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राम मंदिर पर सपा का धर्मसंकट मथुरा पहुंचकर कहीं उसके अस्तित्‍व का सवाल न बन जाए

एक तरफ़ सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) आगामी 22 जनवरी को अयोध्या के नवनिर्मित राम मंदिर में होने वाले प्राण-प्रतिष्ठा की तैयारी कर रही है और आम चुनावों में इसका लाभ लेने की रणनीति बना रही है, तो दूसरी तरफ़ विपक्षी पार्टियां इस समारोह में शामिल होने को लेकर असमंजस में हैं। उत्तर प्रदेश की […]

एक तरफ़ सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) आगामी 22 जनवरी को अयोध्या के नवनिर्मित राम मंदिर में होने वाले प्राण-प्रतिष्ठा की तैयारी कर रही है और आम चुनावों में इसका लाभ लेने की रणनीति बना रही है, तो दूसरी तरफ़ विपक्षी पार्टियां इस समारोह में शामिल होने को लेकर असमंजस में हैं।

उत्तर प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी (सपा), जिसकी राजनीति मुसलमानों के समर्थन पर टिकी हुई है, अभी तक प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने को लेकर कोई फ़ैसला नहीं कर सकी है। समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत बीजेपी के तमाम बड़े नेता इस शामिल होंगे। अदालत के आदेश से बने इस मंदिर का श्रेय लेने के प्रयास तो पहले ही दिन से बीजेपी के प्रचार अभियान का हिस्‍सा है।

मंडल की राजनीति से उभरी सपा के लिए हालांकि स्थिति ‘इधर कुआं उधर खाई’ वाली है क्योंकि माना जा रहा है अगर सपा के नेता समारोह में जाते हैं तो नब्बे के दशक की शुरुआत से लेकर 2022 तक लगभग तीन दशकों के दौरान हुए सभी विधानसभा चुनावों में सपा का समर्थन करते आ रहे मुसलमान उससे नाराज हो सकते हैं। अगर सपा नेता प्राण प्रतिष्ठा में नहीं जाते हैं तो बीजेपी और संघ, सपा को ‘एम-वाइ’ पार्टी यानी केवल मुस्लिम-यादव की पार्टी बताकर उसके विरुद्ध नकारात्मक प्रचार करेंगे जो कि उनकी पुरानी रणनीति रही है।

दूसरे, इससे एक नुकसान यह भी होगा कि यादव समुदाय का एक बड़ा हिस्‍सा सपा से रूठ सकता है। राम मंदिर के मामले में तो संभव है वहां सपा के नेताओं के न जाने से यादव वोटों का बहुत नुकसान न हो, लेकिन यही उहापोह अगर मथुरा तक चली जाती है तो सपा के लिए अस्तित्‍व का संकट खड़ा हो जाएगा। इसलिए इस सवाल को अभी ही हल कर लेना उसकी राजनीतिक सेहत के लिहाज से जरूरी है।

मुसलमान वोटों की भूमिका

उत्तर प्रदेश में मुसलामानों की आबादी क़रीब 19-20 प्रतिशत है, जो चुनावी राजनीति में अहम भूमिका निभाते हैं। इस  समय सपा प्रदेश में प्रमुख विपक्षी पार्टी है। उसके पास 403 सीटों वाली विधानसभा में क़रीब 113 सीटें हैं। विधानसभा चुनाव 2022 में उसको 32.06 प्रतिशत वोट मिले थे। विधानसभा चुनाव 2022 में मुसलमानों ने क़रीब एकतरफ़ा मतदान सपा के पक्ष में किया था।

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इसके अलावा, माना जाता है कि मुलायम सिंह यादव द्वारा 1992 में जब से सपा का गठन किया गया तब से अब तक प्रदेश में तीन बार बनी सपा सरकारों में मुसलमानों की अहम भूमिका रही है। सपा ने जब 2012 में अपने दम पर सरकार बनाई और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने उस समय सपा से क़रीब 40 मुस्लिम विधायक जीते थे।

अखिलेश इस बात को अच्‍छे से जानते हैं कि मुसलमानों की नाराज़गी से पार्टी का अस्तित्व ख़तरे में पड़ सकता है। उनके सामने 2009 के लोकसभा चुनाव का उदाहरण है, जब मुलायम सिंह यादव ने कल्याण सिंह (बीजेपी के कद्दावर पिछड़े नेता और बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री) को सपा में शामिल किया था और सपा को इसका खमियाज़ा आम चुनावों में भुगतना पड़ा था।

