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जो जीवन देखा गया वही उतरा कविता में

भोजपुरी के आधुनिक कवियों में चंद्रदेव यादव एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। चंद्रदेवजी लोकधर्मी होने के साथ-साथ प्रयोगधर्मी भी हैं। भोजपुरी में छंद मुक्त कविताएं लिखने का दुष्कर साहस करने वाले संभवत: वे पहले कवि हैं, मगर इस कर्म को उन्होंने इतना सफलतापूर्वक किया है कि वे अपने पाठक को छंद की कमी खलने नहीं देते। […]

भोजपुरी के आधुनिक कवियों में चंद्रदेव यादव एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। चंद्रदेवजी लोकधर्मी होने के साथ-साथ प्रयोगधर्मी भी हैं। भोजपुरी में छंद मुक्त कविताएं लिखने का दुष्कर साहस करने वाले संभवत: वे पहले कवि हैं, मगर इस कर्म को उन्होंने इतना सफलतापूर्वक किया है कि वे अपने पाठक को छंद की कमी खलने नहीं देते। जैसे रातरानी के पौधे को अपनी महक बिखेरने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता, जैसे कोयल को अपनी बोली में मिठास घोलने के लिए अतिरिक्त बल नहीं लगाना पड़ता, ठीक उसी तरह चंद्रदेवजी को अपनी कविताओं में माधुर्य लाने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। उनके हृदय में मानवीय संवेदना, प्रकृति प्रेम एवं सामाजिक संवेदना, जो कविताओं के आवश्यक तत्व हैं, इतने ठूँस-ठूँस कर भरे हैं कि अगर वे साँस भी लेते हैं तो कविता ही उत्सर्जित होती है। उनकी कविताओं का फलक बहुत विस्तृत है। उनकी कविताएँ  सहज संवेदनाओं एवं अनुभूतियों का कोलाज रचती हुई प्रतीत होती हैं।

उनकी अधिकतर कविताओं में कोई न कोई कथा है और वे संवाद शैली में रची गई हैं। यही कारण है कि पाठक उनकी कविताओं से इतनी गहराई से जुड़ जाता है कि उन्हें अधूरा छोड़ना उसके लिए मुमकिन नहीं होता। वह कविताओं का रसास्वादन तो करता ही है, साथ-साथ कथानक से भी उसका गहरा जुड़ाव होता जाता है। चन्द्रदेवजी की आलोचना एवं हिंदी कविताओं की भी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी सभी कृतियों में, चाहे वे हिंदी की कविताएं हों अथवा भोजपुरी की, सर्वत्र गाँव और गाँव की माटी अनिवार्यतः दिखाई देती है। इसका कारण यह है कि गाँव इस कवि की आत्मा है। भोजपुरी कविताओं की उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक माटी क बरतन जब मेरे हाथ लगी तो मैं इसे एक साँस में पढ़ गया, जो मुझ जैसे मंद गति के पाठक के लिए सामान्य बात नहीं है।

‘माटी क बरतन’ की कविताएं एक पंथ दो काज… की कहावत को चरितार्थ करतीं हैं। जैसा कि मैंने ऊपर कहा भी कि उनकी कविताओं से पाठक को काव्य का आस्वादन तो होता ही है, साथ-साथ उसे कहानी का आनंद बोनस के रूप में प्राप्त होता है। आप पूरी शिद्दत के साथ महसूस करेंगे कि कवि गंवईं मानुष की संवेदना के साथ जीता है, उनके सुख-दुख, हर्ष-विषाद को पीता है। ‘माटी क बरतन’ कवि का भोगा हुआ यथार्थ है। दिल्ली जैसे शहर में रहते हुए भी कवि के अंतर्मन से गाँव की स्मृतियां ओझल नहीं हो पातीं। कवि अपने गाँव को पुरखों की थाती समझकर अपने सीने में सहेजे हुए हैं।

