पहला हिस्सा
उत्तर प्रदेश के किसान नेता रामजनम विगत चार दशकों से आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में सक्रिय हैं। बनारस में गंगा और गोमती के बीच स्थित एक गाँव भगवानपुर के एक सम्पन्न किसान परिवार में जन्मे रामजनम छात्र जीवन से ही आंदोलन को समर्पित हो गए। बचपन से राजनीतिक सभाओं और अभियानों में शामिल होते रहे रामजनम जब बनारस में पढ़ाई कर रहे थे तब असम आंदोलन के समर्थन में वरिष्ठ समाजवादी शिवानंद तिवारी के नेतृत्व में दिल्ली से गुवाहाटी तक एक साइकिल यात्रा निकली। रामजनम कहाँ पीछे रहनेवाले थे। साइकिल ली और गुवाहाटी के लिए निकल पड़े। इस यात्रा में उनका परिचय प्रसिद्ध समाजवादी नेता किशन पटनायक। मधु दंडवते और कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से हुआ। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे बताते हैं कि उस समय तक मेरी शादी हो चुकी थी और घर वाले चाहते थे कि मैं अपने पाँव पर खड़ा हो जाऊँ। लेकिन ईमान तो आंदोलन में लगा था। इसलिए घरवालों को भरमाने के लिए कभी कोई कोर्स करता तो कभी कुछ और। घरवाले समझते कि यह गृहस्थी चेत रहा है। और मैं आगे बढ़ता रहा।
गुवाहाटी यात्रा से वापस होने पर रामजनम समता युवजन सभा में शामिल हो गए। 1984 में सिखों के दमन और सिक्ख विरोधी दंगों के खिलाफ समता संगठन के अमृतसर पैदल मार्च में शामिल हुये। उसके पश्चात वे किसान आंदोलन में सक्रिय होते गए। समाजवादी जन परिषद के गठन के बाद वे उसमें शामिल हुये। उन्होंने नई आर्थिक नीति , डब्ल्यूटीओ और एनरॉन के खिलाफ संघर्ष और नर्मदा बचाओ आंदोलन में अनवरत भागीदारी की। इस दौरान वे कई बार गिरफ्तार हुये। बनारस में दिसंबर 2019 में सीएए और एनआरसी आंदोलन के दौरान जेल गए।
रामजनम से गाँव के लोग की विशेष संवाददाता पूजा ने वर्तमान किसान आंदोलन को लेकर एक लंबी बातचीत की जो दो हिस्सों में प्रकाशित की जा रही है। प्रस्तुत है बातचीत का पहला हिस्सा –
नए कृषि कानून में सबसे बड़ी कमी क्या नज़र आती है और आपके हिसाब से इसे क्यों लागू नहीं करना चाहिए?
