राकेश कबीर अल्हदा मिजाज़ के कवि हैं। वह कविता को रचते नहीं हैं बल्कि मन की अंगीठी पर समझ की सघन आंच से कविता की मिट्टी को बिल्कुल वैसे पकाते हैं, जैसे कोई कुम्हार प्यार की थपकी से बनाये हुए बर्तनों को पकाता है। हम यहाँ पर उनकी कुछ ऐसी कवितायें प्रस्तुत कर रहे हैं जो प्रकृति के तमाम आयामों को जीवन की बारीक बुनावट के साथ हम तक लाने का काम कर रही है। प्रकृति के साथ रची इन कविताओं में समय को अलग तरह से देखने की भावुकता भी है और तंज का तीखापन भी है।
राकेश कबीर, सहज रूपकों के माध्यम से समय की राजनीति के तमाम श्याम-श्वेत पहलुओं को उघाड़ देने की कूवत रखते हैं। ‘फल लगते ही आयेंगे जन्मजात खाकी धारी बंदर’ या फिर ‘हर पर्दे की आड़ में बसी होती हैं छिपकलियां’ जैसी लाइनें उनकी इसी त्वरा को सामने लाती हैं।
दीमक बांबी
जंगलों के सन्नाटों में
खाली पड़े अंतरालों में
दीमक रचते हैं
पहाड़ मिट्टी के
सतत सामूहिकता से और
बताते हैं पता नमी का
इस पवित्र मिट्टी को
झोले में भरकर
उठा लाता है हरगिंद नाई
लीपने को पूजा की वेदियां
अपने गांव में
उजड़ी हुई बांबियों में
पंजे मारकर पकड़ लेता है
सफेद दीमकों को
काला जंगली भालू
दावत के वास्ते
मिट्टी के इस निराले खेल में
इंसान से लेकर
काले-सफेद जानवर और
शामिल है पवित्र वेदी का ईश्वर तक।
लुटेरे बंदर
आप लगाओ पेड़
और बाग आम के
खाद पानी डालो
बड़ा करो उन्हे
फल लगते ही आयेंगे
जन्मजात खाकी धारी बंदर
नोच खसोट और लूट मचाकर
खा जायेंगे आम सारे चुन चुनकर
आप रहो जमीन पर
गुलाटी मारने के सिद्धहस्त बंदर
पलते रहेंगे आपकी बोई फसलों पर।
मंकी पूल
जब बारिशें होती हैं
छप्पर वालों की तरह
उदास हो जाते हैं बंदर
लेकिन बारिशों के बाद
पानी में चुभक चुभक कर
खूब नहाते हैं बंदर
पेड़ों की डाल से
साध के निशाना
‘डाइविंग’ करते हैं बंदर
आदमी शहर का
नहाता है स्विमिंग पूल में लेकिन
‘मंकी पूल’ में नहाते हैं सारे बंदर।
छिपकलियां
घर के हर कोने में
छिपे जा सकने वाले
हर पर्दे की आड़ में
बसी होती हैं छिपकलियां
मैं उनको मारना नही चाहता
लेकिन मारना पड़ता जब
वे हदों को पार कर
रेंगने लगती हैं
कभी बिस्तर तो कभी जमीन पर
छिपकलियों को चलना होता है
खड़ी दीवार पर
उन्हें याद रखना चाहिए
चीकू कहता है
छिपकली एक बात में इंपोर्टेंट होती है
कि वह कीड़ों को खा जाती
उन्हें मत मारो
लेकिन हदों को लांघती हुई
शरमा कर छिपती हुई
गंदी भद्दी छिपकलियों को
मारना पड़ता है कभी कभी।
झींगुर
शाम के धुंधलके में
चलती हुई सड़क किनारे
छेड़े हैं अपने सुर ताल
झींगुरो के घराने ने
रुक रुक कर
होती हुई बारिश से
धरती के कोख में
समाता हुई पानी
अभी नहीं पहुंचा है
धंसे हुए मेढको तक
झींगुरों ने जो समां बांधा है
गवैए मेढ़क जब वापस आयेंगे
गायेंगे बादल राग
बारिशों के ताल पर
हर शाम सजेगी
महफिल-ए-ग़ज़ल.
गौरैया
आषाढ़ के महीने में
शुरू हो गईं थीं बरसातें
रोप दिए गए थे धान के खेत
खेतों में फैल रही थी
पीली हरियाली दूर तक
किसान आये और
छींट दी झोले भर सफेदी
पानी भरे खेतों में
गौरैया अपने बच्चों के साथ आई
पानी पिया उसी खेत से
अगली सुबह
गांव के घरों की मुंडेर पर
मरी पड़ीं थीं गौरैया
क्योंकि उन्होंने भरोसा किया था
सदियों से इस बात पर
कि उन्हें दाने खिलाने वाला किसान
जहरीला पानी कभी नहीं पिलाएगा।
इक हवा
इक हवा सी चली
एक तिनका सा हिला
जलती हुई धूप से
झुलसी हुई दूब की
पीली पड़ी नोंक पर
एक बूंद सी टपकी
धूल की एक बूंद
लाली भर गई
तेरी आंखों के कोने में
एक आंसू सा गिरा
एक बूंद बारिश, एक बूंद आंसू
हरी सी कर गई नोंक दूब की।
चांद
ये बारिश की रात में
टंगा हुआ आसमान में
कौन है जो चल रहा संग संग??
खलिहर , खुफिया, खूसट या
खैरख्वाह कोई ???
राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।