‘माटी क बरतन’ इस संग्रह की महत्त्वपूर्ण कविता है। कवि ने माटी के बर्तनों कीउपयोगिता सहित जितने नाम उद्धृत किये हैं, आज वे दुर्लभ हैं। माटी के घर, माटी के चूल्हे, माटी के बर्तन-परई, कसोरा, थरिया आदि सब कुछ वहाँ है। कवि ने माटी अनमोल ह/ सरीरो बनल ह मटियै से…  कहकर माटी के दार्शनिक पक्ष को उद्घाटित किया है। इस कविता में दीया, ढकनी, परई, मलसी, दही जमाने के लिए अथरी, थार, कोही-कोहा, तेल-बुकवा रखने के लिए कसोरी आदि अनेक बर्तनों के जिक्र आते हैं। पूरा कोहरान उतर आया है ‘माटी क बरतन’ में। कवि ने इसमें दुधिया घोलने के लिए बहुत छोटा बर्तन घरिया, डेबरी, पुरवा-भरुका, तर्पण करने के लिए बड़ा पुरवा, मेटी-मेटा, हँड़िया-पतुकी, काज-परोजन के लिए टोंटीदार मेटी, नेवहड़ एवं जतरा का बड़ा सुंदर वर्णन किया है। इसी प्रकार तमाम बर्तनों का संदर्भ लेते हुए कवि उलाहना देता है कि मनुष्य विकास की अंधी दौड़ में अपनी संस्कृतिसे कैसे कटता गया है। कविता की व्यंजना द्रष्टव्य है- माटी से सुरू कइ के आपन जतरा/कहाँ से कहाँ आ गइल ह आदमी/माटी के करीब रहे वाला आदमी/धीरे धीरे होत जात ह माटी से दूर/बिकास के हर पड़ाव में/छूटल गइल ह कुछ न कुछ अनमोल/पता नहीं माटी से दूर/होके मगरूर/कब ले रह पाई आदमी।

चंद्रदेवजी लोकधर्मी एवं आमजन के कवि हैं। आभिजात्य संस्कारों का बोझ ढोना उनको स्वीकार नहीं है। बौद्धिकता के प्रकटन का लोभ तो उनको स्पर्श तक नहीं करता। उनकी यही प्रकृति उन्हें सच्चा एवं लोकधर्मी कवि बनाती है। उनकी कविताओं में अकादमिक शुष्कता कतई नहीं दिखाई देती है।

नेल्सन मंडेला ने कहा था, ‘शिक्षा एक इच्छुक समाज की आत्मा जैसी है, जो हमें हमारे बच्चों को विकसित करने का रास्ता दिखाती है।’ मगर हमारी सरकारें इसके विपरीत काम करती हैं। पूरी शिक्षा व्यवस्था खासकर प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह चौपट हो गई है। प्राइमरी स्कूलों में मिड-डे-मील का गोरखधंधा चल रहा है। कोई आदमी अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं भेजना चाहता। परंतु वे करें तो क्या करें। कोई विकल्प भी तो नहीं है, उनके पास। आमजन के कवि चंद्रदेव यादव की दृष्टि इस विडंबना पर न जाए, यह कैसे संभव हो सकता है। सूअर क लेंड़ कविता में षड्यंत्रकारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलते हुए वे बड़ी बेबाकी से कहते हैं-

जइसन होला लाल चाउर

ओइसनै होलैं दँतनिपोर गाँहक

इहाँ के पढ़ाई से लइका

डिप्टी कलेट्टर कौन कहे

चपरासियो ना बन पइहैं

और अंत में कवि ऐसी शिक्षा व्यवस्था की उपमा ‘सूअर क लेंड़’से देते हुए भी नहीं सकुचाते—

मोतिया क माई कहलै—

येह पढ़ाई से अच्छा ह

अनपढ़े रहिहैं हमहन के लइका

अइसन पढ़ाई त सूअर क लेंड़ ह

न ऊ लीपे के काम आई न पाथे के!

