पूरी दुनिया की आधी आबादी होने के बाद भी स्त्रियाँ न केवल अपने मौलिक अधिकारों से वंचित हैं, बल्कि लगातार शोषण और उत्पीड़न का शिकार भी हो रही हैं। यह उत्पीड़न और शोषण अशिक्षित समाज में ही नहीं, बल्कि पढ़े-लिखे, आधुनिक और सभ्य समाज में भी हो रहा है। इस समाज की नींव पितृसत्ता के खम्भे पर खड़ी है। इसलिए समाज में स्त्रियों के लिए न्याय, नैतिकता, समानता और स्वतंत्रता जैसे व्यवहारों को हासिल करना एक सपने से ज्यादा कुछ नहीं है। संविधान ने भले ही सभी के लिए एक समान कानून बनाए हों लेकिन वास्तविकता से हम सब वाकिफ हैं। यहाँ तक कि स्त्री की देह पर भी पुरुष का अधिकार होता है। एक समय तक बाप का, बाप नहीं है तो भाई का और उसके बाद उसके पति का। वह क्या पहने, कहाँ जाए, किससे सम्बंध रखे, किससे बात करे, यह सब परिवार के पुरुष तय करते हैं और यदि किसी ने अपने मन से कोई निर्णय ले लिया तो उसे उत्पीड़ित किया जाता है। यहाँ तक कि पुरुष अपनी इच्छा से स्त्री से सम्बंध बनाता है। इसमें स्त्री की सहमति-असहमति, मन का कोई मायने नहीं होता। यदि कभी स्त्री ने ज़ाहिर कर दिया, तो उसे प्रताड़ना ही मिलती है और उसके चरित्र पर लांछन लगाया जाता है। कितने बच्चे होंगे? कब होंगे? यह सब पुरुष ही तय करते हैं, कहीं जोर-जबरदस्ती से तो कहीं बहला-फुसलाकर।
हम सब दैहिक शोषण और हिंसा को ही उत्पीड़न समझते हैं लेकिन बातचीत में कहे गए अपशब्द या व्यंग्य भी स्त्री मन को उतनी ही चोट पहुँचाते हैं। अक्सर घरों में हम पुरुषों द्वारा अपनी पत्नी, बहन को कहते सुने होंगे- तुम लड़की हो, ज्यादा मत बोलो। तुमको कुछ समझता नहीं। तुम्हें कोई अक्ल नहीं है। तुम अपना चूल्हा-चौका संभालो। पुरुषों की बात में दखल मत दो। जबकि यह हो सकता है कि उस पुरुष से ज़्यादा समझदार और स्थितियों से मुकाबला करने में स्त्री मजबूत हो लेकिन पुरुषों का ईगो जो स्त्रियों को आगे आने से रोकता है।
बहुजन नायकों-विचारकों के प्रति उपेक्षा और चुप्पी वामपंथ के लिए घातक साबित हुई
पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष अर्थोपार्जन का केंद्र बना हुआ है और स्त्रियाँ घरेलू जिम्मेदारी को निभाते हुए आजीविका के लिए पुरुषों पर निर्भर रहती हैं और यही निर्भरता न केवल स्त्री हिंसा, दमन और शोषण का कारण बनती है बल्कि स्त्री को अपने साथ हो रही हिंसा और अत्याचार को चुपचाप सहन करने हेतु मजबूर भी करती है। केवल आर्थिक ही नहीं, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में भी पुरुष अपना वर्चस्व कायम रखते हैं। हमेशा से धार्मिक कर्मकांडों और सांस्कृतिक परम्पराओं का नेतृत्व पुरुष ही करते हैं। पुरुषवादी व्यवस्था की मानसिकता स्त्री को जन्म से पहले ही अंतहीन हिंसा के चक्र में धकेल देती है। यही संतान के रूप में लड़के की प्राप्ति के लिए भ्रूण हत्या के लिए जिम्मेदार होती है।
[bs-quote quote=”तानाशाह डोमिनिक शासक रैफेल टुजिलो का तीन बहनों पैट्रिया मर्सिडीज, मारिया अर्जेटीना और एंटोनियो मारिया टेरेसा द्वारा विरोध किया गया था। तब उस शासक के आदेशानुसार 25 नवंबर 1960 में तीनों बहनों को बेरहमी से मरवा दिया गया। उसके बाद 1981 में लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई नारीवादी एनकेंट्रोस के कार्यकर्ताओं ने 25 नवंबर को महिलाओं के खिलाफ हिंसा का मुकाबला करने और तीनों बहनों के साहस को याद करते हुए महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस (इंटरनेशनल डे फॉर द एलिमिनेशन ऑफ वायलेंस अगेंस्ट वीमेन डे) मनाने शुरू किया” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
