भोपाल गैस कांड में एक रात में जहरीली गैस के रिसने से एक साथ हजारों लोग मौत के मुंह में समा गए लेकिन दुर्टघना से पहले दी गई सारी चेतावनियों को यूनियन कार्बाइड प्रबंधन ने नकार दिया था। इसी तरह वाराणसी में वाणिज्यिक हरित कोयला परियोजना द्वारा कचरे से हरित कोयला बनाने की प्रक्रिया में निकलने वाला धुआँ धीमा जहर बनकर लोगों की जिंदगी को खतरनाक मोड़ तक ले जा रहा है।
आसपास के लगभग आठ गाँवों के लोग इस धुएं से बुरी तरह प्रभावित हैं। पूरे शरीर में खुजली, आँखों में जलन और बेचैनी की आम शिकायतें यहाँ के निवासियों ने दर्ज कराई। यहाँ के लोगों ने कहा कि कूलर-पंखा चलाने से कमरे में धुआं भर जाता है और यहां रहना मुहाल हो जाता है। गर्मी के दिनों में बिना कूलर-पंखे के रात में सो पाना असंभव है। बरसात के दिनों में और भी बुरी स्थिति हो जाती है।
महिलाओं ने बताया कि घर में धुआँ और बदबू इतनी ज्यादा भरी रहती है कि आँखें जलने लगती हैं और सांस लेना दूभर हो जाता है। घबराकर हमलोग बाहर भागते हैं लेकिन आखिर कब तक बाहर रहेंगे। अंततः घर में आते हैं और नरक को जीते हैं।
नैपुरा निवासी सावित्री देवी ने बताया कि ‘गैस की बदबू दिन में भी आती है लेकिन रात में बदबू इतनी तेज आती है कि सांस नहीं ले पाते। दम घुटता है। रात में सो नहीं पाते हैं। जैसे ही कमरे में पंखा या कूलर चलाते हैं वह धुएं को अंदर खींच लेता है। उसके बाद उस कमरे में रुकना मुश्किल हो जाता है लेकिन बाहर स्थिति और भी खराब रहती है। मुंह में कपड़ा ठूंस कर करवट बदलते हुए रात बितानी पड़ती है। सुबह उठकर काम पर लगना पड़ता है। इस बार की गर्मी बहुत कष्ट से गुजरी क्योंकि हम लोगों को पंखा बंद करके सोना पड़ा।’
इसी गाँव के एक बुजुर्ग बताते हैं कि ‘जो लोग रात में सोये रहते हैं, उनकी सांस से प्रदूषित हवा अंदर जाती है, जिससे वे लोग स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे हैं। छोटे और नवजात बच्चे लगातार डायरिया की बीमारी से ग्रसित हैं। त्वचा में खुजली और चकत्ते निकल रहे हैं। डॉक्टर ने साफ-साफ इसका कारण कोयला प्लांट से होने वाला प्रदूषण बताया है। बाल झड़ने की समस्या से हर कोई पीड़ित हो गए हैं।’
इस प्लांट में कचरा जलाकर कोयला बनाने के लिए जब कचरा जलता है तो वहां खड़े होने की स्थिति नहीं रह जाती है। जैसे ही बदबूदार धुआँ फैलता है तो ऐसा लगता है कि किसी मुर्दे को जलाया जा रहा है। दिन में 18 से 20 घंटे यह धुआँ वातावरण में फैला रहता है। ऐसे में खाने का एक निवाला नहीं खाया जाता। यदि खाते समय कभी धुएँ का जोर का झोंका आ जाता है तो सब बाहर आ जाता है।
कचरे से कोयला प्लांट ने जो गंदगी वातावरण में बिखेरी है उससे पैदा हुई चिपचिपाहट ने गांवों को मक्खियों के प्रकोप का भी शिकार बना दिया है। मक्खी की समस्या के बारे में हर किसी ने बताया कि जब से प्लांट शुरू हुआ है तब से मक्खियाँ बहुत बढ़ गई हैं।
नैपुरा गाँव में हमारे लिए जैसे ही पानी और गुड़ आया, तुरंत ही वहाँ सैकड़ों मक्खियाँ मंडराने लगीं। चाय पीने के समय भी कप पर यही स्थिति दिखी। दो कपों में तो तुरंत ही मक्खियाँ गिर गई थीं।
