तीन मई से कुकी और मैतेई समुदाय के बीच जारी संघर्ष से मणिपुर जल रहा है, जिसकी तपिश पूरा देश महसूस कर रहा है। वहां हालात ऐसे उत्पन्न हो गए कि उपद्रवियों को देखते ही गोली मरने का आदेश जारी करना पड़ा। ट्रेनें और इंटरनेट सेवाएँ ठप करनी पड़ी। पूर्व में कुकी समुदाय की दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके सार्वजनिक रूप से घुमाये जाने की घटना के वीडियो ने जलते मणिपुर की आग में घी डालने का काम किया। इस घटना ने मणिपुर के साथ पूरे भारत को तो शर्मसार किया ही है। पूरा विश्व भी हिल गया। इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान 160 लोगों के मारे जाने की खबर आ चुकी है। इस घटना से मणिपुर के साथ केंद्र की भाजपा सरकार की भी जान सांसत में आ गयी है। विपक्ष सड़क से लेकर संसद तक मोदी सरकार के खिलाफ मुखर है, जिससे संसद की गतिविधियां बुरी तरह बाधित हो रही है।
मोदी इस घटना पर विस्तार से कुछ कहने के लिए अब तक बचते रहे हैं। वह इस पर ढंग से मुंह खोलें, इसके लिए विपक्ष ने उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पास करा लिया है। यह भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के इतिहास में 28वीं और मोदी के कार्यकाल की दूसरी घटना है। इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान बिहार बीजेपी के राज्य प्रवक्ता विनोद शर्मा ने मणिपुर की जातीय हिंसा को लेकर पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया है। उन्होंने कहा है- ‘मणिपुर की बेटियों को 800-1000 लोगों की भीड़ में सड़कों पर पूरी तरह नग्न करके घुमाये जाने के कारण भारत पूरी दुनिया में शर्मिंदा है, जिसके लिए मणिपुर के भाजपा सीएम पूरी तरह से जिम्मेवार हैं और प्रधानमंत्री मोदी इसका बचाव कर रहे हैं। पीएम सो रहे हैं, उनमें सीएम बीरेन सिंह को बर्खास्त करने की हिम्मत नहीं है। मैं ऐसे नेतृत्व के तहत काम करते हुए आत्म-ग्लानि और कलंकित महसूस कर रहा हूँ। इसलिए मैं तुरंत पार्टी से इस्तीफ़ा देता हूँ।’
मणिपुर के घटना की अनुगूँज यूरोपीय संसद में भी सुनाई पड़ी है। भारत के विदेश सचिव द्वारा यूरोपीय संसद में इस मुद्दे को उठाने से रोकने का भरपूर प्रयास करने के बावजूद वहां से जो प्रस्ताव पास हुए हैं, वह मोदी सरकार के लिए चिंता का विषय हैं। 12 जुलाई को यूरोपीय संसद ने मणिपुर हिंसा को लेकर भारत की तीखी आलोचना करते हुए अपने प्रस्ताव में आरोप लगाया है कि मणिपुर में अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति असहिष्णुता के चलते हिंसा के हालात पैदा हुए हैं। प्रस्ताव में चिंता जाहिर की गयी है कि राजनीति से प्रेरित विभाजनकारी नीतियों से इस इलाके के हिन्दू बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। यूरोपीय संसद के प्रस्ताव के अनुसार, मई से शुरू हुई हिंसा में अब तक 120 लोगों की मौतें हो चुकी हैं। 50 हजार लोगों को अपने घरों को छोड़ना पड़ा और 17 हजार घरों तथा तकरीबन 250 चर्चों को जला दिया गया है।
यूरोपीय संसद ने कड़े शब्दों में भारतीय प्रशासन से हिंसा पर काबू पाने की अपील करते हुए जातीय और धार्मिक हिंसा रोकने एवं सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए तुरंत जरूरी उपाय करने को कहा है। संसद के सदस्यों ने भारतीय प्रशासन से हिंसा की जांच के लिए स्वतंत्र जांच की इजाजत देने, दंड से बच निकलने के मामलों से निपटने और इन्टरनेट बैन को ख़त्म करने की मांग की है। संसद सदस्यों ने कहा है कि यूरोप और इसके सदस्य देश भारत के साथ उच्चस्तरीय वार्ताओं में व्यवस्थित और सार्वजनिक रूप से मानवाधिकार से जुड़ी चिंताओं- खासकर बोलने की आजादी, धर्म मानने की आजादी और सिविल सोसायटी के लिए सिकुड़ते मौकों… के मुद्दे को उठायें। यद्यपि यूरोपीय संसद के प्रस्ताव को भारत सरकार ने ख़ारिज कर दिया है, तथापि कुल मिलाकर मणिपुर की शर्मनाक घटना से मोदी सरकार पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनता दिख रहा है।
