उत्तर भारत की राजनीति में जाति जनगणना की बात लंबे समय से चल रही थी। कभी लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, गोपीनाथ मुंडे और मुलायम सिंह यादव जैसे नताओं ने कई बार जातीय जनगणना कराने की मांग की थी। उससे भी पहले जाति जनगणना का इतिहास तलाशें तो सन 1881 में पहली बार भारत में जनगणना की शुरुआत हुई। सन 1931 की जनगणना में जाति की हिस्सेदारी का आकड़ा घोषित किया गया था। किन्तु, 1941 की जनगणना में आंकड़े जुटाये जरूर गए थे पर पिछड़ी जाति से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। इसके बाद सन 1947 में देश के आजाद होने के बाद से कांग्रेस सरकार ने जनगणना में अनसूचित जाति और अनसूचित जनजाति से संबन्धित आंकड़े सार्वजनिक किए जबकि पिछड़ी जाति से जुड़े हुये आंकड़े सामने नहीं लाये गए। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उस समय जाति से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक न करने को लेकर तर्क दिया था कि अब हमें जातियों में बंटा हुआ विकास नहीं चाहिए बल्कि सबको एक साथ आगे बढ़ना होगा। 200 साल की गुलामी से आजाद हुये लोग विकास के नाम पर बँटवारे की भला बात भी कैसे करते? पाकिस्तान का बंटवारा हो जाने के बाद देश में रह गए लोग विभाजन की विभीषिका को इतने करीब से देख चुके थे कि अब किसी तरह की विभाजक रेखा का जिक्र नहीं करना चाहते थे। जिस वजह से जवाहर लाल नेहरू की बात का कोई गंभीर प्रतिवाद नहीं सामने आया और तब से आज तक जाति जनगणना पर कभी किसी सरकार ने कोई ईमानदारी नहीं दिखाई।
दरअसल पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा जनगणना से पिछड़ी जाति के आंकड़े सार्वजनिक न किए जाने के पीछे कई उद्देश्य और मंतव्य थे। वह भारत को प्रगति के रास्ते पर ले जाने को लेकर सजग थे किन्तु भारत के उस ढांचे को बचाए रखने के लिए भी फिक्रमंद थे जिसे हिन्दू संस्कृति के रूप में देश और देश के लोगों पर थोपा गया था। जो कहीं न कहीं जाति की उस व्यवस्था को बनाए रखना चाहती थी जो वर्ण व्यवस्था से संचालित थी। जिसमें जाति के ऊंच-नीच की व्यवस्था बनी हुई थी।
संविधान निर्माण समिति में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के होने की वजह से दलित हक की पक्षधरता मुखर हो सकी थी, यह अलग बात है कि आजादी के सात दशक बीत जाने के बावजूद दलित समाज के जीवन में अपेक्षित बदलाव नहीं आ सका। पिछड़ी जाति के हक पर उनकी सामाजिक हिस्सेदारी के अनुरूप भागीदारी की बात न तो उठाई गई न ही उनकी सामाजिक हिस्सेदारी का आंकड़ा ही कभी सामने लाया गया।
[bs-quote quote=”जमीन से हीन व्यक्ति संवैधानिक स्वतन्त्रता के बावजूद कभी समग्र स्वतन्त्रता को महसूस नहीं कर सकता क्योंकि उत्पाद में उसके श्रम की हिस्सेदारी किसी और के आधीन ही निहित होती है। यदि बिहार सरकार इस जातीय आंकड़े के साथ भूमि में भी सामाजिक हिस्सेदारी की बात लागू करने की दिशा में आगे बढ़ सकती है, तो यह कम से कम बिहार राज्य के नागरिकों के लिए एक नए युग में प्रवेश करने जैसी स्थिति का निर्माण कर सकता है और भविष्य में चाहे-अनचाहे देश की राजनीति को भी बिहार सरकार की नीतियों का अनुसरण करना पड़ेगा। ” style=”default” align=”center” color=”#0619e8″ author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
