पिछले लेख में अरुण सिंह ने रासायनिक खेती से जैविक खेती की ओर लौटने में आने वाली चुनौतियों के विषय में बताया था। इस लेख में वे बता रहे हैं कि रासायनिक खेती के उदय और विकास में लगी वैश्विक शक्तियों ने दुनियाभर के लोगों का पेट भरने के लिए रासायनिक खेती की अनिवार्यता पर जोर दिया ताकि पर्याप्त अनाज पैदा किया जा सके और दूसरी ओर उन्होंने पारम्परिक खेती को पूरी तरह से तहस-नहस करने के मंसूबे पर काम किया। इतिहास की छानबीन करने से यह बात सामने आती है कि इन कंपनियों के कई चेहरे थे जो संकट की दुहाई देकर समाधान पैदा करने का दावा करके अपने मुनाफे को बढ़ाने में लगी थीं।
रासायनिक खेती की शुरुआत द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुई, जब द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के उपरांत रासायनिक हथियारों के निर्माण में संलग्न कंपनियां रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशी और आनुवंशिक रूप से संशोधित बीज के निर्माण में लग गई। अपने इस उत्पाद को बेचने के लिए रासायनिक कंपनियों ने माल्थस के सिद्धांत को हथियार बनाया।
माल्थस एक ब्रिटिश अर्थशास्त्री और जनसांख्यिकीविद थे। उन्होंने जनसंख्या के सिद्धांत पर 1778 में एक निबंध लिखा। अपने निबंध में उन्होंने कहा कि जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में खाद्यान्न उत्पादन कम होता है, इसके कारण पूरी दुनिया में खाद्यान्न का संकट हो जाएगा। लोग अकाल और भुखमरी के शिकार हो जाएंगे।
जनसंख्या के नियंत्रण के लिए उन्होंने दो उपाय सुझाया। पहला प्रकृति जनसंख्या पर नियंत्रण स्वयं करती है। महामारी, अकाल, बाढ़, भूकंप, युद्ध आदि से मृत्यु दर में वृद्धि होती है और जनसंख्या कम हो जाती है, इस तरह जनसंख्या और खाद्य संतुलन बहाल हो जाता है लेकिन जनसंख्या वृद्धि का यह प्राकृतिक नियंत्रण मनुष्य के लिए बहुत कष्टकारी है। इसलिए उन्होंने दूसरा सुझाव दिया कि कृत्रिम तरीके से जनसंख्या वृद्धि को रोका जाए। आत्म संयम, ब्रह्मचर्य पालन, विवाह न करना, देर से विवाह करना आदि। माल्थस के इस सिद्धांत का काफी विरोध हुआ। विद्वानों ने इसे अवास्तविक कहा।
फिलहाल रासायनिक कंपनियों को अपने उत्पाद खाद और बीज को बेचना था इसलिए माल्थस के सिद्धांत को आधार बनाकर कंपनियां पूरे जोर-शोर से इस प्रचार में लग गई कि अगर खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के साथ जनसंख्या नियंत्रण नहीं किया गया तो पूरी दुनिया को भुखमरी का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। साथ ही साथ सरकारों पर कृषि नीति में बदलाव करने का भी दबाव बनाया।
खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए राकफेलर फाउंडेशन द्वारा 1941 में कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश करने के बाद जनसंख्या नियंत्रण करने के कार्यक्रम में भी निवेश किया गया। 1952 में राकफेलर फाउंडेशन के जनक जान डी राकफेलर ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए विलियम्स बर्ग, वर्जीनिया में 31 विशेषज्ञों की बैठक बुलाई। बैठक में जनसंख्या परिषद का गठन किया गया और उसके अध्यक्ष जान डी राकफेलर बनाए गए।
साल 1956 में महिलाओं पर गर्भनिरोधक का पहली बार परीक्षण किया गया। जनसंख्या परिषद के गठन के बाद भारत में भी 1952 में ही जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए न्यासी जनसंख्या रणनीति बोर्ड का गठन किया गया।