प्रमिला देवी ने दुखी मन से बताया कि ‘जब से प्लांट आया है, तब से हम लोग मक्खियों से परेशान हो गए हैं। उसके पहले बारिश में ही थोड़ी-बहुत मक्खियाँ होती थीं। लेकिन अब तो रात-दिन हर समय खाने-पीने और दूसरे सामानों में चिपकी रहती हैं। कितना सामान ढंककर रखें और ढँकते-ढँकते ही दूध, पानी, चाय और दूसरी चीजों पर एक-दो नहीं बल्कि ढेर की ढेर मक्खियाँ गिरती हैं। यहाँ दिखने वाली मक्खियाँ भी अलग-अलग तरह की दिखाई देती हैं।
लोग कहते हैं कि जब शहर भर से अलग-अलग तरह की गंदगी और कचरा यहाँ लाया जा रहा है तब उस के साथ अलग-अलग प्रजातियों की मक्खियाँ भी आ गई हैं। खाने का कोई सामान यदि 3-4 सेकंड खुला रह जाए तो उसमें 10-12 मक्खियाँ गिर जाती हैं। उसके बाद वह सामान फेंकने लायक हो जाता है।
अनेक महिलाओं ने बताया कि हम एक कमरे से दूसरे कमरे तक खाना नहीं लेकर जा सकते हैं। स्वास्थ्य को मक्खियों से नुकसान हो रहा है। इसे मापा नहीं जा सकता न ही दिखाई देता है।
हर काम के लिए बोरिंग के पानी का उपयोग होता रहा है। अब इस पानी में बदबू आ रही है और रंग भी मटमैला सा हो गया है। जो लोग समर्थ हैं उन्होंने अपने घरों वाटर प्युरीफ़ाई लगवा लिया है। कुछ लोग पानी खरीदकर पी रहे हैं लेकिन जो समर्थ नहीं हैं, उन्हें यही गंदा पानी पीना पड़ रहा है।
कचरे से कोला प्लांट से प्रभावित गाँवों की आबादी 35 हजार से अधिक है। यहाँ पर बड़े-बड़े अधिकारी आ चुके हैं पर उनसे आश्वासन के सिवाय कुछ नहीं मिलता हैं। लोग बताते हैं कि ‘हमारे गाँव के लोगों को इस प्लांट में कोई रोजगार नहीं दिया गया है। इस प्लांट में काम करने वाले मजदूर भी काम छोड़ कर भाग रहे हैं। इसका पता तब लगता है जब गाँव में वे किराये का मकान लेकर रहते हैं और 1-2 महीने में खाली कर वापस चले जाते हैं।’
गाँव में अनेक बच्चे उल्टी और दस्त पीड़ित हुए हुये और जब उनका स्वास्थ्य-परीक्षण कराया गया तो पता चला कि प्रदूषण और गंदगी के कारण उन्हें यह समस्या हुई है।
अखबारों में प्रकाशित खबरों के मुताबिक अभी कचरे से कोयला बनाने का काम और बढ़ाया जाएगा। हरित कोयला प्लांट से अभी 200 टन कचरे से 70 टन हरित कोयला उत्पादित हो रहा है। लेकिन निकट भविष्य में यह तीन गुना बढ़नेवाला है। लोग कहते हैं आज जब कम कोयला बनाया जा रहा है तब गाँव में रहना मुश्किल हो गया है। आगे इस प्लांट के विस्तार के बाद 600 टन कचरे से हरित कोयला बनाया जाएगा तब क्या स्थिति होगी इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री के ड्रीम सिटी में मानव जीवन पर होनेवाले खतरों का आकलन क्यों नहीं किया गया
वाराणसी के गुजरने वाली जीटी रोड के दाहिने तरफ रमना गाँव है। इससे लगा हुआ नैपुरा कलाँ गाँव, हरित कोयला प्लांट के आने से पहले दूसरे गांवों जैसा ही था। लोग खेती-किसानी, पशुपालन और मेहनत-मजदूरी कर जीवनयापन करते थे।
वर्ष 2021 में एनटीपीसी ने प्लांट लगाने के सर्वे किया और उसके बाद 20 एकड़ क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एनटीपीसी ने पहली वाणिज्यिक हरित कोयला परियोजना के अंतर्गत कचरे से प्रदूषण रहित (ऐसा कहा गया) हरित कोयला (टारफाइड चारकोल) बनाने का देश का पहला प्लांट स्थापित किया। लेकिन उत्पादन शुरू होने से स्थिति बिलकुल बदल गई है।