पिछले वर्ष एक महामारी का दौर था और उसी दौरान बिना कहीं चर्चा किए, बिना कहीं बात किए, एक अध्यादेश आया जो तीन कृषि कानून को लेकर आया था। डेढ़-दो महीने बाद वह बिल के रूप में भी आया और वह संसद में पास भी हो गया। इस देश में छोटे-बड़े किसानों का, उत्तर के, दक्षिण के बहुत सारे किसान संगठन हैं, लेकिन किसी से भी कहीं कोई चर्चा नहीं की गई। यहां तक कि जिसकी सत्ता है – आरएसएस भाजपा का, उसका भी एक किसान संगठन है। किसान महासंघ शुरू में कह रहा था कि उससे भी कोई चर्चा नहीं की गई, हालांकि बाद वह बदल गया।
आज की तारीख में देखें तो कम से कम पूरे 60 फीसदी लोग खेती के आस-पास जिंदा हैं। ज्यादा भी हो सकते हैं। लेकिन मेरा अपना अंदाजा है कि 60 फीसदी से कम नहीं है, जो खेती के आस-पास या खेती-संस्कृति में जिंदा हैं। और बिना चर्चा किए, बिना किसी से पूछे कोई ऐसा कानून बना देता है तो फिर स्वाभाविक है उसका विरोध होना।जिस तरह से अफरा-तफरी में यह कानून राज्यसभा में पास किया गया वह संवैधानिक भी नहीं था। ये जो तीनों कानून है, एक है एमएसपी मंडी समिति वाला कानून। सीधी-सी बात है मैं किसान कार्यकर्ता हूं, मैं जिस तरह से देखता हूं, उसमें तीन बड़े फैक्टर हैं। अनाज को लोगों तक पहुंचाने का, एक तो अनाज उत्पादन होता है उसका वितरण या व्यापार होता है। फिर स्टोरों में रखा जाता है। और तीनों को व्यापारियों के हवाले कर दिया गया। मैं एक-एक के बारे में थोड़ा-सा बताना चाहता हूं कि यह जो मंडी समिति वाला कानून है। यह सही बात है कि मंडी समितियां हैं, लेकिन मंडी समितियां उस तरह से नहीं हैं जिस तरह से होना चाहिए। पंजाब-हरियाणा में मंडियों की स्थिति कुछ ठीक-ठाक है। देश के कुछ हिस्सों में मंडियों की स्थिति इतना कमजोर है, जैसे बनारस में मैं रहता हूं, चन्दौली, गाजीपुर के आस-पास मंडी समितियां उस तरह से काम नहीं कर रहीं हैं। बिहार में मंडिया लगभग खत्म ही हो गई हैं। और यह सही बात है कि जिस तरह से खरीदारी पंजाब और हरियाणा के किसानों की होती है, देश के अन्य भाग के किसानों की नहीं होती है। पंजाब और हरियाणा के 90 फीसद किसानों का अनाज एमएसपी यानी जो सरकार रेट तय करती है न्यूनतम से अधिकतम उस पर खरीदा जा रहा है, लेकिन देश के अन्य हिस्सों से खरीदारी तो बहुत कम है।
तो कुल मिलाकर देश की खरीदारी का जो आंकड़ा है कहीं 6%, 8%, 10% है। लेकिन उसमें भी आप खेल देखिए कि पंजाब हरियाणा के किसान सचेत हैं या मंडी व्यवस्था वहां ठीक है जिसके कारण वहां के किसान थोड़ा न्यूनतम समर्थन मूल्य जो सरकार घोषित करती है उसके हिसाब वे बेच लेते हैं। लेकिन देश के और हिस्सों में उस तरह से घोषित नहीं होता, बल्कि व्यवस्था तो ऐसी बन गयी है कि बिहार का जो व्यापारी गेहूं और धान 1200 रूपए में खरीदता है, उसे ले जाकर के हरियाणा और पंजाब की मंडियों में जो तय एमएसपी है 1975 रूपए या दो हजार जो भी है, उस दाम में बेचता है। इतना बड़ा अंतर 1200 में खरीद और दो हजार में बेचना। यह जो बीच का पैसा है यह तो लूट है। सीधी- सीधी लूट है।
इस कानून के विरोध में पूरे भारत में, सबसे ज्यादा हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग दिखे अन्य राज्यों की भागीदारी कम नज़र आयी, इसके पीछे क्या वजह हो सकती है ?
