यादवों के प्रति बहुजनों और सवर्णों का नजरिया जानने और उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन सामने लाने के मकसद से मैंने 26 फ़रवरी को फेसबुक पर यह पोस्ट डाला –’सपा के सत्ता में आने की प्रबल संभावना देखकर लोग यादवों से चिंतित हैं, आखिर क्यों? इस पोस्ट को डालने का मन तभी बन गया था, जब कुछ विद्वान बहुजन मित्रों के यादवों के प्रति नकारात्मक नजरिया प्रस्तुत किया और आहत होकर मैंने 11 जनवरी को फेसबुक पर कमेन्ट करने के लिए बाध्य हुआ था,’ दलित तो अपने बूते सरकार बनाने से रहे। अगर दलित सरकार बनायेंगे तो यूपी मॉडल से ही बना सकते हैं। अगर आपको लगता है कि दलित प्योर जातिमुक्त और समतावादी हैं तो यह आपका भ्रम है। दलित भी उतने ही बर्बर हैं, जितना अन्य समुदाय। यादव समाज भले ही अन्य समाजों की तरह बर्बर हो, पर इस समाज से नेता के रूप मे उभरे लालू यादव, ललई सिंह यादव, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव ने दलित समाज के प्रति सदाशयता का ही परिचय दिया है। राम विलास पासवान को लालू प्रसाद यादव अगर राज्यसभा में नहीं भेजते शायद बहुत पहले ही उनका राजनैतिक जीवन खत्म हो गया होता। कांशीराम भी बड़े नेता बने तो मुलायम यादव ने भी योगदान किया। अगर बसपा के 10 लोग सांसद है तो उसमें अखिलेश यादव की भी कुछ भूमिका है।अतः यादव नेतृत्व के प्रति सदय बनने की मानसिकता विकसित करें। किन्तु उस उक्त कमेन्ट के बाद चुनाव से जुड़े लेख लिखने में इतना व्यस्त हो गया कि इसके लिए समय ही नहीं निकाल पाया। अब जबकि कुछ फ्री हुआ हुआ हूँ यादवों के प्रति लोगों के नजरिये का अध्ययन सामने लाने के लिए 26 फ़रवरी को डाली गई पोस्ट से मैं विस्मित हुए बिना नहीं रहा।
फेसबुक ने खोला कमेन्ट का बंद पड़ा : फ्लड गेट !
सबसे बड़ी हैरानी की बात यह कि मेरी पोस्ट पर कुछेक घंटों में सौ से अधिक कमेन्ट आ गए। इसके पहले मैंने कई बार शिकायत भरे लहजे में लहजे में लिखा था कि लगता है फेसबुक पर राष्ट्रवादियों का पूरी तरह से नियंत्रण हो गया है, इसलिए मेरे जिन पोस्ट पर सैकड़ों कमेन्ट आना चाहिए, वहां बमुश्किल 2-4 आते हैं। किन्तु ऐसा लगता है, 26 फ़रवरी को कमेन्ट का फ्लड गेट खुल गया और सैलाब आ गया। और ऐसा होने के कारणों की तह में गया तो एक ही बात नजर आई, वह एफबी की यादवों और सपा के प्रति नकारात्मक नजरिया और सवर्णवादी भाजपा के प्रति दुर्बलता। इस बार के विधानसभा चुनाव में सपा के पक्ष में रिकॉर्ड तोड़ लेखन करने वाले व्यक्ति की ओर से डाला गया उपरोक्त पोस्ट सपा और यादव विरोधियों को जमकर भड़ास निकलने का अवसर सुलभ करा दिया। मेरी दो लाइन की पोस्ट पर लोगों की जो प्रतिक्रिया आई है, उसमें यादवों के प्रति विभिन्न जातियों की मनोवृत्ति के अध्ययन का काफी सामान है। यह पोस्ट अब भी मेरे टाइम लाइन पर मौजूद है, पाठक चाहें तो मेरे दावे की परख कर सकते हैं!
दलित – बहुजन दृष्टि में यादव
एक बड़े दलित चिन्तक, जो बसपा के पक्ष में लेखन करने वालों में टॉप पर हैं, लम्बे अन्तराल के बाद मेरे पोस्ट पर कमेन्ट करने की जहमत उठाये और लिखे ,’मान्यवर साहब की ‘अजगर’ थ्योरी हमेशा सटीक है। क्योंकि वास्तव में ब्राह्मण, ठाकुर से ज्यादा “अजगर “जातियां अत्याचार करती है।’ एक विशिष्ट दलित विदुषी ने लिखा,’ यादव समाज सवर्ण से मिलकर दलित एट्रोसिटी करता है। सपा आयी तो गुंडागर्दी बढ़ जाएगी। बीजेपी और सपा राज में कोई अंतर नहीं, ’उन्हीं की तरह एक और दलित विदुषी का यह कमेन्ट रहा, ’यादवों की छवि दबंग के रूप में स्थापित हैऔर यादव हिंदुत्व के मजबूत वाहक हैं, जिन्हें बाभन अपने नजदीक लगते हैं पर दूसरे बहुजन नहीं, खासकर आंबेडकरवादी या बौध्द समाज ! जबकि ये खुद अतीत के बौध्द ही हैं जो अपना इतिहास भूल चुके है।’ एक युवा दलित ने राय दी, ’यादव दलितों के लिये खतरनाक कौम है!’ एक अन्य चर्चित दलित बुद्धिजीवी ने, कमेन्ट न कर मुझे फोन पर याद दिलाया कि अखिलेश सरकार में डेढ़ लाख दलितों का डिमोशन हुआ, समाजवादी पार्टी के सांसद ने संसद में प्रमोशन में आरक्षण का बिल फाड़ा। बाबा साहेब को सही सम्मान नहीं मिला तथा बहुजन महापुरुषों के नाम पर बने जिलों और स्मारकों का नाम बदल दिया गया।’ कुशवाहा समाज में जन्मे एक जेनुआइट प्रोफ़ेसर ने लिखा, ‘मैंने यूपी और बिहार दोनों जगह यादवों के अत्याचार देखे हैं। यादव गुंडागर्दी के कारण, भाजपा की सरकार ने यूपी में शांति दी है। योगी राज में अपराध हुए हैं लेकिन यादव राज से काफी कम, इसे और भी कम करने की जरूरत है न कि यादव राज लाकर बढ़ाने की’.मिश्रा सरनेम से लैस एक सवर्ण मित्र का कमेन्ट रहा,’ क्योंकि यूपी के लोग सच्चाई जानते हैं… ये सत्ता में आने के बाद सबसे ख़तरनाक होते हैं। 2017 में भी इन्हीं के खिलाफ सभी लोगों ने वोट किया। चाहे वो ओबीसी हो या एससी या सामान्य.