हरित कोयला उत्पादन के दौरान निकलने वाले धुएं से 12 गांवों की 35 हजार आबादी प्रभावित हो रही है, जिनमें 6 गाँव बुरी तरह प्रभावित हैं। प्लांट से लगे हुए गाँव नैपुरा कलाँ गाँव की स्थिति सबसे बुरी हो चुकी है।
तीन वर्ष पहले जब शहर से निकलने वाले कचरे से हरित कोयला बनाने की परियोजना पर काम चल रहा था, तब ग्रामीणों को बताया गया कि एनटीपीसी यहाँ बिजली उत्पादन करने का प्लांट लगा रही है। यहाँ के लोग खुश थे कि गाँव के पढ़े-लिखे युवाओं को गाँव में ही रोजगार मिल जाएगा।
लेकिन बाद में जब हरित कोयला प्लांट में उत्पादन से प्रदूषण फैला तब ग्रामीणों को इसकी जानकारी हुई कि उन्हें कितनी आसानी से बेवकूफ बनाया गया था। स्थानीय लोगों को नौकरी तो दूर की बात है उनका पूरा पर्यावरण ही प्रदूषित कर दिया गया। यहाँ फैलने वाला प्रदूषण का स्तर इतना भयानक है कि लोग लगातार बीमार पड़ रहे हैं। दम घुटने के साथ सांस लेने में सबसे ज्यादा हो रही है।
इस गाँव के निवासी संजय यादव का कहना है कि ‘वाराणसी के रमना के नैपुरा कलाँ में एनटीपीसी द्वारा एक हरित कोयला प्लांट लगातार 6 महीनों से चल रहा है। यह स्थान अब रहने लायक नहीं बचा है। प्लांट से निकलने वाले धुएं की वजह से घुटन होती है। रात को न सो सकते हैं और न सांस ले सकते हैं, क्योंकि रात में इस कारखाने की सभी भट्ठियाँ जला दी जाती हैं। तब इसकी सभी तीन चिमनियों से तेजी से धुआँ निकलता है और पूरे गाँव को अपनी चपेट में ले लेता है। उस समय गाँववाले घर के अंदर भी बेचैन हो जाते हैं और बाहर तो खड़े भी नहीं रह सकते। उनका दम घुटता है।’
उन्होंने बताया कि ‘यहाँ वर्ष 2021 से कारख़ाना बना हुआ है। उस समय यह जानकारी दी गई थी कि यहाँ बिजली उत्पादन होगा। एनटीपीसी का नाम सुनकर इन्हें भी लगा कि बिजली ही बनेगी लेकिन बिजली प्लांट के नाम पर कोयला प्लांट बनाया गया है। पहली बार जब इस प्लांट का ट्रायल हुआ था तब उसमें से इतनी बदबू नहीं आ रही थी।’
‘वर्ष 2012 में हमारी जमीन मायावती की सरकार ने 80 हजार रुपये बिस्वा पर आवास विकास और गंगा प्रदूषण प्लांट के नाम पर ले ली थी। हालांकि पहले से यहाँ एसटीपी (सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट) बना हुआ है और काम कर रहा है। पानी साफ कर गंगा नदी में छोड़ दिया जाता है लेकिन उससे निकलने वाली गंदगी आसपास के खेतों में फेंक दी जाती है। इसके कारण उसका प्रदूषण रिस-रिस कर जमीन के भीतर पहुँच कर भू-जल को प्रदूषित कर रहा है।’
अब लोग एनटीपीसी के सर्वेक्षण और एनजीटी की भूमिका पर सवाल उठा रहे हैं। वाराणसी शहर और उसके आसपास के गांवों में बढ़ते आबादी के घनत्व को नज़रअंदाज़ करके कैसे उन्हें प्रदूषण के दलदल में धकेल दिया गया? आखिर किन मानकों के आधार पर इतनी बड़ी आबादी के बीच यह प्लांट लगाया गया गया है? स्थानीय लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए रोजगार और विकास के वादों को भी झूठा मानते हैं जिनके चुनाव क्षेत्र में इस तरह लोगों की ज़िंदगी नारकीय बनाने का काम हुआ है।
