जलवायु परिवर्तन की अंतर सरकारी समिति (आईपीसीसी) की ‘जलवायु परिवर्तन 2022 के प्रभाव’ पर ताजा रिपोर्ट भारत के लिए खतरे की घंटी है। इसमें चेताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में बाढ़ और सूखे के हालात पैदा होने का खतरा बढ़ रहा है। यदि अनुमानतः तापमान में एक डिग्री सेल्सियस से चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ोतरी होती है तो भारत में, चावल का उत्पादन 10 से 30 प्रतिशत तक, जबकि मक्के का उत्पादन 25 से 70 प्रतिशत तक घट सकता है। बिहार में जयवायु परिवर्तन के खतरे अब सामने दिख रहे हैं। पिछले साल एक जून से 30 सितंबर तक बिहार में औसतन 1,027.6 मिलीमीटर बारिश होनी चाहिए थी लेकिन बीते 1
0 साल (साल 2010 से 2019 तक) में सिर्फ दो बार ऐसे मौके आए, जब औसत से ज्यादा बारिश दर्ज की गई। साल 2011 में 1057.6 मिलीमीटर और इस साल 1050.4 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई। सबसे कम 723.4 मिलीमीटर बारिश साल 2013 में दर्ज की गई थी, जो औसत से 30 प्रतिशत कम थी।
पटना के करीबी मोकामा में दलहन की खेती होती है और यहां अक्टूबर के मध्य से 15 नवंबर तक दलहन की बुआई हो जाती है। सन 2021 में सितंबर में मानसून समय से पहले बिदा हो गया। लेकिन सितंबर की अंतिम सप्ताह में वहां तीन दिन में ही साढे तीन सौ मिलीमीटर बरसात हो गई। इलाके में इतनी बरसात हुई कि एक महीने खेतों में पानी भरा रहा और जिसके बीज थे वह सड़ गए।
कृषि मंत्रालय के भारतीय कृशि अनुसंधान परिषद का एक ताजा शोध बताता है कि सन 2030 तक हमारे धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवष्यंभावी है। साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है। जान लें कि तापमान में एक डिग्री बढ़ोतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हेक्टेयर की कमी आ जाना। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है। इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज घटने, पशुधन से ले कर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी आने की संभावना है। तापमान बढ़ने से बरसात के चक्र में बदलाव, बैमौसम व असामान्य बारिश, तीखी गर्मी व लू, बाढ़ व सुखाड़ की सीधी मार किसान पर पड़ना है। तक अभी तक गौण हैं। सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि खेती पर निर्भर जीवकोपार्जन करने वालों की संख्या भले ही घटे, लेकिन उनकी आय का दायरा सिमटता जा रहा है। सनद रहे कभी सूखे तो कभी बरसात की भरमार से किसान दशको तक उधार में दबा रहता है और तभी वह खेती छोड़ने को मजबूर है।
देश की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार कृषि है और कोरोना संकट में गांव-खेती-किसानी ही अर्थ व्यवस्था की उम्मीद बची है। आजादी के तत्काल बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती की भूमिका 51.7 प्रतिशत थी जबकि आज यह घट कर 13.7 प्रतिशत हो गई हे। यहां गौर करने लायक बात यह है कि तब भी और आज भी खेती पर आश्रित लोगों की आबादी 60 फीसदी के आसपास ही थी। जाहिर है कि खेती-किसानी करने वालों का मुनाफा, आर्थिक स्थिति सभी कुछ दिनों-दिन जर्जर होती जा रही।
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कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश में किसान ही कम हो रहे हैं। सन 2001 से 2011 के बीच के दस सालों में किसानों की संख्या 85 लाख कम हो गई। वर्ष-2001 की जनगणना के अनुसार देश में किसानों की कुल संख्या 12 करोड 73 लाख थी जो 2011 में घटकर 11 करोड़ 88 लाख हो गई। आज भले ही हम बढ़िया उपज या आयात के चलते खाद्यान्न संकट से चिंतित नहीं हैं, लेकिन आने वाले सालों में यही स्थिति जारी रही तो हम सुजलाम-सुफलाम नहीं कह पाएंगे। कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो देशभर में जुताई का क्षेत्र घट रहा है।
भारत मौसम, भूमि-उपयोग, वनस्पति, जीव के मामले में व्यापक विविधता वाला देश है और यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर अलग किस्म से हो रहा है। लेकिन पानी बचाने और कुपोषण व भूख से निबटने की चिंता पूरे देश में एकसमान है। हमारे देश में उपलब्ध ताजे पानी का 75 फीसदी अभी भी खेती में खर्च हो रहा है। तापमान बढ़ने से जल-निधियों पर मंडरा रहे खतरे तो हमारा समाज गत दो दशकों से झेल ही रहा है। प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल अकादमी ऑफ साइंस नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तब रागी, बाजरा और जई जैसे फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इस अध्ययन को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट ने किया है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों, पोषण स्तर, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है और इस सन्दर्भ में। उनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं। भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेहूं और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता। डॉ कैले डेविस के अनुसार चावल और गेहूं पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ने की संभावना है और ऐसी स्थिति में इनकी उत्पादकता और पोषक तत्व दोनों पर प्रभाव पड़ेगा।