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बहुसंख्य दलित बहुजनों की राय यह है
लेकिन दलित- पिछड़े समाज के विद्वानों की उपरोक्त राय के आधार पर यह धारणा बनाना गलत होगा कि सभी दलित यादवों के प्रति एक जैसी राय रखते हैं। मौर्या सरनेम से युक्त एक व्यक्ति ने लिखा,’ यह एक मनुवादियों की चाल है।’ एक दलित मित्र का कमेन्ट रहा, ’क्योंकि दिमागी गुलामों को सवर्णों की लात पसंद है परन्तु यादव की बात नहीं।‘ रैदास सरनेम से युक्त एक दलित का कमेन्ट रहा, ‘क्यूंकि कुछ लोगों को गुलामी से आज़ादी पसंद नही आती। हाथरस, उन्नाव, गोरखपुर जैसे केसों में ठाकुरों द्वारा उत्पीड़न में जो मज़ा मिलता है वो आज़ादी की हवा में कहाँ मिलेगा।’ कबीर सरनेम वाले एक मित्र का कमेन्ट रहा, ‘यादव का दबंग होना कम से कम हमारे आस पास के क्षेत्रों के लिए सुखद अनुभव रहा है। ठाकुरों के आतंक को कुछ हद तक भोथरा किया है यादवों ने हमारे क्षेत्र में’। मेरे परिचित एक सजाति डॉक्टर ने कमेन्ट किया है, ‘गुलामी तोड़ने का माद्दा यादव ही रखता है। पटना के मेरे एक सजातीय मित्र ने मुझे झिड़की लगाते हुए लिखा है, ‘ब्राह्मण से डरना छोड़ दिये क्या?’ एक और सजाति ने ताना मारते हुए कमेन्ट किया, ‘एक तरफ आप बहुजन की बात करते हैं और दूसरी तरफ यादव–कुर्मी करते है। ये आप का कौन सा बहुजनवाद है?’
[bs-quote quote=”केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 1 जनवरी 2016 को जारी आंकड़े बताते हैं कि केंद्र सरकार में ग्रुप ‘ए’ की कुल नौकिरयों की संख्या 84 हजार 521 है। इसमें 57 हजार 202 पर सामान्य वर्गो ( सवर्णों ) का कब्जा है। यह कुल नौकरियों का 67.66 प्रतिशत होता है। इसका अर्थ है कि 15-16 प्रतिशत सवर्णों ने करीब 68 प्रतिशत ग्रुप ए के पदों पर कब्जा कर रखा है और देश की आबादी को 85 प्रतिशत ओबीसी, दलित और आदिवासियों के हि्स्से सिर्फ 32 प्रतिशत पद हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बहरहाल मेरे छोटी सी पोस्ट पर कुछ दलित और ओबीसी विद्ववानों ने सपा के प्रति जरूर नकारात्मक नजरिया पेश किया है पर उनके विपरीत अधिकाँश दलित-पिछड़े समाज के बुद्धिजीवियों ने जो सकारात्मक रुख अपनाया है, उसके आधार पर दावे से कहा जा सकता है कि बहुत थोड़े से बहुजन हैं जो यादवों के प्रति विद्वेष का भाव रखते हैं। ऐसे में उन लोगों की राय ही सही है जो यह लिखें हैं कि यादवों के प्रति जो खौफ का वातावरण बनाया जा रहा है, उसके पीछे संघ की चाल है। ऐसे में सूर्य सरनेम वाले एक मित्र की यह राय बिलकुल सही लगती है, ‘यह वाक्य भाजपा और संघ की फैक्ट्री से निकला है, हिन्दू मुस्लिम, धर्म मजहब, जातिवाद जैसे तमाम हथकंडे जब फेल हो गये तो यह नया शगूफा मार्केट में लांच किया जा रहा है।’ मैं पाठकों को यह बतलाना चाहूँगा कि मैंने जो दो लाइनें पोस्ट की हैं, जिस पर सौ से अधिक कमेन्ट आये हैं, वह मेरी निजी राय नहीं है, पास- पड़ोस में जो सुन रहा था, वही मैंने अपनी ओर से फेसबुक पर डाल दिया था. बहरहाल यादवों का खौफ फैलाकर जबरदस्त विजय की ओर बढ रही सपा को रोकने की यह संघी चाल नयी नहीं है: वह मंडल उत्तरकाल में इस दिशा में लगातार सक्रिय रहा है।
मंडल उत्तर काल में संघ के निशाने पर तीन जातियां : अहीर- चमार- दुसाध !