सन 2011 में मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में जातीय जनगणना कराई गई थी। लेकिन इस जनगणना का सम्पूर्ण डेटा प्रकाशित नहीं किया गया। इस जनगणना से एकत्र किया गया डेटा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) सहित विभिन्न सरकारी योजनाओं में उपयोग के लिए था। मनमोहन सिंह सरकार के बाद जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उच्च स्तर ब्यूरोक्रेसी में एसटी, एससी और ओबीसी भागीदारी का पता लगाने के लिए भारतीय जनता पार्टी के सदस्य किरीट प्रेमजीभाई सोलंकी की अध्यक्षता वाले 30 सदस्यीय पैनल गठित किया, जिसने लोकसभा में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इस सर्वे में यह बात सामने आई कि उच्च नौकरशाही में एससी और एसटी उम्मीदवारों का प्रतिनिधित्व 2017 में 458 से बढ़कर 2022 में 550 होने के बावजूद, यह अपेक्षित स्तर से नीचे है। वहीँ भारतीय आबादी का 5% ब्राह्मणों हैं और उनके पास 34% सरकारी नौकरियां हैं। एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों के लिए 50% आरक्षण के बाद भी सरकारी नौकरियों पर सामान्य वर्ग का 75.5% पदासीन है। फिलहाल इतिहास से वर्तमान के बीच एक लंबे संघर्ष के बाद राजनीति में जाति जनगणना अचानक महत्वपूर्ण हो गई है। इसके पीछे प्रत्यक्षतः बिहार सरकार द्वारा पेश किया गया जातिवार सर्वे है। यह सर्वे खुले तौर पर जाति जनगणना नहीं है। वजह साफ है कि संविधान किसी राज्य को जाति जनगणना की छूट नहीं देता पर कानून हमेशा किसी चीज को करने का एक दूसरा रास्ता तैयार रखता है और उसी दूसरे रास्ते के सहारे बिहार सरकार ने बिहार के सामाजिक, आर्थिक सर्वे का रास्ता अख़्तियार किया और जाति की स्थिति के आंकड़े को सार्वजनिक कर दिया।
महज एक राज्य में जाति के आंकड़े सामने आते ही देश की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिलने लगा। सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाली पार्टियां जहां देश भर में जातीय जनगणना कराने की मांग में लग गई हैं, वहीं कभी जाति के आंकड़े को सार्वजनिक करने से रोकने वाली कांग्रेस अब खुलकर जाति जनगणना की मांग करती दिख रही है। राहुल गांधी आज सबसे अगली कतार में खड़े होकर पिछड़ी जाति के हक, हिस्सेदारी और भागीदारी की बात करते दिख रहे हैं। कभी कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने के सपने के साथ जो पार्टियां वजूद में आई थी वह राहुल गांधी की इस पहल से थोड़ा सकते में हैं। भारत की पूरी राजनीति सामान्य, पिछड़ा और दलित के कोष्ठकों में बंटी हुई है। सामान्य जो लगभग कुल आवादी का 15 प्रतिशत हिस्सा है वह भाजपा के मुख्य वोटर का रुतबा रखता है वहीं दलित और पिछड़ी जातियां हर राज्य में एक अलग समीकरण के साथ दिखती हैं और इनका एक बड़ा हिस्सा हिन्दुत्व के नाम पर वर्गीय चेतना से अलग भाजपा के साथ खड़ा होता है। इन जातियों की सामूहिक चेतना को अलग-थलग करने में भाजपा और उसका मातृ संगठन आरएसएस सतत रूप से कुछ न कुछ धार्मिक अभियान चलाते रहते हैं और उसकी कमान पिछड़ों के हाथ में सौंप कर उसके अहम का तुष्टीकरण कर देते हैं।
दूसरी ओर भाजपा आज भी उस कथा के अनुरूप ही कार्य करती है जिसमें एक बहेलिया कबूतरों को फँसाने के लिए जहाँ जाल डालना होता है वहाँ दाने डालता है। चालाक सत्ता हमेशा जनता की भूख को अपना हथियार बनाकर उनपर अपना शासन करती है। कुछ इसी भूख और दाने के तिलस्मी खेल में वर्तमान सरकार भी अपना राजनीतिक हित-लाभ साध रही है। एक ओर बेतहाशा मंहगाई बढ़ रही है तो दूसरी ओर लोगों को मुफ्त का राशन बांटकर खुश रखा जा रहा है। पिछले पाँच सालों में देश का एक बड़ा हिस्सा सरकारी मुफ्त राशन के लिए हाथ में कटोरा लिए खड़ा है। मुफ्त राशन के चक्कर और आस में उस समाज का जीवन संघर्ष कमजोर हुआ है। गरीबी रेखा पर खड़ा समाज भूख की चुनौतियों का सामना करने के लिए ही सतत संघर्ष कर रहा था और उसे यह महसूस हो रहा था कि शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके सहारे वह आगे बढ़ सकता है और सामाजिक सम्मान हासिल कर सकता है, पर अब एक ओर शिक्षा को मंहगा किया जा रहा है और दूसरी ओर मुफ्त का राशन देकर सपने और संघर्ष की उर्वरा जमीन को बंजर में बदला जा रहा है। यह तो बहेलिये वाला दुष्चक्र है जो सत्ता द्वारा बुना जा रहा है। अब जातीय जनगणना की वजह से इस दुष्चक्र के खिलाफ वह कहानी शुरू हो जाति है जिसमें एक बूढ़े कबूतर द्वारा समझाने पर सारे कबूतर मिलकर एक दिशा में ज़ोर लगाकर उड़ते हैं और बहेलिये के दुष्चक्र से बच जाते हैं। जाति जनगणना से भी बहेलिये के कबूतर हो चुके लोग अपनी सामुदायिक ताकत का आकलन कर सकेंगे और अपने सामाजिक सम्मान के लिए बहेलिये के दुष्चक्र के खिलाफ साझी ताकत का इस्तेमाल कर पाएंगे और जाल से बाहर आ सकेंगे।
