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विश्व आदिवासी दिवस : धरती पर मासूमियत को जिंदा रखने का संघर्ष

विश्व के सभी आदिवासियों में जागरूकता फैलाने के साथ उनके अधिकारों के संरक्षण के लिए हर वर्ष 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है। संयुक्त रासत्र महासभा ने 1994 को पहली बार अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी वर्ष घोषित किया था। विकास के नाम पर हमने आदिवासियों के लिए मापदंड तय कर दिए हैं। यदि वे अपनी मौलिकता, अद्वितीयता और अस्मिता खोकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पोषक धर्म परंपरा को स्वीकार कर लें तो हम उन्हें देश की धार्मिक-सांस्कृतिक मुख्य धारा का अंग मान लेंगे। यदि वे सहर्ष अपना जल-जंगल-जमीन त्यागकर स्वामी से सेवक बन जाएं तो हम अपनी कल्याणकारी योजनाओं द्वारा उनका उद्धार करेंगे। यह लेख राजू पांडे द्वारा लिखित है, जिसे 9 अगस्त 2022 को gaonkelog.com में छापा था। आज यह लेख पुन: प्रकाशित किया जा रहा है।

विश्व आदिवासी दिवस पर विशेष

जब विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर अनेक आयोजन हो रहे हैं तब पता नहीं क्यों उस घटना की ओर ध्यान जा रहा है जिसे भारतीय मीडिया में अपवाद स्वरूप ही चर्चा के योग्य माना गया। कुछ समय पूर्व पोप फ्रांसिस ने 19वीं शताब्दी से 1970 के दशक तक संचालित सरकारी-वित्त पोषित ईसाई स्कूलों में कनाडा के 150000 से भी अधिक मूल निवासियों को जबरन उनके घरों और सांस्कृतिक परिवेश से दूर रखे जाने के लिए क्षमा याचना की थी। कनाडा सरकार ने यह स्वीकारा था कि इन स्कूलों में इन मूल निवासियों का जमकर शारीरिक और यौन शोषण हुआ था, बड़ी संख्या में इनकी मौतें भी हुईं, जिन्हें छिपाकर रखा गया था। बहुत सारे मूल निवासी अब तक इस मानसिक आघात से उबर नहीं पाए हैं। ईसाई धर्म को श्रेष्ठ समझने वाले धर्म प्रचारक और सरकार इन्हें ईसाईयत के रंग में ढालकर सभ्य बनाने के लिए अमानवीय अत्याचार करते रहे।

ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और अमरीका की सरकारें क्रमशः फरवरी 2008, जून 2008 और दिसंबर 2009 में आदिवासियों पर किए गए अत्याचार के लिए माफी मांग चुकी हैं, यद्यपि इन देशों में मूल निवासियों की संख्या बहुत कम है और चुनावों में इनके मुद्दे जीत हार का निर्धारण नहीं करते। 2016 में सत्तासीन होने के बाद ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन ने वहाँ के मूल निवासियों से क्षमा याचना करते हुए कहा कि ‘पिछले 400 वर्षों में ताइवान में जिसका भी शासन रहा है उसने मूल निवासियों के अधिकारों का खूब हनन किया है। इन पर सशस्त्र आक्रमण किए गए हैं और इनकी जमीन छीनी गई है। मैं सरकार की ओर से इन मूल निवासियों से क्षमा याचना करती हूँ।’

भारत के आदिवासी इतने सौभाग्यशाली नहीं हैं कि हमारे धर्म प्रचारक और सरकार इनसे क्षमा याचना करें। अभी तो हमारे देश में इनकी मूल पहचान मिटाकर इन्हें हिन्दू सिद्ध करने का अभियान जोरों पर है। सरकार की मौन सहमति और संरक्षण इस अभियान के साथ हैं।

हर धर्म प्रचारक को यह लगता है कि उसका धर्म सर्वश्रेष्ठ है और यह उसका धार्मिक कर्त्तव्य है कि वह अधिकाधिक लोगों को अपने धर्म का अनुयायी बनाए। भोले-भाले आदिवासी इन धर्म प्रचारकों के निशाने पर पहले आते हैं।

धर्म प्रचार की आधुनिक रणनीतियां सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण और प्रयोगों का अवलंबन लेती हैं। कभी धर्म प्रचारक सेवक, शिक्षक अथवा चिकित्सक का बहुरूप धर कर आता है और इन आदिवासियों को सशर्त सुविधाएं और राहत प्रदान कर उनका विश्वास अर्जित करने की कोशिश करता है। वह उन्हें उनके पारंपरिक अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाते-दिलाते अपने धर्म के अंधविश्वासों के भंवर में फंसा देता है। कभी वह दानदाता का स्वांग भरता है और रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति कर उन्हें आभारी और कृतज्ञ बना देता है, फिर धीरे से जब वह अपने धर्म को अपनाने का प्रस्ताव रखता है तो मिलने वाला उत्तर सकारात्मक ही होता है।

