इस समय सोनभद्र की घसिया बस्ती मानो अपने दुख सुनाने के लिए खाली बैठी हो लेकिन सुननेवालों ने कान बंद कर लिए हों। आखिर एकदम हाशिये पर रहने वाले और मेहनत-मजदूरी करके जीनेवाले लोगों से कौन संवेदना रखता है। जब मैं वहाँ पहुंचा और पूछा कि यहाँ का मुखिया कौन है तब लगभग हर घर से कोई न कोई निकला और यह बताने लगा कि एसडीएम साहब ने 27 जून तक जगह खाली करने का नोटिस दे दिया है। लेकिन हम कहाँ जाएंगे? तीस-पैंतीस साल से यहीं रह रहे हैं। अब अचानक उजड़ने की नौबत आ गई है।
उषा नामक एक महिला का कहना था कि ‘हमें यहा से बस्ती खाली करने का आदेश तो दे दिया गया है लेकिन किसी अन्य स्थान पर रहने की व्यवस्था नहीं की गई है। हमें मौखिक रूप से ये कह दिया गया है जाकर कांशीराम आवास में रहो।’
मैंने पूछा क्या आपने कांशीराम आवास देखा? तब उसने कहा कि नहीं देखा है। फिर उस महिला ने कहा कि ‘सरकार को यदि हमें कोई जमीन या आवास देना ही है तो जिस स्थान पर 25 से 30 वर्षों से हमारी बस्ती है हमें उसी स्थान पर रहने दिया जाए।’
यह जगह सोनभद्र जिला मुख्यालय राबर्ट्सगंज से डेढ़-दो किलोमीटर दूर है और बनारस-रेणुकूट हाइवे से चुर्क जानेवाले रास्ते पर है। खतौनी में यह गाँव है जिसका नाम रोप है। रोप गांव, तब सुर्खियों में आया था जब आज से लगभग 24- 25 वर्ष पहले यहाँ रहनेवाले 18 बच्चे भूख से लड़ते हुए मर गए। स्थानीय लोग बताते है कि बच्चो ने भूख से बिलाबिलाकर चकवड़ नाम का जहरीला पौधा खा लिया था, जिसके कारण सबके पेट में जहर फैल गया और वो मर गए। यहाँ पर भूख से लड़ते हुये शहीद होनेवाले उन अठारह बच्चों का स्मारक है जिसे बनारस के स्वयंसेवी संगठन मानवाधिकार जन निगरानी समिति ने बनवाया था।
यह घसिया जनजाति की बस्ती है जिसका संबंध घोड़ों के लिए घास लाने से है। माना जाता है कि घसिया लोग राजाओं और सामंतों के साईस हुआ करते थे। लेकिन आमतौर पर घसिया जनजाति करमा नृत्य के लिए जानी जाती है। सोनभद्र जिले में घसिया लोगों के एक दर्जन से अधिक ऐसे नृत्य संगठन हैं जो पेशेवर करमा नर्तक हैं और दूर-दूर तक अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। रौप गाँव में रहनेवाले घसिया मजदूरी करके जीवन-यापन करते हैं।
नोटिस मिलने से घबराए घसिया बस्ती के लोगों का कहना है कि इस जगह हम पैंतीस साल से हैं। हमको उजाड़ने से पहले प्रशासन हमको रहने की जगह दे या बताए कि हम कहाँ जाएँ? नोटिस में जगह खाली करने की तिथि 27 जून लिखी गई है लेकिन जिस दिन हम यहाँ पहुंचे उस दिन 7 जुलाई की तारीख थी।
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क्यों हटाना चाहता है प्रशासन
मेहनत-मशक्कत करके जीने वाली यह जनजाति की यह बस्ती अभी जहां पर बसी हुई हैं वह सोनभद्र हाइवे बिल्कुल सटा हुआ इलाका है। एक सड़क चुर्क की तरफ जाती है और दूसरी सड़क बनारस-छत्तीसगढ़ राजमार्ग है। अभी यह बस्ती जिस जगह पर है वह जगह इतनी ज्यादा मौके की है कि जिला प्रशासन चाहता है कि इनको यहां से हटाया जाए जिसका मंसूबा जिला प्रशासन ने बना भी लिया है।
लेकिन जिन दिनों ये घसिया लोग चिरूई मरकुड़ी से यहाँ आए थे उन दिनों इस इलाके में जंगल था और इसी गाँव में तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने मिर्ज़ापुर से अलग करके सोनभद्र को अलग जिला घोषित किया था। बाद में विकास की गति बढ़ी और शहर फैलने लगा। धीरे-धीरे प्रशासनिक कार्यालय और दूसरे संस्थान यहाँ बनने लगे। इस जगह से सभी ओर की कनेक्टिविटी है और इसी कारण अब घसिया लोगों के उजड़ने की नौबत आई है।