जनसंख्या परिषद के बारे में अमेरिकी इतिहासकार लिंडा गार्डन का कहना था कि जनसंख्या परिषद के चिकित्सा और वैज्ञानिक बोर्ड के 10 सदस्यों में से 6 सदस्य यूजिनीक्स आंदोलन (निम्नतर समझे जाने वाले लोगों और समूहों को बाहर करके श्रेष्ठ समझे जाने वाले लोगों को बढ़ावा देकर मानव जीन पूल को बदलने का प्रयास किया जाना) से जुड़े थे। फाउंडेशन पर आरोप है कि उसने जर्मन यूजीनिक्स रिसर्चरों को अनुदान दिया था। यूजिनिस्टो (हिटलर भी इसका अनुयाई था) का एक लंबा, भयानक और दिल दहला देने वाला इतिहास रहा है।
माल्थस और यूजीनिक्स के सिद्धांतों ने दुनिया की मानव जाति को भूख से छुटकारा दिलाने और निम्नतर की जगह श्रेष्ठ प्रजातियों के उत्पादन के नाम पर दुनिया से खाद्यान्नों की विविधता और उसकी विविध प्रजातियों को नष्ट कर दिया। पारंपरिक खेती, जैविक खाद, परंपरागत स्थानीय बीज, सिंचाई के परंपरागत साधन, फसलों की विविधता, फसल चक्र, हाइब्रिड बीज के अलावा अन्य किसी बीज अनुसंधान के लिए संस्थानों को शोध के लिए पैसों की सरकार द्वारा मदद देना आदि निम्नतर मान लिए गए और उनके जीन पूलो को बदल दिया गया। इसका नया रूप कॉर्पोरेट खेती, रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवार नाशक दवाएं, हाइब्रिड बीज, जीएम बीज, एकल फसल (धान, गेहूं, मक्का) आ गया।
फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार बीती एक सदी में दुनिया से 90 फीसदी से ज्यादा अनाज की किस्में गायब हो चुकी हैं। अब जो वेरायटी बची है उसमें से भी कुछ ही प्रजातियों के उत्पादन पर जोर है, यह एक भयानक स्थिति है। भारत में ज्वार, बाजरा, जौ, मक्का, सावा, कोदो, मूंग, अरहर, उरद, अलसी (तीसी) बेर्रा (छोटी मटर) राई, कुट्टू, रागी आदि जैसी सैकड़ो अनाज की किस्में निम्नतर मान ली गई, जो आज अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संघर्ष कर रही हैं।
मुगल लेखक अबुल फजल ने आईने अकबरी में लिखा है कि आगरा में 39 किस्म और दिल्ली प्रांत में 43 किस्म की फैसले बोई जाती थी। बंगाल में धान की ही 50 किस्में पैदा की जाती थी।
रासायनिक कंपनियों द्वारा उत्पादित रासायनिक खादों, दवाओं और आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों को कृषि में प्रयोग करने के इतिहास की गहराई से छानबीन करने से पता चल सकता है कि दुनिया भर की सरकारों ने जानबूझकर सोची समझी रणनीति के तहत रासायनिक कंपनियों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से इसकी अनुमति दिया और अपनी कृषि नीतियों में बदलाव किया। इसका खाद्यान्न सुरक्षा से कोई संबंध नहीं था। कृषि नीति में बदलाव के साथ किसानों पर भी दबाव बनाया गया।
रासायनिक खाद, कीटनाशक, हाइब्रिड बीज, तथा जीएम बीज बनाने वाली यह वही कंपनियां हैं जो प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध तथा वियतनाम युद्ध में अपने घातक रासायनिक हथियारों और जहरीली गैसों के द्वारा करोड़ों लोगों की हत्याओं की अपराधी हैं।
दुनिया की दैत्याकार कंपनियों में शुमार बायर, मोनसेंटो, (2018 में बायर ने मोनसेंटो का अधिग्रहण कर लिया) नुफार्मा, एडामा, सिजेंटा, सुमितोमो, राकफेलर फाउंडेशन, फोर्ड फाउंडेशन, कारगिल, बंज, ग्लेन कोर इंटरनेशनल, लुई ड्रेफस आदि कंपनियों का रासायनिक खादों, दवाओं, बीजों के उत्पादन और खाद्य पदार्थ के व्यापार पर पूरा नियंत्रण है। इन विशाल कंपनियों की करगुजारियां भी विशाल हैं जिसकी चर्चा एक अलग ही विषय है। इन सभी कंपनियों की कारस्तानियों को समझने के लिए जर्मनी की बायर और अमेरिका की मोनसेंटो कंपनी की चर्चा ही काफी होगी कि खाद्यान्न सुरक्षा और जनसंख्या नियंत्रण करने की लंबरदार कंपनियां वास्तव में मानव हत्यारी हैं।
