लोकसभा चुनाव 2024 के लिए बहुजन समाज से बसपा के अतिरिक्त अनेक राजनीतिक दल भी मैदान में उतरने का दंभ भर रहे हैं। विदित हो कि रिपब्लिक पार्टी के बाद बसपा ने बहुजनों के लिए जो काम किया, वैसा अन्य कोई बहुजन, समाज को एक करने के बजाय अन्यंय राजनीतिक दल बनाकर बहुजनों के वोटों को छितराने का काम कर रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा यही चाहती भी है। ये बहुत से बहुजनों को कुछ न कुछ लोभ देकर बहुत सी ‘जेबी राजनीतिक’ पार्टियों का सृजन कराने का काम करती है, ताकी बहुजनों और ओबीसी के वोट बैंक कहीं एकजुट न हो जाएं। कमाल की बात तो यह है कि बहुजनों के राजनीतिक दल आपस में ही एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे रहते हैं।
जैसे-जैसे आम चुनाव 2024 नजदीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे राजनीतिक अखाड़े में विभिन्न राजनीतिक दलों ने खम्बा ठोकने का काम शुरू कर दिया है। कांगेस और अन्य पार्टियों में अपने-अपने धड़े बनाने का काम इतनी जोरों से चला कि जहाँ सत्ता पक्ष भाजपा NDA ने लगभग 36 छोटे-बड़े दलों एक धड़ा तैयार कर लिया है। यह बात अलग है कि इस धड़े में अधिकतर वर्चस्वहीन दलों का सम्मिलन है। वहीं, विपक्षी दलों ने भी 28 दलों की आपसी सहमति से I.N.D.I.A. नामक धड़े की स्थापना करके भाजपा को कड़ी टक्कर देने का इरादा कर लिया है। ज्ञात हो कि I.N.D.I.A. में शामिल दलों का लोकसभा अथवा राजसभा में सबका प्रतिनिधित्व है।
बहुजन समाज में भी बसपा के अतिरिक्त अनेक राजनीतिक दल भी मैदान में उतरने का दम भर रहे हैं। विदित हो कि रिपब्लिक पार्टी के बाद बसपा ने बहुजनों के लिए जो काम किया, वैसा कोई अन्य बहुजन समाज को एक करने के बजाय अन्यंय राजनीतिक दल बनाकर बहुजनों के वोटों को छितराने का काम कर रहे हैं। यही कांग्रेस और भाजपा चाहती भी है। यह भी कि बहुत से बहुजनों को कुछ न कुछ लोभ देकर बहुत सी ‘जेबी राजनीतिक पार्टियों’ का सृजन कराने का काम करती हैं, ताकी बहुजनों और ओबीसी के वोट बैंक कहीं एकजुट न हो जाएं। कमाल की बात तो यह है कि बहुजनों के राजनीतिक दल आपस में ही एक-दूसरे की टाँग खींचने में लगे रहते हैं। परिणामत: बहुजन समाज पार्टी भी कमजोर होती जा रही है। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि इसी कारण से ये सारे दल कांग्रेस अथवा भाजपा के हाथों की कठपुतली बने रहते हैं और बहुजन-हितों को साधने के विपरीत ही काम करते हैं। खास बात ये है कि सभी राजनीतिक दल बाबा साहेब अम्बेडकर के नाम की माला जपने लग गए हैं।
[bs-quote quote=”आज के दौर में अम्बेडकरवादी के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो रहे हैं… खासकर राजनीति के क्षेत्र में। अम्बेडकर की विरासत को आगे ले जाने के नाम पर पहले सामाजिक और धार्मिक मंच बनते हैं, फिर धीरे-धीरे कुछ समय के अंतराल से ये सामाजिक व धार्मिक मंच राजनीतिक दलों में तब्दील हो जाते हैं।… जाहिर है कि ऐसे लोग न तो समाज के तरफदार होते हैं और बाबासाहेब के।