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लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई संसद से ज्यादा सड़क पर लड़नी पड़ेगी

आजादी के बाद की पीढिय़ां इस दायित्व का निर्वाह ईमानदारी से नहीं कर पाई हैं। इसीलिए संविधान विरोधी और देश विरोधी विचार और राजनीति आज संवैधानिक सत्ता पर काबिज है। उसका मुकाबला तभी हो सकता है जब हम संविधान की भाषा को जनता के मुहावरे और जनता के सरोकार से जोड़ें।

लोकसभा चुनाव में भारतीय लोकतंत्र के लिए एक उम्मीद की खिड़की खुली थी। संवैधानिक लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों के सामने जो दीवार खड़ी हुई थी, उसमें एक खिड़की खोलने का काम पार्टियों ने नहीं, जनता ने किया था। इमरजैंसी के बाद हुए 1977 के चुनाव की तरह इस देश की जनता ने 2024 में भी एक दीवार में खिड़की खोलकर विपक्षी पार्टियों को मौका दिया था कि वे इसे दरवाजा बना सकें और उस रास्ते से देश बचाने की लड़ाई लड़ सकें। लेकिन भारतीय लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि अक्सर पार्टियों ऐसी बड़ी जिम्मेदारी संभाल नहीं पातीं। 6 महीने के भीतर ही 3 विधानसभा चुनावों के बाद यह खिड़की अब सिकुड़कर एक रोशनदान भर रह गई है। जिम्मेदारी अब फिर जनता और जन संगठनों पर आन पड़ी है कि वे भारतीय संविधान की आत्मा को बचाने का संघर्ष तेज करें।

रोशनी की इस खिड़की के जरिए दरवाजा खोलने के लिए यह जरूरी था कि लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिले धक्के  को उसकी पराजय के सिलसिले में बदला जाए। लोकसभा के बाद होने वाले तीनों चुनावों में यह काम असंभव नहीं था। महाराष्ट्र में इंडिया गठबंधन यानी महाविकास अघाड़ी को 48 में से 30 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। वहां विधानसभा का चुनाव लगभग जीता हुआ माना जा रहा था। हरियाणा में लोकसभा की सीटें 5-5 बंटी थीं, लेकिन विधानसभा के संदर्भ में यह मानना स्वाभाविक था कि कांग्रेस को जीतना चाहिए। झारखंड में मामला कुछ कठिन था, चूंकि लोकसभा चुनाव में भाजपा और सहयोगियों का पलड़ा भारी था, फिर भी ऐसा लगता था कि अगर कोशिश की जाए तो झामुमो और सहयोगियों की जीत संभव है। वास्तव में हुआ इसका ठीक उलटा। जिस झारखंड में जीत सबसे कठिन थी, वहां इंडिया गठबंधन धड़ल्ले से जीता। हरियाणा में जहां कांग्रेस को जीतना चाहिए था, वहां हार गई और जिस महाराष्ट्र में चुनाव जीता-जिताया लग रहा था, वहां इंडिया गठबंधन का सफाया हो गया। बेशक यह चुनाव परिणाम विवाद से परे नहीं है। हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों राज्यों में विपक्ष ने चुनाव परिणाम पर उंगली उठाई है।

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पिछले 35 साल से ही चुनावी जीत-हार देखते हुए मुझे भी पिछले साल मध्य प्रदेश के आश्चर्यजनक चुनाव परिणाम की तरह इस बार हरियाणा और महाराष्ट्र में दाल में कुछ काला दिखता है। फिलहाल इस विवाद को छोड़कर इन चुनाव परिणामों के असर को समझना जरूरी है। एक बात तय है। लोकसभा चुनाव के बाद से मोदी सरकार के जो तेवर ढीले पड़े थे, उसमें अब बदलाव आएगा। इसका संकेत महाराष्ट्र की विजय के बाद और संसद सत्र की शुरूआत में प्रधानमंत्री के बयान से ही लग जाता है। अब भी भाजपा के लिए संविधान को बदलना या फिर संविधान बदलने जैसी ‘वन नेशन वन इलैक्शन’ की योजना को लागू करना तो संभव नहीं हो पाएगा, लेकिन इसके अलावा अपने बाकी सभी एजैंडे पर केंद्र सरकार आगे बढ़ेगी। चाहे वक्फ बोर्ड का कानून हो या समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव अथवा जनगणना के जरिए डीलिमिटेशन, इन सभी दिशाओं में भाजपा तेजी से आगे बढ़ेगी। विरोध के किसी भी स्वर को दबाने की कोशिशें भी तेज होंगी – चाहे सोशल मीडिया और यू-ट्यूब आदि पर फंदा कसने का मामला हो या फिर जनांदोलनों और जन संगठनों को ठिकाने लगाने के कानून हों, या फिर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर बदले की कार्रवाई।