बुरे हालात में पहुंचे गाँव
प्लांट के बाईं तरफ की सड़क से हम गाँव पहुंचे। प्रदूषण की मार से गाँव उजाड़ सा दिखाई दे रहा था। गाँव की सभी महिलायें एक जगह एकत्रित थीं। वे बहुत थकी और बीमार दिख रही थीं। बोझिल आंखें नींद पूरी नहीं हो पाने की स्थिति बयान कर रही थीं।
हमसे बात करते हुये वे सभी बहुत नाराज और गुस्से में थीं। उन्होंने कहा कि ‘इस तरह का प्लांट शहर से बाहर सुनसान इलाके में लगाना चाहिए।’ उनका कहना है कि इसे बंद कर दूसरी जगह ले जाया जाए। इस प्लांट के आने से किसी को कोई फायदा नहीं। न ही यहाँ के पढ़े-लिखे बेरोजगारों को कोई काम मिला और न ही आगे उम्मीद है। यहाँ बाहर के लोगों को ही नौकरी दी जा रही है ताकि प्लांट की असलियत सामने न आ जाए।
हमारे वहाँ पहुँचने की सूचना मिलने के बाद प्लांट की चिमनियों से निकलने वाले धुएं को नियंत्रित कर दिया गया और बाद में एक चिमनी को पूरी तरह बंद कर दिया गया। जब तक हम लोग वहाँ थे तब उनके दो आदमी अपने ऑफिस की छत पर बार-बार आकर हमें देखते रहे। नैपुरा कलाँ गाँव के युवाओं ने यह बात बताई कि यदि उन्हें यह पता चल जाता है कि बाहर से कोई मीडिया या पत्रकार आए हैं तो उनकी उपस्थिति तक वे इसी तरह करते हैं।
पिछले कई महीने से ग्रामवासी कर रहे हैं विरोध प्रदर्शन
स्थानीय निवासी नागमणि चौबे ने बताया कि ‘जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से किसानों व मजदूरों को सामने रख पूँजीपतियों के लिए काम कर रही है। इस गाँव में भी जब बिजली उत्पादन करने का झूठ कहकर प्रदूषणयुक्त हरित कोयला बनाने के लिए एनटीपीसी प्लांट शुरू होने की जानकारी मिली थी। उस समय इसके प्रोजेक्ट अधिकारियों से गाँव वालों ने बातचीत कर चिंता जाहिर की थी। उनका आश्वासन था कि अभी ट्रायल चल रहा है। यदि प्रदूषण के मापदंडों के तहत सब सही रहेगा, तभी प्लांट शुरू किया जाएगा। लेकिन हमसे झूठ कहा गया था।’
वह कहते हैं कि ‘प्लांट शुरू हो जाने बाद इसके धुएं से असहनीय बदबू फैल रही है। इस बात की जानकारी जब उन्हें दी गई तब इस बात से वे लोग मुकर गए, जिसके बाद गाँव के लोगों ने चक्का जाम और धरना प्रदर्शन शुरू किया और अब तो लगातार हम धरना-प्रदर्शन कर इसे बंद करने की मांग कर रहे हैं।’
‘जब प्रदर्शन होता है तो एसएचओ, एसडीएम और एडीएम बारी-बारी से आते हैं और दबाव बनाकर हल निकालने का आश्वासन देकर विरोध बंद कराकर चले जाते हैं।
सदर एसडीएम ने यहाँ तक आश्वासन दिया था कि इन्हें 10 दिन तक प्लांट चलाने दिया जाये और इन 10 दिनों तक हम कैंप लगाकार देखेंगे कि प्लांट से बदबू आ रही है या नही। लेकिन उसके बाद न उनका दस दिन का कोई कैम्प लगा न कोई हल निकला। आज कई दिन हो गये और सदर एसडीएम का कहीं अता-पता नहीं है। हम लोगों का इस गाँव में रहना मुश्किल हो गया है।’
इस प्लांट से 50 मीटर की दूरी पर आईटीआई कॉलेज, प्राइवेट स्कूल और कालोनियां हैं। इससे रमना, डाफी, टिकरी, नैपुरा, सीर गोवर्धनपुर आदि गांव ज्यादा प्रभावित हैं। स्कूल में कक्षा एक से 8 तक के बच्चे पढ़ने आते हैं। वे सभी बगल में स्कूल होने से ज्यादा गंदी हवा में सांस ले रहे हैं।