अमेरिका के आरेजोन राज्य की सालाना जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट 2017 में बताया गया है कि मौसम में बदलाव के कारण पानी को सुरक्षित रखने वाले जलाशयों में ऐसे शैवाल विकासित हो रहे हैं जो पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं। पिछले दिनो अमेरिका के कोई 60 हजार जलाशयों के जल का परीक्षण वहां की नेशनल लेक असेसमेंट विभाग ने किया और पाया कि जब जलाशयों में मात्रा से कम पानी होता है तो उसका तापमान ज्यादा होता है और साथ ही उसकी अम्लीयता भी बढ़ जाती हे। जब बांध या जलाशय सूखते हैं तो उनकी तलहटी में कई किस्म के खनिज और अवांछित रसायन भी एकत्र हो जात हैं और जैसे ही उसमें पानी आता है तो वह उसकी गुणवत्ता पर विपरीत असर डालते हैं। सनद रहे ये दोनों ही हालात जल में जीवन यानी-मछली, वनस्पति आदि के लिए घातक हैं। भारत में तो यह हालात हर साल उभर रहे हैं। कभी भयंकर सूख तो जलाशय रीते और कभी अचानक बरसात तो लबालब।
मौसम चक्र अनियिमितत होना, अचानक चरम मौसम की मार, तटीय इलाकों में अधिक व भयानक चक्रवातों का आना, बिजली गिरने की घटनाओं में इजाफा जैसी यह बानगी है कि धरती के तापनाम में लगातार हो रही बढोतरी और उसके गर्भ से उपजे जलवायु परिवर्तन का भीषण खतरा अब दुनिया के साथ-साथ भारत के सिर पर सवार हो गया है। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इंसान के भोजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से ले कर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है जिसके चलते प्रकृति का अस्तित्व और मानव का जीवन सांसत में है।
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जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टी.एच. चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढोतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे। दरअसल, 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौह तत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौंधों से होती है। जबकि 1.4 अरब लोग लौह तत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है।
शोध में पाया गया कि जहां अधिक कार्बन डाइऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में तीन तत्वों जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में प्रयोग के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई आक्साइड पौंधों को बढ़ने में तो मदद करता है। लेकिन पौंधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देता है। यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहा पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है।
भारत के संदर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचई की दोषपूर्ण परियोजनाएं हैं। बारीकी से देखें तो इन कारकों का मूल बढ़ती आबादी है। हमारा देश आबादी नियंत्रण में तो सतत सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिए हमारे खेत व मवेशी कम पड़ रहे हैं। ऐसे में एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी हैं।
भोजन व दूध के लिए मवेशी पालन तो बढ़ा लेकिन उनकी चराई की जगह कम हो गई। परिणामतः मवेशी अब बहुत छोटी-छोटी घास को भी चर जाते हैं और इससे जमीन नंगी हो जाती है। जमीन खुद की तेज हवा और पानी से रक्षा नहीं कर पाती है। मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार हो जाती है। मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई वनस्पति और पशु प्रजातियों की विलुप्ति हो सकती है। गरीबी, भुखमरी और पानी की कमी इससे जुड़ी अन्य समस्याएं हैं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण कृषि पर मंडराते खतरों के प्रति सचेत करते हुए इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रोफारेस्ट्री के निदेशक डॉ. कुलूस टोपर ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आने वाले दिन जलवायु परिवर्तन के भीषणतम उदाहरण होंगे जो कृषि उत्पादकता पर चोट, जल दबाव, बाढ़, चक्रवात व सूखे जैसी गंभीर दशाओं को जन्म देंगे। भारत की तो अर्थ व्यवस्था का आधार ही खेती-किसानी ही है। साथ ही हमारे यहां की विशाल आबादी का पेट भरते के लिए उन्नत खेती अनिवार्य है।
जलवायु परिवर्तन की मार भारत में जल की उपलब्धता पर भी पड़ रही है। देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो नब्बे के दशक में कम होकर 119 सेंटीमीटर रह गई है। उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह रूप लेता जा रहा है। तीन साल में एक बार अल्प वर्षा यहां की नियति बन गया है। तिस पर देश की सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियों के उदगम ग्लेशियर बढ़ते तापमान से बैचेन हैं।
विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में 2 डिग्री सेटीग्रेड के लगभग वृद्धि होती है तो गेहूँ की उत्पादकता में कमी आयेगी। अनुमान है कि तापमान के 1 डिग्री सेंटीग्रेट बढ़ने पर गेहूँ के उत्पादन में 4-5 करोड़ टन की कमी होगी। इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित फसलों को अधिक नुकसान होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्रा कम होगी जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पायेगा।