जाति जनगणना का आंकड़ा सामने आ जाने से बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश के उस सामान्य वर्ग को दिक्कत होती दिख रही है जो अब तक पिछड़े और दलित समाज की अपेक्षा बहुत ही कम सामाजिक हिस्सेदारी के बावजूद सम्पत्ति में लगभग 70 प्रतिशत भागीदारी कर रहा है और दलित और पिछड़े समाज को आरक्षण की पैदावार बताकर उन्हें हीनताबोध का शिकार बना रहा है। अब जाति का आंकड़ा सामने आ जाने से दलित और पिछड़ा समाज अपनी वास्तविक ताकत को महसूस कर पा रहा है और अपने हक के संघर्ष के लिए खड़ा होने की तैयारी भी कर रहा है।
मण्डल कमीशन की सिफ़ारिश लागू करने के समय एक बार देश की राजनीतिक स्थिति में बड़ा बदलाव आया था और सीमित सिफ़ारशें लागू होने के बावजूद भी जल्द ही उसका सामाजिक असर भी देखने को मिला था। पर यह भागीदारी सामाजिक हिस्सेदारी के अनुरूप नहीं थी और मण्डल आयोग की सिफ़ारशों के खिलाफ कमंडल यात्रा भी निकाली गई थी। मण्डल और कमंडल के संघर्ष वजह से भारत की राजनीति में बड़ा बदलाव आया और देश भर में आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधी राजनीति का उदय हुआ।
फिलहाल अब जबकि एक राज्य में ही सही जाति के आंकड़े सामने आ गए हैं तब सवाल यह उठता है कि क्या इन तमाम जातियों को हिस्सेदारी के अनुरूप भागीदारी मिल पाएगी? संघर्ष यहाँ खत्म नहीं हुआ है बल्कि अभी सिर्फ संघर्ष का आधार तैयार हुआ है। इस सर्वे के साथ अभी सबसे ज्यादा यह देखने की जरूरत है कि हिस्सेदारी के अनुरूप क्या जमीन और संसाधन पर कब्जेदारी की बात भी उठाई जाएगी?
मौजूदा स्थिति यह है कि बिहार में तकरीबन 91.9 फ़ीसदी आबादी के पास 1 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है। और इस ज़मीन में औसतन केवल 0.25 हेक्टेयर ज़मीन ही खेती करने लायक होती है। 1970-80 के दशक से बिहार में सशक्तीकरण की गंभीर शुरुआत देखने को मिलती है। इस दौर में एक ओर बिहार में जहां जमीन के संघर्ष बढ़ रहे थे तो दूसरी ओर जातीय संघर्ष का रक्तरंजित अध्याय भी लिखा जा रहा था। उस दौर में अधिकतर ज़मीनें अगड़ी जातियों के पास थी। ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत जैसी जातियों का ज़मीनों की हकदारी पर बोलबाला था। बची खुची ज़मीनें यादव, कोइरी और कुर्मी जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग के जातियों के पास थी। फिर भी पिछड़ा वर्ग से जुड़ी ज़्यादातर जातियों के अधिकतर लोग भूमिहीन थे। पाँच दशक के इस अंतराल में स्थितियों में कुछ हद तक बदलाव आया है पर अभी भी बिहार का अति पिछड़ा वर्ग जिसकी सांख्यकीय हिस्सेदारी 36 प्रतिशत के लगभग है और दलित जिसकी सांख्यकीय हिस्सेदारी 20 प्रतिशत के लगभग है का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी बिहार में भूमिहीन होने का दंश झेल रहा है। जमीन से हीन व्यक्ति संवैधानिक स्वतन्त्रता के बावजूद कभी समग्र स्वतन्त्रता को महसूस नहीं कर सकता क्योंकि उत्पाद में उसके श्रम की हिस्सेदारी किसी और के अधीन ही निहित होती है। यदि बिहार सरकार इस जातीय आंकड़े के साथ भूमि में भी सामाजिक हिस्सेदारी की बात लागू करने की दिशा में आगे बढ़ सकती है तो यह कम से कम बिहार राज्य के नागरिकों के लिए एक नए युग में प्रवेश करने जैसी स्थिति का निर्माण कर सकता है और चाहे अनचाहे देश की राजनीति को भी बिहार सरकार की नीतियों का अनुसरण करना पड़ेगा।
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