आपने कहा कि जिस तरह से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जितना मजबूत किसान आन्दोलन है, देश के किसी भी हिस्से में इस तरह का आन्दोलन नहीं है। लेकिन यह आन्दोलन कर्नाटक में भी है, महाराष्ट्र में भी है, तमिलनाडु में भी है। हर जगह धीरे- धीरे फैल रहा है। यहां तक कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां हमलोग रहते हैं, वहां भी किसान कार्यकर्ता या इससे जुड़े हुए कार्यकर्ता लगातार कार्यक्रम कर रहे हैं। क्योंकि योगी सरकार इतना बुरा व्यवहार कर रही है, कानून व्यवस्था और नियम कायदा कानून को ताक पर रख करके जिस तरह से सरकार से सवाल पूछने वालों और अपनी हक की बात करने वाले लोगों को, जिस तरह से टारगेट किया जा रहा है इसके कारण यहां आन्दोलन कमजोर है। आंदोलन कमजोर होने का एक कारण और भी है कि, पश्चिम में एमएसपी पर खरीदारी होती है तो वहां के किसानों को उसका स्वाद लग चुका है, यहां पूरब के किसान को तो पता भी नहीं कि एमएसपी क्या है, उसको कुछ स्वाद ही नहीं लगा। जिसको कुछ स्वाद ही नहीं मिला वह क्या जानेगा कि क्या नुकसान हो रहा है लेकिन जिसको स्वाद लग गया है उसको लगता है कि हमारा जा रहा है तो वो तेजी से लड़ रहा है। तो जिसको महसूस भी नहीं है कि कोई चीज है जो हमको स्वाद देगी इसलिए यहां आंदोलन बहुत कमजोर है।
पश्चिम की जो खेती की डिजाइन है पूरब की खेती की डिजाइन से भिन्न भी है, पश्चिम में जिनके पास जमीनें हैं, वह खुद खेत में काम करता है पूरब में जिनके पास जमीनें हैं वे खेतों में काम नहीं करते किराए पर दे देते हैं, अधिया पर दे देते हैं। लेकिन हमलोग तो लगे हैं। मुझे तो लगता है कि यह आन्दोलन लोगों के मन में धीरे- धीरे प्रवेश कर रहा है। यहां पश्चिम का किसान जो खेती से जुड़ा है वो भले दिल्ली के बॉर्डर पर हो रही हमारी सभाओं में नहीं आता है, लेकिन उसका कहीं न कहीं मन आंदोलित हो गया है। किसान आन्दोलन के समर्थन में उसका मन हो गया है। वर्तमान में सही सवाल करने पर सरकार इतना इतना क्रूर व्यवहार करती है, इसलिए कुछ लोग डर गए हैं, लेकिन धीरे-धीरे आंदोलन बढ़ रहा है। आवश्यक वस्तु अधिनियम केवल किसानों का सवाल नहीं है, एक कानून था 1956 में या 1957 से हमारे देश में जो खाने-पीने की आवश्यक वस्तु से संबधित है। जिसके तहत खाने- पीने की आवश्यक वस्तुओं का सीमा से ज्यादा कोई भंडारण नहीं कर सकता है। उसको हटा दिया गया है। अब आप चाहे जितना भंडारण कर सकते हैं। जो प्याज का दाम एकाएक बढ़ जाता है उसका कारण क्या है? यह खेल है कि 8 और 5 रुपए की प्याज किसान से खरीद के हमको और आपको 80 और 100 रुपए में बेचा जाता है। वह क्या है? वह सस्ते दामों पर अपने गोदामों में उसको भर लेता है, जब बाज़ार खाली हो जाता है, तो फिर वो मनमाने दाम पर बेचता है। इस कानून में मनमानी करने और जमाखोरी करने की छूट है। यह हर रोटी खाने वाले की केवल लूट की छूट है। केवल किसान की लूट नहीं है इसमें। यह जो आवश्यक वस्तु अधिनियम वाला कानून है यह हर रोटी खाने वाले नागरिक लूट है।
