हिन्दी भाषी प्रदेशों के हाल में संपन्न हुए चुनावों के नतीजों में मंडल पर कमंडल की राजनीति भारी सिद्ध हुई है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के ‘हिन्दुत्व’ के मुद्दे के सामने विपक्ष विशेषकर कांग्रेस के सामाजिक न्याय का मुद्दा अर्थात जातिगत जनगणना का असर दिखाई नहीं दिया।
ज़ाहिर सी बात है कि विपक्ष ख़ासकर इंडिया गठबंधन को आगामी लोकसभा चुनावों के लिए ‘जातिगत जनगणना’ के अलावा कुछ ज़मीनी मुद्दों की तलाश है। ऐसे में अगर विपक्षी दल किसानों और मज़दूरों के मुद्दों को राजनीति के केंद्र में लाता है तो उसको समाज के दो वर्गों का समर्थन हासिल हो सकता है।
ऐसा माना जाता है कि अगर किसान और मज़दूर दोनों वर्ग एकजुटता के साथ किसी दल का समर्थन या विरोध करें तो उसका असर चुनावी राजनीति पर ज़रूर दिखाई देगा। इधर कुछ समय से देखा गया है कि किसान और मज़दूर लगातार केंद्र में सत्तारुढ़ बीजेपी का मुखर विरोध कर रहे हैं।
इन दोनों वर्गों का मानना है कि नरेंद्र मोदी का झुकाव किसानों और मज़दूर से अधिक ‘कॉर्पोरेट’ की तरफ़ है, जिसके नतीजे में खेते में काम करने वाले किसानों और मज़दूरों के विभिन वर्गों का उत्पीड़न हो रहा है।
साम्प्रदायिकता की राजनीति
कहा जा रहा है कि इस बात का अंदाज़ा किसानों और मज़दूरों को भी है कि आने वाले दिनों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिकता की राजनीति तेज़ कर सकती है।अगले महीने जनवरी 22 को अयोध्या में श्री राम मंदिर के उद्घाटन के बाद ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिकता की राजनीति और तीव्र होगी।
इसी वजह से 26-28 नवंबर तक देश भर के राज्यों की राजधानियों में किसान-मज़दूरों की हुए महापड़ाव में इन दोनों वर्ग ने एकजुटता देखने को मिली और इनके नेताओं ने लोकसभा चुनाव 2024 अपनी समस्याओं और मांगों को राजनीति के केंद्र में लाने एवं कृषि संकट और मज़दूर उत्पीड़न का नेरेटिव बनाने का प्रयास शुरु कर दिया।
किसानों ने एक वर्ष से अधिक आंदोलन कर के तीन कृषि क़ानून, जिनको वह किसान विरोधी मानते थे, को वापिस लेने के लिए केंद्र की मोदी सरकार को मज़बूर कर दिया। लेकिन इसके बावजूद मोदी सरकार और किसानों के बावजूद तनाव बरक़रार है।
कहा यह भी जाता है, उस वक़्त व्यापक किसान आंदोलन के दबाव के अलावा, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों 2022 के कारण, तीन कृषि कानूनों पर, मोदी सरकार पीछे हटने पर मजबूर हुई थी।
लेकिन अब विवादास्पद तीन कृषि कानूनों को वापिस कर करते समय सरकार और किसानों में जो लिखित समझौता हुआ था, सरकार अब उस से पीछे हट रही है। किसान आम चुनावों 2024 से पहले सरकार इस समझौते पर अमल करवाना चाहते हैं। इसके अलावा मज़दूरों में नए लेबर कोड को लेकर नाराज़गी है।
किसानों और मज़दूरों की राजनीति अधिकतर वामपंथी पार्टियाँ सक्रिय रहती हैं, लेकिन अगर उस पर सारा विपक्ष साथ आता है तो उस से देश की राजनीति की तस्वीर में बदलाव आ सकता है। जातिगत जनगणना के साथ किसान और मज़दूर के उत्पीड़न के सवाल पर राजनीति से साम्प्रदायिकता और ध्रुवीकरण की धार को भी हल्का किया जा सकता है।
देश भर में हुए महापड़ाव में किसानों का कहता था कि खेती करना कठिन होता जा रहा है, क्योंकि सरकार की नीतियों के कारण एक तरफ़ किसान बढ़ती लागत व घटती आय के कारण क़र्ज़ वह आत्महत्या के शिकार हो रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ मज़दूर बेकारी, छटनीं, मँहगाई और शोषण का शिकार हैं ।
