75 साल की दहलीज पर हमारा संविधान चर्चा का विषय बना हुआ है। संसदीय बहसों में, चुनावों में एक मुद्दे के रूप में और विभिन्न दलों के राजनीतिक नेताओं के भाषणों में, यह बहस का केंद्रीय बिंदु है। यह संविधान का मसौदा तैयार करने वाले संस्थापक सदस्यों के लिए एक श्रद्धांजलि है कि हमारा संविधान न केवल समय की कसौटी पर खरा उतरा है, बल्कि इसके आधारभूत मूल्यों की रक्षा करना एक आवश्यक देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य बन गया है।
इसका मतलब यह नहीं है कि भारत के सभी लोगों को संविधान से समान रूप से लाभ मिला है। इसमें निहित अधिकारों का क्रियान्वयन त्रुटिपूर्ण और असमान रहा है। इसका कारण यह है कि इन अधिकारों को आंशिक रूप से संविधान के न्यायसंगत और गैर-न्यायसंगत खंडों में तर्कहीन और मनमाने ढंग से विभाजित कर दिया गया है, जिसमें सामाजिक और आर्थिक न्याय से संबंधित प्रमुख खंडों को नीति-निर्देशक सिद्धांतों में, गैर-न्यायसंगत खंडों में स्थानांतरित कर दिया गया है। इस प्रकार, सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों की गारंटी के लिए एक आदर्श माने जाने वाले संविधान के बावजूद, अभी भी संवैधानिक ढांचे के भीतर, भारत सबसे असमान समाजों में से एक बन गया है। संविधान सभा के कई सदस्यों की आशंकाएँ, स्वघोषित समाजवादी के टी शाह के शब्दों में, थीं कि ऐसा विभाजन ‘संबंधित बैंक द्वारा अपनी सुविधानुसार भुगतान किए जाने वाले चेक’ जैसा होगा, सच साबित हुई हैं। संविधान की रक्षा लड़ाई में आर्थिक समानता और न्याय से संबंधित नीति-निर्देशक सिद्धांतों की भावना के क्रियान्वयन की मांग शामिल होनी चाहिए।
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जब 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने प्रस्ताव रखा कि ‘संविधान सभा द्वारा अनुमोदित संविधान को पारित किया जाए’, तो उस दिन के अभिलेखों में यह दर्ज है कि जब इसे सर्वसम्मति से स्वीकृत गया, तो ‘लंबे समय तक जयकारे लगे।’ संविधान सभा के बाहर यह आरएसएस ही था, जिसने इस आधार पर इस संविधान का विरोध किया था कि यह संविधान मनुस्मृति जैसे धार्मिक ग्रंथों पर आधारित ‘भारतीय’ परंपराओं के अनुरूप नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि राष्ट्रीयता और नागरिकता के अधिकार उन बहुसंख्यकों की धार्मिक पहचान से जुड़े हैं, जो हिंदू मान्यताओं को मानते हैं और जब तक ‘अन्य’ खुद को इन बहुसंख्यकों के अधीन नहीं करते, उन्हें समान नागरिक के रूप में व्यवहार प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है। भारत ने इस संविधान को अपनाकर इन विभाजनकारी सिद्धांतों को खारिज कर दिया था। लेकिन यह पाकिस्तान था, जो धर्म-आधारित राष्ट्रीयता के आरएसएस के सिद्धांत से सहमत था और इसके अनुसार, उसने अपने संविधान और शासन के स्वरूप को आकार दिया।
समस्या यह है कि 75 साल बाद भी आरएसएस उन मान्यताओं पर कायम है और हिंदू राष्ट्र की स्थापना के अपने एजेंडे पर चल रही है। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि भारत पर शासन करने वाले लोग आज चुनाव जीतने के लिए भी आरएसएस के संगठनात्मक नेटवर्क पर अधिक से अधिक निर्भर होते जा रहे हैं। आरएसएस से अलग पहचान बनाए रखने का दिखावा इतिहास बन चुका है। भाजपा सरकार के पिछले 10 साल आरएसएस के एजेंडे के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं। यह अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों और इस्लाम से डर (इस्लामोफोबिया) के आधार पर कानूनों के निर्माण में; विपक्ष पर और किसी भी असहमति के खिलाफ क्रूर हमलों में; राज्यों के संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ सरकार के अत्यधिक केंद्रीकृत