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बामसेफ द्वारा गठित बहुजन मुक्ति पार्टी (बीएमपी) भारत में एक राजनीतिक पार्टी है, जिसे 6 दिसंबर (2012) को लॉन्च किया गया था। यह भी लोकसभा चुनाव में अधिकतर सीटों पर चुनाव लड़ने का दम भर रही है। खबर है कि बीएमपी ने लोकतांत्रिक जनता दल (6 दिसंबर, 2012 को स्थापित) के साथ एक विलय का प्रस्ताव किया था, लेकिन यह प्रस्ताव व्यक्तिगत हितों के चलते कार्यरुप नहीं ले पाया। इसे अखिल भारतीय पिछड़ा (एससी, एसटी, ओबीसी) और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ (बामसेफ) के राजनीतिक विंग के रूप में स्थापित किया गया। भीम आर्मी के प्रमुख और आज़ाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आज़ाद रावण ने अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर प्रगतिशील जनतांत्रिक गठबंधन बना लिया है। अन्य अनेक ‘जेबी बहुजन राजनीतिक दलों’ की गिनती करना भी टेड़ी खीर है।
खास बात यह है कि ऊपरी तौर पर तो इन दलों का उद्देश्य एक ही है, किंतु एक मंच पर एकत्र होकर हिंदुवादी शक्तियों से टकराने का काम ये दल नहीं कर पाते। होना तो ये चाहिए कि ये राष्ट्र के नाम पर भारत की अखंडता और गरिमा के लिए खतरा बने कट्टरपंथियों से टकरा कर समतावादी समाज बनाने का काम करें। किंतु ये सब अपना-अपना वर्चस्व कायम करने का भाव नहीं पाल पाते। सभी के सभी दल यूं तो अम्बेडरकरवादी होने का दम भरते हैं, किंतु बाबासाहेब के विचारों और आदर्शों को ठेंगा दिखाकर आपस में ही खींचतान पर लगे रहते हैं। इनके इस प्रकार के काम से बहुजन समाज का हित होने के बजाय अहित ज्यौर ज्यादा हो जाता है।
परिणामत: संविधान के विरोध में हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले आरएसएस, बजरंग दल आदि संगठनों को बढ़ावा और मिल जाता है। संविधान अवलेहना करके भाजपा और इसकी पैतृक संस्था आरएसएस एक सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक व्यवस्था भारत में स्थापित न करने में नजर आ रही है। कागजी तौर पर तो भारत के प्रत्येक नागरिक को समानता, स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों के अंर्तगत अपना सर्वांगीण विकास करने का अवसर प्राप्त है, पर व्यावहारिक तौर पर ऐसा नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से देश में कट्टरपंथी राजनीतिक दलों और अनुषांगिक संगठनों के राजनीति में बढ़े प्रभाव के कारण शोषित वर्गो, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिम समुदाय और उनके धार्मिक स्थलों पर योजनाबद्ध हमले हो रहे हैं। बेकसूर मुस्लिम युवकों को झूठे मुकदमे बनाकर जेलों में डाला जा रहा है।
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मुझे लगता है कि बुद्ध का यही एक ऐसा विचार रहा होगा जिसने बाबा साहेब को बुद्ध धम्म के अलावा कोई अन्य धम्म अपनी ओर नहीं खींच पाया, क्योंकि बाबासाहेब ने भी अपने अंतिम दिनों में ऐसा ही कुछ कहा था कि ‘कोई भी मुझे पूजने की वस्तु न बनाए, अन्यथा इसमें उसका ही अहित होगा।’ बताते चलें कि 14 अक्टूबर (1956) को बाबासाहेब आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया था। इसका खास कारण था कि वे तथाकथित देवताओं के जंजाल को तोड़कर एक ऐसे भारत की कल्पना करते थे, जो धार्मिक तो हो किंतु ग़ैर-बराबरी को जीवन मूल्य न माने।
उन्होंने ये भी कहा था कि ‘कोई भी किसी बात को महज इसलिए न माने कि वो किसी किताब में लिखी है या फिर किसी अमुक व्यक्ति के द्वारा कही गई है। इसलिए भी नहीं कि वो मैंने कही है… उस बात की सत्यता या तर्क को अपने स्तर पर भी परख लेने की जरूरत है।’