प्रथम विश्व युद्ध में बायर कंपनी घातक रासायनिक हथियारों के उत्पादन और उसके विकास में शामिल रही हैं। 2014 में कंपनी ने 105 एमएम तोपों के गोलों में उपयोग के लिए डायनिसिडिन क्लोरोसल्फेट का निर्माण किया। इस रसायन के संपर्क में आने वाले लोगों के फेफड़ों में जलन होती है। बीएएसएफ और होचेस्ट कंपनी के साथ मिलकर बायर ने प्रथम विश्व युद्ध में क्लोरीन गैस विकसित किया जिसका प्रयोग प्रथम विश्व युद्ध में पहली बार रासायनिक हथियार के रूप में जर्मनी द्वारा किया गया।
तीनों कंपनियों ने प्रथम विश्व युद्ध में बड़े पैमाने पर जहरीली गैसें (क्लोरीन, फास्जिन और मस्टर्ड) का उत्पादन किया। जिसका उपयोग जर्मनी ने युद्ध में किया। इन गैसों के कारण लगभग 13 लाख लोग हताहत हुए। रासायनिक हथियारों की बिक्री से इन कंपनियों को इतनी कमाई हुई कि उसने 1914-15 में 12.5 बिलियन डॉलर का राजस्व अदा किया।
साल 1925 में बायर बीएएसएफ और होचेस्ट कंपनियों ने मिलकर एक विशाल कंपनी आईजी फोरबेन केमिकल्स का गठन किया। आईजी फोरबेन ने 1930 में हिटलर के चुनाव में सबसे ज्यादा पैसा खर्च किया। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के बाद कंपनी ने जर्मनी के लिए हथियारों और घातक जहरीले रसायनों के उत्पादन और उसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही कंपनी ने कई जहरीली गैसों का निर्माण किया। कंपनी ने क्रिस्टलीकृत प्रूसिड एसिड का निर्माण किया। प्रूसिड एसिड का क्रिस्टल कंटेनर से निकलने के बाद घातक साइनाइड गैस छोड़ता था। जिसका उपयोग नाजी सेना द्वारा ऑशवित्ज, दचाऊ और गुसेन के कैदी शिविरों में कैदियों की हत्या करने के लिए किया गया।
कंपनी ने अपनी दवाओं के परीक्षण के लिए भी कैदियों का उपयोग किया। विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद न्यूरेमबर्ग मुकदमे के दौरान प्रस्तुत किए गए प्रमाणों में पाया गया कि कंपनी की दवाओं के परीक्षण के दौरान हजारों हजार कैदी मर गए। दवाओं के दुष्प्रभाव के कारण हजारों कैदी विकलांग और अन्य रोगों तथा जटिलताओं से पीड़ित हो गए। जिनके ऊपर पुनः दवाओं का परीक्षण किया जाता था और बाद में उनकी हत्या कर दी जाती थी। कंपनी इन कैदियों से मुफ्त में काम भी करवाती थी। दस्तावेजों के अनुसार उस समय कंपनी में कुल 330000 श्रमिक काम कर रहे थे जिसमें से आधे दास मजदूर थे। दस्तावेज इस बात की पुष्टि करते हैं कि ऑशवित्ज कैद खाने के ही 30000 कैदी कंपनी में दास मजदूर थे।
बायर कंपनी अमेरिका, यूरोप, एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, और न्यूजीलैंड तक फैली हुई है। कंपनी का इतिहास अपराधों से भरा है। 1898 में कंपनी ने सर्दी और खांसी की दवा में हेरोइन मिलाया और हेरोइन को दवा के रूप में बेचने वाली पहली कंपनी बनी। कंपनी ने याज और यास्मीन नमक गर्भनिरोधक दवा बाजार में उतरा। इस दवा के खाने से महिलाओं में रक्त के थक्के बनना, पित्तासय से संबंधी जटिलता, दिल का दौरा और स्ट्रोक जैसी बीमारियां बढ़ गई। कंपनी के खिलाफ हजारों मुकदमे दर्ज किए गए। मुकदमे में दावा किया गया कि इसके खाने से हजारों महिलाओं की मृत्यु हो गई। कंपनी ने जानबूझकर जोखिम के बारे में जानकारी छिपाई और उपभोक्ताओं को गुमराह किया।
अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने 2012 में पुष्टि किया कि गर्भनिरोधक दवा में प्रयोग किए जाने वाला रसायन ड्रोसपाइरोन से रक्त के थक्के जमने की जोखिम 3 गुना बढ़ जाती है। कंपनी के ऊपर रक्तस्राव के 22000 मुकदमे अमेरिका के लुसियाना की एक अदालत में चल रहा है। कंपनी द्वारा उत्पादित मिरेना गर्भ निरोधक के खिलाफ भी हजारों मुकदमे महिलाओं द्वारा अमेरिका में दर्ज किए गए हैं। अमेरिका में कंपनी द्वारा उत्पादित दवाइयां एवलाक्स सिप्रो, सिप्रो एक्स आर, फैक्टिक फ्लाक्सिन, जैगम, लेवाक्विन, मैक्साक्विन, एक्स आर को खाने से पड़ने वाले दुष्प्रभाव पर उपभोक्ताओं को मुआवजा पाने का अधिकार है। अमेरिका में लाखों लोगों को यह दवाइयां दी जाती हैं।
