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ग्राउंड रिपोर्ट

कवि को राजसत्ता की भाषा में बात न करने पर परेशान किया जा सकता है पर कवि झूठ नहीं बोलेगा

पहला हिस्सा  भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि वरवर राव को 28 अगस्त 2018 को भीमा–कोरेगांव के राज्य प्रायोजित षड्यंत्र के आरोप में गिरफ्तार कर महाराष्ट्र सरकार ने जेल में बंद कर दिया है। अपने जीवन का 80 वर्ष जेल में मनाने के बाद वरवर राव की सेहत लगातार बिगड़ती जा रही है।आखिर 81 वर्ष के […]

पहला हिस्सा 
भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि वरवर राव को 28 अगस्त 2018 को भीमा–कोरेगांव के राज्य प्रायोजित षड्यंत्र के आरोप में गिरफ्तार कर महाराष्ट्र सरकार ने जेल में बंद कर दिया है। अपने जीवन का 80 वर्ष जेल में मनाने के बाद वरवर राव की सेहत लगातार बिगड़ती जा रही है।आखिर 81 वर्ष के एक प्रसिद्द कवि को सरकार इलाज के बिना बीमार हालत में जेल में क्योँ बंद रखना चाहती है। तेलुगु के क्रांतिकारी कवि वरवर राव भारतीय राज्यसत्ता को चुनौती देनेवाले भारतीय माओवादियों के समर्थक और प्रवक्ता कवि के रूप में चर्चित रहे हैं। भारत में क्रांतिकारी रचनाकारों को नेतृत्व देनेवाले एकल संगठन विरसम के संस्थापक सदस्य कवि वरवर राव की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन सभी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित है। वरवर राव की जेल डायरी Captive Imagination पेंगुइन इंडिया से प्रकाशित चर्चित पुस्तक है। जिसका हिंदी सहित कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। वरवर राव के  कविताओं की 10 पुस्तकें तेलुगु में प्रकाशित हैं। भविष्यत्तु चित्रपटम (भविष्य का पोट्रेट) वरवर राव का चर्चित कविता संग्रह है। वरवर राव की प्रतिनिधि कविताओं के  हिंदी संकलन साहस-गाथा को हिंदी पट्टी में खूब पढ़ा गया है। कसाई का बयान, समुद्रम, सूर्य बेताल शव इनकी चर्चित कविताएँ हैं। 1940 में वरंगल जिले में जन्में कवि वरवर राव ने तेलंगाना के सशस्त्र कम्युनिस्ट संघर्ष, नक्सलवादी संघर्ष से लेकर माओवादियों के सशस्त्र संघर्ष पर हमले और जनता पर  जुल्म को अपनी रचना का विषय बनाया है। वरवर राव मानते हैं कि कवि कभी राज्य सत्ता की भाषा में बात नहीं कर सकता है। कवि को राज्यसत्ता की भाषा में बात न करने पर परेशान किया जा सकता है पर कवि क्यों झूठ बोलेगा? सरकार अपनी जनता पर जुल्म ढा रही है और जनता प्रतिरोध करती है, इंकलाब करती है तो सरकारें  उसे आतंकवादी करार देती है। कवि अपनी चेतना से स्वतंत्र होता है। कवि जनता के हक में हो रहे सशस्त्र संघर्ष को हर हाल में आंदोलन कहेगा, इंकलाब का समर्थन करेगा। वरवर राव ने आंध्र प्रदेश से लेकर पूरे देश मे हो रहे क्रांतिकारी संघर्ष को आवाज़ देने के लिए सृजना पत्रिका का प्रकाशन व संपादन किया। विरसम और सृजना को आंध्र प्रदेश की सरकारों ने कई बार प्रतिबंधित किया। विरसम और सृजना की सांस्कृतिक-रचनात्मक भूमिका की वजह से वरवर राव को राष्ट्रद्रोह, टाडा और मीसा के मुकदमों का बार-बार सामना करना पड़ा। वरवर राव ने जीवन के लगभग 11 वर्ष जेल में बिताये। जेल में रहते हुए भी वरवर राव अपनी रचनात्मक भूमिका से राज्यसत्ता को मजबूत शिकस्त देते रहे। तब इंडियन एक्सप्रेस के चर्चित संपादक अरुण शौरी वरवर राव से मिलने दिल्ली से हैदराबाद की जेल में पहुँचे थे और वरवर राव की ‘जेल डायरी’ को इंडियन एक्सप्रेस ने मूल तेलुगु से अनुवाद कर अंग्रेज़ी में प्रकाशित किया था। वरवर राव प्रो.जी.एन.साईबाबा के मुकदमे के सिलसिले में 2016 के जनवरी माह  में  दिल्ली आये थे। दिल्ली में साक्षात्कार संभव न होने पर हम 2016 के मार्च माह में  हैदराबाद पहुँचे। हैदराबाद में साक्षात्कार का पूर्व निश्चित समय पुनः रद्द हो गया कि वरवर राव पुलिस इनकाउंटर में शहीद क्रांतिकारियों की अंत्येष्टि में वरंगल निकल गये। वरवर राव ने उन तमाम सवालों पर खुला संवाद किया है, जिसके बारे में बहुतेरे लोग बात नहीं करना चाहते हैं। वर्तमान में वरवर राव छह माह की जमानत पर मुंबई के एक अस्पताल में बीमारी के कारण भरती हैं। वरवर राव के साथ उनके परिवार वाले चाहते हैं कि जमानत अवधि बढ़ाई जाए एवं उन्हें अपने गृहनगर जाने की इजाजत दी जाए। 28 अगस्त 2018 को उनकी गिरफ़्तारी के बाद दुनिया भर के कवियों ने इसकी निंदा की और खुलकर विरोध किया। यायावर पत्रकार  पुष्पराज के साथ वरवर राव के हैदराबाद स्थित आवास पर हुई लंबी बातचीत को हम यथावत प्रकाशित कर रहे हैं। (यह साक्षात्कार पाखी पत्रिका के लिए ख़ास रूप से आयोजित  था पर पाखी के संपादक के असमय बीमार होने व दिवंगत होने की वजह से इसका प्रकाशन नहीं हो पाया था )