जब गाँव की माटी में कंक्रीट के घने जंगल उग आते हैं, जब बाजारवाद की संस्कृति गाँव के सामाजिक स्वरूप को मिटाने पर आमादा है, जब बाजार घर में घुसकर कलशा-गगरी, जांत-चकरी, सिल-लोढ़ा जैसे प्रतीकों को नष्ट करने का षड्यंत्र रचती है और एक विनाशकारी संस्कृति को जन्म देती है तो कवि की चिंता मौत क जलसा में इस प्रकार भावबद्ध होती है- एक दिन/खो दीहैं फूल/आपन रस-गंध/एक दिन/फरब भूल जइहैं पेड़/एक दिन हरियरी बदे/तरसि जइहैं आँख….।’

फिर कवि अपनी विरासत बचाने का आह्वान करता है-

आवा कुछ अइसन करीं

कि बचल रहे फूल, फर आ हरियरी

लइकन क किलकारी

नद्दी क धार अ मानुस क प्यार।

जब वियाग्रा वाली नई पीढ़ी अपसंस्कृति का शिकार होती है तो कवि की अंतर्वेदना नइकी संस्कृति कविता रचती है। वे लिखते हैं- समुन्दर के गहराई/अ असमान के ऊँचाई में/बिलास बदे एकांत खोजत/बियाग्रा वाली पीढ़ी/ चिर यौवन चाहत ह।/ कामुक होब हुनर ह/ आज के जुग में। दहेज समाज का अभिशाप है। लड़का अगर थोड़ा पढ़ा-लिखा हो तो उसका बाप लड़की वाले की चमड़ी उधेड़ लेता है। यही बात चंद्रदेव जी अपनी व्यंग्यात्मक कविता ‘तरक्की’ में कहते हैं।देखिए- जइसे बीबीए कइके लइका बन गइल ह बिल गेट्स। अपनी बेटी कितनी ही काली-कलूटी हो, मगर बहू तो इन्नर की परी ही चाहिए। वे आगे लिखते हैं- भलहीं ओनकर बिटिया होंय करिया-भुजंग/बाकी अपने लइका बदे चाहत हवें ऊ/इन्नर क परी/सिच्छित-संस्कारी/गुनवंती-भगवंती/सादी के बाद नोकरी करे वाली/उफ! मोती क माला अ फुटही थाली!  इसी कविता में सरकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य करते हुए उन्होंने लिखा है—

सुखई क थरिया सूनी ह

अ परधान क कमाई दिन-रात बढ़त दूनी ह!

मिड डे मील से ओनके घरे/बोलेरो आ गइल

नरेगा अ आंगनबाड़ी से/सिंहासन पर सोना मढ़ा गइल।

माना न माना, रामराज क लाली/दलाली में ह।

अंत में कवि तरक्की का माने समझाता है— तरक्की माने कटहर!

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वंचना और गरीबी के दुष्चक्र में जी रहे दस्तकार बेलवंशी समाज के लोग

जोग-भोग कविता का कथ्य बहुत मार्मिक है। एक महिला का पति अपने बीबी-बच्चों को छोड़ अयोध्या जाकर जोगी बन जाता है। कवि ने उस बेसहारा महिला के जीवन की दुश्वारियों का कारुणिक चित्रण किया है। पढ़ते-पढ़ते आँखें आर्द्र हो जाती हैं। पुरुषवादी समाज महिलाओं के प्रति क्या सोच रखता है, देखिए—

तउने पर कहेलँ लोग/औरत आदमी के राह क बाधा/ हवे माया/मगर माया के माया में फँसावे के?/अगर अदमी देखावे दिन में तरई ना/ त माया मरद के पीछे न धावे।

फिर वह महिला अपने पति के बहाने सम्पूर्ण पुरुष समाज पर तीक्ष्ण व्यंग्य करती है— ऊ मिलत त पूछिंत/कि जाँघी जोर ना त काहें कइले ब्याह/काहे फरज से मुँह मोड़ के/लामे परइले?

