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सामाजिक न्याय का परमाणु बम है ‘जितनी आबादी उतना हक’

बिहार में जाति सर्वे की रिपोर्ट आने के बाद भारत में एक सामाजिक परमाणु बम का विस्फोट हुआ है, जिसका नाम है जितनी आबादी-उतना हक़ और इसे घटित करने वाले का नाम है राहुल गांधी, जो सामाजिक न्याय की राजनीति के नए आइकॉन भी बन रहे हैं। 2 अक्टूबर को बिहार में जातिगत जनगणना के […]

बिहार में जाति सर्वे की रिपोर्ट आने के बाद भारत में एक सामाजिक परमाणु बम का विस्फोट हुआ है, जिसका नाम है जितनी आबादी-उतना हक़ और इसे घटित करने वाले का नाम है राहुल गांधी, जो सामाजिक न्याय की राजनीति के नए आइकॉन भी बन रहे हैं। 2 अक्टूबर को बिहार में जातिगत जनगणना के प्रकाश में आने के बाद इस बम से हिंदुत्व की राजनीति में जलजला आ गया है। हिंदुत्व की उत्तोलक भाजपा में एक ऐसी बौखलाहट उभरी है, जो नई सदी में इससे पहले शायद ही देखी गयी हो। ‘जितनी आबादी, उतना हक़’ पिछले सदी में मान्यवर कांशीराम द्वारा प्रभावी तरीके से उछाले गए जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी का ही नया रूप है, जिसे राहुल गांधी फ़रवरी 2023 में रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85वें अधिवेशन से ही अलग-अलग नामों से उछालना शुरू किये। जिसमें कांग्रेस ने सत्ता में आने पर जातिय जनगणना कराने तथा संगठन में पिछड़ों को वाजिब प्रतिनिधित्व देने का प्रस्ताव पारित किया। साथ ही अपनी राजनीति में सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करने की प्रतिबद्धता जाहिर किया था। किन्तु राहुल गाँधी द्वारा उछाले गए कांशीराम के नारे की ओर राष्ट्र का ध्यान तब गया, जब उन्होंने कर्णाटक विधानसभा चुनाव के दौरान कोलार में यह नारा उछाला। कोलार में जब उन्होंने ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा उछाला, तब दुनिया विस्मित हुए बिना नहीं रह पाई।

लोग सोच नहीं सकते थे कि कांग्रेस जैसी सवर्णवादी पार्टी का भविष्य राहुल गांधी ऐसा नारा दे सकते हैं। किन्तु कोलार में राहुल गाँधी ने कांशीराम के भागीदारी दर्शन वाला नारा नहीं उछाला, बल्कि इसके सामाजिक न्याय के अपने विजन का खुलासा करते हुए साफ़ कहा था, ‘यदि 70 प्रतिशत भारतीय ओबीसी/ एससी/ एसटी जातियों के हैं तो विभिन्न व्यवसायों और क्षेत्र में उनका प्रतिनिधित्व भी मोटे तौर पर 70 प्रतिशत होना चाहिए।’ कोलार में राहुल द्वारा उछाले गए भागीदारी नारे से भाजपा में बौखलाहट तो पनपी पर उसे जाहिर नहीं होने दिया। उन्होंने शायद कोलार के राहुल संबोधन पर यह मानकर संयम बरता कि हो सकता है, कुछ अंतराल के बाद राहुल धीरे-धीरे इससे कन्नी काट लें। किन्तु बड़े राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, राहुल का कोलार वाला भाषण किसी क्षणिक आवेग की देन नहीं, बल्कि उसके पीछे सामाजिक न्याय की कांग्रेस द्वारा खोई जमीन हासिल करने का संकल्प था, कर्णाटक में इस नारे का सुफल पाने के बाद तो राहुल गांधी का हौसला आसमान छूने लगा। उसके बाद वह मौका-माहौल देखकर वही नारा उछालने लगे। इस क्रम में वह सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करने में अतीत के तमाम नेताओं को पीछे छोड़ते गए, जिससे भाजपा में बौखलाहट बढ़ती गयी। नारी शक्ति वंदन विधेयक पारित होने बाद इसमें ओबीसी के हिस्सेदारी की उपेक्षा का मामला उठाते हुए राहुल ने जब मोदी की (ओबीसी के प्रति) प्रतिबद्धता पर सवाल उठाते यह कहना शुरू किया कि केंद्र के 90 सचिवों में ओबीसी के तीन ही लोग क्यों, तब भाजपा की बौखलाहट चरम पर पहुंच गयी।