किसान आंदोलन का एक नारा है, जो कहता है कि रोटी तिजोरी में हम बंद नहीं होने देंगे। उसका मतलब यह है कि हम व्यापारी को मारने नहीं देंगे। जो इंसान है उसको मारने नहीं देंगे। नहीं तो ये बहुत सारी वस्तुओं का भंडारण करके खेल करते रहेंगे। अनाज का भंडारण करके ये खेल करेंगे तो कहीं न कहीं जो कार्पोरेट की जय, श्रीराम की जय बोलेगा उसको रोटी देंगे। जो नहीं बोलेगा उसको रोटी नहीं देंगे। तीसरा एक कान्ट्रैक्ट फॉमिंग है, यह भले खेत पर न कब्जा करें लेकिन खेती पर कब्जा करना चाहते हैं। अभी खेती में चाहे जितना नया विज्ञान आ गया है लेकिन आज भी किसान अपनी विद्या से विवेक से खेती करता है। बीज अब कंपनियां बनाने लगी हैं। उसके हाथ में बीज नहीं है फिर भी वो अपने स्टाइल में खेती करता है, उसका कंट्रोल खेती पर है। क्या बोएंगे गेहूं बोएंगे, अहरह लगाएंगे,यह किसान तय करता है। अब इस कॉन्ट्रक्ट फॉर्मिंग में सीधा- सीधा यह होगा कि आप क्या लगाएंगे यह कंपनियाँ तय करेंगी। यही नहीं, किस रेट पर बेचेंगे यह भी वे तय करेंगी। शुरू में वे थोड़ा-सा ज्यादा रेट देंगे, बाद में फिर खेल करेंगे। बीच से ये छोटे- छोटे व्यापारी, अढ़तिया खत्म हो जाएंगे।
अभी तो इसमें 40 लाख लोग या उससे ज्यादे लोग लगे हैं। अनाज के व्यापार में उन सबको एक झटके में खत्म कर देना है। इसमें केवल किसान नहीं खत्म होगा। ये जो आजकल बहुत अभाव है रोजगार का ये जो छोटे–छोटे लोग लगे हैं वे सबको खत्म करके सीधा व्यापार पर सब कब्जा कर लेना चाहते हैं। क्योंकि उनका कॉन्ट्रैक्ट किसान से हो जाएगा और वे जो रेट तय करेंगे किसान को उस पर ही देने को बाध्य कर दिया जाएगा। शुरू में तो थोड़ा किसान को दे देंगे लेकिन फिर जैसा वो रेट तय करेंगे उसी हिसाब से आपको अनाज बेचना पड़ेगा। कभी- कभी कह सकते हैं, और ऐसा हुआ भी है, कॉन्ट्रैक्ट खेती का अनुभव पंजाब के किसानों को, कई जगह के आलू, टमाटर के किसानों को कॉन्ट्रक्ट खेती नुकसान दिखा भी है। कंपनी ने कॉन्ट्रैक्ट कर लिया। पहले साल उसने कहा कि हम 1200 क्विंटल में खरीदेंगे। उन्होंने 1200 का खरीदा। साल दो सालों में 1200, 1400 क्विंटल का खरीदा। दो-तीन सीज़न के बाद कहने लगे कि भाई आपके अनाज में दाग लगा है। यह छोटा है। आपका ये टेढ़ा है। आपके टमाटर में रंग नहीं है। यह कह करके फिर 800 रुपए 700 रुपए या जो चाहे वह मनमाना रेट