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नफ़रत की सियासत और विमर्श की चुनौतियाँ

हम सभी के पास कुछ धारणाएं हैं जिन्हें हमने मीडिया के सहयोग से विकसित किया है, इस लेख में ऐसे ही कुछ धारणाओं को आधार बनाकर हम राजनीतिक विमर्श की चुनौतियों को समझने का प्रयास करेंगे। जैसे ब्राह्मण वर्ग में न्याय भावना नहीं होती। सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सारे आतंकवादी मुसलमान जरूर होते […]

हम सभी के पास कुछ धारणाएं हैं जिन्हें हमने मीडिया के सहयोग से विकसित किया है, इस लेख में ऐसे ही कुछ धारणाओं को आधार बनाकर हम राजनीतिक विमर्श की चुनौतियों को समझने का प्रयास करेंगे। जैसे ब्राह्मण वर्ग में न्याय भावना नहीं होती। सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सारे आतंकवादी मुसलमान जरूर होते हैं। मुसलमान देश के मुक़ाबले अपने धर्म से प्रेम करते हैं। दलित विश्वास के काबिल नहीं होते, इन्हें सम्मान देना इनका मन बढ़ाना है, ये अच्छे मित्र भी नहीं होते। महिलाएं स्वतंत्र नहीं छोड़ी जा सकतीं, ऐसा होने पर ये चरित्रहीन हो जाती हैं।

जीवन से जुड़े मुद्दों से काट देने की ये सियासी चालें हैं. ऐसी और भी धारणाएं हैं जिन पर बात की जा सकती है लेकिन इन पर भी बात करते हुए हम उन चुनौतियों को समझ पाएंगे जो राजनीतिक विमर्शकारों को पेश आती हैं।

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ब्राह्मणों के चरित्र में न्याय भावना नहीं होती। सबसे पहले इस पर ही बात करते हैं। आपके साथ शासन, प्रशासन या न्यायलय के ज़रिये आपके हिसाब से अन्याय हुआ, इस अन्याय को जिस व्यक्ति ने किया वो सवर्ण हिन्दू या ब्राह्मण था। आपके इलाके के राजनेता ने आपके साथ अच्छा नहीं किया, ये भी सवर्ण हिन्दू या ब्राह्मण था, अब आपने मान लिया कि ब्राह्मण के चरित्र में न्याय भावना का अभाव होता है। अब एक दूसरे पहलु पर गौर कीजिये। उन सभी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को याद कीजिये जिनके कामों को आप जानते हैं, उन्हें याद कीजिये जिन्होंने नागरिकता कानून के विरोध में हुए आन्दोलन में मुसलमानों का समर्थन किया, उन्हें याद कीजिये जिन्होंने किसान आन्दोलन में आगे बढ़ कर काम किया और उन्हें भी याद कीजिये जिन्होंने बैंक, रेल और दूसरे विभागों के मज़दूर आन्दोलनों को नेतृत्व दिया और इन आन्दोलनों में कुर्बानियां दीं। लगे हाथ उन्हें भी याद कर लीजिये जो जनता का पक्ष चुनने के कारण सत्ता के निशाने पर हैं और इनमें से कुछ जेलों में हैं। आप पाएंगे कि इनमें सबसे बड़ी संख्या हिन्दू सवर्णों, उनमें भी ब्राह्मणों की है या मुस्लिम अशराफ़ की है। अब आपको तय करना है कि आपके जीवन में आये चार बुरे सवर्णों के आधार पर सवर्ण और अशराफ़ को आप बुरा मान लें या समाज की बहेतरी के लिए लड़ने वाले चार सवर्णों को मापदंड बनाकर सवर्ण और अशराफ़ को सबका मसीहा घोषित कर दें। मेरे विचार से दोनों ही अतियां हैं, सच दोनों के कहीं बीच में है और इसी सच को आपको पहचानना है। लेकिन ये सवाल जरूर महत्वपूर्ण है कि ऐसा कैसे हो गया कि सवर्ण और अशराफ़ समाज के अगुवा हो गये जबकि कुल जनसंख्या में ये अल्पसंख्यक हैं। इसे समझने की कोशिश करते हैं।

देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि आज़ाद भारत में सवर्ण हिन्दू व मुस्लिम अशराफ़ ही शिक्षा के क्षेत्र में दूसरे समुदायों से आगे थे। ऐसे में राजनीति, शासन-प्रशासन, न्यायालय और व्यवसाय में इन्हीं का बोलबाला हुआ। देश ने जिस राजनीतिक और आर्थिक मॉडल को चुना था और दुनिया की अर्थव्यवस्था जिस रास्ते पर चल रही थी, उसमें देश की आम जनता के विकास का लक्ष्य सत्तावर्ग का उद्देश्य नहीं बन सका। ऐसे में आज़ाद भारत में सम्पदा का अमीरों के हित में केन्द्रीकरण होना ही था, सो हुआ। शुरू के दिनों में ज़रूर जनता के एक बड़े हिस्से को सरकारी नोकरी मिली लेकिन पिछली सदी के सातवें दशक तक आते आते ये बात बिलकुल स्पष्ट हो गयी थी कि इस राजनीतिक एवं आर्थिक विकास में सबका हितसाधन संभव नहीं है। ऐसे में एक तो जो लोग सत्ता में महत्वपूर्ण दख़ल रखते थे उन्होंने अपने हितों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया। संयोग से ये सवर्ण समुदाय था, अगर इनकी जगह कोई और समूह होता तो वो भी वही करता जो इन्होंने किया। दूसरा, ये हुआ कि सत्ता की नाकामी को छुपाने के लिए जनता को जाति और धर्म के नाम पर लड़ाया गया जो आज तक जारी है। इसलिए जिसे हम ब्राह्मणों और अशराफों का चरित्र कहते हैं वो दरअसल परिस्थितिजन्य है, अगर हम सब मिलकर राजसत्ता का स्वरुप बदल दें तो ये पढ़ा-लिखा तबका जो आज अन्याय का प्रतीक लग रहा है, यही समाज में हर तरह के सृजन का भी अगुआ बन जायेगा। इसलिए ये हमें देखना होगा कि हम किससे और किस बुनियाद पर लड़ रहे हैं और हमारी लड़ाई से हासिल क्या होने वाला है।

[bs-quote quote=”पिछले साल जब डीआईजी द्वेन्द्र सिंह एक संदिग्ध आतंकवादी के साथ पकड़े गये तो सरकार ने उनके साथ जिस तरह की कार्यवाही की और जिस तरह अफज़ल गुरु के मामले में उनकी संलिप्तता को इग्नोर किया गया, इससे देश के सजग नागरिकों ने जो सन्देश ग्रहण किया उस पर यहाँ कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। इसी तरह पुलवामा हमले को लेकर बहुत से सवाल नागरिक समाज की ओर से किये गये जिनका उत्तर अभी तक नहीं मिला है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

भारत में अगर किसी धार्मिक समूह पर सियासत ने सबसे ज़्यादा हमले किये तो वो मुसलमान हैं। इस हमले के पीछे देश और देश के बाहर अलग अलग कारण हैं। देश के बाहर अरब देशों के सुल्तानों की असुरक्षा, तेल के स्रोतों पर कब्ज़ा करने की यूरोप और अमेरिकी कंपनियों की कोशिश और इसी उद्देश्य से अरब और इजराइल के बीच के सियासी हालात हैं। यहाँ ये भी ध्यान रखना पड़ेगा कि दूसरे आलमी जंग के बाद आतंकवाद के जो तमाम मोर्चे खड़े किये गये उनके भी दो मकसद दिखाई देते हैं, इसके ज़रिये हथियार उद्योग ने खूब दौलत कमाई तो कई देशों की सियासत को यूरोप और अमेरिका ने इसी सियासी टूल के ज़रिये अपने नियंत्रण में रखा।