नारी शक्ति वंदन विधेयक पारित होने पर राहुल गांधी ने सबसे पहले 2010 में यूपीए द्वारा राज्यसभा में पारित किये गए महिला आरक्षण बिल में ओबीसी कोटे का प्रावधान नहीं होने को लेकर खेद प्रकट करते हुए कहा कि ‘उन्हें इसका सौ प्रतिशत अफ़सोस है। हमें यह तभी करना चाहिए था। आगे कहा कि प्रधानमंत्री ओबीसी के लिए बहुत काम करने की बात करते हैं तो फिर केंद्र सरकार के 90 सचिवों में केवल तीन ही ओबीसी क्यों? ओबीसी/ एससी/ एसटी वर्ग के सचिव देश के सिर्फ छह प्रतिशत बजट को ही संचालित करते हैं तो ऐसे में हर दिन पिछड़ों की बात करने वाले पीएम मोदी ने ओबीसी वर्ग के लिए क्या किया? भाजपा दो मुद्दों (अडानी और जातीय जनगणना) से डरती है। हमारी सरकार बनते ही हम जातीय जनगणना कराएँगे ताकि ओबीसी, दलित और आदिवासियों का आंकड़ा जानकार उस हिसाब से सत्ता में भागीद्दारी सुनिश्चित की जा सके। जातीय जनगणना इस तस्वीर को साफ़ करेगी कि देश में ओबीसी, दलित और आदिवासियों की संख्या कितनी है और इसी आधार पर उन्हें देश चलाने में भागीदारी मिलेगी।’

राहुल गाँधी ने यह बात 22 सितम्बर को कही थी। तब किसी को भी भान नहीं था कि दस दिन बाद जातीय जनगणना का विस्फोट सामने आ सकता है, पर 2 अक्तूबर  को गांधी जयंती के दिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में हुई जाति जनगणना की रिपोर्ट प्रकाशित कर सामाजिक न्याय की राजनीति में अभूतपूर्व बमबारी कर रातो-रात राजनीति के केंद्र में आ गए। जाति जनगणना की रिपोर्ट से हिंदुत्व की राजनीति का महल थर्रा उठा और भाजपा के लोग उद्भ्रांत हो गए। तमाम राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर विभिन्न दलों के नेता इस पर अपनी राय देने के लिए सामने आए, जिनमें राहुल गांधी भी रहे। उन्होंने इस पर अपनी राय देते हुए कहा, ‘बिहार की जातिगत जनगणना से पता चलता है कि वहां ओबीसी, एससी और एसटी 84 प्रतिशत हैं। केंद्र सरकार के 90 सचिवों में सिर्फ तीन ओबीसी हैं, जो भारत का मात्र 5 प्रतिशत बजट संभालते हैं। इसलिए भारत के जातिगत आंकड़े जानना जरुरी है। ‘जितनी आबादी- उतना हक़’ ये हमारा प्रण है।’

अगर बिहार में हुई जाति जनगणना का असर हिन्दुत्ववादी भाजपा पर बम जैसा हुआ तो राहुल गांधी द्वारा ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ का प्रण लेने का असर परमाणु बम जैसा हुआ। ऐसा होते ही भाजपा की बौखलाहट का विस्फोट हो गया। असल में तो भाजपा के निशाने पर नीतीश कुमार को आना चाहिए था, जिन्होंने जातिगत जनगणना का बम फोड़कर जलजला मचा दिया। लेकिन नीतीश के बजाय भाजपा और उसकी पालतू मीडिया के निशाने पर आए राहुल गांधी। सबसे पहले बौखलाहट का विस्फोट प्रधानमंत्री की ओर से छतीसगढ़ के जगदलपुर में हुआ जहां उन्होंने भाजपा की परिवर्तन महासंकल्प रैली में कांग्रेस पर हिन्दुओं और गरीबों को बांटने की राजनीति करने का आरोप लगाते हुए कहा कि कांग्रेस को स्पष्ट करना चाहिए कि क्या आबादी के अनुपात में अधिकार दिए जा सकते हैं। उन्होंने आगे कहा, ‘विपक्ष के नेता अब कह रहे हैं कि देश में जिस वर्ग की जीतनी आबादी है, उसका उतना हक़ है। देश में अगर कोई सबसे बड़ी आबादी है तो वह गरीब है। इसलिए गरीबों का कल्याण ही मौजूदा केंद्र सरकार का मुख्य मकसद है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है और उनमें भी पहला एकाधिकार मुसलमानों का है। मगर अब कांग्रेस कह रही है कि आबादी तय करेगी कि किसे कितना हक़ मिलेगा। क्या कांग्रेस मुसलमानों के अधिकारों को कम करना चाहती है? तो क्या सबसे बड़ी आबादी हिन्दुओं को आगे बढ़कर अपने हक़ ले लेने चाहिए?’ बहरहाल, बिहार में जनगणना रिपोर्ट प्रकाशित होने के अगले दिन ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ को लेकर बीजेपी ने अपनी बौखलाहट जाहिर की तो शाम होते-होते भाजपा का भोपू बन चुके चैनल भीड़ जुटा कर मोदी की बात को आगे बढ़ने लगे।