इस संदर्भ में मानवाधिकार जन निगरानी समिति के संयोजक डॉ लेनिन ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और सोनभद्र के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर इस मामले में हस्तक्षेप करने की गुजारिश की है। इस पत्र में डॉ लेनिन ने घसिया समुदाय के लिए जमींदारी उन्मूलन अधिनियम और भूमि सुधार अधिनियम के 122 बी (4-F) के अंतर्गत ज़मीन आबंटन की मांग की है।
सोनभद्र जिला प्रशासन स्वयं इस मुद्दे को लेकर स्पष्ट नहीं है
घसिया बस्ती आज एक जरूरी मसला है और यह प्रशासन के सामने कई तरह के सवाल खड़े करता है। कुछ दिनों पहले दी गई नोटिस में इस बस्ती के लोगों को अवैध रूप से आवासित बताया गया है। जबकि जिला प्रशासन द्वारा 2009 में इस बस्ती में दिवंगत पत्रकार सुशील त्रिपाठी की स्मृति में जनमित्र न्यास द्वारा निर्मित सुशील त्रिपाठी जनमित्र केंद्र पर कोई ऐतराज नहीं किया गया बल्कि इस केंद्र का उद्घाटन सोनभद्र के तत्कालीन जिलाधिकारी पंधारी यादव ने ही किया था। उन्होंने घसिया लोगों को आश्वस्त किया था कि उनको शासन से मिलनेवाली सुविधाओं का लाभ मिलेगा।
इसी कार्यक्रम में तत्कालीन मंडलायुक्त सत्यजीत ठाकुर के मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित होने की सूचना 16 फरवरी 2009 को अमर उजाला अखबार में प्रकाशित हुई थी।
कार्यक्रम के बाद की रिपोर्टों में सूचना है कि मंडलायुक्त महोदय कार्यक्रम में सम्मिलित नहीं हो पाये थे और उनका लिखित संदेश जिलाधिकारी ने पढ़ा था। मंडलायुक्त महोदय के लिखित संदेश में विद्यालय भवन आदि बनाए जाने की सराहना की गई थी और घसिया लोगों की पहचान मानी जानेवाली करमा संस्कृति के सरक्षण की दिशा में इसे महत्वपूर्ण कदम बताया गया था। यह समाचार 17 फरवरी 2009 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ था
सवाल उठता है कि क्या तत्कालीन प्रशासन उस समय इस बात से अवगत नहीं था कि घसिया समुदाय यहाँ अवैध रूप से रह रहा है। अगर वे अवैध तरीके से रह रहे थे तो उनको वहाँ से हटाने की बजाय वहाँ स्कूल और सामुदायिक केंद्र क्यों बनने दिया गया? उसी समय इस पर विधिक कार्रवाई होनी चाहिए थी।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 31 अक्टूबर 2007 को घसिया बस्ती के संबंध में ग्राम बरकरा राबर्ट्सगंज निवासी महेश कुमार पुत्र विश्राम प्रसाद द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के अंतर्गत मांगी गई सूचना कार्यालय उपजिलाधिकारी सदर, सोनभद्र द्वारा दी गई। पत्रांक 646, टंकक सूचना /07 के अनुसार ग्राम रौप परगना बड़हर जिला सोनभद्र स्थित घसिया बस्ती के संदर्भ में तहसीलदार राबर्ट्सगंज, सोनभद्र ने अपनी आख्या में चार बिन्दुओं पर जानकारी दी।
बिंदु संख्या 1 के अनुसार घसिया बस्ती के लोग 1.500 हेक्टेयर भूमि पर क़ाबिज़ हैं। उत्तर से दक्षिण की ओर इसकी लंबाई 150 मीटर, पूर्व दिशा में 80 मीटर तथा पश्चिम में 120 मीटर है।
