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वर्ग तथा जातीय उत्पीड़न के बीच मजदूर वर्ग का पक्ष!

वर्ग के अंदर के अंतर्विरोध में जातीय उत्पीड़न उपेक्षा के रूप में आता है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के दलित मंत्री के इस्तीफा देना की घटना को इसी तरह के उत्पीड़न की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसका स्वरूप है  लूट में हिस्सेदारी और महत्व का नहीं मिलना, लेकिन जब मजदूर वर्ग तथा अन्य […]

वर्ग के अंदर के अंतर्विरोध में जातीय उत्पीड़न उपेक्षा के रूप में आता है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के दलित मंत्री के इस्तीफा देना की घटना को इसी तरह के उत्पीड़न की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसका स्वरूप है  लूट में हिस्सेदारी और महत्व का नहीं मिलना, लेकिन जब मजदूर वर्ग तथा अन्य मेहनतकश वर्ग का जातीय उत्पीड़न होता है तो वह भयावह होता है। मेहनतकशों की उपेक्षा व उत्पीड़न ठाकुर का कुंआ और सद्गति जैसी कहानियों के उत्पीड़न के रूप में होता है। आधुनिक युग में कार्यस्थल पर उन्हें साथ उठने-बैठने से लेकर संबोधन के रूप में होता है, कई कार्य आज भी उनके हिस्से में अमानवीय स्थिति में करने की मजबूरी के रूप में होता है। गटर में डुबकी लगाकर सफाई करने वाले मजदूरों का जातीय उत्पीड़न और मिस्टर खटीक के जातीय उत्पीड़न में फर्क है। पिछले दशकों में आमतौर पर जातीय उत्पीड़न का विमर्श पढ़े-लिखे मध्यवर्ग और सत्ता में भागीदारी के लिए संघर्ष करते उपेक्षित समाज के खाते-पीते वर्ग तक सीमित हो गया, जबकि जातीय उत्पीड़न सबसे ज्यादा मेहनतकशों की होती रही है। ऐसी स्थिति में जातीय उत्पीड़न के स्वरूप की गहरी खुदाई करके मेहनतकशों का जो जातीय उत्पीड़न होता है, उसे विमर्श की अग्रिम पंक्ति में लाना होगा। आज भी अंतरजातीय शादियों में जो ज्यादा हत्याएं हो रही हैं, वह शोषित वर्ग की उत्पीड़ित जातियों का ही हो रहा है। कई दलित नेताओं ने ऊंची जातियों में शादियां की, लेकिन वहां पर ऑनर किलिंग की स्थिति नहीं बनती है। इसलिए वर्ग और जातीय उत्पीड़न का संबंध बड़ा गहरा है। इस गहरी स्थिति में मेहनतकश वर्गों के पक्ष में खड़ा होकर ही जातीय उत्पीड़न के सही प्रश्न को संबोधित किया जा सकता है।

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किसी भी तरह के उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए समाज का जनवादीकरण होना आवश्यक है। कम्युनिस्ट तथा मेहनतकशों के आंदोलन में भी खाते-पीते वर्ग से आने वाले लोग अपने वर्गीय तथा जातीय पूर्वाग्रहों और संस्कृति को लेकर आते हैं। इसलिए आप जहां भी कहीं हों, शासक वर्ग के खिलाफ और खुद के खिलाफ भी आपको जनवादी उसूलों के लिए संघर्ष करना होगा। आपको अपनी बात कहने का अधिकार है, बहस करने का अधिकार है, लेकिन आप दूसरे के अधिकारों की उपेक्षा करके, अपने पूर्व से अर्जित क्षमता के कारण हावी नहीं हो सकते हैं। यही वह स्थिति है जिस पर विचार करना होगा कि ऐसा क्यों होता है?

ऐसा इसलिए हो रहा है कि समाज वर्गों तथा सदियों से उत्पीड़क तथा उत्पीड़ित जातियों में, समाजों में और क्षेत्रीय रूप में बंटा आ रहा है जिसमें सक्षम वर्ग तथा समाज ने पिछड़े समाज, वर्ग तथा प्रदेश पर शासन किया है। इस स्थिति को खत्म करना होगा।

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नये जनवाद की ऐसी व्यवस्था का नाम समाजवाद है लेकिन यह समाजवाद तब तक लागू नहीं हो सकता है जब तक कि उत्पीड़क वर्ग तथा समाज को नियंत्रण में ना लाया जाए। इसलिए बहुमत आबादी के जनवाद को लागू करने के लिए आवश्यक है कि जो मुट्ठी भर अल्पसंख्यक हैं, उनके ऊपर नियंत्रण किया जाए। ऐसी परिस्थिति को लागू करते हुए लेनिन तथा स्टालिन ने सोवियत संघ में शासक वर्ग के अधिकारों पर नियंत्रण किया तथा मेहनतकशों के अधिकार को बहाल किया। इतना ही नहीं उन्होंने उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के भी अधिकारों को अलग से रेखांकित किया और उसे सुरक्षित करने के लिए, उन्हें विकसित होकर पहले से विकसित समाज के स्तर पर आने के लिए अतिरिक्त सुविधाएं उपलब्ध कराई। इसलिए वास्तविक जनवाद सिर्फ समाजवाद में ही लागू हो सकता है जिसके शासन का आधार है ‘पहले से सुविधा संपन्न सभी वर्गों के दूसरों का शोषण व उत्पीड़ित करने के सभी अधिकारों और प्रवृत्तियों’ पर रोक लगाना।

हमारे देश सहित पूरी दुनिया के लिबरल्स कराह उठते हैं, जब प्रभुत्वशाली वर्गों के अधिकार की कटौती की बात की जाती है, लेकिन वे ऐसी कोई भी रूपरेखा नहीं रख पाते हैं, जिसमें शोषकों के अधिकारों पर नियंत्रण किए बगैर उपेक्षित तथा शोषित वर्ग के जनवाद के अधिकारों को कैसे लागू किया जाएगा? प्रभुत्वशाली वर्गों के अधिकारों पर लगाम लगाने के क्रम में कई गलतियां हो सकती हैं, हम ज्यादा से ज्यादा सावधानी ही बरत सकते हैं। लेकिन इसके नाम पर पूँजीवादी जनतंत्र के जुमलों की आड़ में शोषक वर्गों को खुली छूट नहीं दी जा सकती है। यह खुली छूट शोषित वर्गों के जनवादी अधिकार पर हमले का चोर दरवाजा बन जाता है और पूरी दुनिया में लिबरल्स इस चोर दरवाजे की पहरेदारी के लिए बड़े सजग होकर बहस चलाते हैं।

हमें मजबूती के साथ मजदूर वर्ग के दृष्टिकोण के साथ मेहनतकशों के पक्ष में खड़े रहना है।

नरेन्द्र कुमार लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।

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