भारत का सामाजिक ढांचा सदियों से जाति व्यवस्था पर आधारित रहा है। यह व्यवस्था जहाँ एक ओर सामाजिक पहचान, पेशे और रिश्तों को नियंत्रित करती रही, वहीं दूसरी ओर भेदभाव, वंचना और उत्पीड़न की सबसे बड़ी जड़ भी बनी रही। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जब तक जाति व्यवस्था कायम है, तब तक सच्चा लोकतंत्र और सामाजिक समानता संभव नहीं। लेकिन विडंबना यह है कि भारतीय राजनीति ने जाति व्यवस्था को समाप्त करने के बजाय उसे अपने वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
उत्तर प्रदेश, जो भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा और निर्णायक राज्य है, वहाँ जातिगत समीकरण चुनावी जीत-हार का सबसे बड़ा आधार रहे हैं। यादव, दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण, ठाकुर और अन्य पिछड़ी जातियों के गठजोड़ ने हर चुनाव में सत्ता का पासा पलटा है। इसी पृष्ठभूमि में इलाहाबाद हाईकोर्ट के हालिया फैसले और योगी आदित्यनाथ सरकार की सक्रियता ने जाति राजनीति को नए मोड़ पर खड़ा कर दिया है।
हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि पुलिस रिकॉर्ड, एफआईआर और गिरफ्तारियों में जातिगत उल्लेख नहीं होगा। सार्वजनिक स्थानों से जातिसूचक स्टिकर हटाए जाएँगे और जाति-आधारित रैलियों पर रोक लगाई जाएगी। सतही तौर पर यह कदम जातिगत भेदभाव खत्म करने की दिशा में क्रांतिकारी प्रतीत होता है, लेकिन जब इसे राजनीतिक संदर्भ में देखा जाता है, तो इसके पीछे कई गहरे प्रश्न खड़े हो जाते हैं।
यह प्रश्न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश की राजनीति और समाज पर असर डालने वाला विषय है। क्या आपको सच में लगता है कि यूपी में जातिगत भेदभाव खत्म हो जाएगा? या ये कोई बड़ा राजनीतिक खेल है?
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उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जातिगत भेदभाव को खत्म करने का दावा किया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद चीफ जस्टिस ने नया आदेश जारी किया है। पुलिस रिकॉर्ड, एफआईआर और गिरफ़्तारियों में जातिगत भेदभाव के निशान नहीं होने चाहिए। सार्वजनिक स्थानों पर लगे सभी जातिसूचक स्टिकर हटा दिए जाने चाहिए। जाति-आधारित रैलियों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। सोशल मीडिया पर जातिगत भेदभाव बंद होना चाहिए, ये तो कहा गया है। लेकिन ये कौन करेगा? इस पर बाद में बात करेंगे। लेकिन सवाल ये है कि कोर्ट का फ़ैसला आ गया और योगी सरकार तैयार थी। मानो शुरू से ही कोई योजना थी। क्या यही असली विरोध है? या ये वोट बैंक की चाल है? और क्या ये भविष्य की कोई योजना है?
कोर्ट का आदेश और सरकार की तत्परता
हाईकोर्ट का आदेश आने के साथ ही योगी सरकार ने तत्परता दिखाई। सरकार ने कहा कि जातिसूचक स्टिकर हटाए जाएँगे, पुलिस रिकॉर्ड से जाति का उल्लेख हटेगा और सार्वजनिक जीवन में जातिगत प्रचार-प्रसार पर रोक लगेगी। सरकार की यह तैयारी इतनी त्वरित थी कि यह संदेह पैदा हुआ कि क्या वास्तव में यह केवल कोर्ट के आदेश का अनुपालन है या फिर पहले से सोची-समझी राजनीतिक रणनीति?