कल्याण सिंह के सपा में आने के बाद लोकसभा चुनाव 2004 में 36 सीटें जीतने वाली सपा 2009 के आम चुनाव में गिर कर 23 सीटों पर आ गई थी। सपा के कमज़ोर होने की वजह मुसलमानों की नाराज़गी बताई जाती है। उस समय सपा के नुक़सान का फ़ायदा कांग्रेस को मिला था। कांग्रेस ने 2004 में प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में केवल 9 सीटें जीती थीं जबकि 2009 लोकसभा चुनावों में उसको 21 सीटें मिलीं यानी उनकी 12 सीटों की बढ़त मिली थी। यह बढ़त सपा की कीमत पर ही थी और इसका सारा श्रेय कल्‍याण सिंह की सपा में एन्‍ट्री को जाता था।

मौजूदा हालात यह हैं कि प्रदेश के मुसलमान अखिलेश यादव और सपा से बीते तीन कुछ से मोहभंग की अवस्‍था में चल रहे हैं। एक तो दस साल पहले हुए मुजफ्फरनगर के दंगों में सपा की भूमिका को लेकर मुसलमानों में नाराजगी देखने को मिली। जस्टिस विष्‍णु सहाय के आयोग ने मुजफ्फरनगर दंगों की जांच के बाद अपनी रिपोर्ट में इस दंगे के लिए भाजपा के साथ सपा सरकार को भी बराबर का दोषी ठहराया था। अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा था कि पुलिस प्रशासन की गलतियों के कारण हिंसा का विस्‍तार हुआ और उसने दंगे की शक्‍ल ले ली।

जब 2019 में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदेश का मुसलमान सड़कों पर लाठी खा रहा था और फर्जी मुकदमे झेल रहा था, अखिलेश यादव ने तब भी एक बार भी सड़क पर उतरना तो दूर, आजमगढ़ जाने की भी कोशिश नहीं की। नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध आंदोलन में खुलकर वे कभी सामने नहीं आए। इसके अलावा जेल में बंद सपा के बड़े नेता आज़म ख़ान के पक्ष में सपा द्वारा कभी कोई प्रदर्शन नहीं किया गया। इसके उलट कांग्रेस पार्टी लगातार आजम खान पर डोरे डालती रही और सपा को उसकी बेरुखी पर उलाहना देती रही।

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इसके बावजूद मुसलमानों के पास कोई विकल्‍प नहीं था, तो उन्‍होंने 2017 और 2022 के चुनाव में सपा को ही इस उम्‍मीद में वोट दिया कि कम से कम बीजेपी की सरकार को वह रोक पाएगी। सपा ऐसा कर पाने में नाकाम रही। दूसरी तरफ, सपा का कोर यादव वोट भी बड़े पैमाने पर उससे छिटक कर बीजेपी के पास चला गया।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद से मुसलमानों का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ देखा जा रहा है। इसका उदाहरण निकाय चुनाव में मुरादाबाद जैसी मुस्लिम बहुल सीट पर कांग्रेस का उपविजेता होने सहित कई और घटनाएं हैं। ज़ाहिर है मुसलमानों का कांग्रेस के प्रति झुकाव अखिलेश के लिए चिंता का विषय है क्योंकि सपा 1993 में कांग्रेस के मुस्लिम वोट पर कब्ज़ा कर के ही उभरी थी।

मंदिर पर उहापोह

यही कारण है कि सपा के नेता राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में शामिल होने पर सीधा जवाब देने से बच रहे हैं और गोलमोल जवाब दे रहे हैं। पार्टी की सांसद और सपा प्रमुख अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव कहती हैं कि ‘हम प्राण प्रतिष्ठान के कार्यक्रम में जाएंगे अगर निमंत्रण भेजा गया।’

अखिलेश यादव की तरफ़ से अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं कहा गया है। सपा प्रमुख का कहना है कि ‘और हमारे पूर्वज और हम लोगों के समाज में यह माना जाता है कि जब भगवान बुलाते हैं, तभी दर्शन पाते हैं आप।

श्री राम जन्म-भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि सपा को 22 जनवरी के कार्यक्रम का निमंत्रण भेजा गया है या नहीं या फिर भेजा जाएगा या नहीं। इसके उलट, सपा के नेताओं की ऊटपटांग बयानबाजी मामले को और उलझाकर सपा को हास्‍यास्‍पद बना रही है।

अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी के महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य के जन्मदिन 2 जनवरी पर आयोजित एक कार्यक्रम में कहा, “भगवान से बड़ा कोई नहीं हो सकता है। न हम, न अपने मुख्यमंत्री। मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि विपक्ष के नेताओं को भगवान का बुलावा नहीं मिला। मुख्यमंत्री को ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं।’

पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा, “इसका मतलब तो ये है कि ट्रस्ट की जगह भाजपा के लोग खुद ही सूची तैयार कर रहे हैं। वही तय कर रहे हैं कि कौन अतिथि होगा, और कौन नहीं होगा।”

ट्रस्‍ट और बीजेपी के बीच का यह भेद भी उनकी राजनीतिक समझदारी पर सवाल खड़ा करता है। स्‍वाभाविक है कि राम मंदिर का ट्रस्‍ट बीजेपी की केंद्र सरकार के चहेते प्रतिनिधियों को मिलाकर ही बनाया गया है। ऐसे में यह कहना कि अतिथियों की सूची ट्रस्‍ट की जगह बीजेपी बना रही है, इसका कोई मतलब नहीं बनता।

पार्टी के सूत्र बताते हैं कि सपा पूरी तरह से प्राण प्रतिष्ठा को नज़रअंदाज़ भी नहीं करना चाहती है। इसका मुख्य कारण है कि यह समारोह बड़ी आबादी की आस्था से जुड़ा हुआ है और बीजेपी लगातार सपा को हिन्दू विरोधी बताती रहती है। पार्टी का मानना है केवल मुस्लिम-यादव वोट समीकरण से चुनाव नहीं जीता जा सकता है।

पिछड़ा वोट

ऐसा देखा गया है कि पिछड़ों की राजनीति करने वाली सपा, नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद से लगातार कमज़ोर हुई है। इसका मुख्य कारण यह माना जाता है कि मोदी के आने के बाद से ग़ैर-यादव पिछड़े, जिनकी आबादी प्रदेश में क़रीब 35 प्रतिशत है, भारी संख्‍या में बीजेपी में चले गए और केवल यादव जिनकी जनसंख्या केवल 6-7 प्रतिशत है, सपा के साथ बने रहे। कई सर्वे बताते हैं कि यादवों का एक बड़ा हिस्सा भी बीजेपी की तरफ़ खिसक चुका है।

सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे की मानें, तो साठ फीसदी से ज्‍यादा गैर-यादव और कोई एक-चौथाई से ज्‍यादा यादव वोट भाजपा के साथ जा चुके हैं। हालिया विधानसभा चुनावों के परिणाम के बाद मध्‍य प्रदेश में एक यादव को मुख्‍यमंत्री बनाकर बीजेपी ने ऐसा सियासी कार्ड खेल दिया है जिसकी आंच उत्‍तर प्रदेश तक फैल सकती है। यह भी अखिलेश यादव के लिए चिंता की बात होनी चाहिए।

इस बीच सपा ने कई राजनीतिक प्रयोग किए, जैसे 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से हाथ मिलाया, लोकसभा चुनावों 2019 में अपनी धुव्र विरोधी बहुजन समाज पार्टी से समझौता किया और विधानसभाचुनाव 2022 में छोटी जाति आधारित दलों को गोलबंद किया, लेकिन बीजेपी का विजय रथ नहीं रुक सका।

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चुनावों में अक्सर बीजेपी राम मंदिर के मुद्दे पर सपा को घेरती रहती है। बीजेपी मांग करती रही है कि सपा 1990 में मुलायम सिंह यादव सरकार के आदेश पर कारसेवकों पर चलाई गई गोलियों के लिए माफी मांगे। विधानसभा चुनाव 2022 में बीजेपी के कद्दावर नेताओं, गृहमंत्री अमित शाह, प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा आदि ने यह मुद्दा उठाया था।

अखिलेश यादव भले ही इस मुद्दे से बचने का प्रयास करते रहते हों लेकिन सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव, कारसेवकों पर 1990 में हुई खुली फायरिंग को न्यायसंगत बताते थे। सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने 2017 में एक बयान में कहा था अगर देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए और लोगों को भी मारना होता तो इसको भी सुरक्षा बल द्वारा किया जाता है।

सॉफ्ट हिंदुत्‍व का चक्‍कर

राजनीति के जानकार कहते हैं कि अखिलेश के लिए बेहतर यह होगा कि वह पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की राजनीति करें क्योंकि हिन्दुत्व की राजनीति की चैंपियन बीजेपी है और उनको इसमें उनको कोई नहीं हरा सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अखिलेश को अपने पीडीए के फार्मूला यानी पिछड़े, दलित, और अल्पसंख्यक को एकजुट करने पर ध्यान देना चाहिए।