जब अचानक एक दिन उसका पति दरवाजे पर आ खड़ा हुआ तो महिला की क्रोधाग्नि भड़क उठी। जोगी रूपधारी पति उसके सामने पैसों से भरी छोटी सी गठरी रख देता है तो महिला दंग रह जाती है। फिर उसके मन में एक अंतर्द्वंद होता है कि वह यह पैसा किसी को ठगकर तो नहीं लाया है! कवि ने महिला और योगी का मिलन कराकर कथ्य को सुखांत कर दिया है। यह भारतीय स्त्री के स्नेहिल-प्रेमिल रूप को दर्शाता है। अपने पति के प्रति उसके मन में अतिशय क्रोध और क्षोभ है। ‘सहयात्रा’ भी नए विमर्श की कविता है। कवि ने इस कविता में नारी के सशक्त किरदार को उद्घाटित किया है। कवि ने कठोरता को कोमलता का रक्षक नहीं अपितु सहयात्री बताया है।

आज का टीवी तथा अन्य सूचना माध्यम साहित्य औरसंस्कृति के दुश्मन बन चुके हैं। योजनाबद्ध तरीके से ये नई पीढ़ी को अपसंस्कृति परोस रहे हैं। यह हमारे समाज के लिए बहुत घातक है। प्यार-मोहब्बत, हिंसा, बलात्कार, हँसी ठट्ठा, सेक्स, क्राइम, क्रिकेट यही सब इसके चिंतन के विषय हैं। इनके भंवर जाल में फंसकर नई पीढ़ी बर्बादी की ओर बढ़ती जा रही है। कवि की यही चिंता उनकी कविता टीवी में दिखाई देती है।

पुरुष ने एक ऐसा समाज रचा है जिसमें नारी खुद नारी की शत्रु बन जाती है। यह बात कवि ने औरत छुट्टी पर ना जालीं में कहा है। दुपट्टा, घूँघट, पर्दा आदि स्त्री की दासता के प्रतीक रहहे हैं। आज की स्त्रियों ने इन प्रतीकों को उतार कर फेंक दिया है और पुरुष सत्ता से मुक्त हो गई हैं। यही संदर्भ उनकी कविता दुपट्टा में आख्यायित है।

मुझे इस संकलन की सबसे सशक्त, सजीव एवं मर्मस्पर्शी कविता ‘पंचाइत’ लगी। चंद्रदेव जी ने गाँव की पंचाइत का इतना सुंदर, सटीक एवं यथार्थ दृश्यांकन किया है कि पाठक की आंखों में पंचायत के सारे दृश्य आलोकित हो जाते हैं। लगता है जैसे कवि भी उस पंचायत का हिस्सा रहा हो। कवि द्वारा वर्णित वर्तमान समय की पंचायतों की विकृतियों का नग्न यथार्थ हमें सोचने पर विवश कर देता है। चौधरियों की ‘चित भी मेरी पट भी मेरी’ की कुटिल नीति के कारण गरीबों को मुफ्त इंसाफ दिलाने वाली पंचायतें आज मृतप्राय हो चुकी हैं। आज जुम्मन और अलगू की आत्मा कौड़ियों के दाम बिक गई है। पहले गाँव के छोटे-मोटे विवाद गाँव में ही हल कर लिये जाते थे, लेकिन उसके लिए आज लोगों को थाने और कोर्ट-कचहरी जाने के लिए विवश होना पड़ता है। गाँव की पंचायतों में तरह-तरह के मामले आते हैं। मगर प्रेम-प्रसंग का मामला बहुत संवेदनशील एवं विध्वंसक होता है। कभी-कभी तो इस मामले को लेकर गाँव में महाभारत की स्थिति पैदा हो जाती है। पूरा गाँव दो पक्षों में बंट जाता है। यही स्थिति इस कविता के कथानक में भी उपस्थित है। देखिए—