राजनीतिक पृष्ठभूमि और भाजपा का संकट
उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा ने 2014 के बाद अभूतपूर्व सफलता हासिल की। लेकिन समय के साथ यह स्पष्ट हो गया कि केवल ‘हिंदू एकता’ का नारा जातिगत असमानताओं को ढंकने के लिए पर्याप्त नहीं है।
- 2022 विधानसभा चुनाव और 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट बैंक, खासकर दलित और पिछड़े वर्गों में, खिसकता हुआ नज़र आया।
- सपा द्वारा पेश किया गया नया नारा—PDA (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक)-भाजपा की रणनीति को सीधी चुनौती देता है।
- समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और रालोद जैसे दल जातिगत पहचान के आधार पर संगठित होकर भाजपा के ‘हिंदुत्व छत्र’ को कमजोर करने में लगे हैं।
यही वजह है कि जातिगत राजनीति पर रोक लगाने का यह फैसला भाजपा के लिए विपक्षी दलों की जमीन खिसकाने का औजार भी बन सकता है।
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आरएसएस का नजरिया
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का दृष्टिकोण जाति को समाप्त करने का नहीं बल्कि उसे हिंदुत्व की छत्रछाया में समेटने का रहा है।
आरएसएस का प्रयास हमेशा रहा है कि जातियाँ बनी रहें लेकिन उनके ऊपर ‘हिंदू एकता’ का लेप चढ़ा दिया जाए। यदि जाति व्यवस्था पूरी तरह खत्म हो जाए, तो हिंदुत्व की राजनीति की नींव ही कमजोर पड़ जाएगी।यही कारण है कि संघ और उससे जुड़े नेता कभी भी जाति उन्मूलन की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाते।
डॉ. अंबेडकर ने जिस ‘जाति विनाश’ की बात की थी, उस दिशा में न संघ बढ़ा, न भाजपा और न ही कोई प्रमुख हिंदुत्ववादी नेता।
क्या जाति की समस्या सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही है? भाजपा के बुलडोज़र तो और भी जगहों पर चल रहे हैं। क्या ये प्रयोगशाला बन रही है? क्या ये प्रयोग हो रहा है? क्या भाजपा शासित राज्यों को वहाँ ले जाया जाएगा? क्या ये कोई एजेंडा है? क्या ये भी मुमकिन है? बिल्कुल। कुल मिलाकर, विपक्ष पर राजनीतिक निशाना साधा जा रहा है। मुकेश जी ने आरएसएस के जिस सामाजिक एजेंडे का ज़िक्र किया, वो भी एक खेल है। संक्षेप में, आप जाति से छुटकारा पा सकते हैं। अगर लोग भेदभाव करेंगे, तो ये बढ़ेगा।
जातिगत रैलियों और नारों पर रोक लगाने का सीधा असर विपक्षी दलों पर पड़ेगा।
- समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियाँ, जो यादव और पिछड़े वर्गों पर आधारित हैं, अब अपने आधार को खुले तौर पर संगठित करने में मुश्किल का सामना करेंगी।
- दलित राजनीति करने वाली पार्टियों की भी आवाज कमजोर पड़ सकती है।
- इसके विपरीत भाजपा और उसके सहयोगी दल, जो अक्सर जाति-आधारित संगठन खड़े करते हैं (जैसे निषाद पार्टी, अपना दल), सत्ता के कवच की वजह से बचे रहेंगे।
यह स्पष्ट है कि यह कदम विपक्षी राजनीति को कमजोर करने का साधन भी बन सकता है।
जातिगत पहचान हटाने की व्यावहारिकता पर कई सवाल खड़े होते हैं –
- एफआईआर से जाति का उल्लेख हटाना: अपराध और भेदभाव के सामाजिक संदर्भ को छुपाने जैसा होगा। उदाहरण के लिए, यदि किसी दलित पर अत्याचार होता है और एफआईआर में उसकी जाति का उल्लेख नहीं होता, तो अत्याचार की प्रकृति ही धुंधली हो जाएगी।
- गाड़ियों और पोस्टरों से जातिसूचक नाम हटाना: यह केवल सतही सुधार है। इससे सामाजिक मानसिकता और व्यवहार पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