गाँव के लोग इसे सरकार की सोची समझी साजिश कह रहे हैं
लोग कहते हैं कि ‘2012 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने आवास के नाम पर हमसे जमीन लेकर हमें मुआवजा दिया लेकिन उस पर कोई काम नहीं हुआ। बाद में सपा के नेता और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इसे कामधेनु क्षेत्र घोषित कर दिया। काम कुछ नहीं हुआ केवल घोषणाएं ही हुईं। अब भाजपा सरकार ने झूठ बोलकर जमीन पर हरित कोयला प्लांट बना दिया गया और गाँव वाले प्रदूषण से परेशान हैं।
पूँजीपतियों की सरकार की नजर अब इस गाँव के लोगों का अघोषित विस्थापन कराकर यहाँ के लोगों की जमीन हड़पने पर लगी है।
जो लोग समर्थ हैं, वे लोग यहाँ से पलायन करना शुरू कर दिए हैं। एक परिवार गर्भवती महिला के साथ आने वाले बच्चे के स्वास्थ्य की चिंता करते हुए यहाँ से दूसरी जगह अपना रिहायश बना शिफ्ट हो गया है। कुछ और लोग स्वास्थ्य की भयानक स्थिति को देखते हुए यहाँ से जाने की योजना बना रहे हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि जो गरीब हैं या जिनके पास मात्र यहीं खेत और घर हैं, वे कहाँ जाएंगे? वे इसे बेचकर जाना चाहें, तब कौन इस नरक में जमीन खरीदेगा? एक समय के बाद गाँव खाली हो जाने पर सरकार उस पर कब्जा कर पूँजीपतियों के हाथ में उसे सौंप देगी।
दूसरी समस्या भी सिर पर आने वाली है
सड़क के एक तरफ हरित कोयला उत्पादन प्लांट है और सड़क के दूसरी तरफ निर्माण कार्य चल रहा है। पूछने पर पता चला कि यहाँ एक कैंसर मेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट के निर्माण का काम चल रहा है।
इस कैंसर मेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट में वाराणसी स्थित कैंसर हॉस्पिटल में कैंसर रोगियों के इलाज के दौरान जमा मेडिकल वेस्ट, खराब दवाएँ, इन्जेक्शन, रेडियो थेरपी का अपशिष्ट, कटे हुए शरीर के हिस्से, कटे-फटे मांस के टुकड़े आदि को गला कर बायो केमिकल बनाने की तैयारी की जा रही है।
यह कितना भयानक है कि गाँव के बीच में इस तरह के प्रदूषण फैलाने वाले प्लांट स्थापित किए जा रहे हैं। गाँव और आसपास के लोगों के लगातार विरोध के कारण यह अभी रुका हुआ है।
ग्रामीणों ने बताया कि शिकायत के बाद प्लांट के निरीक्षण के लिए कई बार अधिकारी आए। तब प्लांट के कर्मचारी निकलने वाले धुएं को नियंत्रित कर, वहां ऐसा केमिकल छिड़क देते हैं, जिससे बदबू खतम हो जाती है। ऐसे में अधिकारी ‘यहाँ कोई समस्या नहीं, सब ठीक है’ लिखकर दे देते हैं।
स्थानीय लोग कहते हैं ‘हमें अनेक बड़े नेताओं का समर्थन प्राप्त है फिर भी कोई सुनवाई नहीं होती। ऐसे में लगता है सभी नेता सामने कुछ हैं और पीछे कुछ और हैं। यहाँ के विधायक सुनील पटेल से भी अपनी समस्या बताई गई। उन्होंने एसडीएम को फोन किया था। एसडीएम साहब ने इधर-उधर की बात कर फोन रख दिया। हमारी कोई सुनवाई नहीं हो रही है।’