बिंदु संख्या 2 के अनुसार घसिया बस्ती के लोगों द्वारा क़ाबिज़ भूमि आराजी नंबर 932 खतौनी में क्रीड़ास्थल के रूप में दर्ज़ है। बिंदु संख्या 3 के अनुसार इस भूमि की चौहद्दी उत्तर में क्रीड़ास्थल की शेष भूमि, दक्षिण में चुर्क जानेवाली सड़क, पूरब में संरक्षित वन और पश्चिम में जंगल और कलेक्ट्रेट की भूमि है। बिंदु चार के अनुसार घसिया बस्ती के लोग 7-8 वर्षों से उक्त भूमि पर क़ाबिज़ हैं।
अब सवाल उठता है कि जिला मुख्यालय से ऐन सटी हुई ज़मीन पर घसिया बस्ती बनने की अनदेखी क्यों की गई? दूसरे यह कि आरटीआई के दो वर्ष बाद जिला प्रशासन के आला अधिकारी इसी ज़मीन पर विद्यालय और सामुदायिक भवन का उद्घाटन क्यों कर रहे थे? अगर आज घसिया बस्ती को हटाने के लिए नोटिस दी जा रही है तो उनके पुनर्वास और मुआवजे का सवाल क्यों नहीं उठना चाहिए। भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 का निषेध करके धमकी देने और बस्ती खाली करवाने के पीछे जिला प्रशासन की मंशा क्या है?
क्या कहता है भूमि अधिग्रहण कानून
भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन के उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 को 26 सितंबर, 2013 राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हुई। इस अधिनियम का विस्तार जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में है।
इस अधिनयम के तहत जब सरकार अपने स्वयं के उपयोग, अधिकार और नियंत्रण के लिए (जिसमें पब्लिक सेक्टर उपक्रम और लोक प्रयोजन शामिल है) यदि ज़मीन का अधिग्रहण करेगी तब उसे उस ज़मीन पर पहले से रह रहे लोगों के पुनर्वास और फिर से व्यवस्थित होने तक के लिए मुआवजा देना होगा।
इस नीति के तहत थलसेना, नौसेना और वायुसेना तथा केंद्रीय अर्द्धसैनिक बल, राज्य पुलिस अथवा जनसाधारण की सुरक्षा के महत्वपूर्ण किसी कार्य के लिए ज़मीन लेने पर विस्थापित लोगों के पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन के लिए पारदर्शिता के साथ उचित मुआवजा देना होगा।
यह नीति भारत सरकार के आर्थिक कार्य विभाग (अवसंरचना अनुभाग) की तारीख 27 मार्च 2012 की अधिसूचना संख्या 13/6/2009 आईएनएफ में सूचीबद्ध सभी क्रिया-कलापों और मदों पर लागू है। निजी अस्पतालों, निजी शिक्षण संस्थानों और निजी होटलों को इससे बाहर रखा है और वे अपने उपयोग के लिए बाज़ार रेट से ज़मीन खरीदने के लिए स्वतंत्र हैं।
सरकार द्वारा स्थापित कृषि प्रसंस्करण, कृषि में निवेशों के प्रदाय, गोदाम, वेयर हाउस, कोल्ड स्टोरेज, डेयरी, मछली पालन, मांस उद्योग, औद्योगिक कॉरीडोर, खदान, निर्माण परियोजनाएं, सिंचाई परियोजनाएं, जलशोधन संयंत्र, अनुसंधान परियोजनाएं, अस्पताल, खेल के मैदान, पर्यटन, बस अड्डा, ट्रांसपोर्ट परियोजनाएं, अन्तरिक्ष कार्यक्रम आदि के लिए अधिग्रहित भूमि से विस्थापित होने वाले परिवारों के पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन के लिए यह अधिनियम प्रतिबद्ध है।
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ऐसी योजनाओं और परियोजनाओं से प्रभावित कुटुम्बों के पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन का दायित्व सरकार अथवा परियोजनाओं के निर्माण एवं संचालन के लिए उत्तरदायी संस्था का है और इसमें किसी तरह की हीलाहवाली भारतीय संसद, संविधान और भारत के राष्ट्रपति के आदेशों का उल्लंघन अथवा अतिक्रमण है।