बाबासाहेब आंबेडकर ने यह बात 1950 में बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य नामक एक लेख में कहा था कि यदि नई दुनिया, पुरानी दुनिया से भिन्न है तो नई दुनिया को पुरानी दुनिया से धर्म की अधिक जरूरत है। उनकी यह तमाम कोशिशें शोषण के सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दासत्व के प्रकट-अप्रकट कारणों को समाप्त करने की दिशा में एक ठोस प्रयास था।
अक्सर यह भी पढ़ने को मिलता है कि बाबासाहेब अंबेडकर के द्वारा बौद्ध धम्म को एक उचित धम्म मानने के पीछे बुद्ध की विचारधारा में छिपी नैतिकता तथा विवेकशीलता थी। बाबासाहेब अपने एक प्रसिद्ध लेख बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स में लिखते हैं कि ‘भिक्षु संघ का संविधान एक लोकतांत्रिक संविधान था। स्वयं बुद्ध तमाम भिक्षुकों में से एक भिक्षु ही थे। वह तानाशाह कभी नहीं रहे। कहा जाता है कि उनकी मृत्यु से पहले उनसे दो बार कहा गया कि वह संघ पर अपना नियंत्रण रखने के लिए किसी व्यक्ति को संघ का प्रमुख नियुक्त कर दें। लेकिन हर बार उन्होंने तानाशाह बनने और संघ का प्रमुख नियुक्त करने से इंकार कर दिया।’ कहा, ‘भिक्षु संघ ही प्रमुख है।’
आज जिस विषय पर मैं विचारने का प्रयास कर रहा हूँ, वह सीधे तौर पर हमारे रहन-सहन, हमारी संस्कृति और आज के गतिशील जीवन के मूल्यों से सम्बंधित है। कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बुद्ध और बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों को आत्मसात न कर पाने के कारण आज भी हम अनेक परम्परागत विचारों और शैलियों से उभर नहीं पाए हैं। रूढ़िवादिता आज भी हमारे जेहन में डर बनाए हुए है। इसका कारण मुझे तो केवल और केवल यह लगता है कि हम बुद्ध व बाबासाहेब अम्बेडकर के अनुयाई होने का दावा तो करते हैं, किंतु उनके आदर्शों को हमें स्वीकार करने में अभी लगभग दूर हैं। यह बात अलग है कि तथाकाथित अम्बेडकरवादियों की एक लम्बी कतार मंचों से बड़ी-बड़ी बात करती है, लेकिन आचार-व्यवहार में जहाँ की तहाँ है। यह जानते हुए भी कि परम्पराएं हमारे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि के विकास के लिए न केवल बाधक हैं,, अपितु कष्टकारी भी। हम इन को छोड़कर अपने जीवन मूल्यों को बचा सकने का प्रयास क्यों नहीं करते? यही आज का मूल प्रश्न है। कमाल की बात तो ये है कि बाबासाहेब अम्बेडकर को हिंदुवादी शक्तियां अपनी ओर ठीक वैसे ही खींच रहीं हैं, जैसे मुसलमानों ने सांई बाबा को अपनी ओर खींचकर कमाऊ देवता की भूमिका में अंगीकार कर लिया। अब वो शक्तियां बाबासाहेब को अपने पाले में खींचकर राजसत्ता के शिखर को चूमने के प्रयास में जुटी हैं। बुद्ध और बाबा साहेब के नाम पर हम नाहक ही उछल-कूद रहे हैं।