धर्म प्रचार की दूसरी रणनीति बल प्रयोग, सामाजिक दबाव तथा छल-कपट पर आधारित होती है। विश्व के अनेक देशों में तलवार के जोर पर धर्म परिवर्तन के लंबे इतिहास की भयानकता से हम सभी अवगत हैं। अपना धर्म न स्वीकारने अथवा इसे त्याग कर दूसरा धर्म अपनाने  पर सामाजिक बहिष्कार की धमकी और भयादोहन भी धर्म प्रचारकों के तरकश के अचूक तीर हैं।

बहरहाल, हर धर्म प्रचारक प्रकृतिपूजक आदिवासियों के पारंपरिक धर्म और विश्वासों को खारिज करता है, उन्हें हीन और त्याज्य बताता है और अपने धर्म को उन पर इस तरह थोपता है कि वह उन्हें थोपा हुआ न लगे। इसके लिए वह प्रायः उनकी लोकभाषा, लोक संगीत और लोक साहित्य में विद्यमान मिथकों एवं प्रतीकों को बहुत धूर्ततापूर्वक अपने धर्म के अनुकूल बनाता है। सत्ता का संरक्षण मिलने पर धर्म प्रचारक बेखौफ और निडर हो जाते हैं एवं आदिवासियों की अद्वितीयता के अपहरण की उनकी घृणित कोशिशें परवान चढ़ती हैं।

अंग्रेजों के शासनकाल में ईसाई मिशनरियों ने इन आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ बनाई थी और अब कट्टर हिंदुत्ववादी शक्तियां सत्ता का संरक्षण पाकर नई ऊर्जा के साथ आदिवासियों के हिंदूकरण के अभियान में जुट गई हैं। ईसाई मिशनरियों की तुलना में कट्टर हिंदुत्व के यह हिमायती अधिक आक्रामक, हिंसक और प्रतिशोधी हैं। मोहरा बना सरल हृदय आदिवासी समुदाय धर्म प्रचारकों के आपसी संघर्ष में पिसने के लिए अभिशप्त है।

हिन्दुत्ववादी संगठन आदिवासी को मूलनिवासी मानने से करती हैं इंकार 

हमारा संविधान आदिवासियों की अलग पहचान को स्वीकारता है। जनगणना में भी इन्हें उपजातिवार अंकित किया जाता है। हिन्दू विवाह अधिनियम और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम आदिवासियों पर लागू नहीं होते। इन मूल निवासियों के रहवास के भौगोलिक क्षेत्रों को चिह्नांकित कर इन्हें जनजातीय क्षेत्रों की संज्ञा दी गई है और इनके लिए पांचवीं और छठी अनुसूची के माध्यम से अलग प्रशासनिक व्यवस्था भी की गई है जिससे आदिवासियों की पारंपरिक विरासत एवं प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण हो सके। संविधान की इसी भावना के आधार पर पेसा एक्ट जैसे कानून भी कालांतर में बनाए गए हैं।

किंतु कट्टर हिंदुत्व के हिमायतियों को यह संवैधानिक व्यवस्था मंजूर नहीं है। वे आदिवासी शब्द को बड़ी चतुराई से वनवासी शब्द द्वारा प्रतिस्थापित कर देते हैं। आदिवासियों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले अनेक संगठन वनवासी शब्द पर ही गहरी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं। इन संगठनों के अनुसार भारत के आदिवासी अनार्य हैं और आर्यों के पहले से ही भारत में निवास करते रहे हैं। आदिवासी आर्यन नहीं बल्कि द्रविड़ या ऑस्ट्रिक भाषा समूह से संबंधित हैं। आदिवासियों की अपनी भाषा, संस्कृति और धार्मिक परंपराएं हैं जो हिन्दू धर्म से भिन्न हैं। आदिवासी प्रकृति पूजक हैं और इनकी धार्मिक परंपराएं, पूजन विधि, धार्मिक उत्सव आदि सभी अविभाज्य रूप से प्रकृति से संबंधित हैं। आदिवासियों के विविध संस्कारों  यथा जन्मोत्सव, अंतिम क्रिया, श्राद्ध तथा विवाह आदि की भिन्नता और विशिष्टता सहज स्पष्ट है। आदिवासी हिन्दू समाज की वर्ण व्यवस्था एवं दहेज आदि अनेक कुरीतियों से सर्वथा मुक्त हैं। आदिवासी स्वर्ग एवं नरक की अवधारणा पर विश्वास नहीं करते। अपितु वे अपने मृत पूर्वजों की आत्माओं को अपने सन्निकट अनुभव करते हैं। इनकी अपनी न्याय प्रणाली एवं विधि व्यवस्था है।