भारत सरकार द्वारा विशिष्ट श्रेणी में नामित किए गए परिवारों के विस्थापन की स्थिति में सरकार अथवा उत्तरदायी संस्था का दायित्व है कि वह उन परिवारों को घर बनाकर दे।
इस अधिनियम की धारा 3 के खंड (ग) के उपखंड (1) और (5) में स्पष्ट कहा गया है कि प्राइवेट कंपनियों के लिए ज़मीन लेने के लिए उपरोक्त परिभाषा के तहत प्रभावित परिवारों के कम से कम अस्सी प्रतिशत लोगों की सहमति आवश्यक है।
इसी तरह पीपीपी अर्थात पब्लिक प्राइवेट भागीदारी परियोजनाओं के लिए ज़मीन लेने के लिए कम से कम 70 प्रतिशत परिवारों की सहमति अनिवार्य है। ऐसे परिवार जिनकी ज़मीन अथवा घर का अधिग्रहण किया गया हो, ऐसे परिवार जिनके पास किसी भूमि का स्वामित्व न हो लेकिन उस भूमि पर भूमि अर्जन से तीन वर्ष पहले से बटाईदारी अथवा ठेके पर खेतीबारी अथवा दुकान करते हों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, वन के निवासियों, भूमि अर्जन से तीन वर्ष पहले से जंगलों और तालाबों पर निर्भर परिवार, वनोपज इकट्ठा करने वाले परिवार, आखेटक और मछली पकड़ने वाले परिवार सरकार द्वारा पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन के लिए अधिकृत हैं।
इस अधिनियम के तहत मुआवजे की रकम न्यायालय द्वारा निर्देशित सर्किल रेट के हिसाब से तय होगी। इसमें खड़ी फसलों, रिहायशी मकानों तथा पेड़ों के हुये नुकसान की भरपाई अलग से होगी। भूमि अर्जन से जिन लोगों की आजीविका प्रभावित होगी उनको उचित भरपाई करनी होगी।
यह अधिनियम भूमि अर्जन से पहले उन सामाजिक प्रभावों और जनता के हितों का अध्ययन करने पर बल देता है जो भूमि अर्जन से संभावित हैं। इसका तात्पर्य यह है कि भूमि अर्जन की अधिसूचना जारी होने के पहले यह जान लेना आवश्यक है कि शुरू होने वाली परियोजना से जनता के कितने हितों की पूर्ति होती है तथा इस परियोजना का सामाजिक प्रभाव क्या होगा? सांस्कृतिक रूप से इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? क्योंकि पुनर्वास केवल लोगों को एक जगह से दूसरी जगह ठेल देना नहीं है। यह मानव समाज के एक हिस्से के भविष्य का भी सवाल है।
यह अध्ययन एकतरफा नहीं होगा बल्कि पंचायत, ग्राम सभा, नगर पालिका अथवा नगर निगम का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इस अध्ययन को शुरू करने से पहले ग्राम पंचायत, ग्राम सभा, नगर पालिका, नगर निगम, जिला कलेक्टर, एसडीएम और तहसील कार्यालय में एक अधिसूचना उपलब्ध कराई जाएगी। यह अधिसूचना स्थानीय भाषा में होगी ताकि प्रभावित होने वाले लोग इसके निहितार्थ अच्छी तरह समझ सकें।
यह अध्ययन छह महीने में पूरा होना ज़रूरी है और इसके निष्कर्ष और रिपोर्ट को धारा 6 के अंतर्गत जनसाधारण को उपलब्ध कराना आवश्यक है।
क्या कहते हैं बस्ती के निवासी
यहाँ के निवासियों का कहना है कि नोटिस मिलने से हम भयभीत हैं। हमलोग इतने गरीब और कमजोर हैं कि पुलिस कभी भी हमारी बस्ती के लोगों पर लाठीचार्ज कर देती है। पिछले वर्ष की घटना को याद करके लोग आज भी सिहर उठते हैं जब पुलिस ने चोरी के इल्ज़ाम में कई लोगों को इतनी बेरहमी से पीटा कि उनके हाथ-पाँव टूट गए थे।