उधर आर्थिक नीतियों में भी चंद औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाने वाली नीतियां और निर्णय अब बेलगाम तरीके से बढ़ेंगे। पिछले कुछ महीनों में सेबी अध्यक्ष और गौतम अडानी को लेकर जिन सवालों पर सरकार घिरती हुई नजर आ रही थी, अब उन्हें दरकिनार किया जाएगा। अगले एक साल तक सत्तारूढ़ दल अपने हर निर्णय के लिए लोकप्रियता की दुहाई देगा। एन.डी.ए. में भाजपा का वजन बढ़ेगा और भाजपा में फिर से मोदी जी का। ऐसे में संवैधानिक लोकतंत्र और भारत की आत्मा के लिए प्रतिबद्ध जनआंदोलनों, जनसंगठनों और नागरिकों की जिम्मेदारी पहले से भी ज्यादा बढ़ जाती है। विपक्षी पार्टियों से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे भी संसद में सत्तारूढ़ पक्ष के गैर लोकतांत्रिक एजैंडे का विरोध करें, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि उनकी बात ज्यादा सुनी जाएगी। विपक्ष अगर दिल्ली और बिहार के चुनाव में भाजपा को रोक सकता है तो यही उनका सबसे बड़ा योगदान होगा।

आने बाले महीनों और वर्षों में लोकतंत्र बचाने की लड़ाई का असली मैदान संसद से ज्यादा सड़क होगा – यानी लोकतांत्रिक और अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए जनान्दोलन और संघर्षों के माध्यम से। बेरोजगारी, महंगाई, किसान की अवस्था, दलित, आदिवासी, महिला और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार जैसे अनगिनत मुद्दे हैं जिन पर जन संगठनों को खड़ा होना पड़ेगा। अडानी के घोटालों पर भी केवल विपक्ष के बोलने से ही काम नहीं चलेगा, जब तक सड़कों पर यह सवाल नहीं उठता।

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लेकिन संसद और सड़क से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मोर्चा है संस्कृति का। अंतत: भारत की आत्मा को बचाने की लड़ाई एक वैचारिक लड़ाई है। आजादी के आंदोलन ने भारत की जिस परिकल्पना को गढ़ा था, उसे बचाना और हर नई पीढ़ी के लिए नए मुहावरे में समझाना हमारा सबसे बड़ा दायित्व है।

सच यह है कि आजादी के बाद की पीढिय़ां इस दायित्व का निर्वाह ईमानदारी से नहीं कर पाई हैं। इसीलिए संविधान विरोधी और देश विरोधी विचार और राजनीति आज संवैधानिक सत्ता पर काबिज है। उसका मुकाबला तभी हो सकता है जब हम संविधान की भाषा को जनता के मुहावरे और जनता के सरोकार से जोड़ें। संविधान निर्माण की 75वीं वर्षगांठ पर यह उन सब नागरिकों की जिम्मेदारी बनती है, जो आज भी संवैधानिक मूल्यों में आस्था रखते हैं। अभी भी मौका है – खिड़की न सही, रोशनदान अभी भी खुला है।

योगेन्द्र यादव
योगेन्द्र यादव
लेखक, भारत जोड़ो अभियान के राष्ट्रीय संयोजक हैं।

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