कोई भी समाज कितना सभ्य है, इसके लिए जो बातें महत्वपूर्ण होती हैं, उनमें एक यह भी है कि वह समाज उनके प्रति कैसा व्यवहार करता है जो सबसे कमजोर हैं। वैसे किसी को कमजोर कहने का मानदंड भी अलग-अलग होता है। जिसे हम कमजोर मानते हैं, वे असल में कमजोर नहीं होते हैं। वे तो उनसे भी मजबूत होते हैं जिन्हें हम मजबूत मानते हैं। वे सक्षम होते हैं, जिन्हें हम अक्षम मानते हैं। यह सब हमारी दृष्टि पर निर्भर करता है। चूंकि मेरे शरीर के सारे अंग सामान्य हैं और सब सक्रिय हैं तो मैं इसी आधार पर किसी दूसरे को शरीर के सापेक्ष इसका आकलन करता हूं कि कमजोर कौन है। समाज में अनेक लोग हैं जिनके शरीर का कोई एक अंग काम नहीं करता है या फिर किसी दुर्घटना में उन्होंने अपना कोई एक अंग खो दिया है। मैं उनके प्रति सहानुभूति रखता हूं। यह जानते हुए भी कि इसके लिए मेरी आलोचना हो सकती है। मेरी दृष्टि को गलत माना जा सकता है क्योंकि किसी एक अंग के निष्क्रिय होने अथवा नहीं होने से कोई आदमी हमारी नजर में भले ही विकलांग हो लेकिन उसकी नजर में यह कुछ और भी हो सकता है।
दरअसल समाज में हमारी परवरिश ही ऐसे माहौल में हुई है जिसमें ऐसे शब्दों की बहुतायत है जिनसे ऐसे लोगों की उपेक्षा का भाव आता है। मैं अपने बचपन को याद कर रहा हूं तो मुझे शिव चाचा की याद आ रही है। वे मेरे पापा से छोटे थे। उनके दोनों पैरों की लंबाई में अंतर था। शरीर के अन्य सारे अंग सामान्य थे। लेकिन पैरों की लंबाई में अंतर होने के कारण उनके लिए जो शब्द इस्तेमाल में लाया जाता, वह था – लंगड़ा। उनकी शादी एक ऐसी महिला से हुई जिनके पैरों में समस्या थी। वह खड़ी भी नहीं हो पाती थीं। दोनों ने अपना शानदार जीवन जीया। शिव चाचा तो पहलवान थे। खूब जमकर खेती करते थे। मेरे पापा की तरह चार-पांच भैंसें रखते थे। दूध दूहते और यहां तक कि दूध बेचने खुद जाते थे।
उनदिनों मैं हाईस्कूल का छात्र था और घर में भैंसें थीं। भैया और मैं, हमदोनों इस बात पर खूब लड़ते थे कि कौन कितना कम काम करता है। लड़ने-झगड़ने के और भी कई कारण होते थे। कुछ जेनूइन तो कुछ हमारे द्वारा बनाए गए कारण। एक कारण था कि भैंस कौन चराने जाएगा। भैया बड़ा था तो मैं सामान्य तौर इससे बचा रहता था। लेकिन भैया ने घर में विद्रोह कर दिया। पापा मुख्य न्यायाधीश बने। उनका फैसला था कि अब से भैया भैंसों के लिए चारा खेतों से काटकर लाएगा, उन्हें काटेगा और नांद में उन्हें सर्व करेगा। मेरे बारे में उनका अंतिम निर्णय था कि मैं भैंस चराने जाऊं। हालांकि मैं आज यह महसूस कर रहा हूं कि पापा ने मेरे प्रति सहानुभूति रखी थी उस दिन अपने फैसले में। वजह यह कि चारा काटना और उसे करीब डेढ़ किलोमीटर तक माथे पर लादकर लाना मेरे लिए कष्टकर होता। फिर यह भी कि उन्हें चारा मशीन से काटना। भैंस चराने में अधिक मेहनत नहीं थी। चराते समय मुझे खेलने का मौका भी मिलता।
तो हुआ यह कि मैं स्कूल से लाैटने के बाद पहले कुछ खा लेता और उन दिनों मां घर में भूंजा का स्टॉक रखती थी। भूंजा दो तरह का होता था। एक तो मकई का और दूसरा चावल का। मैं दोनों को मिला लेता और साथ में गुड़ रख उन्हें एक गमछी में बांध कर रख भैंसों को लेकर निकल पड़ता। पैदल चलने की जरूरत नहीं होती थी। बस अपनी मनपसंद भैंस की पीठ पर सवार हो जाता।