स्मरण रहे 7 अगस्त, 1990 को जब मंडल रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उसके दो तरफ़ा असर हुए। एक तो पिछड़ों को आरक्षण मिलने का मार्ग प्रशस्त और दूसरे, रातों रात बहुजनों की जाति चेतना का ऐसा लम्बवत विकास हुआ कि सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हो गए। जाति चेतना का लम्बवत विकास खासतौर से देश की दिशा तय करने वाले यूपी और बिहार में हुआ और इस प्रक्रिया में यूपी में मायावती और मुलायम सिंह यादव तथा बिहार में लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान ऐसे महानायक के रूप में उभरे, जिनके साये में पनाह लेने के लिए सवर्ण राजनेता विवश हुए। इस स्थिति पर संघ की पैनी नजर थी। इसलिए जब उसने मंडल के खिलाफ अपने राजनीतिक संगठन भाजपा के जरिये राम जन्मभूमि-मुक्ति आन्दोलन छेड़कर सत्ता अख्तियार किया, उसने उस का दो तरफ़ा इस्तेमाल किया। पहला, उसने भाजपा के जरिये आरक्षण के खात्मे के लिए देश की उन संस्थाओं को बेचने का युद्ध स्तर पर अभियान छेड़ा, जहाँ वंचितों को आरक्षण मिलता है और दूसरा, लालू – मुलायम, मायावती- पासवान को बहुजन वर्ग से अलग-थलग करने का एक अघोषित युद्ध छेड़ा। यह लक्ष्य यूपी में यादव और चमार तथा बिहार में यादव और दुसाध को कमजोर करके ही अंजाम दिया जा सकता था। इस बात को ध्यान में रखते हुए संघ ने इसकी शुरुआत नयी सदी में राजनाथ सिंह के दलित-अतिदलित की विभाजन नीति के जरिये किया, पर, मायावती के कारण यह परवान न चढ़ सका। किन्तु संघ यूपी का फार्मूला बिहार में जमीन पर उतारने में सफल हो गया। 2005 में बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में वहां 22 दलित जातियों को दलित- महादलित में बाँट दिया गया। शुरू में 18 जातियों को महादलित में और 4 को दलित में रखा गया। किन्तु जल्द ही 4 में से 3 जातियों को महादलित में शामिल कर दुसाधों को अकेले दलित श्रेणी में रख दिया गया। ऐसा होने पर 21 महादलित जातियां थोड़ी सी सुविधा के बदले दुसाधों को शत्रु के रूप में ट्रीट करने लगी। इससे रामविलास पासवान चिरकाल के लिए कमजोर होने के लिए अभिशप्त हुए। बिहार में तो यादवों को दुसाधों की भांति कानून बनाकर अलग-थलग नहीं किया गया, किन्तु बड़ी सफाई से गैर-यादवों को यादवों के खिलाफ करने का लगातार प्रयास हुआ।
[bs-quote quote=”मिलिट्री में तो इनकी संख्या को देखते हुए कई बार संसद में यादव रेजिमेंट गठित करने की मांग उठी है। शारीरिक वैशिष्ट्य के कारण खेल-कूद और फिल्म इत्यादि में भी इनकी उल्लेखनीय उपस्थिति है। इस समाज के बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में भी बेहतर परफॉर्म कर रहे हैं। इस समाज के लोग लेखन और शैक्षणिक क्षेत्र में भी अलग से दृष्टि आकर्षित करते हैं। इन सब विविध कारणों से यादव यूपी-बिहार में भारत के जन्मजात प्रभुत्वशाली वर्ग के प्रभुत्व को चुनौती देते रहते है. इस कारण वे जन्मजात सुविधाभोगी के हितों के प्रति समर्पित संघ की आँखों में किरकिरी बनकर चुभते रहते हैं, और संघ इनको अलग-थलग करने का षडयंत्र किये जा रहा है” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बिहार के दलित – महादलित की भांति यूपी- बिहार सहित शेष भारत में आरक्षित वर्गों बंटवारा हो इस दिशा में रोहिणी आयोग जैसे अन्य कई आयोगों के गठन के साथ न्यायालय का भी सहारा लिया गया। साथ ही मीडिया के जरिये दलित पिछड़ों के अधिकारों की लड़ाई में अग्रणी भूमिका अदा करने वाले चमार- दुसाध और यादवों को हकमार वर्ग में के रूप में प्रचारित करने का संघ की ओर से सघन अभियान चलाया गया। इसी क्रम में योगी सरकार में पिछड़ों और दलितों के आरक्षण को तीन-तीन भागों में करने प्रयास हुआ, जो कुछेक कारणों से सफल नहीं हो पाया। लेकिन भाजपा की अगर केन्द्रीय सत्ता से विदाई नहीं हुई तो संघ यादव-चमार और दुसाध जैसे कथित हकमार जातियों से अति-पिछड़े और अति-दलितों को उनका हक़ दिलाने के नाम पर आरक्षण को एकाधिक भागों में बांटकर, बहुजन आन्दोलन को इस कदर जमींदोज कर देगा कि फिर बहुजन सवर्णों का प्रतरोध करने की स्थिति में नहीं रहेंगे।
समर्थ लोगों और समुदायों ने ही दिया है शोषकों को चुनौती
