अहा! एक खूबसूरत दिन बीत गया। रात भी बहुत खूबसूरत थी। कल पूरा दिन पढ़ता रहा। शुरुआत तसनीम बानू की किताब धरती भर आकाश से की तो रात का अंत विनोद मिश्र : संकलित रचनाएं से। दोनों किताबें बहुत खास हैं। अब दोनों किताबों के करीब सौ पन्ने शेष बचे हैं। उम्मीद है कि उन्हें अगले रविवार को पढ़ जाऊं ताकि दो समीक्षाएं लिख सकूं।
दरअसल, मैं किसी भी दिन को खूबसूरत तभी मानता हूं जब ग्रहण करने को खूब सारे शब्द और सूचनाएं मिलें। विनोद मिश्र भाकपा माले भूतपूर्व राष्ट्रीय महासचिव थे। भोजपुर के इलाके में लोग उन्हें राजू नेता के नाम से जानते थे। उनका नाम विनोद मिश्र है, माले के अधिकांश कार्यकर्ता कम ही जानते थे। उनके निधन के बाद दीपंकर भट्टाचार्य राष्ट्रीय महासचिव हैं। हालांकि एक सवाल कल भी उठा। पहले से भी उठता रहा है। सवाल यह कि भाकपा माले जैसी पालिटिकल पार्टी जो लोकतंत्र को महत्वपूर्ण मानती है, वह स्वयं लोकतांत्रिक नहीं। यदि वह लोकतांत्रिक मूल्यों का निर्वहन करती है तो राष्ट्रीय महासचिव के पद पर कोई एक ही व्यक्ति आजीवन कैसे रह सकता है?
[bs-quote quote=” पंजाब में दलितों की आबादी बिहार में दलितों की आबादी की तुलना में कहीं अधिक है। बिहार में तो उनकी आबादी 11-12 फीसदी होगी। लेकिन पंजाब में दलित सिखों की आबादी 20 फीसदी के आसपास है। बिहार में राजनीतिक चेतना का असर देखिए कि वहां रामसुंदर दास और भोला पासवान शास्त्री 1970-80 के दशक में ही मुख्यमंत्री बन गए थे। और पंजाब में अब जाकर कोई दलित मुख्यमंत्री बना है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
खैर, माले की इस आलोचना के अलावा कल एक बेहद खूबसूरत खबर मिली। ऐसी खबर, जिसके बारे में किसी ने भी नहीं सोचा था। अन्य लोगों के जैसे ही मैं भी यह सोच रहा था कि रामदसिया सिख चरणजीत सिंह चन्नीके बाद पंजाब के मुख्यमंत्री बड़बोले और लतीफेबाज व पूर्व में शानदार क्रिकेटर रहे नवजोत सिंह सिद्धू होंगे। मेरे ऐसा सोचने के पीछे वजह भी थी। जिस तरह से सिद्धृ ने 80 साल के वृद्ध अमरिंदर सिंह को परेशान कर रखा था, उससे तो यही लग रहा था कि वे स्वयं सीएम बनना चाहते हैं और संभवत: कांग्रेस का आलाकमान भी यही चाहता है। परसों जब अमरिंदर सिंह ने सिद्धृ को लेकर पाकिस्तान वाला बयान दिया तब मुझे लगा कि अमरिंदर सिंह का विरोध जायज ही था। आखिर कोई तो वजह रही होगी कि कांग्रेस के 80 में से 78 विधायकों ने उनका विरोध किया था।
मेरी नजर में दलित रामदसिया सिख चरणजीत सिंह चन्नी का सीएम बनाया जाना सुकून देनेवाली खबर है। यह बात इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मैं दलित, पिछड़ों और आदिवासियों के पक्ष की पत्रकारिता करता हूं। मैं खुश इसलिए भी था कि पंजाब में दलितों की आबादी बिहार में दलितों की आबादी की तुलना में कहीं अधिक है। बिहार में तो उनकी आबादी 11-12 फीसदी होगी। लेकिन पंजाब में दलित सिखों की आबादी 20 फीसदी के आसपास है। बिहार में राजनीतिक चेतना का असर देखिए कि वहां रामसुंदर दास और भोला पासवान शास्त्री 1970-80 के दशक में ही मुख्यमंत्री बन गए थे। और पंजाब में अब जाकर कोई दलित मुख्यमंत्री बना है।