किसानों को लगता है कि बीजेपी सरकार, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य एमएसपी और किसानों की आय दुगुनी करने के वादे के साथ बीजेपी सरकार सत्ता में आयी थी।लेकिन सत्ता हासिल होने के बाद सरकार ने उनके साथ विश्वासघात किया है। वह मानते हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान लाये गए तीन कृषि क़ानून (जो अब वापिस हो चुके है) द्वारा सरकार ने पूँजीपतियों से हाथ खेती को सौंपने की साजिश रची थी।
किसानों द्वारा सरकार पर आरोप की एक बड़ी सूचि है। उनसे बात करने पर मालूम होता है कि वह, सरकार द्वारा मण्डी कानून व आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर सरकार ने फ़सल ख़रीद व खाद्य वितरण पर कारपोरेट का कानूनी नियन्त्रण स्थापित करने, को षड्यन्त्र एक मानते है। वह कहते हैं कि मौजूदा सरकार में किसानों को उनकी ज़मीन से बेदखल कर उन्हें बंधुआ मज़दूर बनाने की व्यूह रचना की गई है ।
किसानों में सरकार के ख़िलाफ़ रोष का एक बड़ा कारण यह है कि वह मानते हैं कि उन्होंने तीन कृषि कानूनों के खिलाफ, देश भर के किसानों ने 13 महीने की ऐतिहासिक लम्बी लड़ाई लड़ी जिसमें 750 किसानों की मौत हो गई। अंतः किसानों के आन्दोलन के दबाव में सरकार ने तीनों कृषि कानून वापस तो वापिस लिये। किन्तु बिजली और एमएसपी के सम्बन्ध में किये गये लिखित समझौते को अभी तक लागू नहीं किया।
उधर एक दूसरे बड़े वर्ग मज़दूरों में भी नाराज़गी है, जिसका कहना है कि सरकार की कारपोरेटपरस्त नीतियों ने देश के श्रमिक वर्ग को संकट में ढकेल दिया है। बढ़ती छटनी, बेरोज़गारी ,घटती आय, और मँहगाई ने श्रमिकों को बर्बाद कर दिया है। वह कहते हैं सरकार चार श्रम संहितायें कारपोरेट हित के लिये लाई गई जिनके द्वारा श्रमिकों के सभी अधिकारों पर हमला कर उन्हें गुलाम बनाने की साजिश है। इसके अलावा स्थायी सरकारी नौकरियों का ठेकाकरण और निजीकरण, नियमित घटते रोज़गार और वेतन में गिरावट से भी सरकार और मज़दूरों में गतिरोध देखा जा सकता है।
किसान सरकार पर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार सभी फसलों पर सी – 2 प्लस 50 प्रतिशत के फार्मूले से एमएसपी की गारण्टी और भूमि अधिग्रहण पर रोक के लिए भी दबाव बना रहे हैं।
आवारा पशु
अगर उत्तर प्रदेश की बात की जाये तो यहाँ किसान आवारा पशुओं से परेशान हैं और वह लगातार पशु व्यापार पर लगी रोक को हटाया हटाने की मांग कर रहे हैं। किसान कहते हैं कि पशुओं के व्यापार पर लगे प्रतिबन्ध के कारण आवारा पशुओं की समस्या विकराल हो गई है, कई इलाकों में किसानों ने मटर और चना जैसी फसलें लगाना बंद कर दिया है.
मनरेगा
इसके अलावा वह मनरेगा के विस्तार की बात भी कर रहे हैं। किसान चाहते हैं मनरेगा का शहरों तक विस्तार किया जाये और प्रतिवर्ष 200 दिन काम और प्रतिदिन रू0 600 मज़दूरी सुनिश्चित की जाये। बॅटाईदार किसानों का निबन्धन, उनको सभी तरह की सरकारी योजनाओं का लाभ देने की बात भी समय समय पर उठ रही हैं।
मुफ्त बिजली
किसान लगातार बिजली संशोधन विधेयक 2022 को वापस लेने और, किसानों की खेती के लिये मुफ्त बिजली देने था सभी परिवारों को तीन सौ यूनिट बिजली फ्री देने की मांग भी काफी समय से करते आ रहे हैं।
मज़दूर वर्ग भी अपने अधिकारों की लड़ाई को तेज़ कर रहा है, वह श्रम का ठेकाकरण बन्द करवाने और असंगठित श्रमिकों की सभी श्रेणियों जैसे आशा, मिड डे मिल रसोईया और आंगन बाडी सेविका सहायिका सहित का पंजीकरण कर सभी योजना कर्मियों को नियमित करने के मुद्दे पर अड़ा हुआ है। उनकी मांग है कि नियमित प्रकृति के काम पर रखे गये संविदा/ आउटसोर्सिंग/ ठेका मज़दूरों को नियमित किया जाय।