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बहरहाल, मणिपुर की जिस घटना से देश की छवि शर्मसार हुई है एवं जिस कारण मोदी को अपने कार्यकाल में दूसरी बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ रहा है, उस घटना की तह में पहुँचा जाए तो साफ़ नजर आएगा कि मामला आरक्षण पर संघर्ष से जुडा है, जिसकी जद में आकर राजस्थान, असम, महाराष्ट्र इत्यादि जैसे कई राज्य बहुत पहले ही कमोबेश मणिपुर की तरह ही जल चुके हैं। यह सभी को पता चल चुका है कि मैतेई और कुकी समुदायों के बीच संघर्ष की शुरुआत 3 मई को तब हुई ज़ब मणिपुर हाईकोर्ट के इस आदेश (सरकार मैतेई को जनजाति का दर्जा देने पर विचार करे) के विरुद्ध आल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ने रैली निकाली। चूरचंदपुर की आदिवासी एकता रैली में जब कुछ बन्दूकधारी शामिल हो गए तब हिंसा भड़क उठी, जिसके फलःस्वरूप वे सब घटनाएँ सामने आईं, जिन्हें लेकर मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया है एवं भारत सरकार के विदेश सचिव के भारी विरोध के बावजूद यूरोपीय संसद से वे प्रस्ताव पास हुए, जिसे कोई भी देश अपने आंतरिक मामले में बाहरी हस्तक्षेप का दर्जा देगा।
पर, यदि हम अतीत में जाएँ और मणिपुर की भौगोलिक एवं आर्थिक-सामाजिक स्थिति का जायजा लें तो इस अप्रिय स्थिति के सामने आने का कारण शीशे की तरह साफ़ हो जायेगा। मणिपुर की जनसंख्या लगभग 30-35 लाख है। यहां तीन मुख्य समुदाय हैं- मैतेई, नगा और कुकी। मैतेई ज़्यादातर हिंदू हैं, जो मोदी के शब्दों में भाजपा (हिंदुत्व) की रंग में पूरी तरह रंग चुके हैं। नगा और कुकी ज़्यादातर ईसाई हैं। नगा और कुकी को जनजाति में आते हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात करें, तो मणिपुर के कुल 60 विधायकों में 40 विधायक मैतेई समुदाय से हैं। बाकी 20 नगा और कुकी जनजाति से आते हैं। अब तक हुए 12 मुख्यमंत्रियों में से दो ही जनजाति से रहे हैं।
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मणिपुर की भौगोलिक संरचना विशिष्ट है। जानकारों के मुताबिक़, मणिपुर एक फ़ुटबॉल स्टेडियम की तरह है। इसमें इंफ़ाल वैली बिल्कुल सेंटर में प्लेफ़ील्ड है और बाक़ी चारों तरफ़ के पहाड़ी इलाक़े गैलरी की तरह हैं। मणिपुर के 10 प्रतिशत भू-भाग पर मैती समुदाय का दबदबा है। यह समुदाय इम्फाल वैली में बसा है। बाकी 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाक़े में प्रदेश की मान्यता प्राप्त जनजातियां रहती हैं। इन पहाड़ी और घाटी के लोगों के बीच विवाद काफ़ी पुराना एवं संवेदनशील है। बहुसंख्य और तुलनामूलक रूप से समृद्ध मैती समुदाय की मांग है कि उन्हें भी जनजाति का दर्जा दिया जाए। मैतेई समुदाय की दलील है कि 1949 में मणिपुर का भारत में विलय हुआ था और उससे पहले मैतेई को यहाँ जनजाति का दर्जा मिला हुआ था। इनकी दलील है कि इस समुदाय, उनके पूर्वजों की ज़मीन, परंपरा, संस्कृति और भाषा की रक्षा के लिए मैतेई को जनजाति का दर्जा ज़रूरी है। इस जरूरत को दृष्टिगत रखते हुए मैतेई समुदाय ने 2012 में अपनी एक कमेटी भी बनाई थी, जिसका नाम है- शिड्यूल ट्राइब डिमांड कमिटी ऑफ़ मणिपुर (एसटीडीसीएम)। इसी ने मणिपुर हाई कोर्ट में मैतेई समुदाय को जनजाति में शामिल करने की याचिका डाली थी। इनका कहना है कि मैतेई समुदाय को बाहरी लोगों के अतिक्रमण से बचाने के लिए एक संवैधानिक कवच की ज़रूरत है।
वे कहते हैं कि मैतेई को पहाड़ों से अलग किया जा रहा है, जबकि जिन्हें जनजाति का दर्जा मिला हुआ है, वे पहले से ही सिकुड़ते हुए इंफ़ाल वैली में ज़मीन ख़रीद सकते हैं, लेकिन जो जनजातियां हैं, वे मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने का विरोध कर रही हैं। इन जनजातियों का कहना है कि मैतेई जनसंख्या में भी ज़्यादा हैं और राजनीति में भी उनका दबदबा है। इन जनजातियों का कहना है कि मैतेई समुदाय आदिवासी नहीं हैं। उनको पहले से ही एससी और ओबीसी आरक्षण के साथ-साथ आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग का आरक्षण मिला हुआ है एवं उसके फ़ायदे भी मिल रहे हैं। उनकी भाषा भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है और संरक्षित है। ऐसे में मैतेई समुदाय को सब कुछ तो नहीं मिल जाना चाहिए। अगर उन्हें और आरक्षण मिला तो फिर बाकी जनजातियों के लिए नौकरी और कॉलेजों में दाखिला मिलने के मौके कम हो जाएंगे। फिर मैतेई समुदाय को भी पहाड़ों पर भी ज़मीन ख़रीदने की इजाज़त मिल जाएगी और इससे उनकी जनजातियां और हाशिये पर चली जाएंगी।