आपका जन्म गुलाम भारत में हुआ था। आपके सामने देश आज़ाद हुआ। आपने किस तरह की आज़ादी की कल्पना की थी? आपने किस तरह के भारत का स्वप्न देखा था?

मैं इस तरह नहीं कह सकता कि मेरा जन्म गुलाम भारत में हुआ था। मेरा जन्म गुलाम हैदराबाद रियासत में हुआ था। हैदराबाद रियासत देश की तमाम रियासतों में सबसे बड़ा रियासत था। यहाँ का राजा उस्मान अली खान काफी खतरनाक और क्रूर राजा था। मेरा जन्म द्वितीय विश्व युद्ध के समय हुआ था। हैदराबाद रियासत ने द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार की खूब मदद की थी। इधर आंध्र महासभा के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने यहाँ सामंतों और भूपतियों के विरुद्ध 1930 से ही आंदोलन शुरू कर दिया था। स्वामी रामानंद यहाँ राज्य कांग्रेस के नेता थे। स्वामी सहजानंद सरस्वती आंध्र में किसानों-मजदूरों के संघर्ष का समर्थन करने आये थे। कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जारी तेलंगाना के संघर्ष में 3 हजार गाँवों मे 3 लाख एकड़ जमीन पर भूमिहीनों ने कब्जा कर लिया था। 1948 के 13 से 17 सितंबर का काल आंध्र प्रदेश के लिए बहुत बुरा दिन था। भारत की सेना ने हैदराबाद रियासत पर आक्रमण कर दिया था। इस आक्रमण में रजाकार कहकर जहाँ 40 हजार निर्दोष मुसलमान मारे गये, वहीं तेलंगाना में संघर्षरत 4 हजार कम्युनिस्ट समर्थक भी मारे गये। तेलंगाना में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जो मुक्ति संघर्ष चल रहा था, उस संघर्ष पर नेहरू-पटेल की सेना ने हमला किया था। हम तो निजाम और सामंत दोनों से एक साथ लड़ रहे थे। निजाम को नेहरू-पटेल की सेना ने कब्जे में लिया लेकिन हम सबको जबरन अपने कब्जे में लिया। इस तरह आक्रमण कर हम कब्जे में कर लिये गये हों तो भारतीय आज़ादी हमारे लिए दुःस्वप्न से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