बहरहाल संघ परिवार ने आरक्षित वर्ग की जिन लड़ाकू जातियों को अलग-थलग करने की योजना पर पूरा जोर लगाकर काम करना शुरू किया है, उनमें सबसे ज्यादा निशाने पर यादव हैं। यहाँ यह बुनियादी बात याद रखना है कि सामान्यतया तुलनामूलक रूप से सक्षम व्यक्ति और समुदाय ही शोषकों के खिलाफ सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई को नेतृत्व देता रहा है, दुनिया का इतिहास इसका साक्षी है। आधुनिक भारत में बहुजन अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार, अयंकाली, बाबा साहेब डॉक्टर आंबेडकर, बाबू जगदेव प्रसाद, कांशीराम इत्यादि : प्रायः सभी ही आर्थिक –शैक्षिक रूप से तुलनात्मक रूप से अग्रसर रहे पृष्ठभूमि के रहे। इसी तरह राजेन्द्र यादव, एसके विस्वास, चंद्रभान प्रसाद, दिलीप मंडल, ओम प्रकाश वाल्मीकि, कँवल भारती, डॉ जयप्रकाश कर्दम इत्यादि तमाम बहुजन लेखक, जिन्होंने लेखन में महत्वपूर्ण छाप छोड़ी, बहुजन समाज के अन्य लोगों की तुलना में कुछ बेहतर स्थिति के लोग रहे। इसी तरह आंबेडकर उत्तर काल में बहुजन आन्दोलन को आगे बढ़ाने में यूपी के चमार और यादव, बिहार के दुसाध और यादव इसलिए विशेष योगदान कर पाए क्योंकि इनके पास राजनीति को प्रभावित करने लायक जनसंख्या- बल, आर्थिक और शैक्षिक सामर्थ्य औरों से बेहतर रहा। इस मामले में यादव अलग से दृष्टि आकर्षित करते हैं।
गूगल के मुताबिक देश की कुल आबादी में यादवों का योगदान 20 करोड़ से अधिक का है। भारतीय व्यापार के 11.5 प्रतिशत प्रबंधन यादवों के हाथ में है। इस समाज के लोग विशेष शारीरिक सामर्थ्य के कारण मिलिट्री और पुलिस में है। मिलिट्री में तो इनकी संख्या को देखते हुए कई बार संसद में यादव रेजिमेंट गठित करने की मांग उठी है। शारीरिक वैशिष्ट्य के कारण खेल-कूद और फिल्म इत्यादि में भी इनकी उल्लेखनीय उपस्थिति है। इस समाज के बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में भी बेहतर परफॉर्म कर रहे हैं। इस समाज के लोग लेखन और शैक्षणिक क्षेत्र में भी अलग से दृष्टि आकर्षित करते हैं। इन सब विविध कारणों से यादव यूपी-बिहार में भारत के जन्मजात प्रभुत्वशाली वर्ग के प्रभुत्व को चुनौती देते रहते हैं, इस कारण वे जन्मजात सुविधाभोगी हितों के प्रति समर्पित संघ की आँखों में किरकिरी बनकर चुभते रहते हैं, और संघ इनको अलग-थलग करने का षडयंत्र किये जा रहा है, जिसमें दलित-बहुजन भी फंसते जा रहे हैं। लेकिन दलित- बहुजन जरा आंकड़ों के आईने में यादवों की स्थिति पर विचार करें।
आजादी के 70 साल बाद, देश के मालिक यादव या सवर्ण
केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा 1 जनवरी 2016 को जारी आंकड़ें बताते हैं कि केंद्र सरकार में ग्रुप ‘ए’ की कुल नौकिरयों की संख्या 84 हजार 521 है। इसमें 57 हजार 202 पर सामान्य वर्गों( सवर्णों ) का कब्जा है। यह कुल नौकरियों का 67.66 प्रतिशत होता है। इसका अर्थ है कि 15-16 प्रतिशत सवर्णों ने करीब 68 प्रतिशत ग्रुप ए के पदों पर कब्जा कर रखा है और देश की आबादी को 85 प्रतिशत ओबीसी, दलित और आदिवासियों के हि्स्से सिर्फ 32 प्रतिशत पद हैं। अब गुप ‘बी’ के पदों को लेते हैं। इस ग्रुप में 2 लाख 90 हजार 598 पद हैं। इसमें से 1 लाख 80 हजार 130 पदों पर अनारक्षित वर्गों का कब्जा है। यह ग्रुप बी की कुल नौकरियों का 61.98 प्रतिशत है। इसका मतलब है कि ग्रुप बी के पदों पर भी सवर्ण जातियों का ही कब्जा है। यहां भी 85 प्रतिशत आरक्षित संवर्ग के लोगों को सिर्फ 28 प्रतिशत की ही हिस्सेदारी है। कुछ ज्यादा बेहतर स्थिति ग्रुप ‘सी’ में भी नहीं है। ग्रुप सी के 28 लाख 33 हजार 696 पदों में से 14 लाख 55 हजार 389 पदों पर अनारक्षित वर्गों ( अधिकांश सवर्ण )का ही कब्जा है। यानी 51.36 प्रतिशत पदों पर। हां, सफाई कर्मचारियों का एक ऐसा संवर्ग है, जिसमें एससी, एसटी और ओबीसी 50 प्रतिशत से अधिक है। जहां तक उच्च शिक्षा में नौकरियों का प्रश्न है 2019 के आरटीआई के सूत्रों से पता चला कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर, एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पदों पर सवर्णों की उपस्थित क्रमशः 95.2, 92.2 और 76.12 प्रतिशत है।
उपरोक्त आंकड़ें 2016 के हैं। जबकि 13 अगस्त , 2019 को संसद में प्रस्तुत एक रिपोर्ट पर नजर दौड़ाई जाय तो नौकरशाही के निर्णायक पदों पर सवर्णों का वर्चस्व देखकर किसी के भी होश उड़ जाएंगे। उस रिपोर्ट से पता चलता है कि मोदी सरकार के 89 सचिवों में से 1-1 एससी और एसटी के, जबकि ओबीसी का एक भी व्यक्ति नहीं है। उन आंकड़ों से पता चलता है कि केंद्र सरकार के मंत्रालयों/विभागों में तैनात कुल 93 एडिशनल सेक्रेट्री में छह एसटी, पाँच एसटी और ओबीसी से एक भी नहीं। वहीं, 275 ज्वाइंट सेक्रेट्री में 13 एससी, 9 एसटी और 19 ओबीसी से रहे, बाकी सवर्ण। डायरेक्टर पद की बात करें तो इसमें कुल 288 पदों में महज 31 एससी, 12 एसटी और 40 ओबीसी से रहे, बाकी सवर्ण। डिप्टी सेक्रेट्री के कुल 79 पदों में 7 पर एससी, तीन पर एसटी और 21 पर ओबीसी रहे, बाकी सवर्ण। सर्विस सेक्टर से बढ़कर धार्मिक सेक्टर नज़र दौड़ाई तो वहाँ भी चौंकाने वाला आंकड़ा ही दिखेगा। डॉ. आंबेडकर के अनुसार शक्ति के स्रोत के रूप में जो धर्म आर्थिक शक्ति के समतुल्य है, उस पर आज भी 100 प्रतिशत आरक्षण सवर्णों के लीडर समुदाय का है। धार्मिक आरक्षण सहित सरकारी नौकरियों के ये आंकड़ें चीख-चीख कर गवाही देते हैं कि आजादी के बाद से आजतक हजारों साल पूर्व की भांति विदेशी मूल के सवर्ण ही इस देश के मालिक हैं!