तनातनी ह, सरह में अब्बै

ई ममिला गरमाई,

केकर गला कटी, के एकदम

साफ-साफ  बच  जाई

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लुटेरे बन्दर और अन्य कविताएं

पंचायत, मतई की बेटी के पेट में पल रहे अवैध गर्भ को लेकर बुलाई गई है। रमई चौधरी मतई की पत्नी से अपना सही-सही बयान देने की बात करता है तो वह बेहिचक सारा इलजाम गुमानी के सिर मढ़ देती है—

हाथ जोड़ मतई बो कहलै—

“माँस बिकल बेटी क

येही गुमनिया क करनी ह

बात हवे हेठी क।

इस बात पर रमई चौधरी खूब चौधराना बूकता है। मन्ने पाँड़े देवी के थान पर किरिया-कसम खाने का सुझाव देते हैं। इस बात को कवि चंद्रदेव कितने सहज एवं प्रभावपूर्ण ढंग से कहते हैं, देखिए—

मतई के लइकी के कोख में

केकर पाप पलत ह?

रात-दिना ओकरी डेबरी में

केकर तेल बरत ह?

अपने ऊपर आरोप लगाए जाने पर गुमानी आक्रोशित होकर प्रतिवाद करने लगता है। वह भी रमई चौधरी का भेद खोलते हुए कहता है—

हमरेव मुँह में ह जबान

बोलब त देबा गारी,

मतई के मेहर के देहलै

के झलकउवा साड़ी?

मन्ने पाँडे भी प्रतिवाद करते हैं। मोछू तो चौधरी को खरी-खोटी सुनाने लगता है। वह कहता है कि तुम्हारा लड़का भी तो रजमनिया के पाँव के नीचे लेटता है। क्या पता उसी का पाप रजमनिया के पेट में पल रहा हो— का अजगुत तोहरे लइका क/पाप कोख में ओकरे/ बात बनावत हवा कि जेसे/ तोहार खेल न बिगरे।

इस प्रकार हम देखते हैं कि पंचायत में जुटे पंचों की पूरी कवायद अपनी देह बचाने और दूसरे को फँसाने में ही रहती है। पीड़ित को न्याय दिलाने की फिक्र किसी को नहीं रहती। इसीलिए कवि को पंचायत की तुलना धृतराष्ट्र के दरबार से करना पड़ता है, जहाँ भरे दरबार में द्रौपदी का चीरहरण होता है। कवि कहता है –

सभा बीच एक नई द्रोपती

नंगी खड़ी बिचारे,

कलजुग में के लाज बचाई

कहवाँ किसुन? पुकारे।

गाँव में एक कहावत प्रसिद्ध है- अबरे के मेहर, गाँव भरे के भौजाई।  आज गाँव ही नहीं, अपितु  पूरे देश में न्याय की यही नीति अपनाकर गरीबों की गर्दन दबाई जा रही है। चूंकि गरीबों की गर्दन बहुत पतली होती है, इसलिए इसे दबाना बहुत आसान है। धर्म एवं लोक लाज की सारी पाबंदियों का फंदा इन्हीं पतली गर्दनों में डाला जाता है, जबकि वही कानून समाज के समर्थ लोगों पर काम नहीं करता। कारण यह कि अमीरों की गर्दन बहुत मोटी होती है। उनकी इज्जत पर अँगुली उठाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता। अमीरों के घर के भीतर होने वाले सारे कर्म-कुकर्म बड़ी आसानी से छुपा लिए जाते हैं। भरी पंचायत में यही बात मतई बो के मुँह से निकल पड़ती है—