आंध्र महासभा एक तरह का संयुक्त मोर्चा था, जिसे कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व प्राप्त था। पहली बार भारत में Land to the tiller का नारा तेलंगाना संघर्ष के बाद आया है। 4 जुलाई, 1946 को तेलंगाना में मजदूरों के एक जुलूस पर जमींदारों ने गोली चलवायी, जिसमें डोड्डी कोमरय्या और मल्लय्या शहीद हुए। डोड्डी कोमरय्या की शहादत के बाद संकल्प लिया गया कि अब आत्म-सम्मान के लिए हथियार उठाना है। भारत में पहली बार कम्युनिस्टों के नेतृत्व में सशस्त्र संघर्ष 1948 से 1951 तक चला। इस संघर्ष में हैदराबाद के निजाम से लेकर दिल्ली की हुकूमत से टकराहट हुई। 1951 में नेहरू ने कहा कि हम भूमि सुधार करने जा रहे हैं तो हम Land to the tiller देंगे। नेहरू के वादे पर डांगे को भरोसा हो गया। 3 साल के सशस्त्र संघर्ष को कम्युनिस्ट पार्टी ने अचानक रोक दिया। हथियारबंद संघर्ष को withdraw किया तथा हथियार सरकार को वापस किया तो लोगों के कब्जे से जमीन भी जाने लगी। अब देखिए कि भारत में किसानों, मजदूरों के हक में पहला सशस्त्र संघर्ष करनेवाली, तेलंगाना में हजारों कम्युनिस्टों की शहादत देने वाली कम्युनिस्ट पार्टी को नेहरू पर जो भरोसा कायम हो गया कि नेहरू लैंड-रिफोर्म लायेगा, नेहरू ही समाजवाद भी लायेगा। नेहरू ने पंचवर्षीय योजनाओं से विकास का सपना दिखाया। कम्युनिस्ट पार्टी इंतजार कर रही थी कि इन्हीं पंचवर्षीय योजनाओं से समाजवाद आ रहा है। नेहरू की मौत 1964 में हुई तो हम समझते हैं कि नेहरू ही समाजवाद लायेगा, इस भरोसे पर टिकी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर समाजवाद के सपनों की छटपटाहट में नेहरूकी मौत के बाद 1967 में विखंडन शुरू हो गया। चीन का युद्ध एक बड़ी घटना है। यह एक गैर जरूरी युद्ध था पर इस युद्ध के मोर्चे पर भारतीय राज्यसत्ता और कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका जनता के सामने उजागर हो गयी। मैंने इस तरह के भारत का सपना तो नहीं देखा था। भगत सिंह ने इंकलाब की ताकत से किसान-मजदूरों के हक के जिस भारत का सपना देखा था, वही सपना मेरा सपना भी था पर यह सपना तो भगत सिंह के साथ ही रह गया। आज़ादी को हम ट्रांसफर ऑफ पावर (शक्ति का हस्तांतरण) मानते हैं।