‘सेहत के लिए लोगों का सुबह टहलना बंद हो चुका है। लोग अपने मवेशी नहीं छोड़ रहे हैं कि बाहर चरने के दौरान कोई ऐसी चीज न खा लें, जिससे उसकी मौत हो जाए। धुएं और बदबू के कारण घर पर किसी मेहमान को नहीं बुला पा रहे हैं और जिन्हें पता है वे खुद नहीं आना चाह रहे हैं। बारिश के दिनों में प्लांट के पास से निकलना मुश्किल हो जाता है।’
यहां लोग खेती-किसानी भी नहीं कर पा रहे हैं। फसल की गुणवत्ता और मात्रा दोनों प्रभावित हो रही है। प्लांट से निकलने वाले प्रदूषण के कारण इस बार बहुत से किसानों ने अपने खेतों में धान नहीं लगाया।
इंसान तो इंसान मवेशी भी इस प्लांट के प्रदूषण से नहीं बच पाए हैं। गाँव के किसान राधे प्रसाद यादव ने बताया कि ‘जैसे ही हवा में धुआँ और बदबू बढ़ने लगती है, बंधे हुए जानवर बेचैन होकर आगे-पीछे को सिर पटकने लगते हैं, क्योंकि उन्हें भी सांस लेने में दिक्कत होती है। गाँव में हर हफ्ते एक-दो मवेशी मर रहे हैं।
इस क्षेत्र की सेम अपनी गुणवत्ता के कारण पूर्वाञ्चल के साथ अन्य राज्यों में भी भेजी जाती थी लेकिन प्रदूषण के चलते इस बार इसका उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ। इसकी पैदावार और गुणवत्ता में भी कमी आई, जिसके चलते इसे पैदा करने वाले किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। आने वाले दिनों में इसे पैदा करने वाले किसानों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है।
मोदी ने किया था उद्घाटन
पूर्वाञ्चल आर्थिक और सामाजिक स्तर पर अत्यंत पिछड़ा इलाका है। यहाँ रोजगार के अवसर नहीं हैं क्योंकि किसी भी तरह के उद्योग-धंधे और कल-कारखाने स्थापित नहीं किए गए हैं। यही कारण है कि देश के सभी बड़े शहरों में पूर्वाञ्चल के प्रवासी मजदूरों की बड़ी संख्या काम करने जाती है।
फरवरी 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट की शुरुआत इस प्लांट के उद्घाटन से की। उस समय युवा बहुत खुश थे कि पढ़े-लिखे लोगों को अपने गाँव में ही काम मिल जाएगा लेकिन जब कारख़ाना खुला तो गाँव के एक भी युवक को काम नहीं मिला। बल्कि यह रोक लगाई गई कि प्लांट में बाहर से आए काम करने वाले व्यक्ति किसी भी ग्रामवासी से बात नहीं कर सकता।
इसलिए अब लोग कहते हैं कि ‘उनका उद्देश्य यहाँ के लोगों को रोजगार देने का तो कतई नहीं था बल्कि गाँव वालों को यहाँ से विस्थापन के लिए मजबूर करना है।’
देश की इस पहली बहुप्राचारित हरित कोयला परियोजना की शुरुआत बिजली उत्पादन करने वाली बड़ी सार्वजनिक कंपनी एनटीपीसी ने की लेकिन इसे एक निजी कंपनी संचालित कर रही है। इसका इतना अधिक प्रचार किया गया था कि लगता था वाराणसी में औद्योगिक क्रांति आनेवाली है।
वाराणसी नगर निगम के अधिशासी इंजीनियर (ईई) ने प्लांट की स्थापना के समय लोगों को बताया गया कि शहर से प्रतिदिन निकलने वाले 600 टन कचरे का उपयोग हरित कोयला बनाने के लिए होगा, उससे किसी भी प्रकार का कोई प्रदूषण नहीं होगा और इससे स्वच्छता मिशन का उद्देश्य पूरा होगा।