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बहरहाल, मैतेई समुदाय की ‘शिड्यूल ट्राइब डिमांड कमिटी ऑफ़ मणिपुर’ ने मणिपुर हाई कोर्ट में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने की जो याचिका दायर की थी, उस पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा कि वो मैतई समुदाय को जनजाति का दर्जा दिए जाने को लेकर विचार करे। 10 सालों से यह डिमांड पेंडिंग है। इस पर कोई संतोषजनक जवाब नहीं आता है तो आप अगले 4 हफ्ते में बताएं। कोर्ट ने केंद्र सरकार की ओपिनियन भी मांगी थी। कोर्ट ने अभी मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने का आदेश नहीं दिया है, सिर्फ़ एक ऑब्ज़र्वेशन दी है। लेकिन यह बात सामने आ रही है कि कोर्ट के इस ऑब्ज़र्वेशन को ग़लत समझा गया। बहरहाल, कोर्ट के इसी निर्देश के विरुद्ध 3 मई को ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर ने आदिवासी एकजुटता रैली आयोजित की, जिसके बाद हिंसा भड़क उठी, जो पूरे प्रदेश में फ़ैल गयी।
कुल मिलकर देखा जाय तो मणिपुर इसलिए जल उठा कि वहां संख्या बहुल और आर्थिक-राजनीतिक रूप से ताकतवर मैतेई समुदाय ने जनजाति में शामिल होने का प्रयास किया। इसी समुदाय से मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह आते हैं। जाहिर है कि मैतेई समुदाय ने सत्ता की शह पाकर अल्पसंख्यक जनजाति कोटे में घुसने का प्रयास किया, जिसके फलस्वरूप जनजातियों में असुरक्षाबोध पनपा और वे उग्र प्रतिरोध की दिशा में अग्रसर हो गईं। इससे जिस विकट स्थिति का उद्भव हुआ है, उसका समाधान मोदी सरकार कैसे करती है? इस पर भारत ही नहीं, पूरे विश्व की नजरें टिकी रहेंगी। बहरहाल, आरक्षण पर संघर्ष को लेकर वर्तमान में सिर्फ मणिपुर ही अशांत नहीं है। कुछ और राज्यों, खासकर देश के राजनीति की दिशा तय करने वाले यूपी-बिहार जैसे बड़े राज्यों में ऐसी स्थिति पनपने के आसार दिख रहे हैं। इन राज्यों में कई ऐसे समूह, जिन्हें ओबीसी में आरक्षण मिला हुआ है, शासक दलों का शह पाकर अनुसूचित जाति/ जनजाति के कोटे में शामिल होने का प्रयास कर रहे हैं। जैसे मणिपुर के मैतेई समुदाय ने किया है। उनको लगता है यदि एससी/ एसटी जैसे कमजोर वर्ग में अपने लोगों को शामिल करवा लेंगे तो आरक्षण का ज्यादा फायदा उठा पाएंगे। ऐसे में कोई भी अनुमान लगा सकता है कि मामला आगे बढ़ने पर मणिपुर जैसे हालात पैदा होंगे ही।
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बात यहीं तक नहीं है, जिस तरह दलित बुद्धिजीवी नौकरियों से आगे बढ़ कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग, परिवहन, पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि में आरक्षण देने की मांग उठा रहे और उनकी इन मांगों पर केंद्र से लेकर कई राज्य सरकारों ने जिस तरह कुछ-कुछ समर्थन की मोहर लगाई है, उसे देखते हुए ओबीसी आरक्षण के अंतर्गत आने वाले समूह भी कल नौकरियों से आगे बढ़कर सभी क्षेत्रों में आरक्षण के लिए कमर कस सकते हैं, जिससे आरक्षण पर संघर्ष का अनंत सिलसिला चल निकलने के आसार दिख रहे हैं। ऐसे में केंद्र सरकार को आरक्षण पर संघर्ष से निजात पाने का कोई चिरस्थाई उपाय करना चाहिए। इसका सर्वोत्तम उपाय यही है कि सरकार फ़ौज और पुलिस बल सहित सभी प्रकार की सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों के साथ सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी सहित ए-टू-जेड सभी क्षेत्रों में आरक्षण की सीमा 100% करके उसे भारत के विविधतामय सभी समुदायों (एससी, एसटी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यक और सवर्णों) के स्त्री- पुरुषों के संख्यानुपात में बांटने की योजना बनाये। जरूरत महसूस हो तो विभन्न समुदायों में अगड़ा-पिछड़ा का विभाजन भी कर ले। आरक्षण पर संघर्ष को टालने का इससे बेहतर उपाय शायद और कोई नहीं है। देश के नेता, योजनाकार और बुद्धिजीवी वर्ग इस पर विचार करें।