[bs-quote quote=”पहली बार भारत में Land to the tiller का नारा तेलंगाना संघर्ष के बाद आया है। 4 जुलाई, 1946 को तेलंगाना में मजदूरों के एक जुलूस पर जमींदारों ने गोली चलवायी, जिसमें डोड्डी कोमरय्या और मल्लय्या शहीद हुए। डोड्डी कोमरय्या की शहादत के बाद संकल्प लिया गया कि अब आत्म-सम्मान के लिए हथियार उठाना है। भारत में पहली बार कम्युनिस्टों के नेतृत्व में सशस्त्र संघर्ष 1948 से 1951 तक चला। इस संघर्ष में हैदराबाद के निजाम से लेकर दिल्ली की हुकूमत से टकराहट हुई। 1951 में नेहरू ने कहा कि हम भूमि सुधार करने जा रहे हैं तो हम Land to the tiller देंगे। नेहरू के वादे पर डांगे को भरोसा हो गया। 3 साल के सशस्त्र संघर्ष को कम्युनिस्ट पार्टी ने अचानक रोक दिया” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 तेलंगाना का सशस्त्र संघर्ष कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में शुरू हुआ था। कालांतर में तेलंगाना के प्रभाव से नक्सलवादी का सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ। कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस संघर्ष को कम्युनिस्ट मानने से इंकार कर दिया। क्या सशस्त्र संघर्ष सैद्धांतिक तौर पर भटकाव है? कौन तय करेगा कि असली कम्युनिस्ट कौन हैं?

1967 में देश भर में संसदीय राजनीति में नेहरू परिवार के एकाधिपत्य के खिलाफ कांग्रेस विरोधी राजनीति शुरू हुई। लोहिया, कृपलानी, जे.पी.कांग्रेस विरोधी राजनीति के अगुवा थे। 9 राज्यों में कांग्रेस विरोधी सरकारें आयी। अजय मुखर्जी ने प.बंगाल में बंगाल कांग्रेस बनाया था। वाम मोर्चा ने अजय मुखर्जी के साथ चुनावी समझौता किया और अजय मुखर्जी के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ा। अजय मुखर्जी के बंगाल कांग्रेस को मात्र 5 सीटें मिली, जबकि वाममोर्चा को 80 सीटें प्राप्त हुई। चुनावी समझौते की शर्तों के आधार पर अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री हुए तो ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री-सह-गृहमंत्री हुए। उस समय चारू मजुमदार सिल्लीगुड़ी डिवीजन के सी.पी.एम. सचिव थे। लेनिन ने जैसे प्रथम विश्व युद्ध को जनयुद्ध में बदलने की अपील की थी तो उसी तरह चारू मजुमदार सोचते थे कि चीन-भारत युद्ध को भारत के अंदर जनयुद्ध में बदला जाये। चारू ने क्रांति का 8 दस्तावेज लिखा, जिसे तेराई दस्तावेज कहा जाता है। वाम मोर्चा ने चुनाव में वादा किया था कि 6 लाख हेक्टेयर जमीन जो जोतदार के हाथ में है, वाममोर्चा सत्ता में आये तो भूमिहीनों में बांट देगी । चारू मजुमदार ने वाम मोर्चा के सत्ता में आने पर पहले संगठन को वादे का याद दिलाया फिर वादे को पूरा करने के  लिए आंदोलन शुरू किया। 1967 के 23 मई से 25 मई तक नक्सलबाड़ी-खेरीबारी गांव में हजारों संथाल आदिवासी परंपरागत हथियारों के साथ जमीन पर बैठ गए और घोषणा कर दिया कि यह जमीन हमारी  है। गृहमंत्री ज्योतिबसु ने सी.आर.पी.एफ. को गोली चलाने का आदेश दिया। 4 महिलाएं और 3 बच्चे मारे गये। कम्युनिस्ट पार्टी के द्वारा शुरू किया तेलंगाना का सशस्त्र संघर्ष नक्सलबाड़ी से होता हुआ, पूरे देश के आदिवासी गाँवों में फैल गया। अब चूंकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ संसदीय राजनीति में शमिल होकर सत्ता की भूख में संघर्ष से अलग हो गयी हैं  तो इन्हें अपने हकों के लिए सशस्त्र संघर्श करने वाले शत्रु प्रतीत होते हैं। संघर्ष और शहादत की हिम्मत उनके वश की बात नहीं तो संघर्ष और शहादत की क्रांतिकारी परंपरा को वे भटकाव कह रहे हैं। नक्सलियों को तो इन्हीं कम्युनिस्ट पार्टियों ने कभी सी.आई.ए. का एजेंट भी कहा था। कम्युनिस्ट घोषणा पत्र के अनुसार जो वर्ग संघर्ष करता है, वही कम्युनिस्ट है। जो किसान, मजदूर, सर्वहारा के लिए संघर्षरत है, वही कम्युनिस्ट है।

कवि वरवर राव अपने परिवार के साथ

 तेलंगाना का संघर्ष जिन मुद्दों पर शुरू हुआ था, उनमें क्या सफलता हासिल हुई? तेलंगाना राज्य की मांग क्या तेलंगाना के भूसंघर्ष आंदोलन का अगला चरण है?