[bs-quote quote=”डॉ. आंबेडकर के अनुसार शक्ति के स्रोत के रूप में जो धर्म आर्थिक शक्ति के समतुल्य है, उस पर आज भी 100 प्रतिशत आरक्षण सवर्णों के लीडर समुदाय का है। धार्मिक आरक्षण सहित सरकारी नौकरियों के ये आंकडे चीख-चीख गवाही देते हैं कि आजादी के बाद से आजतक हजारों साल पूर्व की भांति विदेशी मूल के सवर्ण ही इस देश के मालिक हैं!” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
सरकारी नौकरियों से इतर यदि कोई अन्य क्षेत्रों की ओर गौर से देखेगा तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80- 90 प्रतिशत फ्लैट्स सवर्ण मालिकों के ही हैं। मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80- 90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की हैं। चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादा गाडियां इन्हीं की होती हैं। देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल्स प्राय: इन्हीं के हैं। फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है। संसद-विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है। मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्ही वर्गों से हैं। मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों से जिस तरह शक्ति के स्रोतों पर सवर्णों का वर्चस्व और ज्यादा बढ़ा है, उसके आधार पर दावे के साथ कहा जा सकता है कि न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं भी किसी सुविधाभोगी समुदाय विशेष का नहीं है।
सवर्ण इसलिए ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं !
बहरहाल उपरोक्त आंकड़ें सवर्ण वर्चस्व का जो साक्ष्य वहन कर रहे हैं, उस पर यदि ध्यान दिया जायतो वह ब्राह्मणों का वर्चस्व दिखेगा। समाज में शक्ति के जो चार स्रोत हैं, उनमें आर्थिक को यदि छोड़ दिया जाय तो राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक पर ब्राह्मणों का वर्चस्व है। ऐसे वर्चस्वशाली समुदाय के 10 वर्ष के बच्चों तक को 70 वर्ष तक के बुजुर्ग क्षत्रिय भी ख़ुशी-ख़ुशी बाबा कहकर प्रणाम करने के लिए तैयार रहते हैं। कुल मिलाकर देखा जाय तो शक्ति संपन्न होकर भी सवर्ण समुदायों के लोग ब्राह्मणों का शक्ति के स्रोतों पर बेहिसाब वर्चस्व सहजता से झेल लेते हैं। वे ब्राह्मणों के वर्चस्व के खिलाफ मुखर नहीं होते। ऐसा इसलिए कि उनमे वर्गीय चेतना है। उन्हें पता है, ब्रह्मणों के नेतृत्व में लड़कर ही वे अपने स्वार्थ की रक्षा बेहतर तरीके से कर पाएंगे। इसलिए बाकी बातें भूलकर वे उनके नेतृत्व में अपने वर्गीय हित की लड़ाई लड़ते रहते हैं। लेकिन बहुजन समाज सवर्णों का बेहिसाब वर्चस्व नजअंदाज कर यादवों के प्रति ईर्ष्या कातर रहता है और इसके खिलाफ अपना आक्रोश छुपाने में कोताही नहीं बरतता। यूँ ही किसी ने मेरे पोस्ट यह कमेन्ट नहीं किया है- ‘जमीनी हकीकत यह है कि सवर्ण सत्ता के लिए भाजपा को वोट करता है तो वहीं गैर-यादव पिछड़ा वर्ग यादव को सत्ता से दूर रखने के लिए वोट करता है।। बहुजन संघ और सवर्णवादी मीडिया के झांसे में आकर सब समय यादवों को नीचा दिखाने व असहयोग करने में व्यस्त रहते हैं! इसका खास कारण गांवों में बहुजनों की बसावट और मार्क्सवाद से दूरी है।
छोटे–छोटे स्वार्थों की लड़ाई में बहुजन भूल गए वर्ग संघर्ष
देश के राजनीति की दिशा तय करने वाले यूपी और बिहार के दलित-पिछड़ी जातियों की बड़ी त्रासदी यह है कि ये आपस में कलहरत रहती हैं। जमीनी हकीकत यह है कि सवर्ण सत्ता के लिए भाजपा को वोट करता है तो वहीं गैर-यादव पिछड़ा वर्ग यादव को सत्ता से दूर रखने के लिए वोट करता है।। बहुजन संघ और सवर्णवादी मीडिया के झांसे में आकर सब समय यादवों को नीचा दिखाने व असहयोग करने में व्यस्त रहते हैं! इसका खास कारण गांवों में बहुजनों की बसावट और मार्क्सवाद से दूरी है। इनकी अधिकतम उर्जा एक दूसरे की टांग खिंचाई में खर्च होती है। इसका खास कारण गांवों में इनकी बसावट में निहित है। गांवों में दलित जातियां सामान्यता गाँव से बाहर दक्षिण साइड में वास करती हैं। इनके निकट ही पिछड़ी जातियों का घर होता है। सवर्ण इनसे दूर अपना अलग ही टोला बसा कर रहते हैं, जहाँ खूब जरूरी न हो तो बहुजन जाने से बचते हैं, क्योंकि वहां उनको सर झुका