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यदि कट्टर हिंदुत्ववादी शक्तियां आदिवासी शब्द को स्वीकार कर लेंगी तो उनका यह दावा अपने आप खंडित हो जाएगा कि वैदिक सभ्यता की स्थापना करने वाले आर्य भारत के मूल निवासी हैं।

आदिवासियों को हिन्दू धर्म के अधीन लाने के लिए एक संगठित अभियान चल रहा है जो वनवासी कल्याण आश्रम, एकल विद्यालय, सेवा भारती, विवेकानंद केंद्र, भारत कल्याण प्रतिष्ठान तथा फ्रेंड्स ऑफ ट्राइबल सोसाइटी आदि अनेक संगठनों द्वारा संचालित है। ये संगठन यह प्रचार करते हैं कि आदिवासियों का हिंदूकरण राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है। इनके मतानुसार ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे कथित धर्मांतरण पर रोक लगाना और धर्मांतरित आदिवासियों को वापस हिन्दू धर्म के अधीन लाना देश की अखंडता के लिए बहुत जरूरी है।

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यह विचारधारा न केवल ईसाइयों की राष्ट्र भक्ति पर संदेह करती है बल्कि अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने के इच्छुक आदिवासियों को भी संदिग्ध मानती है। जैसा विहिप के वरिष्ठ पदाधिकारी रह चुके मोहन जोशी ने एक अवसर पर कहा था- ‘हिन्दू धर्म के प्रति अनादर, राष्ट्र के प्रति अनादर की भावना उत्पन्न करता है। धर्म परिवर्तन का अर्थ है राज्य के प्रति अपनी निष्ठा में भी परिवर्तन।’ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मोहन जोशी का राष्ट्र, संकीर्ण हिन्दू राष्ट्र है, संविधान द्वारा संचालित उदार और सर्वसमावेशी भारत नहीं।

कट्टर हिंदुत्ववादी आदिवासियों का उपयोग ध्रुवीकरण के लिए करते हैं  

कट्टर हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा अपनाई गई हिन्दू धर्म के प्रचार की विधियां ईसाई मिशनरियों से उधार ली गई हैं। ईसाई मिशनरी जिस प्रकार धर्म प्रचार के लिए आदिवासी युवाओं को प्रशिक्षित करती है उसी प्रकार सेवा भारती रामकथा के प्रसार के लिए आदिवासी युवक-युवतियों हेतु अयोध्या में 8 माह का प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती है। इसी तरह एकल विद्यालय का प्रयोग भी सेवा-शिक्षा-सहयोग के बहाने हिन्दू धर्म के प्रचार की वैसी ही विधि है जैसी ईसाई धर्म प्रचारक पहले ही अपना चुके हैं।

इन संगठनों द्वारा संचालित विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा न केवल ईसाई अल्पसंख्यकों बल्कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति भी आदिवासियों के मन में संदेह और घृणा उत्पन्न करने में योगदान देती है। जैसे-जैसे यह प्रचार अपनी जड़ें जमाने लगता है, वैसे-वैसे आदिवासी बहुल इलाकों में धार्मिक और साम्प्रदायिक टकराव की स्थितियां उत्पन्न होने लगती हैं। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण चुनावों में बीजेपी की कामयाबी में योगदान देता है। आने वाले वर्षों में जब संकीर्ण राष्ट्रवाद और हिंसक हिंदुत्व के पैरोकार इन मासूम आदिवासियों के मन में ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत का जहर भरने में कामयाब हो जाएंगे तब हम साम्प्रदायिकता और हिंसा के नए ठिकानों को रूपाकार लेते देखेंगे। हिन्दू-ईसाई और हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के इन नए केंद्रों में आदिवासियों को हिंसा एवं नकारात्मकता की अग्नि में झोंका जाएगा।

आदिवासियों के धार्मिक ध्रुवीकरण ने व्यापक आदिवासी एकता की संभावना को समाप्त प्रायः कर दिया है। धर्म के आधार पर मतदान करने वाला आदिवासी समुदाय राजनीतिक दलों को भी पसंद है क्योंकि इस तरह वे भावनात्मक मुद्दों को हवा देकर आदिवासियों की बुनियादी समस्याओं से किनारा कर सकते हैं। आदिवासियों को धर्म की अफीम के नशे का शिकार बना कॉरपोरेट लूट भी निर्बाध रूप से की जा सकती है।