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ऐसा लगता है कि भारत के भीतर भी अन्तराष्ट्रीय सियासत के समर्थन में आतंकवाद के प्रोजेक्ट को अपनाया गया वहीं सत्तावर्ग के जनाक्षाओं को पूरा करने में नाकामी की सूरत में भी इसे हवा दी गयी। पंजाब का खालिस्तान आन्दोलन हो, पूर्वात्तर का इसी तरह के अलगाववादी आन्दोलन हों, कश्मीर का मामला हो या देश भर में आतंकवादी हमले और उसके बाद मुसलमान नौजवानों को पकड़कर उन पर मुकदमे चलाना, इन सभी मामलों की सियासी पड़ताल हमें बताती है कि इनमें से कोई भी मामला कम से कम उस तरह का अपराध नहीं था जैसा हमें मीडिया के ज़रिये बताया गया। एक पत्रकार अजीत साही ने सिमी के बहाने मुसलमानों पर आतंकवाद का लेवल लगाने के षडयंत्र का पर्दाफाश किया था, तब वो तहलका पत्रिका के लिए काम करते थे (उनकी रिपोर्ट आज भी ऑनलाइन मिल जाएगी, जिज्ञासु पाठकों को उन्हें पढ़ना चाहिए) और कुछ साल पहले मुशरिफ साहब ने करकरे को किसने मारा नामक किताब लिखकर उस साजिश का पर्दाफाश किया, जो कहती है कि मुसलमान आतंकवादी होता है। (ये किताब भी ऑनलाइन उपलब्ध है) पिछले साल जब डीआईजी द्वेन्द्र सिंह एक संदिग्ध आतंकवादी के साथ पकड़े गये तो सरकार ने उनके साथ जिस तरह की कार्यवाही की और जिस तरह अफज़ल गुरु के मामले में उनकी संलिप्तता को इग्नोर किया गया, इससे देश के सजग नागरिकों ने जो सन्देश ग्रहण किया उस पर यहाँ कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। इसी तरह पुलवामा हमले को लेकर बहुत से सवाल नागरिक समाज की ओर से किये गये जिनका उत्तर अभी तक नहीं मिला है। सारांश ये है कि आपको तय करना पड़ेगा कि मीडिया जो कह रही है उसे जस का तस मान लेना है या सूचनाओं के भीतर से सच और झूठ पकड़ने की कोशिश करनी है।

इसी तरह देशप्रेम और देश से प्रेम न करने का मामला है। एक तो ये अवधारणा ही बहुत दिक्क़ततलब है, जब आप कहते हैं कि आप देश से प्रेम करते हैं तब क्या आपको सच में पता होता है कि आप किससे प्रेम करते हैं? सच तो ये है कि हम और आप जाति और धर्म के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर, भाषा के नाम पर और छोटे-छोटे स्वार्थ के आधार पर अपने देशवासियों से लड़ते रहते हैं। हम जंगल बर्बाद करते हैं, प्रदूषण फैलाते हैं, दंगे-फसाद करके देश को बदनाम करते हैं, क्या ये सब प्रेम के लक्षण हैं? फिर देश कि अवधारणा आपको क्या सूचित करती है? देश की सीमाएं, देश के लोग, देश के जल, जंगल और ज़मीन या देश के पहाड़? और देश के नाम पर जो कुछ भी आपके अनुभव में उतरता है क्या उससे आप सच में प्रेम करते हैं? इन सवालों पर सोचिये और खुद से पूछिए कि देशप्रेम के नाम पर अगर सच में आप प्रेम जैसा कुछ करते हैं तो किससे करते हैं? दरअसल, मीडिया हमें सत्तावर्ग के हितों के अनुरूप कोई मुद्दा पकड़ा देती और हम बिना किसी जाँच-पड़ताल के उसे अपना लेते हैं। महज़ इस एक आदत के प्रति हमारी सावधानी देश और समाज के बहुत काम आ सकती है।

[bs-quote quote=”लम्बे दमन के बाद अगर कोई समुदाय राजनीतिक रूप से सजग हुआ है तो बहुत मुमकिन है कि उसकी ये सजगता हिंसात्मक आन्दोलन में बदल जाये, यहाँ ज़रूरी है कि उनके बीच राजनीतिक नेतृत्व ऐसा हो जो उन्हें सकारात्मक सियासत के लिए लगातार प्रेरित करे, ऐसा न होने पर आन्दोलन में बिखराव तो आयेगा ही साथ ही इस सजगता के ही कारण दलितों का दमन भी होगा, यही देश के कई इलाकों में हुआ भी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दलित समुदाय का मेरा एक मित्र जो स्कूल के समय से मुझसे जुड़ा हुआ है, उम्र में मुझसे छोटा है और पढ़ाई में भी मुझसे जूनियर है, उसकी मैंने कई मौकों पर मदद की है लेकिन जब उसे एक समय मेरे पक्ष में और वो भी सच के पक्ष में खड़े होने की बारी थी, तब उसने अपने लाभ को ध्यान में रखा और मेरा विरोध किया। यही नहीं वो इस बात से भी नाराज़ हुआ कि मैं उसे “आप” कह कर संबोधित क्यों नहीं करता। इसी तरह का एक और मित्र जो मुझसे काफ़ी जूनियर है, उसके पढ़ने-लिखने में मैं कई सालों तक मददगार रहा हूँ लेकिन वो पीठ पीछे मुझे गालियाँ देता रहा और जब भी मौका आया कि वो मेरे साथ खड़ा हो, उसने मेरे विरोध में रहना चुना। इसी तरह जब मायावतीजी मुख्यमंत्री बनीं तो दलित समाज के कई लोगों ने आगे बढ़ कर ऊँची कही जाने वाली जातियों से झगड़ा किया। मेरे निजी मित्रों में कोई भी दलित समुदाय का नहीं है, यहाँ तक कि पिछड़े समुदायों के लोग भी करीबी दोस्त कम ही बने।