कर जाना होता है। बहरहाल सवर्णों से कटी-फटी बहुजन जातियां आपस में ही छोट-छोटी बातों में लड़ती रहती हैं। खासकर दलितों की स्थिति पर गौर किया जाय तो साफ़ नजर आएगा गाँवों में दलित जातियां सर्वाधिक परेशान अपने ही सजातियों से रहतेहैं। उनके लिए सवर्णों की बस्तियों में जाना कठिन होता है। ऐसे में सवर्णों और उनसे इतनी दूरी होती है की टकराव की नौबत ही नहीं आती, इसलिए इनकी टकराव पिछड़ी जातियों से होती है। और दलित उनसे टकरा भी जाते हैं, क्योंकि इनको लगता है पिछड़ों से लड़ा जा सकता है। लेकिन वे सवर्णों से लड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकते और सवर्ण भी इनको इस लायक नहीं समझते इनसे लड़ें। ऐसे में दलितों का टकराव पिछड़ी जातियों से होता है और पिछड़ी जातियां, विशेषकर यादव लड़ाई-झगड़े में इनपर हावी हो जाते हैं, जिसका फायदा उठाकर बहुजन-एकता विरोधी ताकतों को यह प्रचारित करने का मौका मिल जाता है कि दलितों पर अत्याचार सवर्ण नहीं, पिछड़ी जातियां, खासकर यादव करते हैं।
सवर्णों से अलग बस्तियों रहने वाली दलित- पिछड़ी जातियां निहायत ही छोटे-छोटे स्वार्थ को लेकर लड़ने के लिए अभिशप्त हुई हैं तो उसके पीछे है हिन्दू धर्म के प्राणाधार वर्ण/ जाति- व्यवस्था का अर्थशास्त्र है। जिस हिन्दू धर्म की पताका लहराने के लिए संघ परिवार सब समय तत्पर रहता है, उस हिन्दू धर्म का प्राणाधार वर्ण-व्यवस्था धर्म के आवरण में लिपटी शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की एक व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही है, जिसमें शक्ति के समस्त सिर्फ सवर्णों के लिए आरक्षित रहे। दैवीय-कृत वर्ण-व्यवस्था अर्थात हिन्दू आरक्षण में हिन्दू धर्म के गुलाम दलित-पिछड़ी जातियों के लिए हिन्दू धर्म-शास्त्रों और भगवानों द्वारा शक्ति के स्रोतों का भोग पूरी तरह निषेध रहा। इस निषेधाज्ञा के कारण दलित- बहुजनों में सवर्णों की भांति शक्ति के भोग की आकांक्षा ही न पनप सकी। अगर वर्ण- व्यवस्था के जरिये इनकी आकांक्षा का बन्ध्याकरण नहीं होता, गाँवों में बहुजन जातियां छोटे-छोटे स्वार्थ भूलकर सवर्णों के खिलाफ वर्ग संघर्ष में जुटतीं और उत्तर भारत के सवर्ण दक्षिण भारत के ब्राह्मणों की भांति गाँव छोड़कर शहरों में पनाह लेने के लिए विवश होते! अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसके लिए काफी हद तक जिम्मेवार हैं, बहुजन बुद्धिजीवी, जिन्होंने परस्पर कलहरत बहुजनों को मार्क्स के वर्ग संघर्ष थ्योरी से अवगत कराने की जहमत ही नहीं उठाया।
मार्क्स का वर्ग संघर्ष सिद्धांत !
प्रबुद्ध पाठक जानते हैं कि मार्क्स ने एक सौ सत्तर साल पहले इतिहास की व्याख्या करते हुये कहा था, ‘अबतक के विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है अर्थात जिसका शक्ति स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक पक्ष पर कब्जा है और दूसरा वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है, जैसे भारत का बहुजन। पहला वर्ग सदैव ही दूसरे वर्ग का शोषण करते रहता है। समाज के शोषक और शोषित, ये दो वर्ग सदा ही आपस मे संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता। नागर समाज मे विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों के बीच होनेवाली होड़ का विस्तार राज्य तक होता है। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है। ‘जाति उन्मूलन और ब्राह्मणवाद के खात्मे जैसे अमूर्त मुद्दे में अपनी सारी ताकत झोंकने वाले बहुजन बुद्धिजीवियों ने अगर ठीक से मार्क्स के वर्ग संघर्ष से बहुजन जातियों को अवगत कराया होता तो वे डांड़, मेंड, नाली के झगड़ों में उलझने के बजाय शक्ति के स्रोतों में अपनी वाजिब हिस्सेदारी लेने के लिए वर्ग-संघर्ष की बड़ी लड़ाई में उतरते। तब वे यादवों को वर्ग शत्रु जैसा मानने के बजाय उनकी उपस्थिति को पेटी बुर्जुवा जैसी स्वीकारते हुए, उनको साथ लेकर वर्ग- संघर्ष की की तैयारी में जुटते। तब समाज अच्छी तरह समझ गया होता कि मोदी की देश बेचने से लेकर नफरत की राजनीति को शिखर पर पहुँचाने सहित उनकी समस्त गतिविधियाँ अपने वर्ग शत्रु बहुजनों को फिनिश करने और अपने चहेते वर्ग का प्रभुत्व अटूट रखने से प्रेरित हैं।
यादव भारत के पेटी बुर्जुआ !
