहाड़ी क्षेत्रों में चल रही सभी परियोजनाओं के निर्माण को लेकर प्रोफेसर जीडी अग्रवाल (पानी बाबा) ने अपने प्रधानमंत्री को पत्र में लिखा था कि ‘आप क्या कर रहे हैं? हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों में चलाई जा रही परियोजनाओं के निर्माण को लेकर उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान के बाद अपना आंदोलन शुरू किया था। इसके बावजूद उनकी बात तो मानना दूर, उल्टा उनका प्राण ही ले लिया गया। देहरादून स्थित अस्पताल में अपने साथ हुई जोर-जबरदस्ती के कारण वह मरे।
भारत की सरकार कितनी असंवेदनशील है यह कोरोना के समय और उसके पहले नोटबंदी के समय सबने देखा। एनआरसी से लेकर किसानों तथा केंद्रीय विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों के आंदोलनों के समय में, समस्त विश्व ने देखा है कि जनतंत्र से चुनकर जाने वाले लोग अपने ही देश के लोगों की समस्याओं के बारे मे कितने असंवेदनशील हैं? और इन सभी आंदोलनकारियों को टुकड़े-टुकड़े गैंग, खालिस्तानी, पाकिस्तानी और देशद्रोही कहकर बदनाम किया गया जिसमें लोकतंत्र के तथाकथित चौथे स्तंभ मीडिया ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की। क्या देशभक्ति का ठेका सिर्फ वर्तमान समय के सत्ताधारी दल और उसकी अन्य इकाइयों ने ले रखा है? सच तो यह है कि आजादी के आंदोलन से दूर रहकर और महात्मा गांधी की हत्या करने वाले लोगों के मंदिर बनाने वाले और भारत के इतिहास के पहले राज्य प्रायोजित गुजरात के दंगे में हजारों लोगों को जलाकर मारने वाले और गर्भवती महिलाओं के साथ बलात्कार करने वालों को महिमामंडित करते हुए मिठाई खिलाने और तिलक लगाने की संस्कृति के मनोरोगियों से और क्या अपेक्षा कर सकते हैं?
डॉ. सुरेश खैरनार चिन्तक और विचारक हैं।
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