तेलंगाना में कम्युनिस्ट सशस्त्र संघर्ष से जो जमीन भूमिहीनों के हिस्से आयी थी, वह सशस्त्र आंदोलन छोड़ने से हाथ से चली गयी। 1970 के बाद नक्सल के प्रभाव से श्रीकाकुलम में जो नक्सलबाड़ी संघर्ष शुरू हुआ तो इस नक्सलबाड़ी की आग से तेलंगाना का संघर्ष फिर ताकतवर हुआ। इस क्रांतिकारी सशस्त्र-संघर्ष में मैदानी इलाकों में 2 लाख एकड़ और जंगली क्षेत्र में 3 लाख एकड़ जमीन पर भूमिहीनों का कब्जा हुआ। भूसंघर्ष के मुद्दे पर सफलता के साथ तेलंगाना राज्य का मुद्दा क्रांतिकारी संघर्ष से थोड़ा भिन्न होते हुए भी तेलंगाना आंदोलन का दूसरा चरण है। जल, जंगल, जमीन, भाषा-संस्कृति पर स्थानीय कब्जादारी, वैश्वीकरण के विरुद्ध स्वावलंबन सहित स्थानीय स्मिता की मांग। यह क्रांतिकारी या समाजवादी तेलंगाना नहीं, लोकतांत्रिक तेलंगाना है। गांधीवादी सर्वोदयी, लोकतांत्रिक विचारधाराओं के लोग अलग तेलंगाना की मांग में एकजुट हुए इसलिए इसे हम स्मिता के साथ स्वावलंबन का संघर्ष मानते हैं। तेलंगाना के संघर्ष की बुनियाद में नक्सलवाड़ी और माओवादियों का संघर्ष है इसलिए अलग राज्य की स्थापना के बाद तेलंगाना की सरकार बार-बार घोषणा करती है कि हम माओवादियों के एजेंडे को लागू करेंगे। हम भूसुधार करेंगे, गरीबी खत्म करेंगे। लेकिन हम अच्छी तरह जानते हैं कि सुधारवादी –पूंजीवादी  लोकतंत्र में कोई सरकार माओवादियों के एजेंडे को किस तरह लागू करेगी।

आज भारत के अलग-अलग हिस्सों में बिखरे जनांदोलनों को आप  किस तरह देखते हैं?

हम अलग-अलग हिस्सों में बिखरे आंदोलनों को तीन श्रेणी में बांटकर देखते हैं। पहला है-क्रांतिकारी आंदोलन-जो जंगल महाल, झारखंड के सारंडा, दंडकारण्य, उड़ीसा के आंध्र बोर्डर, आंध्र-तेलंगाना के इलाके में सशस्त्र संघर्ष चल रहा है। दूसरी श्रेणी है-राष्ट्रीयता के आधार पर जो आंदोलन चल रहे हैं। कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों में बिखरा आंदोलन। तीसरा है-नर्मदा जैसे बड़े बांधों के खिलाफ जारी आंदोलन, विकास परियोजनाओं से हो रहे विस्थापन के विरुद्ध विस्थापितों का आंदोलन पोस्को, नियमागिरी से लेकर महानगरों में झुग्गियों के हकों का आंदोलन जो निःशस्त्र है लेकिन इसमें जनता शामिल है।

[bs-quote quote=”आदिवासियों को उजाड़ना राज्यसत्ता के लिए जरूरी हो गया। आदिवासी किसी कीमत पर जंगल और अपने वनग्राम छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं। उन्हें पैसों की ताकत पर बहलाया नहीं जा सकता है तो लगातार आदिवासियों से राज्यसत्ता की टकराहट होती रही। उजड़ने के बाद विस्थापित सस्ते श्रमिक के रूप में आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। प्राकृतिक संसाधन और मानव श्रमशक्ति मुफ्त  में उपलब्ध हो जाये तो आदिवासियों के इलाके विकास परियोजनाओं के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त मान लिये गए ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