अब इसकी पड़ताल कीजिये। दलित समुदाय सदियों से दबाया गया है, इन्हें अपने जीवन में पल पल जाति के आधार पर अपमान झेलना पड़ता है। जब ये स्कूल जाते हैं तो शिक्षक और छात्र दोनों ही इनका अपमान करते हैं। समाज में ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ दलित समुदाय का कोई इन्सान पूरे सम्मान के साथ कुछ समय गुज़ार ले। ऐसे में जब दलित समुदाय के कुछ लोग पढ़ लिखकर नौकरी करने लगे या विश्वविद्यालयों के छात्र हुए तो उन्होंने उन्हें भी शंका की ही निगाह से देखा जिन्होंने उनकी मदद की थी। मैंने अपने जो अनुभव यहाँ शेयर किये हैं, वो इसी तरह के हैं। दलित समुदाय “अपने और उनके” की बाइनरी में देख रहा है, ऐसे में मेरे जैसे हमदर्द भी “उनके” वाले खेमे में रख दिए गये।

अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी…

मायावती के शासन के दौरान कई जगह दलितों को सवर्ण जातियों ने बुरी तरह मारा, ऐसा करते हुए उनका कहना था कि एक थप्पड़ मारें या सौ जूते, कानून तो उनके साथ एक जैसा ही व्यवहार करेगा। इस कथन की थोड़ी समीक्षा कीजिये, सदियों के दमन के बाद दलित सजग हुआ है, अपनी पहचान को लेकर खड़ा हुआ है और सम्मान के अधिकार की मांग उठाई है। लम्बे दमन के बाद अगर कोई समुदाय राजनीतिक रूप से सजग हुआ है तो बहुत मुमकिन है कि उसकी ये सजगता हिंसात्मक आन्दोलन में बदल जाये, यहाँ ज़रूरी है कि उनके बीच राजनीतिक नेतृत्व ऐसा हो जो उन्हें सकारात्मक सियासत के लिए लगातार प्रेरित करे, ऐसा न होने पर आन्दोलन में बिखराव तो आयेगा ही साथ ही इस सजगता के ही कारण दलितों का दमन भी होगा, यही देश के कई इलाकों में हुआ भी।

यहाँ एक और बात पर गौर करें, जिन्हें लगता है कि दलितों को तो रौंदकर ही रखना है या उन्हें पीटते रहना है, वो दरअसल दलित समुदाय को बाकि लोगों का दुश्मन बना रहे हैं। इसके विपरीत अगर दलित चेतना में आई इस जागृति को सियासी तौर पर मैनेज करने की कोशिश की जाये तो ये समुदाय जनसरोकार से जुड़कर व्यापक जनसमुदाय का हिस्सा बन सकता है। इसलिए दलित समुदाय के जिन मित्रों ने जाति के आधार पर मुझसे ग़लत व्यवहार किया, उनके प्रति मेरे मन कोई दुर्भावना नहीं है। आज दलितों के दमन की नहीं उनके साथ खड़े होने और उनका दिल जीतने की ज़रूरत है। फ़िलहाल इसकी कोशिश होती नज़र नहीं आती।