इसके अलावा राजनीति के जानकार कहते हैं कि सपा को जातिगत जनगणना के लिए आंदोलन खड़ा करना चाहिए क्योंकि सॉफ्ट हिन्दुत्व के एजेंडा से कभी भी मंडल की पैदाइश पार्टियां सफल नहीं हो सकती हैं। वेगिनाते हैं कि कांग्रेस भी हाल में ही मध्य प्रदेश का चुनाव सॉफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति के चलते ही हारी है।

लखनऊ के वरिष्‍ठ पत्रकार डॉ. उत्कर्ष सिन्हा बताते हैं कि मुलायम सिंह यादव ने 1990 में बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए एक मज़बूत नेता की तरह एक स्टैंड लिया और हमेशा अपने फैसले पर अटल भी रहे, लेकिन अखिलेश में इस तरह की वैचारिक स्पष्टता नज़र नहीं आती है। डॉ सिन्हा कहते हैं अखिलेश न स्वामी प्रसाद मौर्य के बयानों पर और न 22 जनवरी को होने वाली प्राण प्रतिष्ठा पर कोई ठोस फैसला ले पा रहे हैं।

राजनीति के जानकार डॉ. सिन्हा कहते हैं, ‘अब समय नहीं बचा है, अखिलेश को तुरंत फैसला करना चाहिए कि वह सॉफ्ट हिन्दुत्व पर चुनाव लड़ना चाहते हैं या पिछड़ों के मुद्दे पर आगे जाना चाहते हैं।’ डॉ. सिन्हा के अनुसार अखिलेश अभी भी यह कहकर कि ‘धर्म निजी मामला है और वह पिछड़ों के अधिकारों के लिए लड़ना चाहते हैं’, साम्प्रदायिकता की राजनीति से बच सकते हैं।

उन्होंने कहा कि फ़िलहाल सपा सड़क पर पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए संघर्ष करती नहीं दिखाई देती है। जातिगत जनगणना का मुद्दा भी उसने ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।

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सपा की नेता सुमइया राना कहती हैं, ‘सांसद डिम्पल यादव पहले ही कह चुकी हैं कि अगर बुलाया जाएगा तो हम जाएंगे।’ राना का कहना है सपा धर्म के नाम पर राजनीति नहीं करना चाहती है, विपक्ष के पास बीजेपी को घेरने के लिए, महिला सुरक्षा से लेकर महंगाई और बेरोज़गारी तक अनेक मुद्दे हैं।

उन्होंने कहा,‘जिसको अयोध्या जाना होगा उनको किसी के निमंत्रण की ज़रूरत नहीं है। किसी दर्शन करने जाने वाले को कोई रोक नहीं सकता है।’ वह बीजेपी पर हमला करते हुए कहती हैं कि आस्था के नाम पर समाज का बंटवारा करना ग़लत है और बीजेपी की विचारधारा ही फूट डालो और शासन करो की है।

नया धर्मसंकट

समाजवादी पार्टी अगर राम मंदिर की इस उहापोह से किसी तरह निकल भी गई तो लंबे समय तक धर्म के सवाल से बच नहीं पाएगी। बिलकुल यही धर्मसंकट उसके सामने मथुरा की श्रीकृष्‍ण जन्‍मभूमि के मामले में खड़ा होगा, जिसकी झलक एक बार पहले भी दिख चुकी है।

जानकारों का मानना है कि श्रीकृष्‍ण जन्‍मभूमि सपा के गले की हड्डी बन सकती है। कृष्‍ण को यादव समुदाय अपना सजातीय देवता मानता है। यह यादवों की आस्‍था का मसला है जिसकी अनदेखी अखिलेश यादव नहीं कर पाएंगे। उन्‍होंने यदि सांप्रदायिकता के खिलाफ स्‍टैंड लेते हुए कृष्‍ण जन्‍मभूमि का विरोध किया तो यादव वोटों के बड़े हिस्‍से से हाथ धो बैठेंगे।

दूसरी ओर, यदि सपा यादवों की आस्‍था के साथ रहती है तो वह बीजेपी के राजनीतिक ट्रैप में फंस जाएगी और उससे मुसलमान छिटक कर मुकम्‍मल तौर पर कांग्रेस में चले जाएंगे।

 

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