बेहना जाति पसमांदा मुसलमानों में गिनी जाती है और पारंपरिक रूप से रुई धुनने का काम करती रही है लेकिन अब कोई भी यह काम नहीं करता। मशीनें आ जाने से उनको काम मिलना धीरे-धीरे बंद होता गया। जाड़ा शुरू होते ही अपनी धुनकी कंधे पर लिए वे दूर-दराज के इलाकों में निकल जाते और बसंत आते-आते अच्छी-ख़ासी कमाई करके वे वापस आते। बाकी के दिनों में मेहनत-मजदूरी के दूसरे काम भी करते। लेकिन बनी-बनाई रजाइयाँ आने और मशीनों की बढ़ती संख्या ने उन्हें खदेड़ दिया।
अपने दरवाजे पर झाड़ू लगाती हुई बच्ची दिखी। फोटो लेने पर सकुचा गई लेकिन बुलाने पर पास आई और अपना नाम मुन्नी बताया। पूरे गाँव में अनेक किशोरियाँ मिलीं। सभी आज के फैशन के हिसाब से तैयार मिलीं, लेकिन किसी के पास कोई काम नहीं था। एक मुन्नी ही मिली जिसने बताया कि वह सिलाई कर पैसे अर्जित करती है। मैंने पूछा कितना मिला जाता है रोज़? तो उसने स्वाभिमान से कहा - 'रोज़ 50 से 100 रुपया कमा लेती हूं। मैं उसके साथ उसकी एक कमरे के झोपड़ी में पहुंची जहाँ मशीन थी लेकिन अंधेरा था। मैंने लाइट जलाने के लिए कहा तो उसने कहा लाइट नहीं है।
यह गांव पहले एक अपमानजनक नाम से पुकारा जाता था जो कि सवर्ण जातियों का सबसे प्रिय शगल था, लेकिन अब इसका नाम सम्मान से लिया जा रहा है। कार्यक्रम के मुख्य आयोजक बुजुर्गवार राममगन वर्मा बहुत उत्साह से सारा इंतजाम देख रहे थे और इस बात पर प्रसन्न थे कि कार्यक्रम में दूर-दराज से लोग आए हैं।
भाई संतोष कुमार भारत से यहाँ फरवरी में आये और मुझे मिले तो मुझे लगा जैसे भारत से मेरा कोई भाई आया है| हम एक ही भोजपुरी भाषा बोलते हैं जो की मेरे बचपन में यहाँ बोली जाती थी (आजकल लोग सिर्फ अंग्रेजी बिल्ट हैं जिसपर मुझे काफी दुःख होता है)| हमें अब अपनी पुरानी भाषा को वापस लाना है और अपने पुरानी संस्कृति को जिन्दा करना है|