तय करते हैं। यह उदाहरण मैं इसलिए दे रहा हूं कि हिमाचल में जो सेब हैं, आप अपने मार्केट में चले जाइए तो एक स्टीकर लगा होता है अंबानी का सेब लाल होता है। अभी सेब का सबसे बड़ा व्यापार हिमाचल में अंबानी की कंपनी कर रही है। शुरू में तो सेब बीस रुपए 25, रुपए रहा और अढ़तिया और छोटे व्यापारी खरीदते थे। पहले उसने दो तीन रूपए बढ़ा करके सेब खरीदना शुरु किया। दो तीन सीजन में ये छोटे अढ़ेतिये-व्यापारी खत्म हो गए। पिछले साल 8 रुपए 10 रुपए में सेब की खरीद करने वाली अंबानी की कंपनी हमको-आपको 150- 140 रूपए में बेचती है। यह खेल लगभग हर अनाज के साथ है। तो यह केवल अब किसान की लड़ाई नहीं है।
जो भी बौद्धिक व्यक्ति इस पर सवाल उठा रहा है, जो भी व्यक्ति इस पर कुछ लिख पढ़ रहा है, उसको टारगेट कर रहें हैं। उसको जेल में बंद कर रहे हैं इसलिए कम लोग बोल रहें हैं। इस चीज को पश्चिम का पंजाब, कुछ हद तक राजस्थान का किसान समझ गया है। इसलिए यह पूरा जनआंदोलन हो सका है। अब धीरे- धीरे देश में भी फैल रहा है। जैसे देखिए मुजफ्फरनगर की बड़ी पंचायत थी। अखबारों में, मीडिया में आया लेकिन उसके पहले किसान आन्दोलन की खबर ही देना बंद कर दिए। एक दो चैनल हैं जो कुछ- कुछ खबरें देते हैं। भास्कर जैसे कुछ अखबार हैं जो थोड़ी-बहुत ख़बर देते हैं लेकिन जिनका बहुत बड़ा विस्तार है वो अखबार इसपर लिखना ही बंद कर दिए हैं। हमलोग बनारस में बहुत सारे कार्यक्रम करते हैं। अखबार नहीं छापता है, कल हमारी एक बैठक का पता नहीं क्यों छाप दिया! 27 की बंदी की घोषणा किसान आन्दोलन की है और उसकी तैयारी बैठक हमलोग कर रहे थे। देखा तो हिंदुस्तान और सहारा ने फोटो के साथ छाप दिया था। हमलोग किसान आंदोलन की बैठक की ख़बर भेजते रहते हैं, इसलिए कि कम से कम जो डेस्क पर आदमी है उसकी नजर जाएगी वह तो पढ़ लेगा। कोई नहीं पढ़ेगा वह तो पढ़ेगा। हम कुछ ये जो छोटे- छोटे बेवसाइट, ब्लाग हैं, और जो छोटे-छोटे मीडिया के सोशल मीडिया हम उसमें देंगे। अपने कार्यक्रम की ख़बर देते रहेंगे। मनुष्य हैं हम कोई ना कोई लड़ने का तरीका निकाल लेंगे और निकाल भी रहें हैं। सब लोग निकाल रहें हैं।
यह बिल जब राज्यसभा में पास हुआ तो बड़ी संख्या में लोगों ने इसका विरोध दिल्ली में किया। इस दौरान उनपर लाठी चार्ज भी हुआ। बहुत सारी यातनाएं सहने के बाद भी लोग वहां डटे रहे। उसके बाद एक बड़ी घटना घटित हुई 26 जनवरी को और फिर यह आन्दोलन कमजोर पड़ने लगा। कई संगठनों का नाम सामने आया और उन्हें देशद्रोही बताया गया। अब देखा जाए तो जो भीड़ आन्दोनल की शुरुआत में थी, अब उसका आधा हिस्सा भी अख़बारों में नहीं बची है। हालांकि आंदोलन अभी भी जारी है। तो आपकी इस पर क्या राय है?