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बहरहाल, दो अक्टूबर को बिहार में हुई जाति जनगणना प्रकाश में आने के बाद भाजपा और उसकी समर्थित मीडिया में बौखलाहट का जो दौर शुरू हुआ है, वह उत्तरोतर बढ़ते ही जाएगा। यह बात राजनीति के प्राइमरी स्तर का विद्यार्थी भी दावे के साथ कह  सकता है। कारण, एक बच्चे तक को पता है कि चुनाव को यदि सामाजिक न्याय अर्थात आरक्षण के विस्तार पर केन्द्रित कर दिया जाए तो भाजपा कभी जीत ही नहीं सकती  और बिहार की जातिगत जनगणना ने 2024 के लोकसभा चुनाव को अभूतपूर्व रूप से सामाजिक न्याय पर केन्द्रित कर दिया है। चुनाव को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित कर दिया जाए तो भाजपा हारने के सिवाय कुछ कर ही नहीं सकती। यह मोदी राज में दो बार प्रमाणित हो चुका है। पहली बार यह दृष्टान्त 2015 में स्थापित  हुआ, जब लालू प्रसाद यादव ने मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा वाले बयान को पकड़ कर यह कहते हुए सामाजिक न्याय पर केन्द्रित कर दिया कि ‘तुम आरक्षण ख़त्म करना चाहते हो, हम सत्ता में आए तो आरक्षण संख्यानुपात में बढ़ाएंगे।’ सत्ता में आने पर आरक्षण बढ़ाने के लालू के दांव की काट भाजपा नहीं कर पाई और मोदी के पिक फॉर्म में रहते हुए ऐतिहासिक हार झेलने के लिए अभिशप्त हुई। भाजपा कभी आज की तरह अप्रतिरोध्य नहीं पाती, यदि बिहार विधानसभा चुनाव 2015 को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करने वाले लालू प्रसाद यादव से प्रेरणा लेकर 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव, 2019 के लोकसभा चुनाव, 2020 के बिहार और 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित किया होता..। इन चुना में अज्ञात कारणों से बहुजनवादी नेतृत्व ने सामाजिक न्याय को विस्तार देने अर्थात आरक्षण बढ़ाने पर एक शब्द भी उच्चारित नहीं किया। 2015 के आठ साल बाद 2023 में कर्णाटक विधानसभा चुनाव को कांग्रेस ने राहुल गांधी नेतृत्व में सामाजिक न्याय पर केन्द्रित किया और नफरत की राजनीति को तुंग पर पहुंचा कर भी भाजपा ऐतिहासिक हार झेलने के लिए विवश रही।

2015 के बिहार और 2023 के कर्णाटक विधानसभा चुनावों ने निर्विवाद रूप से साबित कर दिया है कि भाजपा सामाजिक न्याय के पिच पर कभी टिक ही नहीं सकती। इस बार तो बिहार की जाति जनगणना के जरिये नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय की ऐसी पिच सजा दी है, जो मंडल उत्तरकाल में कभी देखी ही नहीं गयी। किन्तु नीतीश के बजाय सामाजिक न्याय की राजनीति के नए आइकॉन राहुल गांधी पर भाजपा अतिरिक्त रूप से इसलिए हमलावर है, क्योंकि उन्हीं के प्रयास से 2024 का चुनाव सामाजिक न्याय के उस पिच पर केन्द्रित होने की ओर बढ़ चुका था और अब वही राहुल गांधी ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ का जो नारा उछाले हैं, उससे 85% वालों शक्ति के समस्त समस्त स्रोतों में हिस्सेदारी की अभूतपूर्व पनपने के आसार पैदा हो गए हैं। वह इसलिए कि ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ में गज़ब की शक्ति है। शायद जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी… से भी ज्यादा। यह नारा वंचित बहुजनों में हको-हकूक की अधिकार चेतना कुछ ज्यादे ही पनपाता है और यह 2024 में इंडिया को भारी बढ़त दिला सकता है, इसका इल्म भाजपा नेतृत्व को हो चुका है, इसलिए वह राहुल गांधी के खिलाफ सर्वशक्ति लगाने की दिशा में बढ़ता दिख रहा है।

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बहरहाल ‘जितनी आबादी- उतना हक़’ नारे के असर को देखते हुए राहुल गांधी को इसका सन्देश देने लिए एक और भारतमय यात्रा करनी चाहिए। सिर्फ राहुल गांधी ही नहीं, मोदी की बहुजन विरोधी नीतियों से त्रस्त उन सभी लेखक-पत्रकार और एक्टिविस्टों (जो मोदी द्वारा प्रायः गुलामों की स्थिति में पहुँचा दिए गए हैं) को भी चाहिए कि वे दलित, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों तक ‘जितनी आबादी-उतना हक़’ का संदेश पहुँचाने के लिए अपने स्तर पर कोई उपक्रम चलाये। क्योंकि मोदी-मुक्त भारत निर्माण में यह नारा बेहद कारगर साबित होने जा रहा है।

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