रूपों को आगे बढ़ाने में; इतिहास और संस्कृतियों के विकृत दृष्टिकोण को लागू करने में, मनुवादी हिंदुत्व को बढ़ावा देने और जाति व्यवस्था को नजरअंदाज करने में; वैचारिक निष्ठा के आधार पर नियुक्तियों के माध्यम से ज्यादातर स्वायत्त संस्थानों की स्वतंत्रता को नष्ट करने आदि में देखा जा सकता है। भारत एक अभूतपूर्व स्थिति का सामना कर रहा है, जहां संविधान के नाम पर सत्ता में चुने गए और पद ग्रहण करने वाले लोग ऐसी नीतियों का पालन कर रहे हैं, जिससे धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और संघवाद के स्तंभों पर टिका संविधान का बुनियादी ढांचा धीरे-धीरे कमजोर हो रहा है।
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इसे किसी खास नेता के व्यक्तित्व में अहंकार के परिणाम के रूप में देखना पूरी तरह से गलत होगा। एक व्यक्ति संविधान विरोधी राजनीति का सबसे प्रभावी प्रतिनिधि हो सकता है, लेकिन यह एक ऐसी राजनीति है, जो व्यक्ति से परे जाती है और सामाजिक और वर्गीय अभिजात वर्ग में अपनी गहरी जड़ें जमाती है।
यहां आपातकाल के रूप में संविधान पर पहले किए गए हमले का अनुभव उपयोगी है। उस समय, नागरिक स्वतंत्रता और बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकारों के खात्मे को शक्तिशाली पूंजीवादी लॉबी का समर्थन प्राप्त था, जो मानते थे कि ऐतिहासिक रेलवे हड़ताल के बाद देश भर में अपनी मांगों के लिए लामबंद हो रहे मजदूर वर्ग को नियंत्रित करना जरूरी है। उद्योगपति जे आर डी टाटा ने ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को दिए एक साक्षात्कार में इसे स्पष्ट रूप से कहा था : ‘चीजें बहुत आगे बढ़ चुकी हैं… आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि हम यहां क्या-क्या झेल चुके हैं ..हड़तालें, बहिष्कार, प्रदर्शन… संसदीय प्रणाली हमारी जरूरतों के अनुकूल नहीं है..।’ इंदिरा गांधी का संविधान पर हमला सिर्फ अपने या अपनी पार्टी के हितों की पूर्ति के लिए नहीं था, बल्कि इसका व्यापक उद्देश्य भारत के पूंजीपति वर्ग की मांगों को पूरा करना था।
वर्तमान समय में, जो बात सबसे ज्यादा चौंकाने वाली है, वह है वर्तमान शासन के प्रति शासक वर्ग की घोषित वफादारी। सरकारों के आने-जाने के साथ-साथ धनी और शक्तिशाली लोगों द्वारा लेन-देन की व्यवस्था में अपनी वफादारी बदलना कोई असामान्य बात नहीं है। लेकिन प्रमुख उद्योगपतियों द्वारा नागपुर मुख्यालय में जाकर मत्था टेकना एक नई विशेषता है, जो नाजी शासन के सामने झुकने वाले बड़े व्यापारिक घरानों की याद दिलाती है।
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कॉरपोरेट इंडिया और वर्तमान शासन एक दूसरे के पूरक हैं। बेशक, कुछ लोग शासन के सबसे पसंदीदा व्यक्ति हैं, लेकिन यह कॉरपोरेटों का वर्गीय हित है, जिसे पूरा करने और बचाने में मोदी सरकार लगी हुई है। चार श्रम संहिताओं के अधिनियमन के माध्यम से मजदूरों के अधिकारों पर हमला, किसानों का दमन और बड़ी खनन कंपनियों या अन्य निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के हितों को पूरा करने के लिए आदिवासियों की जमीन पर जबरन कब्जा करके उनके खिलाफ अघोषित युद्ध छेड़ना इसी का परिणाम है।
संविधान को निशाना बनाने वाली भाजपा सरकार की दो प्रमुख खूबियाँ हैं..बहुसंख्यकवाद और कॉर्पोरेट हित और ये दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसे ध्यान में रखते हुए, संविधान को अपनाने की 75वीं वर्षगांठ पर, संविधान को बचाने और इन दोनों कारकों के खिलाफ संघर्ष तेज करना होगा। (इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार।)
(अनुवादक संजय पराते अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान संभा के उपाध्यक्ष हैं।)