कठुआ, उन्नाव, मुजफ्फरपुर, अंकिता हत्याकांड, अभी हाल में सामने आया श्रद्धा मर्डरकांड, जो चर्चित हैं, के अलावा रोज ही सोशल मीडिया पर पूरे देश के हर हिस्से से एक-दो बलात्कार और महिला उत्पीड़न की खबरें पढ़ने मिलती हैं। फरवरी 2019 में थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन ने सर्वेक्षण में यौन हिंसा, मानव तस्करी और यौन व्यापार में धकेले जाने के आधार पर भारत को दुनिया में महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश बताया है। दुनिया की हर तीसरी महिला शारीरिक या यौन हिंसा की शिकार हैं। द नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आँकड़े बताते हैं 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 30 प्रतिशत स्त्रियाँ को शारीरिक हिंसा सहती हैं। 31 प्रतिशत विवाहित महिलाएँ पतियों द्वारा हर तरह की हिंसा का शिकार होती हैं। लाइव मिंट का एक अध्ययन बताता है कि यौन हिंसा के 99 प्रतिशत मामलों की रिपोर्ट नहीं होती। हमारे देश में एक लाख जनसंख्या पर रिपोर्ट किए जाने वाले बलात्कार के मामलों की संख्या 6.3 प्रतिशत है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ की 2013 की रिपोर्ट बताती है कि समूचे दक्षिण पूर्वी एशिया में स्त्रियों पर घरेलू हिंसा की दर विश्व के अन्य भागों की तुलना में बहुत अधिक है। ये आँकड़े एक नमूना भर हैं, जानकारी के लिए। इसके लिए हम स्त्रियों को अपने स्तर पर इसके खिलाफ खड़े होने की ज़रूरत है। आज 25 नवम्बर को महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस (इंटरनेशनल डे फॉर द एलिमिनेशन ऑफ वायलेंस अगेंस्ट वीमेन डे) है। हमें केवल रैली में आकर नारे नहीं लगाना, बल्कि अपनी स्थितियों से खुद-ब-खुद लड़ना होगा, क्योंकि हमारे संविधान में स्त्रियों के साथ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए अनेक कानून बनाए गए हैं, जो हमारे जीवन को मजबूती प्रदान करते हैं।
तानाशाह डोमिनिक शासक रैफेल टुजिलो का तीन बहनों पैट्रिया मर्सिडीज, मारिया अर्जेटीना और एंटोनियो मारिया टेरेसा द्वारा विरोध किया गया था। तब उस शासक के आदेशानुसार 25 नवंबर 1960 में तीनों बहनों को बेरहमी से मरवा दिया गया। उसके बाद 1981 में लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई नारीवादी एनकेंट्रोस के कार्यकर्ताओं ने 25 नवंबर को महिलाओं के खिलाफ हिंसा का मुकाबला करने और तीनों बहनों के साहस को याद करते हुए महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस (इंटरनेशनल डे फॉर द एलिमिनेशन ऑफ वायलेंस अगेंस्ट वीमेन डे) मनाने शुरू किया। 17 दिसंबर 1999 को संयुक्त राष्ट्र ने इस दिन को अधिकारिक प्रस्ताव के रूप में अपनाया था। महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकना और महिलाओं के बुनियादी मानवाधिकारों व लैंगिक समानता के विषय में जागरूक करने के उद्देश्य से यह दिवस प्रतिवाढ़ मनाया जाता है।