आदिवासी प्रकृति के सच्चे संरक्षक 

आदिवासियों का आवास वे वन क्षेत्र हैं जिनके नीचे कोयले, माइका और बॉक्साइट आदि के भंडार हैं जिनके दोहन पर पूंजीपतियों की नज़र है। विस्थापन आदिवासियों की नियति है। विस्थापन का दंश भुक्तभोगी ही जानते हैं। विस्थापन किसी स्थान विशेष से दूर हटा दिया जाना ही नहीं है। यह एक जीवनशैली का अंत भी है। यह अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत से जबरन बेदखल कर दिया जाना भी है। संविधान तब कितना असहाय बन जाता है जब संवैधानिक प्रावधानों को  बेमानी बनाकर सत्ता अपने कॉरपोरेट मित्रों के उद्योगों के मार्ग में बाधक बन रहे आदिवासियों को रास्ते से हटा देती है। आदिवासियों के हितों की रक्षा करने वाले कानूनों को मजबूत बनाने और फिर उनमें सेंध लगाने की प्रक्रियाएं एक साथ चल रही हैं।

आदिवासी हितों से जुड़े कानूनों को मजबूत बनाना वोट बंटोरने की राजनीति का एक हिस्सा है और इन कानूनों को व्यावहारिक रूप से अप्रभावी बना देना सत्ता के असली कॉरपोरेट परस्त चरित्र का मूल गुण है। नए उद्योगों की स्थापना के लिए पर्यावरणीय प्रभाव, सामाजिक प्रभाव, पुनर्वास, मुआवजे और रोजगार तथा ग्रामसभा की शक्तियों से संबंधित जटिल नियमों की पोथियों को अर्थहीन होते देखने के लिए किसी कॉरपोरेट मालिक के एक और नए प्रोजेक्ट का अवलोकन भर आवश्यक है। न्यायपालिका की अपनी सीमाएं हैं, यह सीमाएं सशक्त कानूनी प्रावधानों के अभाव से अधिक नीयत, इच्छाशक्ति और प्राथमिकता के अभाव की सीमाएं हैं।

आदिवासियों के हितों के लिए कार्य करने वाले संगठन यह ध्यानाकर्षण करते हैं कि पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आने वाले एक बड़े क्षेत्र को हिंसाग्रस्त बताकर यहां आदिवासियों के अधिकारों को स्थगित रखा गया है। क्या यह महज संयोग है कि इन्हीं क्षेत्रों में बड़े कॉरपोरेट घरानों की महत्वाकांक्षी परियोजनाएं संचालित होनी हैं? नक्सल समस्या के आर्थिक-सामाजिक पहलुओं से इतर एक प्रश्न जो बार-बार हमारे सम्मुख उपस्थित होता है वह यह कि क्या नक्सल समस्या राजनीतिक दलों को रास आ गई है और क्या यह उनके राजनीतिक-आर्थिक हितों की सिद्धि में कोई योगदान देती है? क्या नक्सल समस्या का समाधान न हो पाने का एक मुख्य कारण राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव है? नक्सल समस्या के कारण जो भी हों परिणाम तो एक ही होता है- आदिवासियों का दमन। चाहे वह पुलिस की हो या नक्सलियों की हो, गोली खाकर मरने वाला कोई मासूम आदिवासी ही होता है।

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वन्यजीव संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2006, आदिवासियों के संरक्षण और उनकी आजीविका को उतना ही महत्त्व देता है जितना कि वन्य पशुओं के संरक्षण को। किंतु पर्यावरण और वन्य जीव संरक्षण के नाम पर आदिवासियों के विस्थापन का एक षड्यंत्र भी चल रहा है और बिना किसी स्पष्ट कारण एवं सुपरिभाषित नीति के उन्हें विस्थापित करने की कोशिश जारी है। वास्तव में कॉरपोरेट समर्थक पर्यावरणविद और संरक्षणवादी वन अधिकार कानून 2006 को भारतीय वन अधिनियम, वाइल्ड लाइफ एक्ट तथा पर्यावरण संबंधी अन्य अनेक कानूनों का उल्लंघन करने वाला और असंवैधानिक बताकर खारिज कराना चाहते हैं।

हमने आदिवासियों के विकास के मापदंड तय कर दिए हैं। यदि वे अपनी मौलिकता, अद्वितीयता और अस्मिता खोकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पोषक धर्म परंपरा को स्वीकार कर लें तो हम उन्हें देश की धार्मिक-सांस्कृतिक मुख्य धारा का अंग मान लेंगे। यदि वे सहर्ष अपना जल-जंगल-जमीन त्यागकर स्वामी से सेवक बन जाएं तो हम अपनी कल्याणकारी योजनाओं द्वारा उनका उद्धार करेंगे।

आदिवासियों को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी होगी- वह भी पूरी तरह अहिंसक रूप से। उनका बचना धरती पर मासूमियत को जिंदा रखने के लिए जरूरी है।

राजू पांडेय
राजू पांडेय
लेखक रायगढ़ में रहते हैं और स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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