मार्क्स के कालजयी वर्ग संघर्ष पर नजर रखने वालों को पता है कि लेनिन और माओ, चेग्वेरा इत्यादि सहित ढेरों महानायकों ने अपने-अपने देश के शोषकों के खिलाफ वंचितों को संगठित कर जो वर्ग संघर्ष छेड़ा, उसमें उन्होंने पेटी बुर्जुवा को भी संगी बनाया। पेटी बुर्जुवा का आशय छोटे-छोटे व्यापारियों, भूस्वामियों से रहा। ये पेटी बुर्जुवा भी कहीं न कहीं बड़ी मछली सादृश्य बड़े पूंजीपतियों-भूस्वामियों से अपना वजूद बचाए रखने के लिए शेष शोषितों और वंचितों के प्रति मैत्रीय भाव पोषण करते रहे। रूस, चीन, क्यूबा इत्यादि में जिन पेटी बुर्जुआ को वंचितों में शामिल किया गया, उनके ही भारतीय संस्करण यादव हैं। यादवों की दुसाध- चमार, राजभर-मल्लाह, कुर्मी-कुशवाहा से एक कॉमन साम्यता है, वह यह कि बहुजन समाज की अन्य जातियों की भांति यादव भी शक्ति के समस्त स्रोतों से बहिष्कृत हैं। ये भी प्राइवेट सेक्टर की नौकारियों के साथ सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग–परिवहन इत्यादि से बहिष्कृत हैं। शक्ति के एक अन्यतम प्रमुख स्रोत उच्च शिक्षा में यादवों की स्थिति भी अन्य बहुजन जातियों की भांति ही खासा कारुणिक है। जो धर्म के स्रोत के रूप में आर्थिक शक्ति के समतुल्य है, यादव वहां से भी दूसरे बहुजनों की भांति पूरी तरह बहिष्कृत हैं। उत्तर प्रदेश के नोएडा में जो ढेरों मीडिया हाउस खड़े हैं, उनमें यादव मीडिया हाउस भी ढूंढें नहीं मिलेगा, फिल्म स्टूडियो खड़ा करने का सपना भी कोई यादव अन्य दलित- बहुजन जातियों की भांति नहीं देख सकता। मंत्रिमंडलों और मंत्रालयों में तैनात बड़े अधिकारी के रूप में भी यादव ढूंढे नहीं मिलेगे। ऐसे में यदि विवेक को सक्रिय रखकर यादवों की स्थिति का जायजा लिया जाय तो वे वर्ग- शत्रु नहीं, पेटी बुर्जुआ जैसे शोषितों के संगी के रूप में नजर आयेंगे। यही नहीं अगर शक्ति के स्रोतों से बहिष्कार ही अगर गुलामी का लक्षण है तो यादव भी प्रायः गुलामों की स्थिति में है और भाजपा यदि फिर यूपी में फिर सत्ता में आ गयी तो कुर्मी-कहार, भर-निषाद, चमार-दुसाध- पासी- खटिक इत्यादि की भांति यादव भी विशुद्ध गुलामों में तब्दील हो जायेंगे। ऐसे में यदि भावी हिन्दू राष्ट्र में बहुजन समाज की असंख्य वंचित जातियों को विशुद्ध गुलाम में तब्दील होने से बचना है तो आपसी मनोमालिन्य से निजात पाकर यादवों के नेतृत्व में वर्ग संघर्ष की लड़ाई लड़ने का मन बनाना पड़ेगा!
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बदल रहा है यादव समाज !
हमें बुनियादी बात नहीं भूलनी होगी कि हिन्दू धर्म-संस्कृति ने सवर्ण-अवर्ण सभी हिन्दुओं को बर्बर मानव समुदाय में तब्दील कर रखा है। यदि दुनिया के अन्य समाजों से तुलना की जाय तो यह समाज मानव सभ्यता की दौड़ में विश्व के अन्य समाजों के मुकाबले कई सौ साल पीछे नजर आयेगा। इस समाज के लोग आज भी मनुष्यों को मनुष्य के रूप में इज्जत करने का शउर नहीं सीख पायें हैं। सबसे बड़ी बात है कि कई सहस्र भागों में बंटे हिन्दुओं की छोटी–बड़ी हर जातियों के लोग, औरों की तो बात दूर, खुद अपनी ही जाति की निम्नतर उपजातियों के खिलाफ यम की भूमिका अवतरित होते रहते हैं। मैंने देखा है बिहार के दुसाध वहां की अपने से कथित निम्नतर दलित जातियों के खिलाफ अमानवीय व्यवहार करने में पीछे नहीं रहते वहीँ यूपी के अग्रसर दलित तबका जाटव-चमारों का है। वे डोमों, बांसफोरों के प्रति अमानवीय व्यवहार करने में पीछे नहीं। यही हाल यादवों का है। यादव भी चमार- दुसाध, पासी, कुर्मी, कुशवाहा इत्यादि की भांति अपने से कथित छोटी जातियों के खिलाफ यम की भूमिका में उतरने में संकोच नहीं करते। किन्तु हिन्दू धर्म के कारण अमानवीय मानव समुदायों में तब्दील विभिन्न जातियों में अच्छे लोग उभर कर सामने आ रहे हैं। विशेषकर कांशीराम के सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों के फलस्वरूप बहुजन जातियों से सोशल एक्टिविज्म, लेखन, राजनीति में ऐसे बहुत से लोगों का उदय हो रहा है, जो बर्बर व विषमतापूर्ण भारतीय समाज को बदलने के लिए दिन रात एक किये जा रहे हैं। दलितों में एसके बिस्वास, एके बिस्वास, बुद्ध शरण हंस, चंद्रभान प्रसाद, ओम प्रकाश वाल्मीकि, कँवल भारती, मोहनदास नैमिशराय, डॉ. जय प्रकाश कर्दम ,श्योराज सिंह बेचैन, डॉ. विजय कुमार त्रिशरण, असगघोष, आरडी आनंद, शैली किरण, विपिन बिहारी जैसे बहुत से लेखक; प्रो रतनलाल, प्रो राजेश पासवान, प्रो राजकुमार, प्रो जवाहर पासवान, कौशल पंवार जैसे शिक्षाविद; शांतिस्वरूप बौद्ध, प्रदीप गायकवाड़, सुल्तान सिंह गौतम, एआर अकेला जैसे ढेरों प्रकाशक; अशोक भारती, दद्दू प्रसाद, रूथ मनोरमा, चंद्रशेखर आजाद, सर्वेश आंबेडकर, अमर आजाद , गणेश रवि, विद्या गौतम, निर्देश सिंह जैसे – एक्टिविस्ट; एस आर दारापुरी, बीपी अशोक, हरीश चंद्रा, देवी सिंह अशोक जैसे पे बैक टू द सोसाइटी से दीक्षित ब्यूरोक्रेट; डॉ जगदीश प्रसाद, डॉ जन्मेजय कुमार. डॉ. राजकुमार, डॉ. सुरेश बाबू, डॉ. एसएन संखवार, डॉ. पुष्पलता, डॉ संतोष, डॉ. सोनू भारद्वाज, डॉ पवन कुमार जैसे असंख्य चिकित्सक बर्बर भारतीय समाज को सुन्दर बनाने की मुहिम में लगे हैं।