जब आंदोलन की शुरुआत हुई तो तभी से इसको बदनाम करनें की लगातार कोशिश की जा रही है। कभी खालिस्तानी, कभी माओवादी तो कभी पाकिस्तानी। मतलब कुछ भी बोल देते हैं। भाजपा के मंत्री और तमाम भाजपा के नेता आए दिन ऐसे बोलते रहे कुछ चैनल भी उसको उसी तरह से दिखाते रहे, लेकिन उसके बाद भी आंदोलन को कहीं से बदनाम नहीं कर पाए। उसको टारगेट किया लेकिन खत्म नहीं कर पाए। यह 26 की जो घटना है कई बार छोटी- छोटी घटनाओं को जिस तरह से मीडिया उछाल देता है वैसे ही यह मीडिया द्वारा उछाली गई घटना है। जबकि उस आंदोलन का उससे कोई रिश्ता नहीं होता। आप देखिए कि यह ऐतिहासिक आंदोलन इसलिए है क्योंकि दुनिया में बहुत सारे आंदोलन हुए लेकिन जितना न्याय, त्याग और भाईचारा इस आन्दोलन में है, शायद दुनिया के किसी आंदोलन में देखने को मिला हो। मतलब जो मनुष्य होने के मूल गुण हैं वे सारे इसमें देखने को मिले। इसलिए ये सारी चीजें, चाहे चैनल बदनाम करें, चाहे सरकार, उसके मंत्री या उनके ट्रोलर्स बदनाम करें लेकिन यह आन्दोलन बदनाम कहीं से नहीं होता। न आन्दोलन शिथिल होता है। यह अलग बात है कि बदनामी के बाद अखबारों में मेन स्ट्रीम मीडिया में उसको जगह नहीं दिया जा रहा है।
आंदोलन कहीं से कमजोर नहीं हुआ है। अभी कह रहे थे कि आन्दोलन कमजोर हो गया है। ऐसी मीडिया जो सही दिखाते हैं उन्होंने कहा कि 5 सितंबर को जो पंचायत हुई, उसमें किसानों की 10 लाख की भीड़ थी। वे लोग भी आस- पास के नहीं थे। उसमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर, पूरब के लोग तो थे ही तमिलनाडु और कर्नाटक के लोग भी थे। विभिन्न भाषाओं में वहां भाषण हुआ। तो यह आन्दोलन व्यापक हुआ। लोगों तक पहुंच रहा है और सरकार इससे डर गयी है। आरएसएस समझदार संगठन है चीजों को समझता है। लेकिन अब चूंकि जिस तरह का प्रधानमंत्री है और जिस तरह से उसने कदम आगे बढ़ा दिया है, उसको लगता है कि अब हमारे ऊपर का वो हो गया है। वह जैसे चाहेगा वैसे लोगों और आंदोलनों को तोड़-मरोड़ देगा लेकिन यह आंदोलन तो इतना मजबूत हो गया है कि आने वाली किसी सरकार की हिम्मत नहीं होगी कि इस कानून को लागू करके चलाए और कोई सरकार इस तरह का कानून लाए। यह सही बात है कि खेती और किसानों का एक दिन का शोषण नहीं है। जब देश आज़ाद हुआ था। सरकार ने पंचवर्षीय योजना लागू की, केवल एक पंचवर्षीय योजना में खेती का जिक्र है, खेती की बात की ठीक से की गई है। उसके बाद कहीं खेती की बात ठीक से नहीं की गई। जो ये विकास और अर्थशास्त्र हैं, इन दोनों की डिजाइन भारत में खेती विरोधी, गांव-विरोधी ही रही है।
आपके अनुसार भारत एक कृषि प्रधान देश हैं, लेकिन किसी भी सरकार में कृषि को लेकर कुछ ख़ास काम नहीं किया गया है?