शहर का कचरा गाड़ियों में भरकर यहाँ लाकर गिराया जाता है, जिसके बाद क्रेन की मदद से हापर में डालते हैं। कचरे की नमी और गीलेपन को गरम कर खत्म किया जाता है। इसके बाद बैलिस्टिक सेपरेटर की मदद से कचरे की छँटाई की जाती है। छँटाई में कचरे से सभी कचरों को अलग-अलग कर रिफ्यूज्ड डेरिव्ड फ्यूल (आरडीएफ) तरीके से उसका पाउडर बना लिया जाता है।
प्रचारित किया गया था कि यह पूर्णतया स्वदेशी तरीके से संचालित किया जाएगा। स्वदेशी प्रधानमंत्री मोदी का प्रिय शब्द है। लेकिन जल्दी ही पता चला कि तरीका कितना भी स्वदेशी हो लेकिन जनहित में नहीं है। लगातार निकलने वाला धुआँ मनुष्य, मवेशियों और प्रकृति को नुकसान पहुंचा रहा है।
कचरे को 250 से 300 डिग्री के तापमान पर थर्मल ट्रीटमेंट किया जाता है, जिसके बाद कोयले जैसी काली राख निकलती है। तमाम सावधानियों और दावों के बावजूद इस राख़ के कण लोगों की साँसों तक पहुँच रहा है।
पहला ट्रायल 2022 में अक्टूबर में हुआ था, तब यहाँ 6 टन कचरे से 3 टन हरित कोयला उत्पादित किया गया था। दूसरा ट्रायल 4 से 7 फरवरी, 2023 में हुआ, जब 200 टन कचरे से 70 टन हरित कोयले का उत्पादन हुआ, जो सफल रहा और योगी सरकार ने इसे शुरू करने की अनुमति दे दी।
ऐसा माना गया था कि अपशिष्ट और कचरा जलाने के बाद बनने वाले हरित चारकोल से किसी भी तरह से पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं होगा। अर्थात यह पर्यावरण के अनुकूल है। इसे मैकाबर बीके की विशेष सुरक्षित तकनीक का उपयोग कर रिएक्टर के अंदर प्रोसेस किया जाता है, लेकिन उत्पादन के बाद 6 गाँव इससे निकालने वाले प्रदूषण से परेशान हैं। ।
नेपुरा कलाँ और उसके आसपास के गाँव वाले लगातार इस समस्या से जूझते हुये परेशानहाल हैं लेकिन प्रशासन और सरकार को न बदबूदार धुआँ दिखाई देता है न ही उसकी बदबू उनकी नाक में घुसती है। बल्कि अब तो वह इस बात को मानने से भी साफ इनकार कर रही है।
सबसे बड़ा सवाल है कि हरित कोयले के उत्पादन से निकलने वाली गैस से आसपास की 35 हजार आबादी प्रभावित है। लेकिन हरित कोयला उत्पादन के बाद उसके अपशिष्ट का क्या किया जाता है? देखा गया कि उस अपशिष्ट को प्लांट के आसपास और पीछे की खाली जगहों में फेंक दिया जा रहा है। उससे निकलने वाले खतरनाक रसायन जानवरों, पक्षियों, फसलों और भू-जल को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
हजारों पेड़ों को काटकर इस प्लांट को यहां बनाया गया। कंपनी ने वादा किया था कि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए यहां पेड़ लगाएंगे पर इन्होंने कोई पेड़ नहीं लगाए। पेड़ के नाम पर 50 बोगनवेलिया के पौधे लगा दिए हैं। यह कंपनी की इंजीनियरिंग पर भी प्रश्नचिन्ह है।
कचरा लाने के लिए कंपनी ने प्लांट तक की मजबूत सड़क बनवाई है पर गांव की सड़क तबाह कर दी है। जहां पैदल भी नहीं चला सकता। प्लांट के मैनेजर आशीष रंजन से कई बार गाँव वालों की बात हुई पर उनसे भी सिर्फ आश्वासन ही मिला।
बेहद सार्थक,खोजपूर्ण और ज़रूरी रिपोर्टिंग है ये।मौजूदा हालात में सरकार विकास के नाम पर किस तरह मूर्ख बनाकर जनता के स्वास्थ्य और जीवन से खिलवाड़ कर रही है—इसका तथ्यपरक पर्दाफ़ाश किया है आपने।इस निर्भय और साहसिक सच्ची पत्रकारिता के लिए सलाम।