नर्मदा बचाओ आंदोलन ने बांधों के बारे में लोगों की आंखें खोल दी। भाखरा नांगल, हीराकुंड जैसे बांध बने थे तो हम लोग सोचते भी नहीं थे कि ये बांध इतने खतरनाक होंगे कि नेहरू ने बड़े बांधों को विकास का आधुनिक देवालय जो कह दिया था। पोलावरम को हम पैकेज डील मानते हैं। इधर तेलंगाना है तो उधर पोलावरम बांध परियोजना है। पोलवरम बांध परियोजना में 3 लाख आदिवासियों का जीवन समाप्त हो जायेगा। शेबरी नदी भी इस बांध से खत्म हो जायेगी।

भारत की तमाम विकास परियोजनाओं में अब तक सबसे ज्यादा आदिवासियों को विस्थापन का शिकार होना पड़ा है। क्या आदिवासियों को समूल नष्ट करने की योजना है? अभी-अभी छत्तीसगढ के जंगलों में  आदिवासियों के वनग्राम के अधिकार समाप्त कर दिये गये हैं।

 आदिवासियों का उजाड़ सबसे ज्यादा इसलिए हो रहा है कि आदिवासी इलाके में ही तमाम संसाधन हैं। आदिवासी इलाकों में धरती के नीचे और ऊपर दोनों तरफ संसाधन हैं। पांव के नीचे लोहा, कोयला से लेकर तमाम तरह के खनिजों के खान हैं तो ऊपर जंगल, जल, जमीन की प्राकृतिक संपदा मौजूद है। धरती के नीचे खान-खदान पर कब्जा करना या जंगल के पेड़ों की कटाई करनी हो तो पहली टकराहट तो आदिवासियों से होगी। इस तरह 1947 के बाद जो पूंजीवादी विकास का चक्र चला तो आदिवासियों को उजाड़ना राज्यसत्ता के लिए जरूरी हो गया। आदिवासी किसी कीमत पर जंगल और अपने वनग्राम छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं। उन्हें पैसों की ताकत पर बहलाया नहीं जा सकता है तो लगातार आदिवासियों से राज्यसत्ता की टकराहट होती रही। उजड़ने के बाद विस्थापित सस्ते श्रमिक के रूप में आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। प्राकृतिक संसाधन और मानव श्रमशक्ति मुफ्त  में उपलब्ध हो जाये तो आदिवासियों के इलाके विकास परियोजनाओं के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त मान लिये गए। छतीसगढ़ के आदिवासियों के साथ क्रांतिकारियों का समर्थन है इसलिए इन्हें समूल नष्ट करना संभव नहीं है। भूरिया कमिटी की अनुशंसा, पेसा कानून के होते हुए आदिवासियों का उजाड़ जारी है, जो खतरनाक है। आदिवासियों के हक में जितने कानून हैं, उनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। अगर उन कानून को लागू किया जायेगा तो राजनेताओं और पूंजीपतियों का सांठगांठ टूट जायेगा। डॉ. बी. डी. शर्मा ने  तो खुद पेसा कानून बनाया और खुद पेसा कानून को लागू करवाने के लिए आदिवासियों के साथ आंदोलन कर रहे थे। बी. डी. शर्मा ने ग्रीन हंट को ट्राइबल हंट कहा था। उन्होंने वनग्रामों को संवैधानिक दर्जा दिलाया था। आज पूंजीवादियों के हित में वनग्राम के हक खत्म किये जा रहे हैं, यह आदिवासियों के लिए खतरनाक है। बी. डी. शर्मा कहते थे-आदिवासियों को Territorial right है तो अपने क्षेत्र में गैर आदिवासी को घुसने ही क्यों देंगे? बाहरी क्यों आयेगा?

क्रमशः

पुष्पराज जाने-माने स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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