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दलित समाज की तरह ही यादव समाज में भी जन्मे डॉ ओमशंकर, उर्मिलेश, डॉ. लालजी रत्नाकर, रामजी यादव, डॉ. अनिल जयहिंद यादव, चंद्रभूषण सिंह यादव, प्रो. लक्ष्मण यादव, सूरज मंडल, सोबरन कबीर, इत्यादि जैसे असंख्य डॉक्टर, पत्रकार, लेखक, शिक्षाविद, एक्टिविस्ट बहुत ही शिद्दत के साथ सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में दिन रात एक किये हुए हैं। इसी यादव समाज में जन्मे लालू प्रसाद-शरद और मुलायम सिंह यादव की तिकड़ी के अक्लांत संग्राम से महिला आरक्षण बिल पास नहीं हो पाया। अगर इन्होंने ऐतिहासिक संग्राम नहीं चलाया होता तो सवर्ण समाज की महिलाओं का राजनीति में 33 प्रतिशत वर्चस्व कायम हो गया होता। इसी यादव समाज में जन्मे बिहार के तेजस्वी यादव आज सामाजिक न्याय की सबसे मुखर आवाज हैं। इसी यादव समाज में जन्मे राजनारायण ने भारी अभावों के मध्य जनहित अभियान के बैनर तले जाति जनगणना की लड़ाई को उस मुकाम पर पंहुचा दिया है, जहाँ से हम आशावादी हो सकते हैं कि शीघ्र ही जाति जनगणना शुरू होगी और इसके जरिये भारत में शक्ति के स्रोतों के वाजिब बंटवारे के लिए डाइवर्सिटी का मार्ग प्रशस्त होगा। यूपी चुनाव में अखिलेश यादव ने सत्ता में आकर जाति जनगणना के जरिये सभी समाजों के लिए समानुपातिक भागीदारी लागू करने की जो घोषणा की है, उसी से साहेब कांशीराम का आर्थिक दर्शन, जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी के लागू होने का मार्ग प्रशस्त होगा।
बदल गए हैं अखिलेश यादव !
अगर भारतीय समाज में आमूल बदलाव के लिए लट्ठबाज के रूप में कुख्यात यादव समाज से बहुत से लेखक, पत्रकार, एक्टिविस्ट, डॉक्टर, नेता बदली हुई भूमिका अवतरित हो रहे हैं तो अखिलेश यादव भी यादव भी इससे अछूते नहीं हैं। इस लेख को तैयार करने के दौरान मैंने तिजारत और निष्पक्ष दिव्यसन्देश जैसे दैनिक अखबारों के स्वामी और संपादक राजेन्द्र कुमार गौतम से बात की। मान्यवर गौतम दलित- बहुजन समाज में जन्मे उन चंद पत्रकारों में एक हैं, जिन्हें सत्ता की गलियों में विचरण करने का अपार अनुभव है। क्या अखिलेश बदल गए हैं, मेरे इस सवाल पर गौतम जी ने कहा है –‘ देखिये भाई साहब अब 2012 वाले अखलेश यादव अतीत का विषय हो चुके हैं, जिन्होंने ठेकों में आरक्षण का खात्मा करने के साथ बहुजन नायकों के नाम पर बने कई जिलों और स्मारकों का नाम बदल बहुजन समाज को दुखी किया। 2017 में मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद जिस तरह मुख्यमंत्री आवास का गंगा जल से धुलाई कर शुद्धिकरण किया गया; जिस तरह उनको टोंटी चोर कहकर अपमानित किया गया, उससे वह पूरी तरह बदल गए। वही बदले अखिलेश यादव 2019 के मायावती के पास पहुंचे और सपा- बसपा गठबंधन के साथ दलित-यादव एकता की पहलकदमी किये। अब उनके सत्ता में आने पर कोई प्रमोशन में आरक्षण बिल फाड़ने का दुसाहस नहीं करेगा। 10 मार्च के बाद देखिएगा यूपी बदल जाएगा। अखिलेश यादव समानुपतिक भागीदारी लागू करके रहेंगे। इससे आप जैसे लोग वर्षों से डाइवर्सिटी का आन्दोलन चला कर शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे का जो सपना दिखा रहे हैं, वह सपना अखिलेश यादव की सत्ता में वापसी से पूरा होगा, इसके प्रति आप आशावादी हो सकते हैं!’
बदले हुए अखिलेश यादव की सत्ता में वापसी से भयाक्रांत वर्चस्ववादी ताकतें ही उन्हें रोकने के लिए आखिरी हथियार के रूप में यादवों का खौफ खड़ा करने का प्रयास कर रही हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों को चुनाव के शेष बचे दो चरणों में अपना कर्तव्य स्थिर कर लेना चाहिए !
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं
[…] बहुजन के वर्ग शत्रु : यादव या कोई और! […]
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