बड़हर के बिटिया जे होतीं

चुप्पे गरभ गिरावत,

हम जइसन त ओकर कब्बों

भेद न तनिको पावत।

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संविधान से सेक्युलरिज्म और सोशलिज्म को हटाने का मतलब भारत पर हिन्दुत्व और कॉर्पोरेट का अनियंत्रित कब्जा है

फिर कलयुग की द्रौपदी यानी रजमनिया सच्चाई को उगल देती है। वह बताती है कि मेरा पति निकम्मा है। वह अपनी भौजाई पर फिदा हो गया। मुझसे बात ही नहीं करता था। मैं क्या करती? जब कोई मुझसे तनिक भी प्रेम दर्शाता तो मैं भी उसे स्वीकार कर लेती थी। माँ के छूट देने पर रमई के बेटे से भी मेरा संबंध स्थापित हुआ। अंत में उसने अपनी माँ और रमई चौधरी के बीच के संबंध को भी उजागर कर दिया —

माई रमई क रखैल ह

हम ओनके बेटवा क,

आग अउर रोटी के बीचे

दुरगत भइल तवा क।

आगे चलकर गुमानी और रमई चौधरी के बीच उग्र संवाद शुरू हो जाता है। मारपीट की नौबत आ जाती है। पंचायत उखड़ जाती है। रमई चौधरी मामले को कोर्ट-कचहरी में ले जाने की धमकी देता है। मतई की पत्नी कहती है—

भइल नियाव घरे जा अपने

लिखल जवन ऊ  होई,

एह नगरी में हम दूनों क

केहु पुछवार न होई।

आखिर पंचायत ने एवं खुद रजमनिया की माँ ने सच्चाई का गला घोंट दिया। इस तरह एक स्त्री न्याय से वंचित रह गई—

माई क करतूत, चउधिरी क

डर अइसन भारी,

एक तिरिया के चुप कइके

सच के मरलै महतारी।

कविता का अंत एक और दुखद घटना से होता है। पंचायत से मिली निराशा और पंचों के व्यवहार से आहत पीड़ित लड़कीकुएं में डूबकर आत्महत्या कर लेती है।

इस संकलन की अंतिम कविता ‘सुक्खू’ जनप्रतिरोध की कविता है। पीढ़ी दर पीढ़ी शोषण और उत्पीड़न का दंश झेलती जनता जब अपने हक और अधिकार की लड़ाई लड़ने के लिए उठ खड़ी होती है तो शोषण की सारी दीवारें पल भर में ढह जाती हैं, वे दीवारें चाहे कितनी भी ऊंची और मजबूत क्यों न हों।कविता ‘सुक्खू’ इसी परिवर्तन का उद्घोष करती है।यह उद्घोष कविता की अंतिम पंक्तियों में द्रष्टव्य है—

देखतै देखत धरती लोहू से रँगा गइल

एक्कै धक्का में हवेली क सीरी मुरझा गइल

फिर त छन भर में

बस्तियो फुँका गइल।

येह बवाल में सुक्खू क कुनबा खेत रहल

मगर ई समाज केबदलै क संकेत रहल।

दिलासा कविता राजनैतिक विद्रूपताओं पर तीखा व्यंग्य है। सरकार में बैठे लोग जाति-धर्म के नाम पर समाज में बदअमनी फैलाते हैं, दंगे करवाते हैं। जब देश दंगों की आग में जलने लगता है तो वे इसका आरोप विरोधी पार्टियों एवं विदेशी ताकतों के सिर मढ़ देते हैं। मगर अब जनता इनकी काली करतूतों को बखूबी समझ चुकी है। वह नेताओं से सवाल करना और उनके अनुत्तरित सवालों के जवाब भी देने लगी है। इसी कविता का एक अंश देखिए—