रौप घसिया बस्ती के रामसूरत कहते हैं कि हम यहां 25-30 वर्षों से रह रहे हैं। हम लोग मेहनत मजूरी करके गुजर बसर करते हैं। 2001-2002 के बीच में हमारी बस्ती के 18 बच्चों की मौत भूख से हो गई थी। ये देखिये उनकी याद में स्मारक बनाया गया है। एक दिन एसडीएम साहब आए और बोलने लगे कि तुम लोगों को ये जगह खाली करनी होगी। लेकिन अभी बारिश का मौसम है। इस मौसम में हम अपने परिवार को लेकर कहां जाएँ। प्रशासन द्वारा यह कहा गया था कि हमें आवास दिया जायेगा लेकिन इस दिशा में अभी तक प्रशासन द्वारा कोई कार्य नहीं किया गया है।’
दुलारी नामक महिला बताती है कि ‘इस जमीन पर हम सब लोग काफी वर्षों से रह रहे हैं। इस जमीन के लिए ही पुलिस प्रशासन द्वारा काफी मारपीट भी हो चुकी है। बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सबको पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया गया है। सन दो हज़ार में बस्ती के 18 बच्चे भूख से मर गए। जब बच्चो के भूख से मरने की खबर अखबार में निकली तो मानवाधिकार वालों ने उस समय यहां आ कर देखा कि ये बात सही है। जब ये बात साबित हो गई तो फिर मानवाधिकार वालो ने हमें कुछ राशन की व्यवस्था कर के दी तथा यहां स्कूल बनाया और कहा कि आज से पुलिस प्रशासन द्वारा घसिया बस्ती को नहीं उजाड़ा जायेगा। इसी जमीन के लिए सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा चल रहा है। इस जमीन की खसरा खतौनी भी हमारे पास है।’
एक बुजुर्ग महिला रुक्मिणी कहती है कि ‘पुलिस ने मेरे बेटे को इतना मारा है कि उसका हाथ टूट गया है जब इसकी शिकायत करने मैं थाने गई तो शिकायत नहीं लिखी गई। हम अभी बरसात के मौसम में अपने बाल बच्चों को लेकर कहाँ मरूँ? हमने अपना पेट काट-काट के अपनी झोपड़ी तैयार की और अब प्रशासन इसे तोड़ना चाहता है। ये कहां का न्याय है?’
वहाँ मौजूद सुंदरी बताती है कि ‘इसी जमीन पर हमें सरकार द्वारा आधार कार्ड, राशन कार्ड, शौचालय, पानी, बिजली, गैस सिलेंडर आदि मिला है। इतना कुछ सरकार देकर हमें यहाँ से क्यों विस्थापित कर रहा है। हम लोग आयोजनों में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी करते है। हम झोपड़ी में रह लेंगे पर यहां से किसी आवास में नही जाएंगे।’
एक अन्य महिला सुरतिया बताती है कि यहां हम लोग 600 की संख्या में हैं। महिलाएं झाड़ू बनाकर और पुरुष रिक्शा चला कर अपने परिवार का पालन-पोषण करते है।’
बुजुर्ग मुनेसर बताते है कि वह झाड़ू बना कर जगह-जगह बेच कर अपना पेट पालते हैं। वह कहते हैं कि यहां पर हमारे 18 बच्चो की मृत्यु हुई थी। उसके बाद हमने ठान लिया कि अब भले ही हमारी जान चली जाए पर ये जमीन छोड़ कर हम लोग कहीं नहीं जाएंगे।
सोनभद्र के तमाम सारे इलाकों से फैक्ट्रियां लगाने के लिए लगातार आदिवासियों का विस्थापन हुआ। ये एक जगह से विस्थापित हो कर दूसरी जगह गए। वहां से तीसरी जगह गए। इस तरह लगातार इनका विस्थापन हो ही रहा है। इनके पुनर्वास का कोई अच्छा बंदोबस्त नही किया गया। इसी क्रम में आज घासिया बस्ती उजड़ने की कगार पर है।
लेकिन ज़मीन खाली करने से पहले उनके पुनर्वास की चिंता भी प्रशासन की है जिससे वह बच नहीं सकता।
इस देश की सरकार ने यहाँ के आदिवासियों के लिए विस्थापन की नियति तय कर दी है। विकास के नाम पर इन आदिवासियों को अपना पूरा जीवन और गृहस्थी लेकर यायावरी करते रहना होता है क्योंकि सरकार जब चाहे उन्हें जमीनें देकर बसा देती है और जब चाहे उसे अवैध घोषित कर विस्थापित कर देती है। जब तक विकास के नाम पर आदिवासियों की ज़मीनों पर सरकार की नज़रें होंगी, तब तक यह विस्थापन चलता रहेगा।