महिलाओं को लेकर भी भारतीय पुरुष बहुत शंकालु हैं, यही नहीं महिलाओं पर पाबन्दी लगाने की कोशिशों में सभी जातियों और धर्मों के लोग शामिल हैं। यहाँ दो पहलू पर गौर करने की ज़रूरत है। एक तो प्रजनन को छोड़कर एक स्त्री और पुरुष में और कोई अंतर नहीं है दूसरे चरित्र का पूरा विमर्श अन्यायपूर्ण है। महिला और पुरुष दोनों प्रकृति की विशेष जरूरत पूरी करते हैं और इस दृष्टिकोण से दोनों का महत्व समान है। यही नहीं दोनों एक दूसरे के बिना प्रजनन की ज़रूरत को पूरा नहीं कर सकते। हाँ, प्रजनन के सन्दर्भ में एक महिला पुरुष की अपेक्षा लम्बी और कठिन भूमिका निभाती है इसलिए उसका सम्मान और सुरक्षा एक पुरुष और समाज के लिए बड़ी जिम्मेदारी है। चरित्र का पूरा विमर्श सेक्स सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमता है जबकि परस्पर सहयोग, प्रेम, ईमानदारी, सदाचार आदि को चरित्र के विमर्श का आधार होना चाहिए। बावजूद इसके अगर सेक्स सम्बन्धों को ही चरित्र का आधार बनाया जाये, तो एक महिला अगर किसी ऐसे पुरुष से सेक्स करती है जो उसका प्रेमी या पति नहीं है तो इस कृत्य के आधार पर स्त्री और पुरुष दोनों का चरित्र ज़ेरे बहस होना चाहिए लेकिन यहाँ भी अकेले स्त्री को दोषी मान लिया जाता है, जैसे वेश्यालयों में जाने वाले पुरुष का चरित्र तो सुरक्षति रहता है लेकिन वहां सेवा देने वाली स्त्री का चरित्र सुरक्षित नहीं रहता। इस तरह ये पूरा विमर्श ही पुरुष के नज़रिए से संचालित होता है और समान “अपराध” के लिए जहाँ स्त्री दोषी है वहीं पुरुष पर कोई दोष नहीं है।

आज के दौर में स्त्री अपने शरीर पर अपने अधिकार की मांग कर रही है, इस मांग के दो बुनयादी आधार हैं, एक तो ये कि वो जिसके साथ चाहे प्रेम और सेक्स का सम्बन्ध जोड़े, इसमें कोई दूसरा किसी भी प्रकार का अवरोध न बने, दूसरा उसके शरीर पर नियंत्रण उसका हो किसी और का नहीं। बुनियादी रूप से ये मांग जायज़ है, एक स्वतंत्र स्त्री ही किसी पुरुष को भरपूर प्रेम कर सकती है, जो स्त्री स्वं ही स्वतंत्र न हो वो प्रेम भी कैसे करेगी! इसलिए स्त्री समूह की ये दोनों ही मांगे व्यापक समाज के हित में हैं। लेकिन पित्रसत्ता स्त्री की इस मांग के सामने कितना झुकेगी ये बड़ा सवाल है, फिर भी ये बात तो तय है कि स्त्री आज जहाँ तक पहुँच गयी है वहां से वो पीछे नहीं जाने वाली, बेहतर यही होगा कि समाज स्त्री को उसका सम्मानजनक स्थान स्वं आगे बढ़ कर दे दे।

अंत में ये देखना ज़रूरी है कि सियासत समाज को किस तरह के मुद्दों पर विमर्श के लिए बाध्य करती हैं और जनता के हित में काम करने वालों को किस तरह के विमर्श को प्राथमिकता देनी चाहिए। हालांकि सूचना तंत्र पूरी तरह सत्तावर्ग के हाथ में है, इसलिए विमर्श के मुद्दे चुनने और उन्हें प्रसारित करने का स्कोप आम जनता के पास बहुत कम है, लेकिन जिनता है उनका तो उपयोग किया ही जाना चाहिये।

ऊपर जिन कुछ मुद्दों पर बात की गयी है, इनमें से एक भी हमारी ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों से जुड़ा हुआ नहीं है। सत्ता वर्ग अपनी ताकत के बल पर हमें विवश करता है कि हम गैरज़रूरी मुद्दों पर बात करें। इसके दो कारण हैं, प्रथम तो इस तरह के मुद्दे हमारी भावनाओं से जुड़ते हैं, इन पर अनंत काल तक बिना किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बात हो सकती है, यही नहीं इन मुद्दों पर आप किसी निष्कर्ष पर पहुँचे तो भी और न पहुँचे तो भी, सत्ता वर्ग को कोई कष्ट नहीं होता। लेकिन शिक्षा, सेहत, रोज़गार और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर बहस आपको आपके अधिकारों के प्रति सचेत करेगी, आप इनकी मांग के लिए सत्ता वर्ग से लड़ेंगे और ऐसे में पूंजीपतियों के लिए देश और दुनिया को लूटना मुश्किल हो जायेगा। अब आपको तय करना है कि आप अपने लिए सोचेंगे, विचारेंगे और लड़ेंगे या पूंजीपतियों के हित में हवा-हवाई मुद्दों पर बहस करते हुए अपने ही आसपास के लोगों से लड़ेंगे, यही आज का सबसे बड़ा सवाल है और आपको अपना पक्ष चुनना है !

डॉ. सलमान अरशद स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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