हां, देखिए न! हम कहने को शुरू से पढ़ रहे हैं कि भारत गांवों का देश है। भारत कृषि प्रधान देश है लेकिन खेती में आत्महत्याएँ बढ़ रही हैं। आंकड़ा यह बताता है कि रोज़ कुछ न कुछ आदमी खेती छोड़ के दूसरे कामों में जाते हैं। बंबई , सूरत, दिल्ली जातें हैं। यहां तक कि हमारे क्षेत्र के नए बच्चे अरब देशों में मजदूरी करने जा रहे हैं। वो सभी खेती से जुड़े बच्चे हैं, लेकिन खेती के घाटे में होने के कारण लोग कमाने बाहर जाते हैं। खेती करके जिंदा रहना मुश्किल हो गया है। आप खेती करके अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकते। आप दवा नहीं कर सकते। रोजमर्रा का जीवन नहीं चला सकते। खेती के ये हालात कुछ दिनों में नहीं हुए हैं। खेती को लगातार पीछे ढकेला गया है। उसका उदाहरण है, जबसे एमएसपी लागू हुआ तब से आंकड़े भी हैं। इस देश में एमएसपी 1966 में लागू हुआ। 1970 से शुरू करिए तो एक प्राइमरी पाठशाला के अध्यापक का जो वेतन था, और एक क्विंटल गेंहू का जो दाम था उसकी आप तुलना आज करिए तो गेहूं का दाम 18 से 19 % बढ़ा है और प्राइमरी के मास्टर की तनख्वाह 150 गुना बढ़ी है। प्रोफेसर की तनख्वाह 180 गुना बढ़ी है। मतलब इस तरह से खेती को लगातार गर्त में जाने का रास्ता तैयार किया गया। उस समय के सीमेंट का भाव देख लीजिये। उस समय के किसी ईंट, लोहा या किसी भी कारखाने में उत्पादित हो रही सामग्री का भाव और खेती का भाव देख लीजिए। वे सभी आंकड़ें हैं। एमएसपी है लेकिन एमएसपी मिलता नहीं है। आगे इसका हिसाब आप लगाएंगे तो आप देखिए सरकारें इस तरह से खेती को पीछे ले जा रही हैं।
कार्पोरेट तो अभी आया है। काम तो सरकारें कर रही थीं। कार्पोरेट के पक्ष में खेती, मतलब खेती छोड़ दीजिए मशीन करेगी। देखिए, हमारा देश अमेरिका, ब्रिटेन नहीं है। हमारा देश भारत है। यहां विविधता है, खेती के साथ– साथ देश में विविधता है, तो अपने देश के हिसाब से नीतियां बननी चाहिए। आज बन रही हैं, और ख़ास करके 1990 के बाद जब से डब्ल्यूटीओ का समझौता हुआ तब से लगातार चल रहा था। असल में खेती भारत में है और रहेगी, लेकिन ये चाहते हैं कि किसान खत्म कर दिए जाएँ। कहां जाएँ? पता नहीं कहां जाएँ। रेल के किनारे जाएंगे। झोंपड़ी लगाएंगे मजदूरी करेंगे। लोगों के घरों में काम करेंगे। लोगों की फैक्ट्रियों में सस्ते मजदूर चाहिए। इस देश के विकास के लिए सस्ते मजदूर सस्ता श्रम चाहिए कहां से मिलेगा। किसान आज खेती में, बगीचे में, नदी के किनारे, मछली मार के, पेड़ लगा के, पौधा लगा के, अनाज पैदा करके किसी तरह से जिंदा है। लेकिन उसको भी जिंदा नहीं रहने देना चाहते हैं। उसको भी शहर में भेजना चाहते हैं। शहर में कहां जाएगा? शहर में जगह नहीं बची है। देखिए न मुंबई में क्या हाल है। तो इनकी उस तरह के विकास की अवधारणा है, और इनके इस तरह के विकास की अवधारणा को ज़मीन पर लागू करने के लिए इस तरह का कानून जरूरी है। अनाज का व्यापार दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार है। भारत के अनाज के व्यापार पर कार्पोरेट की निगाह लगी हुई है कि इस पर कैसे कब्जा किया जाए और बिना इस तरह का कानून लाए ये इस पर कब्जा नहीं कर सकते। इतनी विविधता है। एक तरह के उत्पादन वाले किसान होते या एक रंग-ढ़ंग के किसान होते तब भी कब्जा कर लेते। लेकिन हिमाचल के सेब वाले पर कब्जा करेंगे तो यहां सब्जी वाले पर कब्जा नहीं कर सकते हैं। तो इनको लगा कि एक कानून ऐसा होना चाहिए जो कि इस व्यापार पर कब्जा करे और खेती पर कब्जा करे।
क्रमशः