- सोशल मीडिया पर नियंत्रण: जातिगत टिप्पणियाँ रोकना व्यवहार में बेहद कठिन है।
भारतीय राजनीति में जाति के सवाल को बार-बार उठाया गया है।
- मंडल आंदोलन (1990) ने पिछड़े वर्गों को राजनीतिक शक्ति दी।
- कांशीराम और बसपा आंदोलन ने दलितों को राजनीतिक पहचान दिलाई।
- समाजवादी राजनीति ने पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने का काम किया।
लेकिन भाजपा की रणनीति हमेशा जातिगत विभाजनों को ढककर ‘हिंदू पहचान’ को प्रमुखता देने की रही है। यही रणनीति अब नए रूप में सामने आई है।
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विपक्ष की जाति-आधारित राजनीति कमजोर होगी, भाजपा को तात्कालिक लाभ मिलेगा। जातिगत असमानता छुपाने से संघर्ष और टकराव और बढ़ सकते हैं। जब जाति का विमर्श दबेगा, तब धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण और तेज़ होगा। उत्तर प्रदेश को हमेशा से ‘राजनीतिक प्रयोगशाला’ कहा गया है। यदि यह प्रयोग सफल हुआ तो इसे अन्य भाजपा-शासित राज्यों में भी लागू किया जा सकता है। जातिगत पहचान पर अंकुश लगाने से दलित और पिछड़े वर्ग नए आंदोलन खड़े कर सकते हैं, जिससे सामाजिक टकराव गहरा सकता है।
भारत में जाति व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि केवल नाम और प्रतीकों को हटाने से भेदभाव समाप्त नहीं होगा। अगर सरकार वास्तव में जातिगत भेदभाव खत्म करना चाहती है तो उसे शिक्षा, रोजगार, अवसरों की समानता और सामाजिक सम्मान सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।
लेकिन राजनीतिक वास्तविकता यह है कि जाति और धर्म, दोनों ही भारतीय राजनीति के सबसे बड़े वोट बैंक उपकरण बने हुए हैं। भाजपा और आरएसएस जहाँ जाति को हिंदुत्व की छत्रछाया में समेटकर एकता दिखाना चाहते हैं, वहीं समाजवादी और क्षेत्रीय दल जातिगत पहचान के आधार पर हाशिए पर खड़े लोगों को संगठित करना चाहते हैं।
इसलिए कहा जा सकता है कि योगी सरकार का यह नया दांव केवल सामाजिक सुधार का प्रयास नहीं, बल्कि एक गहरी राजनीतिक चाल है, जो आने वाले चुनावों में विपक्ष की रणनीति को चुनौती देने के लिए तैयार किया गया है। अगर इस कदम से जातिगत भेदभाव सचमुच खत्म होता, तो यह भारतीय समाज के लिए ऐतिहासिक उपलब्धि होती। लेकिन जब तक इसके पीछे राजनीति का वर्चस्व रहेगा और जाति व्यवस्था की जड़ों पर चोट नहीं की जाएगी, तब तक यह सिर्फ़ चुनावी शतरंज का एक नया मोहरा भर रहेगा। योगी आदित्यनाथ का यह कदम सतही तौर पर जातिगत भेदभाव मिटाने का दावा करता है। लेकिन गहराई में देखें तो यह एक राजनीतिक दांव है, जिसका उद्देश्य विपक्ष को कमजोर करना और भाजपा के लिए अनुकूल माहौल बनाना है।
यदि सरकार सचमुच जातिगत भेदभाव खत्म करना चाहती है, तो उसे शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और सामाजिक सम्मान में समान अवसर सुनिश्चित करने होंगे। जाति उन्मूलन केवल प्रतीकों से संभव नहीं, बल्कि इसके लिए ठोस सामाजिक सुधार और संवैधानिक संकल्प की आवश्यकता है। अभी तक के संकेत यही हैं कि यह पहल जाति व्यवस्था को खत्म करने की दिशा में नहीं, बल्कि चुनावी शतरंज की बिसात पर नया मोहरा चलने जैसी है। असली सवाल यही है – क्या यह कदम सामाजिक समानता का मार्ग प्रशस्त करेगा या फिर उत्तर प्रदेश और भारतीय राजनीति को जाति और धर्म की नई खाइयों में धकेल देगा?
(संदर्भ :Satvika Dhamakedar. Show Bebaat Mukesh: (Turbhttps://youtu.be/jInFeq-xDIY?si =YJvGjx9losKZzU5W)