उत्तर प्रदेश के किसान, समुचित जलप्रबन्धन के जरिये बाढ़ सूखा एवं जलभराव की समस्या के स्थायी समाधान के लिये ठोस योजनाओ और प्रदेश के सभी अधूरे व जर्जर सिंचाई परियोजनाओं का शीघ्रा आधुनिकीकरण करने की मांग कर रहे हैं। वहीँ प्रदेश में अफीम की खेती करने के लिये फिर से लाइसेन्स जारी किये जाने की मांग भी उठ रही है। वहीँ प्रदेश में गन्ना किसानों के भारी बकाये का ब्याज सहित भुगतान व गन्ने का रेट रू0 500 प्रति कुन्तल घोषित करने तथा उत्तर प्रदेश में बन्द पड़ी सभी चीनी मिलों को पुनः चालू करने पर भी किसान ज़ोर दे रहे हैं।
खाद्य सुरक्षा की गारण्टी और जनवितरण प्रणाली को सर्वव्यापी बनाने और किसानों को अनुदानित दर और उचित समय पर पर्याप्त मात्रा में उरर्वक उन्नत बीज कीटनाशक एवं अन्य कृषि सामग्री उपलब्ध करने के लिए किसान सरकार पर दबाव बनाए हैं।
इस के अलावा किसान लगातार कारपोरेट समर्थक पीएम फसल बीमा योजना को वापस लेने, और सभी फसलों के लिये सार्वजनिक क्षेत्र की व्यापक फसल योजना स्थापित करने की मांग पर अटल है।
केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ की बर्खास्तगी और गिरफ़्तारी नहीं होने से सरकार के ख़िलाफ़ किसानों में नाराज़गी का माहौल है। उल्लेखनीय है कि लखीमपुर कांड, जिसमें चार किसानों और एक पत्रकार की हत्या हो गई थी। किसान इस कांड के षड़यंत्र का आरोप मोदी सरकार के मंत्री अजय मिश्रा पर लगाते हैं।
प्रदेश में न्यूनतम वेतन बोर्ड, शुगर उद्योग, बीडी, कालीन, डिस्टिलरी, होटल उद्योग, इंजीनियरिंग उद्योग के वेतन पुनरीक्षण के लिये समितियों का गठन करने और घरेलू कामगारों और होम बेस्ड वर्कर्स को मज़दूर का दर्जा दिए जाने और उनके लिये बोर्ड के गठन का मुद्दा भी गर्म है।
इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों एवं सरकारी विभागों का निजीकरण बन्द करने और निर्माण श्रमिकों को कल्याण निधि से योगदान, के साथ ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकृत सभी श्रमिकों को स्वास्थ्य योजना मातृत्व लाभ, जीवन बीमा और विकलांगता बीमा का कवरेज की बात भी मज़दूर वर्ग में चर्चा है।
देश की दोनों उत्पादक ताकतें किसान-वर्ग एकजुट होकर सरकार की इन नीतियों के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं। अगर विपक्ष इन मुद्दों पर सरकार को घेरती है तो उसके लिए यह सत्तारुण दल के साम्प्रदायिकता के मुक़ाबले में एक मज़बूत एजेंडा साबित हो सकता है ।
समाजवादी चिन्तक प्रोफेसर सुधीर पंवार कहते हैं जिस दिन यह दोनों वर्ग एक हो जायेगें, देश की राजनितिक तस्वीर बदलने से कोई नहीं रोक सकता है। पंवार मानते हैं कि अतीत में इन दोनों वर्गों को एकजुट करने का सफल प्रयोग हो भी चुका है, जब यह दोनों वर्ग साथ आये थे और चौधरी चारण सिंह 1979 में देश के प्रधानमंत्री बने थे।
वह कहते हैं ऐसा ही दूसरा प्रयोग 1993 में हुआ था जब समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने एक साथ आने का फैसला लिया था। उस समय फ़िरकापरस्त ताक़तों को हार हुई थी।
वह आगे कहते है केवल ग्रामीण इलाको में रहने वाले लोग जिनकी जीविका कृषि पर निर्भर है, वह धर्म-जाति के मतभेद छोड़कर, एक हो जायें तो समाज में बड़ा राजनितिक परिवर्तन देखने को मिलेगा। बता दें की देश की क़रीब 62 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है।
राजनितिक विश्लेषक सूरज बहादुर कहते हैं की अगर किसान मज़दूर और नौजवान अपने मुद्दों को लेकर सड़क पर आ जायें तो बड़ी से बड़ी सरकार को झुकना पड़ता है। बहादुर के अनुसार, इसका ताज़ा उदाहरण किसान आन्दोलन है जब सरकार को किसानों की एक एकजुटता के आगे झुकना पड़ा और विवादास्पद तीन कृषि कानूनों को वापिस लेना पड़ा है।
वह आगे कहते हैं कि ऐसा देखा गया है कि वामपंथियों के अलावा किसान और मज़दूर के मुद्दे और कोई नहीं उठता है। जबकि अगर अगर एक लाभार्थी वर्ग सत्तारूढ़ दल के साथ जुड़ा है तो किसानों और मज़दूर दो वर्ग विपक्ष के पाले में आ सकते हैं।