शिव चाचा भी अपनी भैंसों को चराने जाते थे। वे तो सारा काम खुद ही करते थे। मतलब चारा काटने से लेकर दूहने और गोबर-करसी तक। मां बताती है कि वह खाना भी पका लेते थे।
एक दिन गांव के बधार में नंदलाल दादा की बोरिंग के पास हम भैंसों को चरा रहे थे। शिव चाचा की एक भैंस बहुत मरखंड थी। मरखंड मतलब झगड़ा करनेवाली। उसने मेरी एक अहिंसक विचारों वाली भैंस पर हमला बोल दिया। मेरी भैंस तो पहले डर के मारे भाग गयी। लेकिन जब शिव चाचा की मरखंड भैंस ने उसे मजबूर किया तो उसने प्रत्युत्तर में हमला बोला। बड़ा भीषण युद्ध हुआ दोनों के बीच और जब यह हो रहा था तब हम सारे चरवाहे कबड्डी खेल रहे थे। शिव चाचा रेफरी थे।
दोनों भैंसें लड़ रही थीं। तभी एक चरवाहे ने सूचना दी उनके बारे में कि दोनों भैंसें ऐसे लड़ी हैं कि उनकी सींगें फंस गयी हैं। हम सभी भागे-भागे पहुंचे। जितनी तेजी से मैं दौड़ा, लगभग उतनी ही गति से शिव चाचा भी। वह भी अपने विषम आकार के पैरों के साथ। मेरी तो हिम्मत भी नहीं हुई कि अपनी भैंस के पास जाऊं और उससे कहूं कि चलो, अब हो गया, झगड़ा खत्म करो। शिव चाचा ने हिम्मत दिखायी। भैंसों के सींग आपस में फंसे नहीं थे। दरअसल दोनों में से कोई हार नहीं मानना चाहती थीं। लेकिन शिव चाचा ने हाथ से ही दोनों के उपर प्रहार किया। निस्संदेह उनका वार भारी पड़ा होगा भैंसों के उपर। दर्द से बिलबिलायी होंगीं। तभी उन्होंने एक-दूसरे से लड़ना बंद किया।
शिव चाचा के पहले उनकी पत्नी का देहांत हुआ। उनके ही गम में शिव चाचा का भी निधन हो गया। दोनों अलहदा प्रेमी युगल थे। एक-दूसरे के लिए बने थे।
आज उन दोनों की याद इसलिए आयी कि तोक्यो में चल रहे पैरालंपिक खेलों में हमारे देश के खिलाड़ियों ने कमाल का प्रदर्शन किया है। जयपुर की रहने वाली करीब 19 वर्ष की अवनि लेखरा ने एयर राइफल प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता है। वर्ष 2015 में एक सड़क दुर्घटना में उनकी रीढ़ की हड्डी क्षतिग्रस्त हो गयी थी और वे व्हील चेयर के आसरे रहने को मजबूर हो गयीं। परंतु अवनि ने अपने सपनों को जिंदा रखा। वैसे ही एक हरियाणा के सोनीपत जिले के सुमित अतिल हैं, जिन्होंने भाला फेंक प्रतियोगिता में स्वर्ण जीता है। उन्होंने 68.55 मीटर दूर भाला फेंका और पूरे भारत को गौरवान्वित किया। सुमित के साथ ही 2015 में एक हादसा हुआ था और उन्होंने अपने बायें पैर के घुटना खो दिया था।
इन दोनों के अलावा और भी कई खिलाड़ियों का प्रदर्शन मुझे प्रेरित कर रहा है कि मैं उनकी सम्मान में तालियां बजाऊं।
मैं यह सोचकर हैरान हूं कि पैरालंपिक खेलों का आयोजन ओलंपिक के पहले क्यों नहीं होता। मेरी समझ से यदि पैरालंपिक खेलों का आयोजन पहले हो तो यह न केवल सभी खिलाड़ियों के आत्मविश्वास को बढ़ाएगा बल्कि सामान्य व समर्थवान खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा भी बनेंगे।
खैर, अवनि लेखरा और सुमित अतिल सहित सभी खिलाड़ियों को जिंदाबाद। शिव चाचा और उनकी पत्नी को नमन।