“बुताइल आग हे सरकार/उदगारीं न फिर से…/ बताईं वोह दिना/जब हमन के गरदन कटल/ हत्या भइल बिस्वास क/वोह दिना जब/लाज मेहरारुन क/चौराहे प खुल्लेआम/बेसरमी से हरल गइलीं/बताईं हमन के सरकार/लगउले रहलीं कहाँ पे दरबार? यही जनचेतना कवि को सामाजिक बदलाव हेतु दिलासा देती है।

विकास की अंधी दौड़ में हमारी सांस्कृतिक विरासत, सामाजिक समरसता, पर्यावरण, हमारे जंगल, नदी, पहाड़ सब पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो चुका है। कवि ने यह चिंता ‘मौत क जलसा’में व्यक्त किया है। इसके अतिरिक्त इस संग्रह में सहज जीवन, मुद्रा, दलील, दहसत में प्रेम, चान के पट्टी पर क ख ग, इसिक, गदहपचीसी आदि कविताएं भी पाठक को संवेदित करती हैं।

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‘माटी क बरतन’ उत्कृष्ट कविताओं का अनुपम एवं इंद्रधनुषी संकलन है, जिसमें कविता के सारे रंग मौजूद हैं। इस संकलन की सबसे बड़ी विशेषता है इन कविताओं की लोकधर्मिता एवं प्रयोगधर्मिता। यही प्रवृत्ति कवि को भोजपुरी साहित्य में एक नई कतार में खड़ा करती है। चंद्रदेव जी अपनी कविताओं में खांटी गवईं शब्दों, कहावतों एवं मुहावरों का जितना प्रयोग करते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इससे उनकी कविताओं की भाषा का लावण्य बहुत बढ़ जाता हैऔर ये कविताएँ पाठकों से अपनापन जोड़ लेती हैं । इससे इनकी बोधगम्यता एवं संप्रेषणीयता बढ़ जाती है। इन कविताओंके ज़रिये भोजपुरी के अनेकानेक पुराने शब्द, मुहावरे तथा कहावतें सुरक्षित हो जाएंगे।

चंद्रदेवजी बहुत सहज एवं सजग कवि हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि वह अपनी कविताओं पर बौद्धिकता का बोझ नहीं लादते, जिससे उनकी कविताएं आम पाठक के लिए भी बहुत सहज और सुबोध बन जाती हैं। साधारण से साधारण पाठक के अन्तर्मन में भी वे अपनी पैठ बना लेती हैं। यही सहजता उनकी कविता की ताकत है। उनकी कविताओं का शिल्प, संवेदना एवं आख्यान विलक्षण है, जो वर्तमान समय की कविताओं में दुर्लभ है। मुझे यह कहने में तनिक संकोच नहीं है कि चंद्रदेव जी का कविता संग्रह ‘माटी क बरतन’ भोजपुरी साहित्य में एक नया आयाम स्थापित करने में पूरी तरह समर्थ है।

मोहनलाल यादव वरिष्ठ लोककवि, रंगकर्मी और लोकचेतना सम्पन्न आलोचक हैं।

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5 COMMENTS
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  2. प्रस्तुत आलेख भारतीय संस्कृति एवं समाज की जड़ों को उकेरती है। लेखक प्रो. चंद्रदेव यादव की कृति ‘माटी क बरतन’ के काव्यरचना में विविध सामाजिक संरचना की कुरीतियों एवं कुव्यवस्थाओं को उजागर करती एक सतही यथार्थ का बोधपरक काव्यसर्जना है। जो वर्तमान आमजनमानस को पुर्नजागरण के लिए एक अप्रतिम दृष्टि देती है एवं वर्तमान समाज को एक बिम्ब प्रधान मार्गदर्शन करती है। साथ ही साथ आलेखजनक मोहनलाल यादव ने सम्पूर्ण काव्यसंग्रह के विषयक प्रतिबिम्बों को उजागर किया है। यह आलेख सम्पूर्ण समाज को भारतीयता की मूलप्रविधि से जोड़ने का एक मार्ग दिखाती है।

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