कंपनी पर 1980 के दशक में जानबूझकर एशिया और लैटिन अमेरिका में रोगियों को एचआईवी संक्रमित हिमोफिलिया (यह अनुवांशिक रोग है जिसमें चोट लगने या कट जाने पर खून का बहना बंद नहीं होता है) की दवा आपूर्ति करने का आरोप है, जिससे हजारों लोग हेपेटाइटिस और एचआईवी पॉजीटिव पाए गए बाद में उन्हें एड्स हो गया। 2019 में कंपनी द्वारा हृदय प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत करने के लिए बनाई गई विटामिन वन ए डे को प्रचारित करने के लिए उपभोक्ताओं को गलत जानकारी देने पर अमेरिका के सैनफ्रांसिस्को की संघीय अदालत में मुकदमा दायर किया गया।
मोनसेंटो अमेरिका की सबसे बदनाम और आपराधिक गतिविधियों में शामिल कंपनी है, इसने द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका के परमाणु हथियार बनाने में मदद किया था, जिसे जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में गिराया गया। परमाणु बम से दोनों शहरों में लाखों लोग पलक झपकते ही जल कर राख में बदल गए। आज भी वहां के लोग परमाणु विकिरण के दंश झेल रहे हैं।
वियतनाम युद्ध में कंपनी द्वारा बनाई गई रासायनिक खरपतवार नाशक दवा एजेंट ऑरेंज का प्रयोग अमेरिकी सेना द्वारा ऑपरेशन रेच हैंड के दौरान किया गया, इस रासायनिक दवा से वियतनाम के 40 लाख लोग प्रभावित हुए थे। 30 लाख से अधिक लोग विकलांगता और कैंसर सहित तमाम अन्य बीमारियों से ग्रसित हुए थे। 7 करोड़ 70 लाख एकड़ जंगल नष्ट हो गए। पशु, पक्षियों और कीटों की कई प्रजातियां नष्ट हो गई।
भोपाल गैस कांड को कौन भारतीय भूल सकता है, जब रासायनिक कीटनाशक दवा बनाने वाली अमेरिकी स्वामित्व की कंपनी यूनियन कार्बाइड से लीक हुई मिथाइल आइसोसायनाइड गैस से हजारों लोग रात में नींद में ही मर गए। 2006 में भोपाल सरकार ने अपने हलफनामे में स्वीकार किया था कि इस जहरीली गैस से 558125 लोग सीधे प्रभावित हुए थे। आंशिक तौर पर प्रभावित होने वालों की संख्या 38478 थी। 3900 लोग बुरी तरह से प्रभावित हुए और पूरी तरह से अपंगता के शिकार हो गए। 2159 लोगों की मौतें हुई। 2013 में सरकार ने 3928 लोगों के मौत की पुष्टि किया।
वहीं 2003 में भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग के अनुसार 554895 घायलों और 15310 मृत लोगों के वारिशों को मुआवजा दिया गया। जबकि बीबीसी संवाददाता सलमान रावी के अनुसार भोपाल गैस कांड में लगभग 25000 लोग मारे गए थे इस गैस के प्रभाव से आज भी लोग पीड़ित हैं।
खाद्यान्न उत्पादन और खाद्यान्न व्यापार में लगी इन दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आपराधिक इतिहास केवल युद्ध का मैदान ही नहीं है, मानव स्वास्थ्य भी है। इनके द्वारा बनाई गई खाद, बीज, दवा और खाद्य पदार्थों के व्यापार से मानव स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ रहा है और कितने लोग असमय बेमौत मर रहे हैं इसका लेखा-जोखा किसी युद्ध की विभीषिका से कम तो कतई नहीं है।
इन्हीं हत्यारी कंपनियों को मानव जाति को भूख से छुटकारा दिलाने की जिम्मेदारी दी गई है। कंपनियों द्वारा उत्पादित घातक जहरीले रसायन मिट्टी, पानी और हवा में घुल रहे हैं जिन्हें रोजमर्रा की जिंदगी में हम लोग भोजन, पानी, दवा, श्वसन के माध्यम से हर दिन हर पल ग्रहण कर रहे हैं। इन कंपनियों ने अपने मुनाफे के लिए संपूर्ण जीव जगत (जंतु और वनस्पति) के साथ पूरी पृथ्वी और उसके वायुमंडल को जहरीला बना दिया है।
क्या रासायनिक खेती से मिल सकती है निजात? अगली कड़ी में…!
पहली कड़ी यहाँ देखें-
रासायनिक खेती का सच : कारपोरेट खेती और जहरीले खाद्यान से कैसे मिलेगी निजात?