मेरी मान्यता है कि लोकतंत्र तभी कारगर होगा जब इसमें सभी की हिस्सेदारी होगी। मैं इसका भी हिमायती नहीं कि सत्ता पर केवल दलित, पिछड़े और आदिवासी ही हमेशा काबिज रहें। मेरे हिसाब से एक रोस्टर बना लिया जाना चाहिए। जैसे सरकारी नियुक्तियों के मामले में होता है। लेकिन यह बहुमत के आधार पर हो। चरणजीत सिंह चन्नी के सीएम बनाने जाने पर मुझे अधिक खुशी और होती यदि यह फैसला कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व नहीं बल्कि पंजाब में कांग्रेस के सारे विधायकों ने मिलकर किया होता।
खैर, इसमें अभी समय लगेगा जब देश में समतामूलक समाज की स्थापना को लेकर समाज के सभी वर्ग सजग होंगे। जाहिर तौर पर इसके लिए ब्राह्मणवाद, जातिवाद और धर्म के आधार पर सियासत का खात्मा जरूरी होगा। फिलहाल तो मुझे यह देश धर्म के मामले में पराकाष्ठा को पार करता हुआ दीख रहा है।
[bs-quote quote=”लोकतंत्र तभी कारगर होगा जब इसमें सभी की हिस्सेदारी होगी। मैं इसका भी हिमायती नहीं कि सत्ता पर केवल दलित, पिछड़े और आदिवासी ही हमेशा काबिज रहें। मेरे हिसाब से एक रोस्टर बना लिया जाना चाहिए। जैसे सरकारी नियुक्तियों के मामले में होता है। लेकिन यह बहुमत के आधार पर हो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
असल में कल का दिन खूबसूरत था नहीं बल्कि मैंने उसे खूबसूरत बनाया। वर्ना मैं दिल्ली के जिस मुहल्ले में रहता हूं वहां ब्राह्मणवादियों ने गजब की हुड़दंग मचा रखी थी। गणेश की एक छोटी सी प्रतिमा लगाकर पूरे मुहल्ले को कानफोड़ू संगीत सुना रहे थे। आवाज इतनी तेज थी कि मेरे कमरे में कंपन पैदा हो रहा था। ऐसे में दो ही विकल्प थे मेरे पास। एक तो यह कि उनकी शिकायत दिल्ली पुलिस से करूं कि उन्हें इतनी तेज आवाज में गीत-संगीत बजाने की अनुमति क्या दिल्ली पुलिस ने दी है या फिर उनकी आवाज को नजरअंदाज कर कुछ रचनात्मक किया जाय। मैंने दूसरा रास्ता चुना। इसका फायदा हुआ।
कल 600वां दिन भी था। ठीक 600 दिन पहले मैंने यह तय किया था कि एक हजार कविताएं लिखूंगा प्रतिदिन एक कविता के हिसाब से। इस दौरान कविताओं की संख्या पर नजर गयी तो पाया कि अबतक 633 कविताएं लिख सका हूं। योजना है कि जब एक हजार हो जाएं तो उन्हें संपादित कर विषयवार संग्रहित करूं। शायद लोगों के काम आए। तो कल पांच छोटी-छोटी कविताएं जेहन में आयीं।
1.
बर्फ हमेशा के लिए नहीं होते
और कुछ रिश्ते भी।
बर्फ का पिघलना
आकाशगंगा की कोई
अनूठी घटना नहीं है।
2.
जो तुम संग नहीं तो
शब्द बेमतलब से हो गए हैं
और वह जो समंदर है
उसने भी अपना भावार्थ खो दिया है
और आसमान?
उस पर भी यकीन करने जैसा कुछ नहीं।
3.
कुछ ढीठ यादें हैं शेष
और जो कुछ था
बीज से फूल और
फूल से बीज बनने की प्रक्रिया में
समाप्त हो चुका है।
4.
रिश्तों का होना और
रिश्तों का नहीं होना
महज दो परिघटनाएं नहीं हैं
जैसे सूरज का उगना और
सूरज का डूबना
महज दो परिघटनाएं नहीं हैं।
5.
मैं मीर और गालिब नहीं हूं
जो तुमसे अलग अंदाज में कहूं कि
सांझ ढलने को बेताब है
और चिरागों को रौशन करने का वखत है।
गोया चिरागों के रौशन होने से
रात के लंबी होने का कोई असर नहीं होगा।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।
बहुत बढ़िया। पठनीय लेख। धन्यवाद।