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‘पूरे विश्व में ‘बुध्द’’ ही ऐसे व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने कहा था कि मेरी पूजा मत करना, ना ही मुझसे कोई उम्मीद लगा के रखना कि मैं कोई चमत्कार करूंगा…। दु:ख तुमने पैदा किया है और उसको दूर भी तुम्हें ही करना पड़ेगा। मै सिर्फ मार्ग बता सकता हूँ क्योंकि मै जिस मार्ग पर चला हूँ उस रास्ते पर तुम्हें स्वयं ही चलना पड़ेगा। मैं कोई मुक्तिदाता नहीं, केवल और केवल मार्गदाता हूँ।’ और ऐसा संदेश ही बाबासाहेब अम्बेडकर ने भी दिया है। ऊपरी तौर पर आज हम नित्यप्रति होने वाले अनेक आयोजन बुद्ध रीति अथवा बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों के अनुरूप और उनको साक्षी मानकर सम्पन्न करते हैं, किंतु कार्यविधि में कोई अंतर देखने को नहीं मिलता। हिन्दू धर्म के रीति-रिवाजों की छाया ही हर कार्यक्रम में देखने को मिलती है। तथागत बुद्ध और बाबासाहेब की पूजा ठीक उसी प्रकार की जाती है, जैसे हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। यह गर्व की बात मानी जा सकती है कि आज शहरों के मुकाबले गावों में बुद्ध और बाबासाहेब की मूर्तियां स्थापित की जा रही हैं किंतु ये नवनिर्मित बुद्ध विहार अथवा अम्बेडकर भवन पूजा-पाठ के हिसाब से परम्परागत हिन्दू मन्दिरों का रूप ही लेते जा रहे हैं।… यह दुख की बात ही नहीं, अपितु सामाजिक विकास के लिए अति घातक है। ऐसे कर्मकाण्डों से बचने के लिए हमें पहले अपनी औरतों को वैचारिक और मानसिक रूप से शिक्षित करके उनके मन से तथाकथित भगवान के डर से मुक्त करने की जरूरत है। आज हमें बुद्ध जैसे भिक्षु की ही जरूरत है न कि बुद्ध और अम्बेडकर के नाम पर माला जपने वाले झुंडों की।
बड़े ही दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज के दौर में अम्बेडकरवादी के झुण्ड के झुण्ड पैदा हो रहे हैं… खासकर राजनीति के क्षेत्र में। अम्बेडकर की विरासत को आगे ले जाने के नाम पर पहले सामाजिक और धार्मिक मंच बनते हैं, फिर धीरे-धीरे कुछ समय के अंतराल से ये सामाजिक व धार्मिक मंच राजनीतिक दलों में तब्दील हो जाते हैं।… जाहिर है कि ऐसे लोग न तो समाज के तरफदार होते हैं और बाबासाहेब के। ये तो बस बाबासाहेब का लॉकेट पहनकर अपने-अपने हितों को साधने के लिए वर्चस्वशाली राजनीतिक दलों के हितों का साधन बनकर कुछ चन्द चुपड़ी रोटियां पाने का काम ही करते हैं। मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूँ, यह सचाई सबको पता है, किंतु इनमें से अधिकतर लोग वो हैं, जो अम्बेडकर विरोधी दलों की गुलामी कर रहे दलितों नेताओं के चमचों में शामिल हैं। गए वर्षों में भाजपा नीति की सरकार के दौर में दलितों के खिलाफ न जाने कितने ही निर्णय हुए… वो अलग बात है कि बाद में सरकार ने दलितों की नाक काटकर अपने ही रुमाल से पोंछने का काम किया। एक जाने-माने तथाकथित दलित नेता ने तो अपने बेटे को ही मैदान में उतारकर 02.04.2018 के दलित/ अल्पसंख्यक/ पिछड़ा वर्ग के द्वारा आयोजित सामूहिक बंदी में अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने में लगे थे। भाजपा में शामिल दलित नेता ही नहीं, कांग्रेस में शामिल दलित नेता भी ऐसी दलित विरोधी गतिविधियों पर सवाल करने से हमेशा कतराते रहे हैं। और तो और ये दलित नेता अपने आकाओं के क्रियाकलाप की समीक्षा न करके दलित राजनीति के सच्चे पैरोकारों के पैरों में कुल्हाड़ी मारने का काम करते हैं। बाबासाहेब का यह कहना कि ‘मुझे गैरों से ज्यादा अपने वर्ग के ही पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया…’ सही लगता है।
तेजपाल सिंह ‘तेज’ विचारक और लेखक हैं।